रविवार, अगस्त 07, 2011

आदमी

मेरा बचपन गाँव में बीता। तब के गाँव आज जैसे गाँव नहीं थे क्योंकि तब के आदमी आज जैसे नहीं थे। कुछ बातें जो बदल जानी चाहियें थीं, वो तो नहीं बदलीं; लेकिन जो बातें गाँव को गाँव बनाये हुए थीं, वो ज़रूर बदल गयीं। गाँव शहर से जुड़ गये, सुविधायें बढ़ गयीं, पर शहर का बाज़ार भी गाँव में जा पहुँचा। सहजता मिट गयी, बाज़ारूपन आ गया। सरलता खत्म हुई, नुमाइश की प्रवृत्ति बढ़ गयी। पुरानी हवेली को ढ़हा कर जब कोठी बनाई जाती है, तो उस हवेली के साथ बया के घोंसले भी जाते रहते हैं। हवेली की कभी पहचान रहा आम का पेड़ देखते ही देखते तख्तों में तबदील हो जाता है, क्योंकि अब कोठियों में आयातित किस्म के पौधे लगाये जाते हैं, आम के पेड़ के लिए वहाँ पर कोई जगह नहीं होती। आम के साथ वो कोयल भी चली जाती है जो बौर आने पर ऐसे कूकती थी मानों उसे अपार सम्पदा मिलने वाली हो। कोयल चली जाती है तो अपने साथ दिलों में घुलने वाली वो मिठास भी ले जाती है। बचपन में गायों तक के नाम होते थे – गौरी, श्यामा, आदि। अब गाँव में गायें ही नहीं दिखतीं। आज के विकासोन्मुख गाँवों में आप को शराब तो किसी भी समय मिल सकती है, गाय का दूध, गाय का घी दुर्लभ वस्तुएं है।

शहरी संस्कृति ने अपनी जड़ें जमा ली हैं गाँवों में भी। गाँव के व्यंजन अब यादों में या पुरानी हिन्दी की किताबों में ही रह गये हैं, अब वहाँ पर भी खाना-पीना शहरों जैसा ही है। गाँववासियों का पेशा खेती है, इसलिए जमीन, फसलें, हरियाली तो हैं लेकिन खाना-पीना, पहनावा, व्यवहार सब शहरी हो गया है। शहरों की हिरस-ओ-हवस में हम अपनी ग्रामीण संस्कृति को सहेज कर नहीं रख पाये। ऐसा क्यों होता है कि हमें परायी चीज ज्यादा आकर्षित करती है। दूसरे का पैसा, दूसरे की आमदनी, दूसरे के सुख, यहाँ तक कि दूसरे की बीवी अधिक लुभाते हैं। अपनी ताकतें, अपने हुनर, अपने रिश्ते, बेमानी क्यों लगने लगते हैं? दबे पाँव बनावट क्यों आ जाती है हमारे व्यवहार में?

मैं क्योंकि गाँव में पला हूँ, इसलिए मुझे पुरानी कहावतें अक्सर याद आ जाती हैं। यह कहानी कभी मेरी अम्मा ने सुनायी थी। यह लेख लिखते हुए स्मरण हो आयी, इसलिए आपके साथ बांटता हूँ:

“जब भगवान ने पहली बार आदमी की रचना की, तो उसे अपनी उस कृति को देख कर बहुत प्रसन्नता हुई। भगवान के पास जो भी हुनर था, उन्होंने वो सब अपनी उस कृति में उँडेल दिया। उस कृति में वो खुद बस गये। वो बैठे हुए अपनी इस रचना को निहार रहे थे कि द्वारपाल ने नारद जी के आगमन की सूचना दी। नारद जी में अवश्य ही कोई विशिष्ट गुण रहा होगा कि वो सभी के प्रिय थे। देवी, देवताओं, और राक्षसों के भी। मुझे हालांकि आज तक उनकी भूमिकायें समझ नहीं आयीं, लेकिन नारद पुराण के बजाय वापस अम्मा की कहानी पर लौटते हैं। भगवान जी ने द्वारपाल से नारद जी को ससम्मान उनके पास भेजने के लिए कहा। नारद जी पहुँचे, तो उस कृति को देख कर दंग रह गये। भगवान बोले, “नारद, मेरे पास जो भी था, वो सब मैंने अपनी इस कृति में ड़ाल दिया है। यह मेरा ही प्रतिरूप है। अब मैं इसे पृथ्वी लोक पर भेज दूँगा ताकि वहाँ पर भी मेरी बस्ती बस सके”। नारद तो नारद ठहरे, भगवान से बोले कि आपकी रचना तो अद्वितीय है लेकिन इसे ऐसे ही पृथ्वी पर ना भेजें, इसमें बहुत बड़ा खतरा है। भगवान ने जिज्ञासावश पूछा कि कैसा खतरा? नारद बोले, “भगवन, क्षमा करें, यह आपका प्रतिरूप है लेकिन पृथ्वी पर जाकर अगर इसे अभिमान हो गया कि मैं सर्वोत्तम हूँ, मेरे अन्दर सारे ईश्वरीय गुण हैं, तो क्या होगा? यह आदमी आपकी पूरी व्यवस्था के लिए चुनौती बन जायेगा”। भगवान पल भर के लिए सोच में पड़ गये और बोले कि नारद बात तो आपकी सही है, लेकिन मैं अपनी इतनी मेहनत से तैयार की गयी इस कृति को नष्ट नहीं करना चाहता। नारद बोले, “नष्ट करने की आवश्यकता नहीं है प्रभु, बस इसकी आँखों में थोड़ा बदलाव कर दीजिये। इन्हें वाह्यमुखी बना दीजिये, ये स्वभावतया बाहर की ओर देखें, बस इतना सुधार कर दीजिये”। भगवान बोले कि ठीक है लेकिन उससे क्या फर्क पड़ेगा? नारद बोले कि यह बाहर देखता रहेगा तो इसे अपने अन्दर विराजमान भगवान को देखने की फुरसत ही नहीं मिलेगी। इसे यह पता ही नहीं चलेगा कि आप खुद इसके अन्दर मौजूद हैं। भगवान ने ऐसा ही किया, आदमी की आँखें वाह्यमुखी बना दीं, वह अपने अन्दर झाँकता ही नहीं। अगर कभी भगवान की याद भी आये, तो उसे इधर-उधर ढूँढता रहता है। भगवान आदमी के अन्दर बैठे अपनी लीला देखते रहते हैं”।

हम बाहर की ओर देखने में व्यस्त हैं। दूसरे की हिरस करने की प्रवृत्ति हमें खुद से अनजान बना देती है। हम अपना अस्तित्व भूल कर हिरस की आँधीं में बहे चले जाते हैं। न तो हम दूसरे के जैसा बन पाते हैं, और ना ही खुद को सहेज कर रख पाते हैं। आँखें बंद करके सिर्फ सोया ही नहीं जाता, खुद में झांकने के लिए भी आँखें बंद करनी होती हैं। कभी कोशिश तो करो आँखें बंद करके अपने अन्दर देखने की। ज़िन्दगी नयी करवट लेने लगेगी।
- राजेन्द्र चौधरी

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