शनिवार, अगस्त 13, 2011

आदर्श

बच्चे परमात्मा का प्रतिरूप होते हैं, निष्पाप, निश्छल। तेर-मेर, छल-कपट से दूर, सिर्फ प्यार की भाषा को समझने वाले। उनकी अबोधता, उनका अज्ञान भी पवित्र होता है क्योंकि वह प्रकृति-दत्त है। उनकी सहजता लुभाती है क्योंकि वह निर्मल होती है, उस पर दुनियावी मुखौटे नहीं चढ़े होते। जैसा है–वैसा है, की सुविधा उन्हें प्राप्त होती है। बनावट, कृत्रिमता, औपचारिकताओं से उनका परिचय नहीं हुआ होता तब तक। इन सब चीजों की परतें तो हम चढ़ाते हैं उनके व्यक्तित्व पर। शिष्टाचार सिखाने के नाम पर हम कितनी बनावट, कितनी औपचारिकता सिखा देते हैं, हर लेते हैं हम उनका भोलापन, बनाने पर तुले होते हैं उन्हें भी अपने जैसा। यह सब करके हम अपने लिए आसानी पैदा करना चाहते हैं। जो बच्चा समय से पहले अपना भोलापन खो दे और बड़ों जैसी बातें करने लगे, हम उसे होनहार और जिम्मेदार बताने लगते हैं। बच्चे का भोलापन खो देना हमें सुहाता है, हमारे लिए सुविधा पैदा करता है। भोला रहेगा तो किसी भी समय, कहीं भी, कुछ भी कह देगा या पूछ लेगा। हो सकता है उसकी बात हमारे लिए शर्मिन्दगी पैदा कर दे। भोला इसीलिए तो भोला कहलाता है क्योंकि उसकी अभिव्यक्ति व्यवहार की तथाकथित समाजिक मर्यादाओं या सीमाओं से अपरिचित होती है।
लेकिन बाल-मन हमसे कहीं अधिक जिज्ञासु, कहीं अधिक ऊर्जावान, कहीं अधिक कुशाग्र होता है। वह मौन-दृष्टा होता है हमारे व्यवहार, हमारे आचरण का। बहुत सी बातें वह हमें देख कर, सुन कर ही सीख लेता है। जब मैं पहली बार अपने पौत्र का बाबा बना, तो मुझे मौका मिला बाल-मन को और बचपन को करीब से अवलोकित करने का। इतना नज़दीकी से अवलोकन मैं अपने बेटे के बचपन का नहीं कर पाया था। हम लोगों ने अपने पौत्र का नाम ऊर्जित रखा। ईश्वर की कृपा से बला की ऊर्जा, कुशाग्रता और ईमानदारी है उसमें। मैं उसमें अपना खोया हुआ बचपन देखता हूँ और शायद वह भी मुझे देख कर गढ़ रहा होता है कुछ अपने मन में। मुझे घनिष्ठता का इतना सजीव अनुभव आज तक किसी भी रिश्ते में महसूस नहीं हुआ। यूँ तो हर रिश्ता जिम्मेदारी सिखाता है, लेकिन अब मुझे हर पल यह अहसास रहता है कि मेरा आचरण उत्तरदायी हो। आने वाले दिसम्बर में वह अभी सिर्फ आठ वर्ष का होगा लेकिन उससे जो मैंने सीखा है वह अनुपम है। सीखने की चाह बल्कि ललक उसी से आयी है मुझमें। वह मेरा पौत्र है, लाड़ला है, अपनी परछायी तलाशता हूँ मैं उसमें, लेकिन कुछ बातों में वह गुरु भी है मेरा। उसे भी जब हिन्दी के किसी शब्द को लिखने या समझने में कोई परेशानी होती है, तो बम्बई से फोन करके पूछता है मुझसे। एक विश्वास है उसे कि उसकी जिज्ञासा का समाधान उसके बाबा के पास ज़रूर होगा।
