शुक्रवार, अगस्त 05, 2011

पीर बाबा

यह बात सन उन्नीस सौ बासठ की है, जब मैं अपनी ननसाल में रह कर सातवीं कक्षा में पढ़ता था। मेरे पिताजी, जो कि गन्ना सुपरवाईजर थे, का जुलाई महीने में, जब स्कूल खुले ही थे, किसी अन्य जगह पर ट्रांसफर हो गया था। उन्होंने यह सोच कर कि मेरी पढ़ाई का नुकसान न हो, रहने की नयी व्यवस्था होने तक, एक वर्ष के लिए मुझे ननसाल में रह कर पढ़ने का आदेश दिया। वहाँ पर मेरी ननसाल से करीब तीन किलोमीटर दूर एक इंटर कॉलेज था और सौभाग्य से उसी कॉलेज में मेरे मामा जी कृषि प्रसार अध्यापक थे। यह पद उन दिनों ऐसे कॉलेजों में होता था जिन कॉलेजों के पास अपने कृषि फार्म होते थे।

मैं अपनी ननसाल में रह कर पढ़ाई करने लगा। यहाँ पर यह भी बताना प्रासंगिक होगा कि मेरे पिताजी और ताऊ जी मूर्ति पूजा के विरोधी थे, इसलिए हमारे अपने घर पर मूर्ति पूजा नहीं होती थी, लेकिन मेरी ननसाल में मूर्ति पूजा होती थी, वे लोग सनातन हिन्दू धर्म के अनुयायी थे। मेरे दो मामा थे और दोनों के लड़कियां ही थीं, लड़का नहीं था। यूँ तो ननसाल में हर बच्चे का मन लगता है लेकिन घर में अकेला लड़का होने के कारण मैं सबका लाड़ला था। मेरी ममेरी बहनें भी मुझे बहुत प्यार करती थीं। नाना-नानी की तो पूछो ही मत, बहुत दुलार मिला दोनों का मुझको।
वहाँ पर रहते हुए मैंने देखा कि नानी हर जुमेरात यानि गुरुवार की शाम को गाँव की बाहरी सीमा पर स्थित एक पीर बाबा की मजार पर दिआ जलाने जाती थीं और नाना जी हर मंगलवार को गाँव के मन्दिर में बन्दरों को चने और गुड़ खिलाते थे। मैं तब तक यह जान चुका था कि पीर बाबा की मजार पर मुस्लिम लोग दिआ जलाते हैं। इसलिए एक स्वाभाविक जिज्ञासा तो थी कि नानी हिन्दू होते हुए भी पीर पर दिआ क्यों जलाती हैं, लेकिन मैंने कभी पूछा नहीं। वैसे मुस्लिम समाज के कुछ घर थे वहाँ, और मुस्लिम लोग तेली, धोबी, लुहार का काम करते थे। हमारा नौकर नवाब तेली था और मैं उसे भाई कहता था और उसकी मां को ताई कह कर बुलाता था, कुतुबुद्दीन नाम का धोबी का लड़का मेरा सहपाठी और अच्छा दोस्त था। तब रिश्ते मजहबी नहीं होते थे और अपने से बड़ी उम्र के हर व्यक्ति को नमस्ते करने का प्रचलन था चाहे वो नौकर ही क्यों न हो। मुझे अच्छी तरह याद है कि अनारो नाम की एक भंगन घर पर जानवरों का गोबर वगैरा उठाने के लिए आती थी, उसे मेरे मामाजी भाभी कह कर बुलाते थे। व्यक्ति और व्यक्ति के प्रति भाव महत्वपूर्ण थे, जाति, धर्म या सामाजिक हैसियत नहीं।
खैर, एक दिन घर पर हमारी गाय ने बछड़े को जन्म दिया। नानीजी ने गाय का जब पहला दूध निकाला तो मुझे बुला कर कहा कि मैं वह दूध पीर बाबा की मजार पर चढ़ा आऊँ। नाना-नानी, दादा-दादी से बच्चे अक्सर खुले होते हैं, इसलिए सहज ढंग से मैंने पूछ लिया कि क्यों? हम लोग तो हिन्दू हैं, नाना जी हनुमान मन्दिर जाते हैं, इसलिए हनुमान जी को ही यह दूध क्यों न चढ़ा आऊँ। नानी ने लगभग घूरते हुए मुझसे कहा कि जैसा कहा गया है वैसा करो। मैं चुपचाप पीर बाबा की मजार पर वो दूध चढ़ा आया।
