मेरे मन ने आज जिस विषय पर और उस विषय के जिस पहलू पर लिखने की ठानी है, वह जरा संवेदनशील है और उसके बारे में मुझे कोई विशेष ज्ञान भी नहीं है। हाँ मैं स्वभाव से जिज्ञासु अवश्य हूँ। मुझे उस बात को स्वीकारने में कभी कोई संकोच नहीं रहा जिसे पुष्ट वैज्ञानिक तर्क के साथ प्रस्तुत किया गया हो। फिर भी अपनी अल्पज्ञता को स्वीकारते हुए, मेरा निवेदन है कि ये विचार मेरे व्यक्तिगत विचार हैं। ये जिज्ञासाएं मेरी व्यक्तिगत हैं। मेरा लेशमात्र उद्देश्य किसी की भी भवनाओं को आघात पहुँचाने का नहीं है। जो मेरी जिज्ञासाओं से सहमत नहीं हों या जिन्हें मुझसे अधिक ज्ञान प्राप्त हो, वे कृपया विनम्रता दर्शाते हुए मुझे क्षमा करें।
मैं बचपन से यही पढ़ता और सुनता आया हूँ कि परमात्मा के अलावा कोई भी चीज पूर्ण (Absolute) नहीं है। यही सुना व पढ़ा था, इसलिए इसे ही सच मान कर जीता रहा। कोई अदृश्य उच्च शक्ति है, इसका अहसास भी कई बार हुआ मुझे। मैंने अगर हताश होकर कभी किसी कठिन परिस्थिति में अपनी आँखें बंद करके उससे उपयुक्त रास्ता सुझाने के लिए मौन प्रार्थना की, तो उसने रास्ता भी सुझाया है मुझे। मैं उसकी सर्वोच्च शक्ति में विश्वास करता हूँ और उसका आराधक भी हूँ। पर परमात्मा को मैंने कभी साक्षात देखा तो है नहीं कि मन में कभी कोई प्रश्न पैदा होता या शंका जन्म लेती। सहज स्वीकार कर लिया कि ऐसा ही होगा, परमात्मा पूर्ण ही होगा। इसलिए हम लोग Absolute शब्द के प्रयोग में एहतियात बरतते हैं। किसी व्यक्ति के लिए इस शब्द का प्रयोग नहीं करते।
जितनी पुस्तकें परमात्मा के बारे में लिखी गयीं, या जितने लोग परमात्मा पर प्रवचन करते हैं शायद ही कभी किसी विषय पर इतना बोला या लिखा गया हो। और परमात्मा है कि अभी भी उतना ही अबूझ, उतना ही अप्राप्य बना हुआ है। धर्म कोई भी हो, तरीका कोई भी हो, हर कोई परमात्मा को पाने के रास्ते सुझा रहा है। मानो उनकी रोज की उठाबैठ हो उसके साथ। कोई मुझ जैसा अगर उनसे पूछे कि मुलाकात हुई थी क्या आपकी परमात्मा से कभी, तो मैं जानता हूँ कि ऐसे भी बहुत दुराग्रही निकल आयेंगे इन प्रवचनदाताओं में जो कहेंगे कि हाँ कई बार दर्शन प्राप्त हो चुके हैं परमात्मा के। खैर, उनकी सोच, उनके दावे, उनका व्यवसाय उनके साथ। मैं न तो कोई समाज सुधारक हूँ, न ही किसी का आलोचक। लेकिन मुझे आज तक कोई व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जिसने कहा हो कि परमात्मा अपूर्ण है। मैने परमात्मा को अपूर्ण बताने वाली किसी भी धर्म की कोई पुस्तक न देखी, न पढ़ी। सभी बताते हैं कि मनुष्य अपूर्ण है, और उसे पूर्णता तभी प्राप्त होती है जब वह परमात्मा में विलीन हो जाता है। मुझे इस पर कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि मेरे पास आपत्ति का कोई कारण या तथ्य नहीं है।
