गुरुवार, अगस्त 25, 2011

अभी टूटा नहीं मैं

पिछले नौ दिनों से मैं और मेरे सारे परिवारजन मानसिक यंत्रणा के दौर से गुजर रहे हैं। मेरे छोटे भाई की पत्नी, जो मेरी पत्नी की छोटी बहन भी है, नौ दिनों से उत्तर भारत के कुशलतम डॉक्टरों की टीम और आधुनिकतम चिकित्सा सुविधाओं से लैस अस्पताल के आईसीयू में भर्ती है। डॉक्टरों का कहना है कि उन्होंने अपने पूरे मेडिकल कैरियर में ऐसा केस कभी नहीं देखा। अभी भी स्थिति ऐसी है कि हम डॉक्टरों के चेहरे पर उभरते-मिटते भावों में ही अपनी उम्मीद और नाउम्मीदी के सिरे तलाश रहे हैं।

स्वाभाविक है कि परिवार में सभी लोगों की आँखों की नींद उड़ चुकी है। मैं परिवार में सबसे बड़ा हूँ, तो सभी लोग मेरे कंधे पर अपना सर रख कर कुछ राहत और हौसला पाने का अधिकार रखते हैं। मैं किसी तरह खुद को सहेजे हुए हूँ और अपने दायित्व का निर्वाह कर रहा हूँ। आज सुबह उठ कर बिस्तर पर चाय पी और बाहर पॉर्च में कुर्सी पर चुपचाप बैठा सिगरेट पी रहा था कि घर के दरवाजे के बाहर लगे पेड़ पर मेरी नज़रें टिक गयीं। नज़रें पेड़ पर थीं और मन स्मृतियों की किताब के पन्ने पलट रहा था। मुझे लगा कि मैं भी तो अपने वंश वृक्ष की एक शाख ही था। 1998 में अम्मा क्या गयीं कि मैं देखते ही देखते शाख से तने में तबदील होने लगा। फिर 2006-2007 में ज़िन्दगी में ऐसा तूफान आया कि पिताजी, मंझले भाई, और उसकी पत्नी ने अपनी-अपनी भूमिकायें मेरे कंधे पर ड़ाल दीं और उन्होंने भी अम्मा की तरह इस वृक्ष की जड़ों का रूप धारण कर लिया। मैं अब सिर्फ तना नहीं रहा, यकायक वृक्ष बन गया जिसकी जड़ें अम्मा-पिताजी के संस्कारों और मझले भाई व उसकी पत्नी के अदृश्य स्नेह व आदर से अपना भोजन प्राप्त कर रही हैं। अब मेरा दायित्व परिवार की बची हुई शाखों, उनके पत्तों, फूलों और फलों के प्रति है।

उम्र और अनुभव की लकीरें मेरे चेहरे पर भी साफ दिखने लगी हैं। अब अम्मा की गोद नहीं है मेरे पास अपना सिर रख कर रोने के लिए, पिताजी का हाथ नहीं है मेरी पीठ पर अब। आँखों के कोने गीले हो जाने पर चुपचाप चतुराई के साथ रुमाल से खुद ही पोंछ लेता हूँ मैं ताकि मेरी पत्नी, मेरे छोटे भाई व बहन और बच्चों की नज़र न पड़ जाये उन पर। मैं उनके लिए हौसले का आलम्ब हूँ। अपने जीते जी नहीं टूटने दूँगा उनके हौसले। मेरा यह संकल्प ही मेरी ऊर्जा है और शायद यही मेरे लिए दुनिया से रुखसत हो चुके मेरे अम्मा-पिताजी, मझले भाई और उसकी पत्नी का श्राद्ध व तर्पण भी। रोज सुबह उठ कर अपने जूतों के तस्मे बाँधता हूँ और चल पड़ता हूँ अपने जीवन की इस दायित्व-यात्रा पर। यह और बात है कि अब उतना कसाव नहीं आ पाता तस्मो में, ढीले होने लगते हैं ज़ल्दी ही। थोड़ा चलने पर ही साँस फूलने लगता है लेकिन मैं थका हूँ, टूटा नहीं हूँ अभी मैं। अपनी रीढ़ को सहेज कर रखा है मैंने। साहस बटोरने के लिए मन ही मन में दोहराने लगता हूँ मराठी कवि कुसुमाग्रज की ‘कणा’ शीर्षक की अतुकांत कविता के गुलज़ार साहब द्वारा किये गये हिन्दी रूपांतर की पंक्तियां जिसमें गंगा की बाढ़ में अपना सब कुछ लुटा देने के बाद एक आदमी अपने छात्र जीवन के एक अध्यापक के घर आता है। उस कविता के शब्दों से आत्मबल और ढ़ाढ़स मिलता है मुझे:

"सर, मुझे पहचाना क्या?"
बारिश में कोई आ गया
कपड़े थे मुचड़े हुए और बाल सब भीगे हुए
पल को बैठा, फिर हँसा, और बोला ऊपर देखकर
"गंगा मैया आई थीं, मेहमान होकर
कुटिया में रह कर गईं!
माइके आई हुई लड़की की मानिन्द
चारों दीवारों पर नाची
खाली हाथ अब जाती कैसे?
खैर से, पत्नी बची है
दीवार चूरा हो गई, चूल्हा बुझा,
जो था, नहीं था, सब गया!

"प्रसाद में पलकों के नीचे चार क़तरे रख गई है पानी के!
मेरी औरत और मैं, सर, लड़ रहे हैं
मिट्टी कीचड़ फेंक कर,
दीवार उठा कर आ रहा हूँ!"

जेब की जानिब गया था हाथ, कि हँस कर उठा वो...

’न न’, न पैसे नहीं सर,
यूं ही अकेला लग रहा था
घर तो टूटा, रीढ़ की हड्डी नहीं टूटी मेरी...
हाथ रखिये पीठ पर और इतना कहिये कि लड़ो... बस!"

मैं भी अम्मा-पिताजी के फोटो की तरफ देख कर यही कहता हूँ कि अदृश्य ही सही, पर हाथ रखिये पीठ पर मेरी और इतना कहिये कि लड़ो हालात से बस!
- राजेन्द्र चौधरी

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