फिर पड़ोस में ही एक लड़की की शादी हुई। मैं सुबह जब स्कूल जा रहा था तो मैंने देखा कि वह दुल्हन तांगे से उतर कर पीर बाबा की मजार पर गयी, वहाँ पर उसने मत्था टेका और फिर पर्दा करके तांगे में आकर बैठ गयी। मैंने अपने मन में तय कर लिया कि आज मौका देख कर मैं नानाजी या नानी से इस बारे में ज़रूर पूछूँगा। मैं करीब साढ़े चार बजे स्कूल से वापस लौटा तो नानाजी हनुमान मन्दिर पर ही मिल गये और वो मेरे साथ ही हो लिये। कुछ देर इधर-उधर की बातें करने के बाद मैंने नानाजी के सम्मुख अपनी जिज्ञासा प्रकट कर दी। नानाजी बोले कि अपनी नानी से ही पूछना। मैं समझ गया कि या तो नानाजी बताना नहीं चाह रहे हैं या फिर उन्हें भी इस बारे में ठीक से पता नहीं है। घर पहुँचा तो नानी चारपाई पर बैठी थीं, मुझे देख कर उठीं और मेरे लिए मलाईयुक्त एक गिलास दूध लायीं और साथ ही साथ ही कपड़े से उनके द्वारा तैयार की गयी एक गेंद भी उन्होंने मुझे दी। नानी कपड़े को रंगीन धागे से जींद कर बहुत सुन्दर गेंद बनाती थी। मैंने खुशी में नानी के पैर छुए और उन्होंने मुझे गले से लगा लिया। मुझे मौका सही लगा और मैंने पूछ ही लिया कि आपने उस दिन गाय का पहला दूध हनुमान जी के बजाय पीर बाबा को क्यों भिजवाया और वह दुल्हन हिन्दू होते हुए भी मन्दिर में जाने के बजाय पीर बाबा की मजार पर मत्था झुकाने क्यों गयी?
नानी बोलीं, तू अभी बच्चा है, तू नहीं समझेगा। मैंने कहा कि आप बताओ तो! वो बोलीं कि हनुमान जी हमारे देवता हैं लेकिन वह ब्रह्मचारी हैं, उन्हें मालूम नहीं है कि बच्चा जनने में कितनी पीडा होती है। पीर बाबा गृहस्थ थे, वे गृहस्थी संत थे, उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि गाय ने बछड़े को नौ महीने अपने गर्भ में रख कर कितने कष्टों से जना है। वह पहला दूध गाय और बछड़े की सलामती की दुआ माँगने के लिए चढ़ाया था। उसी तरह से गाँव की हर लड़की शादी होने पर अपनी सुखद गृहस्थी की दुआ माँगने के लिए पीर बाबा को मस्तक नवा कर जाती है। मैंने पूछा कि फिर नानाजी ने मुझे यह सब क्यों नहीं बताया? नानी बोलीं कि तेरे नानाजी को भी स्त्रीत्व की पीड़ा का ज्ञान कैसे होगा! यह तो वो ही जानती है जो बच्चे को अपने पेट में पालती है।
नानी ने कुछ ही मिनटों में मुझे कई न भूलने वाले पाठ पढ़ा दिये थे। तत्कालीन स्वभाव की सरलता और सामाजिक समरसता के अलावा उन्होंने कितनी आसानी से मुझे समझा दिया था कि आराध्य देव होना अलग बात है और विषय विशेष की योग्यता रखना अलग बात है। कोई भी योग्यता धर्म आधारित नहीं होती और योग्य व्यक्ति चाहे किसी भी धर्म का हो, आदरणीय है। और यह भी कि पिता पोषक और मार्गदर्शी अवश्य है लेकिन माँ तो जननी है। जननी स्वयं में एक संस्था होती है।
नानी को गुजरे एक उम्र बीत गयी लेकिन उनकी बातें आज भी मुझे याद हैं।
- राजेन्द्र चौधरी

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