एक थी चिड़िया। आकार में छोटी लेकिन उत्साह और ऊर्जा से भरपूर। उसे लगता था कि आकाश का विस्तीर्ण फैलाव उसे आमंत्रण दे रहा है कि आओ अपने पंख खोलो और नाप कर देखो मेरा विस्तार! युवा थी, आँखों में सपने थे, अपने परों पर भरोसा था, एक दिन ठान ली पृथ्वी के दूरस्थ सिरे तक उड़ान भरने की और पृथ्वी के उत्तरी छोर पर जाकर उसकी छटा निहारने की। आँखों में सपने हों और खुद पर भरोसा हो, तो स्वत: रगों में खून के साथ साहस प्रवाहित होने लगता है। उड़ चली चिड़िया भी एक दिन अपने अभिलाषित गंतव्य की ओर। दूरियां कैसी भी हों, थकाती हैं। स्वाभाविक है उड़ती उड़ती चिड़िया भी थकती, कुछ देर सुस्ताने बैठ जाती, फिर से वह नन्हीं सी जान पूरा हौसला बटोर कर उड़ने लगती। उसके लिए यह दूरी तय कर पाना बहुत मुश्किल था लेकिन उसका विश्वास और संकल्प अटल था। किसी पेड़ पर रात्रि में विश्राम करती, इधर-उधर से किसी तरह भोजन की व्यवस्था करती, और फिर चल देती अपनी लक्षित दिशा की ओर।
स्थान परिवर्तन के साथ-साथ जलवायु और मौसम परिवर्तन के दौर से भी गुजरना पड़ता उसे। रास्ते में उसे अपने से भिन्न रंग रूप की चिड़ियाएं दिखतीं। कोई उसकी ओर उत्सुकता से देखती तो कोई आश्चर्य से। एक प्रौढ़ चिड़िया ने उससे उसके गंतव्य के बारे में पूछा, चिड़िया ने भोलेपन से बताया कि मुझे पृथ्वी के उत्तरी छोर पर पहुँचना है। प्रौढ़ चिड़िया ने उस नन्हीं सी चिड़िया की ओर देखा और मुस्कुरा कर कहा - पृथ्वी का उत्तरी छोर तो बहुत दूर है, वहाँ तक उड़ना तुम्हारे बस की बात नहीं है। फिर वहाँ का मौसम भी पता नहीं कैसा हो। तुम्हारे लिए अच्छा होगा कि तुम अपना इरादा बदल लो। नन्हीं चिड़िया को उसकी सीख चुनौती लगी। आयु का बुनियादी फर्क शायद यही होता है। चिड़िया ने गहरी साँस ली, कुछ सोचा और फिर से चल पड़ी अपनी मंजिल की ओर।
खैर, रास्ते की अनेकों बाधाओं और चुनौतियों को अपने संकल्प की शक्ति से पार करते हुए किसी तरह एक दिन उसे लगा कि अब मंजिल शायद दूर नहीं है। ठंड की तीव्रता उसे मंजिल करीब होने के संकेत दे रही थी। मन ही मन खुश हुई लेकिन मौसम की विषमता की यह परीक्षा तो उसके लिए अत्यंत कड़ी थी। अपने साहस और जीवट की उष्मा बटोरती, थोड़ा उड़ती, फिर पंख हिम्मत हार जाते। अब उड़ना तो दूर जीवित रह पाना मुश्किल हो गया था। चारों ओर दूर-दूर तक बर्फ ही बर्फ नजर आ रही थी। जो पेड़ पौधे भी थे, तो उन पर भी बर्फ जमी हुई थी। एक जगह बैठी विचार ही कर रही थी कि तीव्र हिमपात शुरू हो गया और चिड़िया बर्फ में दब गयी। बर्फ में दबी चिड़िया ने सोचा - बस हो गया खेल खत्म। अब तो इस बर्फ में ही जम जायेगा मेरी रगों का खून। सारी मेहनत पर पानी फिर गया। इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता।
