गुरुवार, अगस्त 04, 2011

साँस तो फूलेगी

बात आज से करीब बत्तीस वर्ष पहले की है। मैं देश के एक राष्ट्रीयकृत बैंक में सेवारत था और मुझे तब पहली बार उत्तर प्रदेश के तराई इलाके की एक ग्रामीण शाखा के प्रबन्धक के रूप में नियुक्त किया गया था। असल में वह शाखा मुझे ही खोलनी थी। उससे पहले मैं बैंक की पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर शहर में स्थित शाखा में कार्यरत था। मेरे बेटे ने एक साल पहले ही वहाँ के एक प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी माध्यम वाले स्कूल में अपनी पढ़ाई शुरू की थी। मैं इसलिए अपनी इस ग्रामीण शाखा के प्रबन्धक के रूप में नियुक्ति को लेकर थोड़ा परेशान था क्योंकि मैं जानता था कि उस ग्रामीण इलाके में इतने अच्छे स्कूल होने की सम्भावना नगण्य थी और ऐसा ही हुआ भी। मुझे बैंक ने वहाँ पर समीप के एक कस्बे में रहने की अनुमति तो दे दी लेकिन स्कूल की कोई अच्छी सुविधा वहाँ पर भी नहीं थी। मजबूरन गुरुद्वारे के एक स्कूल में बेटे का दाखिला कराना पड़ा। बाद में तहसीलदार महोदय और इलाके के कुछ सम्पन्न लोगों के सहयोग से एक हिन्दी माध्यम का स्कूल खुला।
बेटे की पढ़ाई के इतर बात करें तो मुझे और मेरे परिवार को और कोई परेशानी नहीं थी। मैं मूलत: एक ग्रामीण किसान परिवार से था, इसलिए उनके परिवेश और उनकी परेशानियों से भली भाँति परिचित था। जवान था, जोश था, और माता-पिता से मिले संस्कार साथ थे। मैंने ठान लिया कि अपने इस कार्यकाल में मैं किसानों की ईमानदारी के साथ विधिसम्मत भरपूर मदद करूँगा। इलाका छोटा था, इसलिए देखते ही देखते मेरी ईमानदारी और सुहृदयता की चर्चा होने लगी। लोग मेरी बहुत इज़्ज़त करते थे और अपने घरों की परेशानियाँ तक मुझे आकर बताते थे कि शायद मैं उनकी कुछ मदद कर सकूँ और मैंने यथासम्भव उनकी मदद की भी। छोटे लोगों की परेशानियाँ तो छोटी होती हैं लेकिन उनका स्वाभिमान बड़ा होता है। मैं उन लोगों के परिवार का हिस्सा जैसा बन गया। फिर बुजुर्गों के आशीर्वाद से प्राप्त मेरी समय की पाबन्दी, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, और व्यवहार कुशलता की आदतों ने भी मेरी प्रसिद्धि को पंख लगा दिये। पुरानी बात है, तब लोगों के तन इतने उजले और मन इतने मैले नहीं होते थे। मेरे सहकर्मियों के सहयोग से बैंक की वह शाखा एक आदर्श बैंक शाखा के रूप में अपनी पहचान बना चुकी थी।