मैं उसकी जिज्ञासाओं का समाधान कर पाऊँ, इसके लिए ज़रूरी है कि मैं अपने ज्ञान को, अपनी जानकारी को ताज़ा रखूँ। इसलिए और ज्यादा कोशिश करता हूँ सीखने की। लेकिन कुछ बातों के उत्तर अभी तक नहीं ढूँढ पाया हूँ मैं और मन ही मन डरता हूँ कि किसी दिन उसने पूछ लिया तो क्या उत्तर दूँगा। अगर उसने पूछ लिया कि बाबा आदर्श कौन है या आदर्श बाबा कौन हुआ है? आदर्श पिता कौन हुआ है? आदर्श माता कौन हुई है? आदर्श भाई कौन हुए हैं? आदर्श गुरू कौन हुआ है? आदर्श पति कौन हुआ है? क्या जवाब दूँगा मैं उसे? क्योंकि मुझे कोई भी आदर्श की कसौटी पर खरा उतरता हुआ दिखायी नहीं दिया।
क्या वचनबद्धता की आड़ लेकर मौन बने अपनी पौत्रवधु द्रौपदी का चीरहरण देखते रहने वाले भीष्म को आदर्श बाबा बता पाऊँगा? क्या अपनी पत्नी को दिये गये वचन की कीमत अपने बेटे से वसूलने वाले दशरथ को आदर्श पिता बता पाऊँगा? क्या पति के वचन की लाज रखने के लिए बेटे को बनवास भेजने का पुरजोर ढंग से विरोध न कर पाने वाली कौशल्या को या जिज्ञासावश अविवाहित माँ बन जाने पर इस सत्य को छुपाने वाली और कर्ण को अनुपम योद्धा व अद्वितीय दानी होने के बावजूद अकारण आजीवन सूतपुत्र कहलाने का दंश झेलने के लिए मजबूर करने वाली कुंती को आदर्श माता बता पाऊँगा? स्वयं की तरह नव-विवाहित होने के बावजूद पत्नी को त्याग कर अपने साथ बनवास के कष्टों से लक्ष्मण को गुजरते हुए देखने वाले राम को या रामभक्त कहलाने के लिए रावण की मृत्यु का रास्ता सुझाने वाले विभीषण को आदर्श भाई बता पाऊँगा? भरत की उपमा मैं शायद इसलिए न दे पाऊँ क्योंकि राम उससे बड़े थे। ऊर्जित भी उदयन का बड़ा भाई है, उसकी जिज्ञासा अपने लिए आदर्श पूछने की होगी। क्या गुरू दक्षिणा में एकलव्य का अँगूठा माँगने वाले और ज्ञान को विक्रय की वस्तु बना देने का घृणित काम करने वाले गुरू द्रोणाचार्य को या कर्ण की विद्वता व योग्यताओं के बावजूद उसके ब्राहमण न होने के कारण उसे शाप देने वाले परशुराम को मैं आदर्श गुरू बता पाऊँगा? क्या एक धोबी के कह देने भर से अपनी पत्नी सीता को निर्वासित करके उसकी अग्निपरीक्षा लेने वाले पति राम को या पत्नी को जुए में दांव पर लगा देने वाले तथाकथित धर्मराज युधिष्ठिर को आदर्श पति बता पाऊँगा? इन बड़े व महिमा-मंडित व्यक्तियों में ही तो अपने आदर्श ढूँढते हैं हम। ये तो उस कसौटी पर खरे नहीं उतरते।
जब मैं उसके सामने रिश्तों के इन विभिन्न रूपों के आदर्श नहीं रख पाऊँगा तो उससे एक आदर्श पुत्र या आदर्श पौत्र होने की अपेक्षा किस मुँह से करूँगा? ईश्वर से प्रार्थना है कि वह ऐसी स्थिति उत्पन्न न करे वरना बहुत शर्मसार होना पड़ेगा मुझे कि हम अपनी संस्कृति और संस्कारों की दुहाई देने वाले भारतवासी जीवन के इन बुनियादी रिश्तों तक में भी आदर्श स्थापित नहीं कर पाये।
- राजेन्द्र चौधरी

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