सोमवार, अगस्त 29, 2011

ग्रहणशीलता (Receptiveness)

मुझे पुराने सुमधुर हिन्दी गीत या जगजीत सिंह की गज़लें सुन कर अजीब सुकून महसूस होता है। मेरे मन की उद्विग्नता शांत होती है इन्हें सुन कर। आपके साथ भी ऐसा होता होगा कि आपका मन कुछ सुनने को उत्सुक रहता होगा। हर कवि हृदय व्यक्ति में तीव्र लालसा होती है कुछ नया लिखने पर किसी को सुनाने की। वैसे चाह हम सभी की रहती है कि कोई हो जो हमारी सुने, कोई हो जो अपने कान धरे हमारी बात पर। मैंने पाया है कि सुनने-सुनाने की चाह देखने-दिखाने की अपेक्षा कहीं अधिक प्रबल होती है। कोई तुम्हें एकटक देख रहा हो तो वो स्थिति परेशान कर देती है, मन में अनेक शंकायें पैदा कर देती है। लेकिन अगर कोई तुम्हें ध्यान से सुन रहा हो, तो अच्छा लगता है। उस व्यक्ति के प्रति प्रशंसा का भाव पैदा होता है मन में।

एक तरह से कहा जाये तो कोई अजनबी व्यक्ति जब हमें अपलक देखता है तो उसकी यह क्रिया असहज कर देने वाली लगती है, आक्रामक लगती है हमें। हम अपनी नज़रें घुमा लेते हैं उसकी ओर से। शायद इसीलिए कहा भी जाता है कि किसी को भी तीन सेकंड से अधिक तक देखना, शालीनता का उल्लंघन है। यह बात अपरिचित लोगों के सन्दर्भ में कही जाती है, प्रियजनों के सम्बन्ध में नहीं। पर अपरिचित लोग आपकी बात ध्यान से सुनें तो हम उन्हें सुहृदय व्यक्ति कहते हैं, कोई समय सीमा नहीं रखते हम सुनने की। कभी सोचा है आपने ऐसा क्यूँ होता है? देखने में एक तलाश है। हमें लगता है कि व्यक्ति कुछ तलाश रहा है हमारे शरीर में, इसलिए असहजता का बोध होता है। सुनने में ग्राह्यता है। सुनने वाला व्यक्ति कुछ ग्रहण कर रहा है हमसे। उसकी यह क्रिया हमें प्रदाता होने का बोध कराती है। शायद इसीलिए हमें किसी का सुनना अच्छा लगता है।

मेरा मानना है कि परमात्मा ने आँखों के बाबत हमें सुविधा दी है, जब चाहे हम अपनी आँखे बंद करके किसी चीज को देखना बंद कर सकते हैं। कानों के बाबत ऐसी सुविधा नहीं दी परमात्मा ने। हम अपने कानों को स्वत: बंद नहीं कर सकते। नींद में भी कान खुले रहते हैं, बंद नहीं होते। कुछ तो प्रयोजन ज़रूर रहा होगा ऐसा करने का। वैसे भी आँखों पर कितने पर्दे पड़े होते हैं हमारी, कितनी पर्तें होती हैं हमारी दृष्टि पर, कभी गौर किया है आपने? हमें वही दिखता है जो हम देखना चाहते हैं। किसी भी वस्तु का एक पक्ष ही तो दिख पाता है हमें। एक कंकड़ तक को समूचा नहीं देख पाते हम, उसका भी एक हिस्सा नज़रों से छिपा रहता है। कानों के साथ ऐसा नहीं होता, कान पूरा सुनते हैं। कान रिक्त होते हैं, आँखें रिक्त नहीं होतीं। किसी चीज को धारण कर पाने के लिए रिक्तता होनी ज़रूरी है, तभी तो धारण कर पायेंगे उस चीज को। रिक्तता सृजनशीलता की बुनियाद है। जो रिक्त नहीं, वो सृजनशील नहीं। नारी शायद इसीलिए पूज्य है क्योंकि वो अपनी रिक्तता सहेज कर रखती है, ग्रहणशील है वो, तभी तो सृजन का बीज धारण कर पाती है अपने अन्दर।

ग्रहणशीलता नींव है सृजनशीलता की। पुराने समय में जब टीवी और वीडियो की सुविधा नहीं थी, तो लोग सुनते-सुनाते थे, आज देखने-दिखाने पर जोर है। मुझे ऐसा कहने लिए क्षमा करें लेकिन शायद पहले लोग इसीलिए अधिक शालीन थे। आज उग्रता है। देखने-दिखाने में लाज और शालीनता की सीमायें कब पार हो गयीं, पता ही नहीं चला। जो दिखता है उसे पा लेने की बेचैनी है, बलात छीन लेने की प्रवृत्ति है, क्योंकि हमें वही दिखता है जो हम देखना चाहते हैं। हम पूर्वाग्रह-विहीन ग्रहणशील बनें, सम्यक भाव से दूसरे की सुनें, तो समाज में सौहार्द बढ़ेगा। स्वभाव से आक्रामकता दूर होगी। दुनिया बेहतर होगी।
- राजेन्द्र चौधरी

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