थोड़ी देर बाद हिमपात बंद हुआ। चिड़िया ने हिम्मत जुटा कर अपना शरीर हिलाया-डुलाया लेकिन उसके ऊपर बर्फ की चादर काफी मोटी थी, चिड़िया उसी में सिमटी बैठी रही। पता नहीं कहीं से बर्फ से ओत-प्रोत कोई पहाड़ी भालू उधर आया और बर्फ के उस ढेले के ऊपर से होता हुआ गुजरा जिसमें वह चिड़िया दबी हुई थी। भालू के पंजे और उसके वजन से वह बर्फ का ढेला दब गया और चिड़िया के ऊपर बर्फ की मोटाई काफी कम हो गयी। चिड़िया मन में खुश हुई कि किसी न किसी तरह अपने ऊपर इस बची हुई बर्फ को तो वह हटा ही लेगी। तभी कुछ पहाड़ी जानवर उधर से गुजरे और उन्होंने उस बर्फ के ऊपर जिसमें वह चिड़िया थी, गोबर कर दिया। चिड़िया ने सोचा कि अब कुछ नहीं हो सकता – मैं किसी न किसी तरह अपने ऊपर से उस बर्फ को तो हटा लेती लेकिन उसके ऊपर हुए इस गोबर में तो मैं शर्तिया अब दब कर मर जाऊँगी। साँस भी कैसे ले पाऊँगी इसमें। इससे बुरा तो कुछ हो ही नहीं सकता। अब तो बस कुछ ही क्षण बचे हैं मेरी आयु के।
उदास, खिन्न, मृत्यु के इंतजार में नन्हीं चिड़िया, उस प्रौढ़ चिड़िया की सीख को अनसुना करने पर मन ही मन पछताने लगी। लेकिन गोबर की गर्मी से उसके ऊपर की बर्फ पिघलने लगी। यह देख कर चिड़िया की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। वह हर्षित हो उठी कि अब सारी परेशानियां खत्म, मौत टल गयी। तभी उधर से एक पहाड़ी बिल्ली गुजरी। बिल्ली ने रास्ते में पड़े हुए गोबर में कुछ हलचल देखी। चिड़िया बिल्ली की मौजूदगी से अनजान खुशी से नाच रही थी। बिल्ली आगे बढ़ी और उसने चिड़िया को अपना ग्रास बना लिया।
हमारे जीवन में भी कुछ ऐसा ही होता है। हम सपने देखते हैं और निकल पड़ते हैं उन्हें पूरा करने, हर चुनौती को नकारते हुए, हर सीख को अनसुना करते हुए, हर बाधा को पार करते हुए। फिर अचानक कुछ ऐसा होता है कि सारा उत्साह काफूर हो जाता है। लगता है कि इससे बुरा नहीं हो सकता था। फिर कुछ उम्मीद की किरण दिखती है, कोशिश करके फिर सहेजते हैं हम अपना आत्मबल। फिर कुछ ऐसा घटता है कि आगे रास्ता दिखायी नहीं देता। अचानक धुँध छटने लगती है, हम फिर खुशी से नाचने लगते हैं। फिर अचानक काल की बिल्ली झपट्टा मारती है और खत्म कर देती है हमारी जीवन-लीला।
दरअसल, हमें सिर्फ उतना ही दिखायी और सुनायी देता है जितना हम देखना और सुनना चाहते हैं। हम किसी स्थिति को अच्छा या बुरा इस आधार पर कहते हैं कि वह स्थिति उस समय हमारे अनुकूल है या प्रतिकूल। हमारा निर्णय समय या स्थिति विशेष के आधार पर होता है। ज़रूरी नहीं है कि हमें बुरी दिख रही स्थिति अनिष्टकारी हो और यह भी ज़रूरी नहीं है कि हमें अच्छी नज़र आ रही स्थिति वास्तव में अच्छी ही हो। लेकिन सोचो अगर वह चिड़िया खुशी से नाचने में मग्न नहीं होती तो हो सकता है कि गोबर में दबी पड़ी उस चिड़िया की ओर बिल्ली का ध्यान ही नहीं जाता और वह बच जाती। कितनी भी खुशी क्यों न हो, उसमें संयम और सावधानी खो देना, निश्चय ही अनिष्ट को आमंत्रण देना है।
- राजेन्द्र चौधरी
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