परमात्मा ने पता नहीं क्या सोच कर मुझे एक कवि हृदय देकर इस दुनिया में भेजा है। मेरी कवितायें मेरी सोच की परिचायक हैं। उन्होंने मुझे पहचान दी है। लोगों ने मेरी कविताओं को मन से सुना है, जिसके लिए मैं उनका आभारी हूँ। मैं कविताओं में शब्दों के साथ खिलवाड़ नहीं करता। कविता मेरे भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। अब अगर वो चुभती है, तो उसमें मेरा क्या दोष है? हर जुबान का अपना ज़ायका होता है। मेरे अनुभव हो सकता है आपके अनुभव न रहे हों, इसलिए हो सकता है मेरी बात आपके मन को स्पर्श न कर पाये। लेकिन मैं भोगा हुआ सच लिखता हूँ, उधार का सच नहीं। हर व्यक्ति का अपना नज़रिया होता है। मेरा नज़रिया है कि जो बड़े हैं उनसे बड़ों जैसे आचरण की अपेक्षा किया जाना स्वाभाविक है। सूरज अगर अंधेरा उगलने लगे तो उसे इसलिए तो अनदेखा नहीं किया सकता कि वो सूरज है। और जो नन्हा सा दिआ आँधियों से बिना ड़रे थोड़ी देर के लिए ही सही, खुद को जला कर रोशनी भर देता है, उसके महत्व को, सिर्फ इस आधार पर कि वह एक क्षुद्र सा दिआ है, कम करके तो नहीं आंका जा सकता। जब तक मुझमें अँधेरे को अँधेरा और उजाले को उजाला कहने की सामर्थ्य बनी रहे, तभी तक परमात्मा मेरे हाथ में कलम रखे वरना छीन ले, बस उससे इतनी ही प्रार्थना है।
एक बार मेरे बेटे ने मेरी कुछ कविताओं को रिकॉर्ड करवाया। मेरे अपने नज़दीकी लोगों ने उन्हें सुना भी और सराहा भी, लेकिन कुछ संकोच के साथ जिज्ञासावश मेरी पुत्रवधु ने मुझसे पूछा कि मैं अक्सर अपनी कविताओं में व्यक्ति या व्यवस्था के नकारात्मक पक्ष पर लेखनी क्यूँ चलाता हूँ? मुझे वह समय उचित नहीं लगा उसकी जिज्ञासा का समाधान करने के लिए, इसलिए बस इतना कह कर बात बदल दी कि नकारात्मक ही सही लेकिन सच तो है। आज इस लेख के माध्यम से मैं उसकी उस स्वाभाविक जिज्ञासा के समाधान के साथ आपको भी अपनी सोच में साझी करता हूँ। ज़रूरी नहीं है कि आप मुझसे सहमत हों।
हम सब बचपन में आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचते रहते हैं। पता नहीं आपने कभी गौर किया या नहीं कि अगर एक सीधी रेखा पर अनायास एक खड़ी रेखा खिंच जाये तो अचानक ‘ऋण’ का चिन्ह (-) ‘धन’ के चिन्ह (+) में परिवर्तित हो जाता है। यह विचार मूलत: मन में किसी और के आया था लेकिन अंकित मेरे मन पर हो गया। मैं समझ गया कि ‘धन’ होने से पहले ‘ऋण’ का होना आवश्यक है। ‘ऋण’ हेय नहीं है, वह ‘धन’ होने की शुरुआत है, उसकी बुनियाद है। शायद यह कोई ईश्वरीय संकेत रहा होगा कि मैं अपनी कविताओं में इन ‘ऋणों’ पर अपनी अभिव्यक्ति के ‘धन’ बनाता रहता हूँ। ज़िन्दगी में चीजों को अगर ठीक से देखने की आदत हो जाये तो काफी आसानी हो जाती है। मुझ पर शायद ईश्वर की कृपा रही कि मैं बहुत पहले यह समझ गया कि ‘ऋण’ ही ‘धन’ में परिवर्तित होगा। इसलिए ऋणात्मक चीजों से मेरा मन कसैला नहीं होता। अब तो अनुभव ने यह भी सिखा दिया है कि अगर ‘धन’ में थोड़ी सी वक्रता यानि तिरछापन आ जाय तो गुणनफल आ जाता है। शायद उम्र बढ़ने के अब थोड़ा लोभी भी हो गया हूँ, इसलिए वक्रताओं को सहजता के साथ स्वीकारने लगा हूँ, उनसे कतराता नहीं।
सिर के बाल उड़ जाने पर समझ में आ पाया कि ईश्वर जिन पर अधिक भरोसा करता है, उन्हें ऋणात्मक या नकारात्मक अनुभवों से अधिक गुजारता है ताकि वे उन अनुभवों को धनात्मक या सकारात्मक कोष में परिवर्तित कर सकें। शायद वह मन के सोने को तपा कर कुन्दन बना देना चाहता है। वह पारखी भी है और पिता भी, इसलिए वह मन के सोने को पिघल कर बह जाने नहीं देगा, संभाल लेगा अपने हाथों के स्वर्ण-पात्र में उसे। निर्जीव पत्थर को जीवंत मूरत बनने के लिए शिल्पकार की छेनी के आघात तो सहने ही होंगे। यह मेरी प्रौढ़ता का उत्तरदायित्व बोध है या प्रारब्ध का कुछ और संकेत, मैं नहीं जानता।
- राजेन्द्र चौधरी
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