बुधवार, अगस्त 10, 2011

आदमी और सुनहरी मछली

“बात है तो विचित्र, किंतु फिर भी है। हो गया ‘प्रेम’ एक पुरुष को एक सुनहरी मछली से। लहरों से अठखेलियां करती, बलखाती, चमचमाती मछली भा गयी थी पुरुष को। टकटकी बाँधे पहरों देखता रहता वह उस चंचला की अठखेलियां। मछली को भी अच्छा लगता था पुरुष का यूँ निहारना। बँध गये दोनों प्रेम-बंधन में, मिलन की आकांक्षा स्वाभाविक थी।

पुरुष ने मछली से मनुहार की –“एक बार, सिर्फ एक बार जल से बाहर आने का प्रयत्न करो”। प्रिय-मिलन की लालसा इतनी तीव्र थी कि भाव-विह्वल हो मछली जल से बाहर आ गयी। छटपटा गयी, बुरी तरह छटपटा गयी, किंतु अब वह अपने प्रियतम की बाहों में थी। प्रेम की गहन अनुभूति में... कुछ पल को – सारी तड़प, सारी छटपटाहट जाती रही। एकाकार हो गये दोनों। प्रेम की पराकाष्ठा को पा लिया दोनों ने। तृप्त हो, प्रेमी ने उसे फिर से जल में प्रवाहित कर दिया। बड़ा विचित्र, बड़ा सुखद और साथ ही बड़ा दर्दनाक था यह मेल। हर बार पूरी शक्ति बटोर – चल पड़ती प्रेयसी अपने प्रियतम से मिलने। तड़फड़ाती-छटपटाती, प्रेम देती-प्रेम पाती, तृप्त करती-तृप्त होती फिर लौट आती वापस जल में।
बहुत दिनों तक चलता रहा यह खेल। एक दिन मछली को जाने क्या सूझी... उसने पुरुष से कहा –“आज तुम आओ!” पुरुष बोला –“मैं...मैं जल में कैसे आऊँ? मेरा दम घुट जायेगा”। मछली ने कहा –“कुछ पल को साँस रोक लो”। पुरुष बोला, “साँस रोक लूँ...यानि जीना रोक लूँ? एक पल ‘जीने’ ही तो आता हूँ तुम्हारे पास, साँस रोक लूँगा तो जियूँगा कैसे”?

मछली अवाक थी। एक ही पल में – पुरुष-प्रकृति और प्रेम के पारस्परिक सम्बन्ध का सच उसके सामने था। अब कुछ भी जानने-पाने और चाहने को शेष नहीं था। मछली ने निर्विकार भाव से पुरुष को देखा... फिर डूब गयी जल की अतल गहराइयों में। अनभिज्ञ पुरुष – ‘जीने’ की लालसा लिये, अभी तक बैठा सोच रहा है –मेरा दोष क्या है”?

ये शब्द मेरे नहीं हैं। मैंने इन्हें जस का तस आपके सामने रख दिया है बस, ताकि आपके मन के किसी कोने में ये सत्य का दिआ रोशन कर सकें। सच महत्वपूर्ण होता है, किसने कहा यह महत्वपूर्ण नहीं होता। प्रेम के सम्बन्ध का यह सच भावों के ज्वार में भी आपको अपनी और दूसरे की सीमाओं और मर्यादाओं का अहसास कराता रहे ताकि कोई भी रिश्ता कभी निरर्थक, बेमानी या बासी न लगे। रिश्तों की उष्मा बरकरार रहे।

मर्जी आपकी है, इसे स्वीकारें या न स्वीकारें।
- राजेन्द्र चौधरी

1 टिप्पणी:

  1. प्रेम के पारस्परिक सम्बन्ध का सच सामने आ जाने पर हम मछली की तरह निर्विकार भाव से क्यों नहीं देख पाते सामने वाले को? एक दूसरे से उलझना और एक दूसरे को दोष देना क्यूँ शुरू कर देते हैं हम?

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