शुक्रवार, अगस्त 12, 2011

झूठ और सच

झूठ और सच क्या हैं? कुछ शाश्वत सच को छोड़ दें, तो बाकी के झूठ और सच एक नज़रिया ही तो हैं। एक सिक्के के दो पहलुओं की तरह सच और झूठ में फर्क होते हुए भी ज्यादा फर्क नहीं होता। शायद इसीलिए ‘अपना-अपना सच’ वाक्यांश या मुहावरा गढ़ा गया है। लेकिन क्या कभी आपने झूठ को सच बनते देखा है, नहीं ना? मैंने देखा है – आज इसी झूठ के सच बनने का किस्सा सुनाता हूँ आपको।
बात आज से करीब बयालीस साल पहले की है, तब मैं अपना ग्रेजुएशन कर रहा था। हम लोग उन दिनों मेरठ की एक बाहरी बस्ती में रहते थे। गर्मियों की छुट्टियां थीं, तो अम्मा ने दो-चार दिन के लिए मेरे मामाजी के यहाँ अपने जाने का प्रोग्राम बनाया। पिताजी की अनुमति मिल जाने पर तय हुआ कि मैं अम्मा को मामाजी के गाँव तक जाने वाली बस में बिठा आऊँ। अम्मा रिक्शे में और मैं उनके पीछे-पीछे अपनी साइकिल पर बस स्टैंड के लिए चल दिये। मैंने अम्मा के लिए टिकट खरीदा, उन्हें बस में ठीक सी सीट देख कर बिठाया, उनके चरण स्पर्श किये, और फिर उनकी बस के चल देने पर मैं अपनी साइकिल से घर के लिए वापस चल दिया। थोड़ी दूर चलने के बाद, मुझे लगा कि मेरी दांयी आँख से यकायक दिखना बंद हो गया है। न कोई चोट लगी, न कोई तिनका या कीड़ा गिरा, न धूल गिरी, न कोई दर्द हुआ, बस अचानक दांयी ओर का दिखना बंद हो गया। मैंने साइकिल रोकी, पास के एक नल पर अपना मुँह धोया, आँखों पर पानी के छपके मारे, लेकिन स्थिति जस की तस रही। किसी तरह घर पहुँचा, सौभाग्य से पिताजी घर पर ही थे। उन्हें पूरी बात बतायी, वो बोले - घबराओ नहीं, ठीक से अपना मुँह धोकर आँखें बंद करके लेट जाओ और उन्होंने मेरे छोटे भाई को आँखों की जो दवा घर पर थी (शायद लोकुला) उसे मेरी आँख में ड़ालने के लिए कहा। थोड़ी देर बाद पिताजी ने पूछा कि क्या अब कुछ दिखना शुरू हुआ उस आँख से? मेरे ना कहने पर वो मुझे लेकर पास के ही आँख के एक डॉक्टर के पास पहुँचे। डॉक्टर ने पूरी बात सुनी, मेरी आँख देखी, कुछ दवाइयां दीं खाने के लिए, और साथ ही कह दिया कि अगर सुबह तक आराम न आये, तो डॉ. माथुर को दिखायें।
सुबह तक भी मेरी आँख की स्थिति वैसी ही बनी रही। पिताजी मुझे लेकर डॉ. माथुर के क्लिनिक पर गये। उन दिनों मेरठ में आँखों के दो ही डॉक्टर प्रसिद्ध थे, डॉ. के. जी. माथुर और डॉ. वीरचन्द्र। डॉ. माथुर ने बारीकी से मेरी आँख का मुआयना किया, और पिताजी को परामर्श दिया कि वो मुझे फौरन अलीगढ ले जायें। अलीगढ में उन दिनों उत्तर प्रदेश का आँखों का सर्वोत्तम अस्पताल था। पिताजी के पूछने पर डॉक्टर ने मुझे बाहर बैठने के लिए कहा और उन्हें आँख की आकृति बना कर कुछ मेडिकल भाषा में समझाया। मैंने पिताजी से पूछा तो उन्होंने कुछ बताया नही, सिर्फ इतना कहा कि ठीक हो जायेगा, लेकिन हमें अलीगढ चलना होगा, वहीं पर इस बीमारी के इलाज की सुविधा है। पिताजी ने फिर मुझे डॉ. वीरचन्द्र को भी दिखाया, उन्होंने भी पिताजी को वही राय दी। सौभाग्यवश, अचानक सामने से मामाजी आते दिखायी दिये, और पिताजी व मामाजी ने कुछ पैसों की व्यवस्था की, घर से ज़रूरी चीजें लीं और उसी दिन हम तीनों शाम तक अलीगढ अस्पताल (गांधी नेत्र चिकित्सालय) पहुँच गये। डॉक्टरों ने मेरी आँख का निरीक्षण किया और अपताल के एक प्राइवेट वार्ड में भर्ती कर लिया।
हम लोग वहाँ पर दो सप्ताह रहे। रोज बड़ी सी मशीन से मेरी आँख की जाँच की जाती, आँख के कोने पर बहुत पीड़ादायक इंजेक्शन लगाये जाते और खाने के लिए कुछ दवायें दी जातीं। पन्द्रह दिन के बाद भी कोई सुधार नहीं हुआ। मुझे याद है कि पिताजी और मामाजी जब कमरे से बाहर चले जाते, तो मैं अकेले रोने लगता था अपने बारे में सोच कर। खैर, पन्द्रह दिन बाद कुछ मेडिकल रिपॉर्टों के साथ हम घर वापस लौट आये, बिना किसी सुधार के। आप यह समझ सकते हैं कि घर पर सब लोगों पर क्या बीती होगी, खास कर अम्मा के दिल पर।
