आपने गाँव के उस आलसी की कहानी ज़रूर पढ़ी या सुनी होगी जो पूरी तरह स्वस्थ होने के बावजूद भी कुछ भी करना ही नहीं चाहता था। बस, पेड़ के नीचे चारपाई पर पड़ा रहता था। कोई घर का या बाहर का उधर से गुजरता, तो उससे पानी के लिए या भोजन के लिए पूछ लेता और वो उसे लाकर दे देता। कई बार वह खुद ही गुजरने वाले को आवाज़ देकर अपनी ज़रूरत बता देता। कट रही थी ज़िन्दगी बिना कुछ किये धरे ही। एक दिन कोई पढ़ा-लिखा शहरी नौजवान उधर से गुजरा, आलसी ने उसे आवाज़ दी और कहा कि प्यास लगी है, जरा पानी पिला दो। नौजवान रुका, उसके पास गया और उसे पानी पिला कर उससे पूछा - क्या चल-फिर नहीं पाते आप? आलसी बोला - नहीं मैं पूरी तरह स्वस्थ हूँ। नौजवान ने कहा – फिर खुद पानी क्यों नहीं पी लिया आपने? आलसी बोला – तुम जो नज़र आ गये थे। नौजवान ने फिर पूछा – क्या करते हैं आप? आलसी बोला – आराम। नौजवान बोला – कुछ करते क्यों नहीं? आलसी बोला – उससे क्या होगा? नौजवान बोला - कुछ करोगे, तो शरीर स्वस्थ रहेगा। आलसी बोला –वो तो अभी भी है। नौजवान बोला - चार पैसे कमाओगे। आलसी बोला – उससे क्या होगा? नौजवान ने कहा – पैसे कमाओगे तो आराम से रह पाओगे। आलसी बोला – आराम से ही तो रह रहा हूँ।
एक थी औरत और एक था पुरुष। दोनों में कोई रिश्ता नहीं था। फिर भी दोनों साथ-साथ रहते थे। आहिस्ता-आहिस्ता दोनों में प्यार पनपने लगा, और फिर बहुत प्यार करने लगे एक-दूसरे को। पर आखिरकार दोनों में नहीं निभी और एक दिन अलग हो गये दोनों। किसी ने उस औरत से पूछा – वो पुरुष तुम्हारा कौन था? औरत ने कहा – प्रेमी जो पति नहीं बन सका। किसी ने पुरुष से पूछा – वो औरत तुम्हारी कौन थी? पुरुष ने कहा – रखैल।
एक पिता अपनी बेटी को बहुत प्यार करता था। अपनी सामर्थ्य से आगे बढ़ कर उसकी इच्छायें पूरी करता था। लड़की शहर के एक प्रतिष्ठित कॉलेज से अंग्रेज़ी में पोस्ट-ग्रेजुएशन कर रही थी। एक दिन पिता और पुत्री दोनों साथ में कहीं जा रहे थे, पिता के कोई परिचित मिले और उन्होंने उस लड़की के बारे में पूछा। पिता ने कहा – यह मेरा गुरूर है, मेरी बेटी। बेटी अपने एक सहपाठी के प्रति आकर्षित हो गयी। एक दिन घर पर अपने मां-बाप की अनुपस्थिति में उसने अपने उस सहपाठी को बुलाया, दोनों प्रेम की बातों में मशगूल थे कि पिता आ गया। पिता के कान में बेटी की खुसपुसाहट पड़ चुकी थी। पिता ने बेटी की ओर तिरछी नज़रों से देखा। लड़के ने लड़की से पूछा – ये कौन हैं? लड़की बोली – हमारे प्यार के दुश्मन।
