मंगलवार, अगस्त 23, 2011

यात्रा

आज मैं अपनी ओर से कुछ भी नहीं लिखना चाहता क्योंकि जो मैंने अभी पढ़ा है, मैं कुछ देर उसके साथ रहना चाहता हूँ, उसे आत्मसात कर लेना चाहता हूँ। उन शब्दों की मौलिकता बनाये रखते हुए उन्हें यथावत आपके सामने रख रहा हूँ:

“एक था परमात्मा, एक थी आत्मा, और एक था शरीर। आत्मा ने परमात्मा से पूछा – मैं कौन हूँ? उत्तर मिला –एक अप्रत्यक्ष, अनश्वर, अपूर्ण सत्य। -पूर्ण कब होऊँगी? –जब मुझमें विलीन हो जाओगी। -विलीन कब होऊँगी? –जब यात्रा समाप्त हो जायेगी।

शरीर ने परमात्मा से पूछा -मैं कौन हूँ? उत्तर मिला –एक प्रत्यक्ष, नश्वर, अपूर्ण सत्य। -पूर्ण कब होऊँगा? –जब विदेह हो जाओगे। -विदेह कब होऊँगा? –जब यात्रा समाप्त हो जायेगी।

शरीर और आत्मा ने एक साथ पूछा –यात्रा कब समाप्त होगी? उत्तर मिला –जब तुम दोनों एक दूसरे का उद्धार करोगे।

एक तरफ था – निष्प्राण, निर्विकार, नश्वर अपूर्ण शरीर। दूसरी ओर थी - निराकार, निरालम्ब, शाश्वत अपूर्ण आत्मा। दोनों ही पूर्ण होना चाहते थे। आत्मा ने शरीर और शरीर ने आत्मा को स्वीकार लिया। शरीर को प्राण और आत्मा को आकार मिला, दोनों अभिव्यक्त हुए एक साथ। अद्भुत, अतुलनीय था यह महामिलन। आरम्भ हो गयी यात्रा और विकसित होने लगीं दोनों की वृत्तियां- एक उत्तर तो दूसरा दक्षिण, एक पूरब तो दूसरा पश्चिम। आत्मा शांत तो शरीर उद्विग्न। शरीर की अपनी आवश्यकता, आत्मा की अपनी मांग। शरीर की अपनी विवशता, आत्मा की अपनी दृढता। नतीजा सामने था – टकराव, बिखराव, टूटन, द्वन्द्व। शरीर धीरे-धीरे बलवान होता गया और क्षीण होती गयी आत्मा। आत्मा ने लाख सर पटका, लाख पुकारा, लाख अनुनय-विनय की, लेकिन भोग-विलास, काम-वासना में लिप्त बलशाली शरीर ने उसकी एक न सुनी। बहुत छटपटाई, बहुत तड़फड़ाई, बहुत कसमसाई आत्मा लेकिन फिर भी दम नहीं तोड़ सकी, अनश्वर जो थी। जब कोई विकल्प शेष न बचा तो चुपचाप, निर्मोही बन कर त्याग दिया आत्मा ने शरीर। क्षण भर में समाप्त हो गया सारा खेल। धराशायी पड़ा था बलशाली शरीर – निर्जीव और निर्विकार।

आत्मा ने परमात्मा से कहा –मेरी यात्रा समाप्त हुई; अब समाहित करो मुझे अपने आप में। परमात्मा ने कहा –अभी कहाँ समाप्त हुई तुम्हारी यात्रा? तुमने तो यात्रा अधूरी ही छोड़ दी। शरीर का उद्धार नहीं तिरस्कार किया तुमने। शरीर तो निर्विकार था, तुमने उसमें प्रवेश कर विकारयुक्त किया उसे। विकार का कारण तुम स्वयं हो, फिर शरीर का तिरस्कार क्यूँ? शरीर में रह कर ही तुम्हें उसे निर्विकार बनाना था। यही तुम्हारी परीक्षा थी, और यही शरीर की। तुम दोनों ही हार गये। पूर्णत्व हासिल करने के लिए – तुम्हें फिर से धारण करना होगा एक नया शरीर। फिर से आरम्भ करनी होगी एक नयी यात्रा।

तब से आज तक – जाने कितने शरीर धारण कर चुकी है आत्मा। निरंतर, सतत, अनवरत यात्रा किये जा रही है इस आस और विश्वास के साथ कि एक न एक दिन वह अपने शरीर को निर्विकार बना लेगी।

उधर – ऊपर बैठा परमात्मा रहस्यमय ढंग से मुस्कुरा रहा है क्योंकि उसने आज तक एक भी शरीर ऐसा नहीं बनाया – जो आत्मा के होते हुए निर्विकार हो”।

आपसे सिर्फ इतना अनुरोध है कि मेरी तरह इसके एक-एक शब्द पर ध्यान देते हुए इसे दोबारा पढ़िये और सोचिये तथा साधुवाद दीजिये मेरे साथ इन पंक्तियों की मूल लेखिका को।
-राजेन्द्र चौधरी

1 टिप्पणी:

  1. यह लेख प्रसिद्ध कवयित्री दीप्ति मिश्रा जी की एक अतुकांत कविता, ‘यात्रा’ से साभार उद्धृत है। साधुवाद दीप्ति जी को उनके इस उद्देश्यपरक चिंतन और सजीव अभिव्यक्ति के लिए।

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