खैर, एक रविवार के दिन बैंक के वकील, कुशल बाबू, जो मेरी ईमानदारी के कायल थे और मेरे घर के पास में ही रहते थे, सुबह के समय मेरे घर पर आये। हम लोग उस समय नाश्ता कर रहे थे। उनसे भी नाश्ता करने का आग्रह किया गया और वो भी साथ में नाश्ता करने लगे। जब मैंने पूछा कि क्या उनके आने का कोई विशेष प्रयोजन था तो वो बोले कि हाँ, मेरे घर पर एक बहुत ही ज्ञानी सन्यासी पधारे हुए हैं। वो चाहते थे कि मैं भी चल कर उनके दर्शन कर लूँ और कोई जिज्ञासा हो तो उनसे पूछूँ। मैं इन सन्यासियों से थोड़ा बच कर रहने में यकीन करता हूँ क्योंकि मेरा मानना है कि संतत्व एक गुण है और गृहस्थी होते हुए संतत्व अपनाना सन्यासी होने से अधिक महत्वपूर्ण है। मैंने विनम्रता के साथ इंकार कर दिया, तो वो बोले कि एक बार कुछ क्षणों के लिए चल कर देखने में क्या हर्ज है, आप चाहो तो कोई बात मत करना और थोड़ी देर बाद आ जाना। मैंने कहा कि तुम इतना इसरार कर रहे हो तो ठीक है, कुछ क्षणों के लिए शाम को आ जाऊँगा।
शाम को मैं कुशल बाबू के निवास पर पहुँचा। उन्होंने गर्मजोशी के साथ मेरा स्वागत किया और मुझे अन्दर कमरे में जहाँ पर वो सन्यासी बाबा एक तख्त पर विराजमान थे लेकर गये। पाँच-सात लोग फर्श पर बिछी हुई दरी पर बैठे थे। मैंने प्रणाम किया और वकील साहब के द्वारा कुर्सी पर बैठने के आग्रह की ओर ध्यान न देते हुए मैं भी दरी पर ही बैठ गया। कुशल बाबू ने महात्मा जी को मेरा परिचय दिया। महात्मा जी मेरी ओर देख कर मुस्कुराये और मुझसे बोले कि कुछ पूछना हो तो पूछो। मैंने कहा कि आपका बहुत बहुत धन्यवाद मुझे कुछ पूछना नहीं है। लेकिन वो बोले कि नहीं कोई तो जिज्ञासा होगी, पूछो। मैंने फिर विनम्रता के साथ कहा कि जी नहीं कोई जिज्ञासा नहीं है। इस पर कुशल बाबू बोले कि मैनेजर साहब कुछ तो पूछो।
मेरे मन में पता नहीं कहाँ से उस समय एक प्रश्न जन्मा और मैंने महात्मा जी से पूछा कि जब ईश्वर चाहता है कि मनुष्य जीवन में सच्चाई और ईमानदारी के साथ जिये तो फिर सच्चे और ईमानदार लोगों को झूठे और बेईमान लोगों की तुलना में अधिक परेशानी क्यों उठानी पड़ती है?
महात्मा जी पल भर को मुस्कुराये और मेरी तरफ देख कर बोले कि मान लो आप किसी बिल्डिंग की सीढ़ियां चढ़ रहे हैं और उन सीढ़ियां की किसी बीच वाली सीढ़ी पर आपका कोई परिचित मिल जाये जो सीढ़ियां उतर रहा हो और आप दोनों उस सीढ़ी पर खड़े खड़े एक दूसरे की तरफ मुँह करके बातें करने लगें, तो क्या दूर से आप दोनों को देख कर यह बताया जा सकता है कि कौन सीढ़ियां चढ़ रहा है और कौन उतर रहा है? मैंने कहा कि नहीं बताया जा सकता। उन्होंने फिर पूछा कि और पास से? मैंने कहा पास से भी बताना मुश्किल होगा। वो बोले कि नहीं, पास जाकर बता पाना सम्भव होगा। जिसकी साँस फूल रही है वह चढ़ रहा है, जिसकी नहीं फूल रही है वो उतर रहा है। सीढ़ियां चढ़ोगे तो साँस तो फूलेगी ही।
महात्मा जी ने बड़े सरल शब्दों में मुझे कभी न भूल पाने वाली सीख दे दी थी।
हम जीवन की सीढ़ियां चढ़ना चाहते हैं या नहीं, यह निर्णय हमें लेना है, लेकिन सीढ़ियां चढ़ेंगे तो साँस तो फूलेगी ही। फिर शिकायत कैसी?
- राजेन्द्र चौधरी

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