शनिवार, अगस्त 06, 2011

हम और हमारे शब्द

मुझे बचपन से ही शब्द बहुत आकर्षित करते रहे हैं। यूँ तो पढ़ने व सुनने में यह वाक्य बड़ा अटपटा सा लग सकता है कि इस दुनिया में इतनी आकर्षक चीजें होने के बाद भी मुझे शब्दों में ही आकर्षण दिखायी दिया। वस्तुत: मुझे शब्द ही नहीं बल्कि शब्दों को प्रयोग करने का ढंग आकर्षित करता है। कौनसा शब्द प्रयोग किया गया है के बजाय कोई शब्द कैसे प्रयोग किया गया है, यह मेरे लिए अधिक महत्वपूर्ण रहा है। क्या कहा गया है के बजाय मेरा ध्यान इस पर अधिक रहता है कि कैसे कहा गया है। मैं जानता हूँ कि हर व्यक्ति की शब्द सामर्थ्य अलग-अलग होती है। कुछ लोगों के पास शब्दों का प्रचुर भंडार होता है और उन्हें अलंकारों के प्रयोग में प्रवीणता प्राप्त होती है। मैं उन शब्दों के बारे में नहीं कह रहा हूँ। मेरा मतलब सीधे सादे रोजमर्रा के शब्दों के सही और प्रभावी प्रयोग से है।
उदाहरण के लिए: यह राम की पत्नी सीता है; और यह सीता है, राम की पत्नी। हम लोगों को ये दोनो वाक्य समानार्थी लगते हैं और हम पहले वाले वाक्य, यानि यह राम की पत्नी सीता है, का ही प्रयोग अधिकतर करते हैं। भोजन अच्छा बना है और अच्छा भोजन बना है, हमें एक ही वाक्य लगते हैं। मुझे भाई ने एक काम से भेजा था और मुझे एक काम से भाई ने भेजा था, में हमें कोई फर्क नज़र नहीं आता। यह हमारी सोच, हमारी मानसिकता को दर्शाता है। हमारे लिए राम महत्वपूर्ण है, सीता गौण है। इसलिए हमें “यह राम की पत्नी सीता है” कहने की आदत है। “यह सीता है, राम की पत्नी” में सीता प्रमुख है, वह एक अलग व्यक्ति है जिसके बारे में बताया जा रहा है। “राम की पत्नी” उसका सामाजिक परिचय है। हमें पत्नी का अलग व्यक्तित्व सहज स्वीकार्य ही नहीं है, इसलिए हमारे मुँह से “यह सीता है, राम की पत्नी” निकलता ही नहीं है। हद तो तब हो जाती है जब हमारे मन में शब्दों को सही ढ़ंग से प्रयोग करने की चाह या जिज्ञासा पैदा ही नहीं होती और हमें सही या गलत का पता ही नहीं चलता।
एक अंग्रेज़ी की कहावत है जिसका अर्थ है कि अपने विचारों पर गौर कीजिये, वे ही आपके शब्द बनते हैं; अपने शब्दों पर गौर कीजिये, वे ही आपके कार्य बनते हैं; अपने कार्यों पर गौर कीजिये, वे ही आपकी आदत बनते हैं; अपनी आदतों पर गौर कीजिये, वे ही आपका चरित्र बनती हैं; अपने चरित्र पर गौर कीजिये, वह ही आपकी नियति बनता है। हम ये सब जानने के बाद भी सुधरने के लिए तैयार नहीं हैं। शब्द अक्षरों से बनते हैं। ‘अक्षर’ स्वयं अपना परिचय दे रहा है कि वह क्षर यानि नष्ट नहीं होगा। हम जो भी बोलते हैं वो वातावरण में ही रहता है। ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती, वह अपना स्वरूप परिवर्तित कर लेती है। अब तो वैज्ञानिकों ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि उन्नत वैज्ञानिक उपकरणों की मदद से वातावरण में स्थित सूक्ष्म ध्वनियों को भी सुना जा सकता है। नकारात्मक शब्द नकारात्मक ऊर्जा पैदा करते हैं और ऊर्जा मिटती नहीं है।
हम अपनी इस लापरवाही या गैर-जिम्मेदाराना आचरण का परिणाम अपनी आँखों के सामने देख रहे हैं। आज हमारे शब्दों का हमारे बच्चों तक पर कोई प्रभाव नहीं होता। हम अधिकांशतया अब सोच कर बोलते ही कहाँ हैं, हाँ कई बार बोलने के बाद सोचने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि गलत बोल गये। कौनसी बात, कहाँ पर, और कैसे कही जाती है, यह सलीका हो तो हर बात सुनी जाती है।
मुझे एक घटना याद आ गयी। एक पिता अपनी छोटी सी बच्ची के साथ जंगल से गुजर रहा था कि सामने एक नदी आ गयी। नदी अपने उफान पर थी और उस पर एक बहुत कमजोर सा अत्यंत संकरा पुल था। नदी पार करने का कोई और रास्ता या तरीका नहीं था। इसलिए उस पुल से गुजर कर ही पार होना था। पिता थोड़ा डरा, पुल पर जाते हुए उसने बच्ची से कहा कि वह उसका हाथ कस कर थाम ले। बच्ची बोली कि नहीं पापा, आप मेरा हाथ पकड़ लीजिये। पिता बोला कि जो मैंने कहा, उसका मतलब भी तो यही है। क्या फर्क है दोनों बातों में? बच्ची ने शालीनता से कहा, “बहुत फर्क है, मैं छोटी हूँ, कुछ हो गया तो मुझसे आपका हाथ छूट सकता है। लेकिन मैं जानती हूँ कि चाहे कुछ भी हो जाये, आप प्राण रहते मेरा हाथ नहीं छोड़ सकते”। पिता निरुत्तर सा अपनी बच्ची का चेहरा देखता रहा।
मैं बस यही बात कहने की चेष्टा कर रहा हूँ। शब्द सिर्फ शब्द नहीं हैं, वे भावों के संवाहक हैं। उनके दुरुपयोग से बचिये और उन्हें अपनी सोच का आईना बनाइये। सबको आसानी हो जायेगी, पाखंड जाता रहेगा। दुनिया संवर जायेगी।
- राजेन्द्र चौधरी

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