हिन्दी की एक समर्थ और प्रसिद्ध कवयित्री दीप्ति मिश्रा जी की एक अतुकांत कविता है –‘भगवान और इंसान’। वह कविता मेरे मानस पटल पर अंकित है। इस लेख का शुरू का आधा भाग उन्हीं की उस कविता से प्रेरित और प्रभावित है। इसलिए उनके शब्द भी हूबहू चले आये हैं और कहीं-कहीं पर मेरे शब्द भी कथ्य में शायद उनके शब्दों के साथ जुड़ गये हैं, इसीलिए मैं उनके शब्दों को “...” के रूप में नहीं रख पाया। लेकिन बाद का भाग मेरे मौलिक विचारों की मौलिक अभिव्यक्ति है। मेरे और उनके शब्दों व विचारों की आत्मा क्योंकि एक है, इसलिए आपको ये एक ही व्यक्ति के द्वारा व्यक्त विचार लगेंगे। अगर ऐसा होता है, तो शायद यही इस लेख की सफलता भी होगी, लेकिन लेखक-धर्म का निर्वाह करते हुए यह स्पष्ट कर देना मेरा दायित्व बन जाता है।
पता नहीं – किसने किसे बनाया, तुमने उसे बनाया या उसने तुम्हें। परन्तु तुम दोनों ही एक जैसा खेल खेलते हो, एक दूसरे के साथ। थोड़ी सी मिट्टी, थोड़ा सा पानी, थोड़ी सी आग, थोड़ी सी हवा, और थोड़ा सा आकाश लेकर गढ़ देते हो एक खिलोना। फिर खेलते हो उसके साथ, मन बहलाते हो अपना, कठपुतली सा नचाते हो उसे अपने मन के अनुसार। फिर जब मन भर जाता है या उकता जाते हो उससे, तो खत्म कर देते हो अपना खेल – फिर से मिला देते हो मिट्टी को मिट्टी में, पानी को पानी में, आग को आग में, हवा को हवा में, और आकाश को आकाश में। विलीन हो जाते हैं ये सब फिर से अपने मूल रूप में।
ऐसा ही खेल वह भी खेलता है तुम्हारे साथ। बड़े उत्साह, बड़े चाव, और बड़ी मेहनत से वह भी गढ़ता है तुम्हें कभी गणपति तो कभी दुर्गा के आकार में। बड़े उल्लास के साथ वह भी तुम्हारी प्राण-प्रतिष्ठा करता है। पूरा आयोजन करता है रीझने-रिझाने का। दीप-धूप, फल-फूल, रोली-अक्षत, नारियल-सुपारी, मेवा-मिष्ठान का अम्बार लगा देता है। आरती-अर्चना करता है तुम्हारी। अपने सगे-सम्बन्धियों को आमंत्रित करता है अपने इस अनुष्ठान में। पूरा पर्व सा चलता है कुछ दिन। फिर एक नियत अवधि के बाद, झूमता-नाचता, गाता-बजाता विसर्जित कर देता है तुम्हें जल में। और साथ ही विसर्जित हो जाता है उसका वो उत्साह और चाव भी। विसर्जित हो जाती है सारी श्रद्धा और भक्ति।
कई बार किसी नदी या समुद्र के किनारे बिखरे पड़े तुम्हारे छिन्न-भिन्न अंग-प्रत्यंग बताते हैं कि देह धारण कर लेने पर तुम भी टूटते हो, तुम भी बिखरते हो, तुम्हारी भी मृत्यु होती है। भगवान होकर भी नहीं बचा पाते स्वयं को मृत्यु से।
लेकिन – तुम्हारे द्वारा बनाया गया इंसान जीवन में एक बार ही मृत्यु को प्राप्त होता है और इंसान के द्वारा बनाये गये भगवान! तुम्हारी मृत्यु तो बार-बार होती है। होती चली आ रही है ...होती चली जायेगी। उकता जाने पर तुम भी विलीन कर देते हो इंसान को, तुम्हारा इंसान भी विलीन कर देता है अपने भगवान को। तुम भी मन बहलाते हो उससे, वह भी मन बहला रहा है तुमसे। न तुम रुकने का नाम लेते हो, न वो। न तुम्हारा खेल समझ आता है, न उसका।
जब-जब देह धरोगे तुम, तब-तब निश्चित रूप से मरोगे भी। देहधारी बन कर अमर कैसे बन पाओगे। किसी भी नाम से देह धारण कर लो – राम के नाम से आओगे तो सरयू में डूब कर मरोगे, कृष्ण के नाम से आओगे तो बहेलिये के तीर से मर जाओगे, जीसस बनोगे तो सूली पर लटकोगे, बुद्ध बनोगे तो भी मरोगे। इसलिए बेहतर है निराकार रहो। कोई यह तो नहीं कहेगा कि भगवान मृत्यु को प्राप्त हो गये।
यह दुनिया भले ही तुम्हारी रची हुई हो, लेकिन इसमें रह कर तुम अमर कैसे रह पाओगे। कोशिश तो कर चुके हो कितनी बार! तुम इंसान को प्यार करो, उसे राह दिखाओ और इंसान तुम्हें प्यार करे, बस इतना काफी है। समझाओ अपने इंसान को कि तुम निराकार हो, निर्विकार हो, शाश्वत हो, हर व्यक्ति में तुम्हारा ही अंश मौजूद है। तुम्हारा काम तुम्हारे ही पास रहने दे वो। यूँ बार-बार भिन्न-भिन्न आकार देकर तुम्हें आदमी की मौत न मारे वो।
आज मेरी इस वार्तालाप को ही मेरी पूजा मान लेना तुम!
- राजेन्द्र चौधरी
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