मैंने महसूस किया है कि बचपन से आज तक जैसे-जैसे मेरी आयु, मेरी परिपक्वता, और मेरा अनुभव बढ़ा है, मेरी जिज्ञासा और मेरी चाह मूर्त, गोचर, स्पर्श्य जिसे अंग्रेज़ी भाषा में Tangibles कहा जाता है के बजाय अमूर्त, अगोचर, अस्पर्श्य यानि Intangibles के प्रति अधिक बढ़ी है। बल्कि सच कहा जाये तो ये अमूर्त चीजें ही मुझे सदैव अमूल्य लगी हैं। दुनियादारी के इस मूर्त जीवन में निश्चय ही मूर्त वस्तुएं आवश्यक हैं लेकिन अमूर्त वस्तुओं का होना अनिवार्य है। पर्याप्त धन, दौलत, साधन, सुविधायें होना ज़रूरी हैं इस दुनिया में ढ़ंग से जीने के लिए, लेकिन सोचो अगर ये सब हों और प्रतिष्ठा न हो; ये सब हों और प्यार न हो; विश्वास न हो; अनुभूति न हो; संवेदना न हो; जिज्ञासा न हो; मर्यादा न हो; इंसानियत न हो; या फिर ऊर्जा न हो, तो किस काम के ये सब?
मैं कई बार सोचता हूँ कि आईना न होता तो कैसे पता चलता हमारा चेहरा कैसा है? स्थिर पानी में भी सही से अक्स कहाँ दिख पाता है चेहरे का? खुद को नहीं देख पाते तो खुद से प्रेम कैसे होता? जीते रहते बेहिस यूँ ही। कभी किसी दूसरे व्यक्ति की आँखों में देख लेने भर से या उसके प्रति आदर या स्नेह की अभिव्यक्ति भर से अगर उस व्यक्ति के चेहरे पर एक चमक, एक खुशी पैदा हुई तो कितना अच्छा लगता है खुद को, कितना सार्थक लगने लगता है अपना वजूद, अपना अस्तित्व? हमारी दृष्टि कौन सी मूर्त वस्तु थमा देती है उस व्यक्ति को? कोई नहीं। पर ऐसा करके हम उसके जीवन में एक उमंग भर देते हैं और खुद के लिए भी जीवन का एक अर्थ मिल जाता है हमें। मेरे लिये प्यार या प्रेम की परिभाषा बस यही है, बाकी सब तो शब्दजाल है, अलंकार है।
प्रेम हमारे जीवन को मायने देता है। मैं प्रेम को आत्मा का भोजन मानता हूँ। प्रेम आत्मा में छिपी हुई परमात्मा की ऊर्जा है। प्रेम आत्मा में निहित परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग है। तभी तो कहा भी जाता है कि परमात्मा तक पहुंचने के दो ही मार्ग हैं – प्रेम का मार्ग और ज्ञान का मार्ग। प्रेम अगर आत्मा का भोजन है तो बिना भोजन के आत्मा छटपटायेगी भी, अस्वस्थ भी होगी ही। इसीलिए जब बेहद नकारात्मक बातें करने वाला कोई व्यक्ति मुझे मिलता है, तो मैं अपने आप से कहता हूँ कि अस्वस्थ आत्मा का वाहक है वो, बीमार है वो। उसने कभी किसी को सही अर्थों में प्यार किया नहीं, और शायद सही अर्थों में प्यार पाया नहीं। प्रेम आत्मा को स्वस्थ बनाता है। आत्मा अस्वस्थ होगी तो उसमें छिपी परमात्मा की ऊर्जा स्वस्थ कैसे होगी? इसीलिए मेरा मानना है कि ऐसा व्यक्ति लाख पूजा-पाठ करे, लाख कथा-सत्संग सुने, परमात्मा उसकी पहुँच से दूर ही रहेगा। परमात्मा का अंश ही तो है हमारी देह में छिपी हुई आत्मा भी। शरीर तो सिर्फ पात्र है, एक आवरण है आत्मा का। बर्तन में रखी हुई वस्तु ठीक रहे, इसके लिए बर्तन का निर्मल होना भी ज़रूरी है। यानि निर्मल और स्वस्थ देह, उसमें निर्मल और स्वस्थ आत्मा का वास ही हमें निर्मल और स्वस्थ इंसान बनाता है। बाकी सब तो छलावा है, प्रपंच है। प्रेम अमूर्त है, आत्मा अमूर्त है, परमात्मा अमूर्त है। शायद इसीलिए मेरे लिए इस जीवन में ये अमूल्य हैं। प्रेम इन तीनों में पहली कड़ी है।
कभी किसी को निस्वार्थ, निष्पाप, निर्मल मन से प्रेम करके तो देखो, जीवन सार्थक और ऊर्जित लगने लगेगा। खुद ऊर्जित होगे तो दूसरे को ऊर्जा दे पाओगे। सकारात्मक ऊर्जा का विस्तार हो सकेगा। मन स्वस्थ होगा तो तन स्वस्थ होगा, आत्मा स्वस्थ होगी। आत्मा स्वस्थ होगी तो परमात्मा अदृश्य, अप्राप्य ही सही, पर शायद उसका सामीप्य तो महसूस हो सकेगा। बस मेरे लिए तो इतना पर्याप्त है इस जीवन में।
- राजेन्द्र चौधरी
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