यह खबर एक दूसरे से सब रिश्तेदारों और परिचितों तक आग की तरह पहुँची और रोज घर पर आने वालों का तांता लग गया। हर कोई मेरे पास आता, अपनी संवेदनायें जताता, और ‘इस छोटी सी उम्र में बेचारे पर क्या मुसीबत आ पड़ी’, आदि आदि कह कर वापस चला जाता। पिताजी और अम्मा भी टूट चुके थे। एक दिन पिताजी ने मेरी पढ़ाई बंद कराने की घोषणा कर दी। वो डर गये थे कि कहीं दूसरी आँख की भी रोशनी न जाती रहे। उस क्षण मुझ पर जो बीता, मैं ही जानता हूँ। मैं बिखर पड़ा, रो-रोकर अम्मा के साथ लिपट गया कि मेरी पढ़ाई बंद न होने दें। अम्मा ने जैसे तैसे पिताजी को मेरा ग्रेजुएशन पूरा करने देने के लिए सहमत करा लिया।
मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था। मैं जान चुका था कि मेरी दांयी आँख की ऑप्टिक नर्व में रक्त की आपूर्ति बंद हो गयी है, वो नस सूख चुकी है, ऐसा अचानक ही होता है, यह एक लाइलाज बीमारी है, और कहीं पर भी इसका कोई उपचार उपलब्ध नहीं है। आयु कम थी, अम्मा-पिताजी खुद दुखी थे, बाकी भाई-बहन मुझसे छोटे थे, हौसला पाऊँ तो किससे, कहाँ से? पर मैं बेचारा बन कर जीना नहीं चाहता था। किशोर आयु थी, एक दिन शाम को घर से पिताजी की एक सिगरेट और माचिस उठायी और घूमने निकल पड़ा, बस्ती से बाहर एक सुनसान सी जगह पर बैठ गया। अपनी ज़िन्दगी में पहली सिगरेट जलायी, जैसे तैसे दो-चार कश लिये फिर फेंक दी सिगरेट और निश्चय कर लिया एक झूठ बोलने का। घर आकर अम्मा को अपनी योजना में साझी किया, और उनसे प्रार्थना की कि किसी भी तरह पिताजी को इस बात के लिए मना लें। अगले दिन से मैंने कहना शुरू कर दिया कि मेरी दांयी आँख में रोशनी लौट आयी। धीरे-धीरे यह बात भी फैलती गयी, लोगों ने मिलने पर मुझसे इसकी पुष्टि चाही और मैंने पुष्टि कर दी। लोगों ने मान लिया कि जैसे अचानक रोशनी गयी थी, वैसे ही अचानक आ भी गयी होगी। सब उसकी कुदरत है। सब कुछ फिर से सामान्य हो गया। मैं बेचारे से फिर समर्थ बन गया। मुझे याद है कि अपने बेटे के जन्म के बाद मैंने सबसे पहले उसकी आँखें ही देखी थीं और सब कुछ सामान्य पाकर मन ही मन ईश्वर का धन्यवाद दिया था। हाँ, मैं ग्रेजुएशन से आगे नहीं पढ़ पाया और बेवकूफी में ही सही पर सिगरेट पीने की लत भी लग गयी।
बस जब तक अम्मा रहीं, वो आखिरी दम तक भी अकेले में मेरी दांयी आँख पर अपना हाथ फिराना नहीं भूलती थीं। अब तो मैं भी भूल चुका हूँ अपने इस अधूरेपन को, इसके साथ जीने का आदी हो गया हूँ। कभी अगर मेरी दायीं साइड किसी चीज से टकरा जाती है तो पल भर ठिठकता हूँ, फिर आगे बढ़ लेता हूँ।
आज एक वीडियो देखी जिसमें अमेरिका में एक महिला अपनी दोनों बाजू न होने पर अपने पैरों से न सिर्फ पियानो बजाती है, अपनी आँखों के कॉंटैक्ट लैंस बदल लेती है, बल्कि हवाई जहाज भी पूरी कुशलता के साथ उड़ाती है। उसे देख कर अपनी ज़िन्दगी का रहा सहा अधूरापन भी भूल गया।
विकलांगता तभी तक विकलांगता रहती है जब तक ज़हनी तौर पर हम उसे अपंगता माने रहते हैं। मेरा यह झूठ जो दुनिया की नज़र में सच बन चुका है और जिसने मुझे ज़िन्दगी जीने का हौसला दिया है, उसे बोल कर मुझे कोई अपराध बोध नहीं है। ऐसा झूठ, जो किसी दूसरे के लिए अहितकर न हो और मेरी ज़िन्दगी को ऊर्जा दे, मैं सौ बार बोलने को तैयार हूँ।
- राजेन्द्र चौधरी

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