उपरोक्त उदाहरणों में दो अलग-अलग व्यक्तियों के द्वारा स्थिति विशेष का या एक दूसरे का परिचय परिभाषित करने के लिए भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया। कभी-कभी दो भिन्न-भिन्न स्थितियों को परिभाषित करने के लिए एक ही शब्द अलग अर्थों में प्रयोग करते हैं हम। गाँव में हमारे कुटुम्ब में ही मेरे एक ताऊजी थे, गंगाशरण नाम था उनका। उनका एक ही बेटा था और अच्छा खासा काम था उनका। ताऊ बूढ़े होते गये लेकिन उनकी लालसाएं बदस्तूर रहीं। मैं जब भी कभी अपने घर गया तो ताऊ जिनका घर हमारे घर के पास ही था, पहले मेरे स्कूटर और बाद में कार की आवाज़ सुन कर आ धमकते थे फौरन। मैं घर आया हूँ तो कुछ चाय-पानी बनेगा और उनसे भी पूछा जायेगा ग्रहण करने के लिए। बहुत आशावादी नज़रिया था उनका। चलता रहा ऐसे ही। फिर हमारे परिवार पर वक्त ने अपनी नज़रें तरेरीं और पहले मेरी अम्मा, फिर छोटे भाई की पत्नी, फिर पिताजी और फिर छोटा भाई भी दुनिया से रुखसत हो गया। ताऊ अब भी जीवित थे, हाँ बहुत वृद्ध हो गये थे। पर अपनी लाठी टेकते हुए आ धमकते थे तब भी जब मैं और मेरा सबसे छोटा भाई कभी गाँव जाते थे। मैंने एक बार देखा कि ताऊ के चश्मे की एक आर्म टूट गयी थी और उन्होंने धागा बाँध कर एक ही आर्म से चश्मे के कान पर टिकने की व्यवस्था कर रखी थी। ताऊ चाय नाश्ता ग्रहण करके जा चुके थे कि उनका बेटा मेरे पास आकर बैठ गया। इधर-उधर की बातों के बाद मैंने उनसे कहा – भाई, ताऊ आये थे। उनका नया चश्मा बनवा दो, पता नहीं कैसे टेके रहते हैं उसे कान पर। भाई बोला – हाँ चश्मा तो बनवाना है भाई उनका, क्या करूँ हाथ थोड़ा तंग है, मजबूरी है। फिर कुछ ही दिन बाद अचानक एक दिन ताऊ की मृत्यु का समाचार मिला। हम लोग गाँव गये, उनके घर पहुँचे, अपना शोक प्रकट किया। भाई यानि स्वर्गीय ताऊ के बेटे ने मुझको बताया कि फलाँ दिन ताऊ की तेरहवीं है, मैं ज़रूर पहुँचूं। तेरहवीं के दिन मैं पहुँचा और देख कर दंग रह गया। विशाल भोज का आयोजन था। पूछ सकता था, इसलिए मैंने ताऊजी के बेटे से पूछ लिया – इस विशाल आयोजन की क्या ज़रूरत थी? उन्होंने जवाब दिया – क्या करें भाई, मजबूरी है।
अपनी सुविधा के अनुसार या स्वयं को उचित ठहराने वाली परिभाषायें गढ़ने में हमारा कोई सानी नहीं है। लेकिन हम भूल जाते हैं कि यह एक घातक छलावा है और छलावा भी खुद अपने आप से। सच के साथ हल्की सी छेड़छाड़ भी उसे झूठ से भी कहीं अधिक घातक बना सकती है। कितनी सहजता के साथ, कितने उपयुक्त शब्दों में परिभाषित कर दिया उस औरत ने उस पुरुष के साथ अपने रिश्ते को - प्रेमी जो पति नहीं बन सका। सच को स्वीकारने में कौनसी हेठी होती है? किसके लिए परिभाषायें गढ़ते हैं हम? अपनी नज़रों में गिर कर किसके प्रमाण-पत्र से ऊँचे हो जायेंगे हम? कब सीखेंगे हम उस महिला की तरह साहस के साथ सही शब्दों में सच कहना? सच्चाई और वह भी उपयुक्त शब्दों में व्यक्त सच्चाई आदर दिलाती है और स्वाभिमान को पोषित करती है, झूठ अपमान दिलाता है और थोथे अहंकार को पोषित करता है। हमको खुद से दूर कर देता है हमारा यह थोथा अहंकार।
- राजेन्द्र चौधरी
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