मुझे आज तक हर किसी ने यही बताया है और मेरा भी यही मानना है कि मैं एक आत्मा हूँ जो फिलहाल इस शरीर में स्थित है। आत्मा अनश्वर है और यह शरीर नश्वर है। आत्मा का परम उद्देश्य परमात्मा में समा जाना है। बस, यहीं से मेरे मन में जिज्ञासा पैदा होती है। मुझे परमात्मा में समाना अभी बाकी है, तो मेरा स्थान तो परमात्मा में या परमात्मा के यहाँ रिक्त होगा। जिसमें किसी का समाना अभी बाकी हो, तो वह पूर्ण कैसे हुआ? मुझ जैसी असंख्य आत्माओं का परमात्मा में मिलना अभी बाकी है, तो परमात्मा पूर्ण कैसे हुआ? रीता है, खाली है अभी वह। जाने कितनी आत्माओं की रिक्तता से भरा है वह? और ये आत्माएं जाने कब विलीन होंगी उसमें? जाने कब भरेगा उसका रीतापन, खालीपन? भरेगा भी या नहीं? पता नहीं। इस दृष्टि से तो वह सर्वाधिक अपूर्ण हुआ।
या फिर यह ‘पूर्ण’ विशेषण परमात्मा के साथ आदमी को उसकी अपूर्णता का अहसास कराने मात्र के लिए जोड़ा गया है ताकि वह दंभी न हो, अनाचारी न बने। मैं अपूर्ण हूँ, इसमें मुझे कोई शक नहीं है, इस पृथ्वी पर कोई भी पूर्ण नहीं है, इसमें भी कोई शक नहीं है। अपूर्णता है तो पूर्णता को लक्ष्य बनाया जा सकता है, इसमें भी कोई शक नहीं है। लेकिन विश्व के हर कोने में, हर धर्म और मत के अनुसार कोई पूर्ण कहलाता हो और पूर्णता के ज्ञात पैमाने पर अपूर्ण नज़र आता हो तो जिज्ञासा तो होगी ही। मैं भी इसी जिज्ञासा के साथ जी रहा हूँ, लेकिन यह एक जिज्ञासा ही है, उसकी सर्वोच्च सत्ता के प्रति अविश्वास नहीं।
मेरे मन ने कई बार मुझको इस जिज्ञासा के स्व-स्फूर्त उत्तर भी सुझाये हैं कि भले ही दुनिया वाले उसके यानि परमात्मा के अलग-अलग रूप बतायें, प्रवचन दें, किस्से सुनायें, पूजा की विधियां सुझायें, वह तो किसी से आकर नहीं कहता कि मुझे पाना है तो इस विधि-विधान से मेरी पूजा करो। सब आदमी की ही रची हुई व्यवस्थायें हैं। उससे आँखे बंद करके दो बात कर लो, वह इसी में खुश है। हम स्वभाव से याचक हैं, मंगते हैं हम। किसी से मांगने के लिए पचास चीजें देखनी पड़ती हैं, पचास औपचारिकताएं बरतनी पड़ती हैं। मुझे ये पूजा की विधियां वैसी ही औपचारिकताएं दिखती हैं, व्यावसायिक प्रयोजन से निर्मित। बच्चे को अपने पिता से मिलने के लिए आडम्बरों की आवश्यकता नहीं होती। मैं आत्मा हूँ और परमात्मा मेरा पिता है, मैं इस रिश्ते से खुश हूँ। आसानी लगती है मुझे इस रिश्ते में। विश्वास रहता कि पिता नाराज़ भी हो गया तो मना लूँगा उसे। पिता को खुश करने के लिए कुछ अच्छा करने की चाह रहती है मुझमें ताकि वह मुझे गर्व से अपना बेटा कह सके।
तुम अदृश्य हो, इसीलिए भगवान हो। तुम मेरे पिता हो - पूर्ण हो या अपूर्ण, पिता तो पिता ही होता है। मेरी यह जिज्ञासा कि तुम पूर्णता के मापदंड पूरे नहीं करते, न तो मेरी उद्दंडता है और ना ही तुम्हारी सर्वोच्च सत्ता पर कोई प्रश्नचिन्ह। यह प्रश्नचिन्ह है तो तुम्हारे नाम पर व्यापार करने वाले उन स्वघोषित ज्ञानियों पर जो जिज्ञासाओं को नास्तिकता का नाम देकर उनका दमन करते आये हैं। ‘आस्था में कोई तर्क नहीं चलता’, ऐसा कह कर अपनी रोटियां सेकते आये हैं। यह ‘पूर्ण’ विशेषण भी अपने नाम के आगे तुमने खुद कहाँ लगाया है, यह भी उन्हीं के द्वारा सोचा-विचारा शब्द है।
अगर यह विरोध है, तो मेरा यह विरोध उन तथाकथित ज्ञानियों के प्रति है जो परमात्मा के बारे में जिज्ञासावश पूछे जाने वाले प्रश्नों का समुचित उत्तर देने के बजाय उसे नास्तिकता बताने लगते हैं। अगर यह गुस्ताखी है, तो मैं अपने परमात्मा से और पाठकों से क्षमा मांगता हूँ।
- राजेन्द्र चौधरी
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