शनिवार, अगस्त 27, 2011

सम्बुद्धि

कल हम चार लोग - मैं, मेरी पत्नी, मेरी छोटी बहन, और मेरी पत्नी की मझली बहन - मेरे छोटे भाई की पत्नी, जो कि पिछले दस दिनों से गुडगाँव के एक प्रसिद्ध अस्पताल के आईसीयू में भर्ती है, को देखने गये। अस्पताल के नियमों के मुताबिक दिन में दो बार – दोपहर में बारह बजे और शाम को सात बजे – सिर्फ पन्द्रह मिनट के लिए केवल एक व्यक्ति को ही आईसीयू में जाकर मरीज को देखने की इज़ाजत है। इसलिए अस्पताल में हमारे जाने का मुख्य उद्देश्य डॉक्टर से मरीज की वर्तमान मेडिकल स्थिति के बारे में और उनके आगे की चिकित्सा सम्बन्धी कार्ययोजना के बारे में जानकारी प्राप्त करना तथा अपने छोटे भाई और उसके पुत्र को व्यक्तिगत सम्बल प्रदान करना होता है। डॉक्टर ने बताया कि उनके विचार से अब स्थिति स्थिर हो गयी है और वे शाम तक मरीज को आईसीयू से प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट कर देंगे। उन्होंने इस स्थिति को बीच की स्थिति बताया, यानि उनके विचार से यह संकट की स्थिति से बाहर आने की स्थिति है और इसके बाद सुधार की प्रक्रिया शुरू होगी। अभी लगभग एक सप्ताह और रहना होगा उस अस्पताल में और उसके बाद स्थानीय अस्पताल में इलाज की आगे की प्रक्रिया शुरू होगी। मरीज के शरीर का पूरा दाँया भाग क्योंकि लगभग निष्क्रिय हो गया है, इसलिए दवाओं और नसों की कसरतों के साथ मरीज के बोल पाने और चलने-फिरने लायक होने में अभी महीनों लगेंगे। मैं कुछ घंटे भाई के साथ रहा, उसकी पत्नी के बच जाने पर ईश्वर को धन्यवाद दिया और अब आगे क्या और कैसे करना है, इसके बारे में आपस में मंत्रणा की। शाम को सात बजे के करीब हम वहाँ से वापस घर के लिए चल दिये।

वापसी में मेरी पत्नी की मझली बहन ने अतीत की तकलीफें गिनाने और भविष्य के अनिश्चय और आशंकाओं के बारे में ऐसा निर्बाध बोलना शुरू किया कि मुझे विवश होकर उसे चुप रहने के लिए कहना पड़ा। हम मुश्किल हालात से गुजर रहे हैं, मैं अपना पूरा ध्यान आज की स्थिति पर रखना चाहता हूँ, और उसके अनुसार खुद को तैयार करना चाहता हूँ। जो गुजर गया सो गुजर गया, उन पीड़ाओं को दिल से लगाये रखने से क्या मिलेगा? जो अभी आया नहीं, भविष्य है, उसके प्रति आशंकित रहने से क्या मिलने वाला है? कल तक हम सोचते थे किसी तरह हमारे मरीज की जान बच जाये, जान बच गयी तो हम अतीत की पीड़ायें गिनने लगे और भविष्य के प्रति मन में आशंकायें पालने लगे। ज्ञान और सामर्थ्य के सीमित होने पर अप्रिय हालात से लड़ने के लिए धैर्य रखना होता है। कुछ अप्रत्याशित अप्रिय घट जाने पर स्थिति से निबटने के लिए खुद को संभालना होता है, हौसला रखना होता है। मुझे ये सब बातें हौसला तोड़ने वाली लगती हैं। मुझे एक प्रतीक कथा स्मरण हो आयी:

एक बार सिकन्दर को एक फकीर के हाथ में बहुत चमकदार वस्तु दिखायी दी। सिकन्दर ने फकीर को पास बुलाया और उससे उस अद्वितीय चमकीली वस्तु के बारे में जानना चाहा। फकीर बोला कि मैं इसके बारे में नहीं बता सकता। सिकन्दर बोला कि हारना मैंने सीखा नहीं, तुम्हें बताना पड़ेगा कि यह चीज क्या है। फकीर बोला कि मैं नहीं बता सकता, सिर्फ इतना कह सकता हूँ कि तुम्हारी सारी धन दौलत इसके आगे कुछ भी नहीं है, बहुत हल्की है। आग्रही सिकन्दर ने फौरन एक बहुत विशाल तराजू मंगायी और उसके एक पलड़े में अपने सारे रत्न, हीरे, जवाहरात, सोना, चाँदी सब रख दिये और फकीर से दूसरे पलड़े में वो चमकीली वस्तु रखने के लिए कहा। फकीर ने तराजू के दूसरे खाली पलड़े में वो वस्तु रख दी। ऐसा करते ही ऊपर उठा हुआ वो खाली पलड़ा जमीन पर टिक गया और हीरे, जवाहरात, सोने, चाँदी वाला पलड़ा ऊपर उठ गया। सिकन्दर की आँखे हैरानी से फटी रह गयीं। वो फकीर के चरणों से लिपट गया और उस चीज के बारे में जानने की जिज्ञासा जाहिर की। फकीर बोला कि अब मैं तुमको इसके बारे में बता सकता हूँ क्योंकि अब यह तुम्हारा दम्भ और आग्रह नहीं बल्कि जिज्ञासा है। फकीर ने एक चुटकी मिट्टी ली और उस चमकीली वस्तु पर ड़ाल दी। यकायक चमकीली वस्तु वाला पलड़ा ऊपर उठ गया और हीरे, जवाहरात, सोने, चाँदी वाला पलड़ा नीचा हो गया। सिकन्दर की जिज्ञासा और बढ़ गयी, वह फकीर के चरणों में दण्डवत हो गया। फकीर ने कहा यह वस्तु कोई विचित्र वस्तु नहीं है, यह सम्बुद्धि है, मनुष्य के मन की आँख है यह। अद्भुत है, अमूल्य है, लेकिन जरा सी धूल पड़ जाये इस पर तो दो कौड़ी की होकर रह जाती है यह।

हम लोग अपने मन की आँख पर जाने कैसी-कैसी धूल, मिट्टी ड़ाले रहते हैं। अतीत एक बुझा हुआ अंगारा ही तो है, चिंगारी भी नहीं, राख ही राख है। हम अपने मन की आँख पर ड़ाले रहते हैं उसे। भविष्य एक धुंध ही तो है। जैसे सूरज पर बादलों का घेरा हो जाये। सूरज की रोशनी के लिए इन राख और धुंध के बादलों का छटना ज़रूरी है। अतीत है नहीं क्योंकि गुजर चुका, भविष्य है नहीं क्योंकि अभी आया नहीं, जो है वो वर्तमान है। हम वर्तमान में जीना क्यों नहीं चाहते? अतीत के दुखों को याद करके मरते रहते हैं, भविष्य की आशंकायें पाल कर मरते रहते हैं, जीते कहाँ हैं हम? जो है उसमें जीना नहीं, उसे संवारना नहीं, जो नहीं है उसमें मरते रहना नियति बना ली है हमने अपनी। दोषी परमात्मा नहीं, दोषी कोई और नहीं, दोषी हम खुद हैं क्योंकि ज़िन्दगी को जीने की आदत ही नहीं ड़ाली हमने। ज़िन्दगी वर्तमान है, वर्तमान में जीना कब सीखेंगे हम?
- राजेन्द्र चौधरी

3 टिप्‍पणियां:

  1. राहत प्रदान करने वाला विचार। अमल करने का प्रयास करूँगा।

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    1. प्रदीप जी, मेरा ब्लॉग लेख पढ़ने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद। आपकी टिप्पणी मेरा उत्साहवर्धन करेगी। आभार और नमस्कार।

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  2. राहत प्रदान करने वाला विचार। अमल करने का प्रयास करूँगा।

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