लगभग अस्सी वर्ष की आयु के एक बुजुर्ग व्यक्ति के डॉक्टर ने उसे कुछ दिनों के लिए नर्सिंग होम में भर्ती होने की सलाह दी ताकि उसकी शारीरिक कमजोरी का सही से इलाज हो सके और कुछ आवश्यक जाँचें की जा सकें। उस व्यक्ति की दोनों आँखों की रोशनी जा चुकी थी। अभी कुछ दिन पहले उसकी सत्तर वर्षीय पत्नी का स्वर्गवास हुआ था और वह नि:संतान था। इस पर भी वह रोज सुबह उठ कर शेव करता, अच्छे से तैयार होता मानो उसे किसी ऑफिस में अपनी ड्यूटी पर जाना हो। उसकी यह दिनचर्या लोगों के लिए कौतुहल का विषय थी। व्यवहार से अत्यंत शालीन और विनम्र उस बुजुर्ग की आसपास के लोग बहुत इज़्ज़त करते थे। लोग अपनी परेशानियों के बारे में उससे न सिर्फ सलाह लेते थे बल्कि उसकी सलाह को मूल्यवान मानते थे।
खैर, एक दो दिन बाद वह व्यक्ति शहर के एक प्रसिद्ध नर्सिंग होम में भर्ती होने के लिए पहुँचा। लॉबी में काफी देर तक धर्यपूर्वक इंतजार करने के बाद उसका नम्बर आया। नर्स ने जब उसके पास आकर कहा कि अपका कमरा तैयार है, तो उसके चेहरे पर मुस्कान उभरी। नर्स ने उस अंधे बुजुर्ग व्यक्ति को व्हीलचेयर पर बिठाया और एलीवेटर के ज़रिये वह उसे कमरे के अन्दर लेकर गयी। नर्स ने उस कमरे की खिड़कियों पर टंगे हुए पर्दों तक का सारा विवरण उस व्यक्ति को बताया। बुजुर्ग व्यक्ति ने उत्साह के साथ कहा कि मुझे पसंद आया यह कमरा। नर्स ने कहा – “लेकिन सर आपने कमरा देखा कहाँ है, मैंने सिर्फ इसके बारे में आपको बताया है”। बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा – “इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। खुशी वह चीज है जिसके बारे में आप पहले से ही निर्णय ले लेते हैं। मुझे यह कमरा पसंद है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर नहीं करता कि इसमें फर्नीचर की व्यवस्था किस तरह से की गयी है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि मैंने अपने दिमाग को किस तरह व्यवस्थित किया हुआ है। मैंने इसे पसंद करने का निर्णय पहले ही ले लिया था। यह निर्णय मैं रोज सुबह उठने पर ले लेता हूँ। मेरे पास विकल्प है; मैं चाहूँ तो पूरा दिन बिस्तर में पड़ा अपनी ज़िन्दगी के दुखों को गिनने में बिता सकता हूँ, अपने शरीर के उन भागों के बारे में सोच कर, जो काम नहीं करते हैं, व्यथित हो सकता हूँ, या बिस्तर छोड़ कर शरीर के काम कर रहे भागों के बारे में सोच कर ईश्वर का आभार व्यक्त कर सकता हूँ। मेरे लिए हर दिन एक नया उपहार है, और जब तक मेरी आँखें खुलती रहेंगी, भले ही मैं उनसे देख नहीं पाता हूँ, मैं अपना पूरा ध्यान नये दिन पर और उन खुशनुमा यादों पर केन्द्रित रखूँगा जिन्हें मैंने अपनी ज़िन्दगी में जिया है”।
“बुढ़ापा एक बैंक अकाउंट की तरह है। आप इस अकाउंट से उतना ही और वही निकाल पायेंगे जो आपने जमा किया है। चिंता ट्रैडमिल पर चलने की तरह होती है, यह आपको व्यस्त रखती है लेकिन किसी मंज़िल पर नहीं पहुँचाती। खुश रहने के पाँच सरल नियम हैं – अपने दिल को नफरत से मुक्त करें, अपने दिमाग को चिंता से मुक्त करें, सादगी से जियें, लेने से ज्यादा दें, अपेक्षायें कम रखें”।
नर्स उस अंधे बुजुर्ग व्यक्ति की ओर हैरत से देखती रही। उसे लगा कि ज़िन्दगी तो आज समझ में आयी है। उस अंधे व्यक्ति की रोशन सलाह ने जीने का अर्थ समझा दिया। जो हमारे पास नहीं है, उसके लिए मलाल नहीं, जो है उसके प्रति कृतज्ञता का भाव ही ज़िन्दगी जीने का मार्ग प्रशस्त करता है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम कौन सा विकल्प चुनते हैं। जो नहीं है वह चिंता करने से आ नहीं जायेगा, बल्कि जो है वो भी जाता रहेगा। नफरतें ज़िन्दगी की जड़ों को सुखा देती हैं, अपेक्षायें पीड़ा देती हैं। सादगी के साथ दूसरों के लिए कुछ कर पाने के भाव से जियें, ज़िन्दगी बहुत खूबसूरत है।
- राजेन्द्र चौधरी
बुधवार, अगस्त 31, 2011
मंगलवार, अगस्त 30, 2011
समझदारी और बुद्धिमत्ता
उत्तर भारत के श्रेष्ठतम कहे जाने वाले अस्पताल में मस्तिष्क सम्बन्धी एक घातक बीमारी के इलाज के लिए भर्ती मेरे छोटे भाई की पत्नी के उपचार के सम्बन्ध में पिछले दिनों एक विकट स्थिति उत्पन्न हो गयी। उपचार के दौरान उसके मस्तिष्क पर सूजन आ गयी जो उसकी ज़िन्दगी के लिए खतरनाक थी। स्कैन करने वाले टैक्निशियन से लेकर अस्पताल के न्यूरोलॉजी विभाग के लगभग सभी डॉक्टरों की राय थी कि सर्जरी की जानी चाहिये। सर्जरी की तैयारियां भी हो गयीं, लेकिन न्यूरोलॉजी विभाग के अध्यक्ष डॉक्टर झा ने स्वयं आकर मरीज को देखा और उन्होंने सर्जरी स्थगित करने का निर्णय लिया। संयोगवश मेरी पुत्रवधु उस समय अस्पताल में मौजूद थी। उसने इसके बारे में डॉक्टर से विस्तार से चर्चा की और इस बारे में जानकारी चाही कि यह सूजन मरीज के लिए कितनी घातक हो सकती है। डॉक्टर के द्वारा यह बताये जाने पर कि बहुत घातक हो सकती है, उसे सर्जरी स्थगित कर देने का निर्णय अजीब लगा। उसने अस्पताल से सारी रिपोर्टें और स्कैन लेकर मेरे भाई और उसके पुत्र के साथ ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस के न्यूरोलॉजी विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष डॉक्टर मेहता का परामर्श लेना चाहा। डॉक्टर मेहता ने रिपोर्टों और स्कैंस को देखकर कहा कि सूजन काफी ज्यादा है और उनके विचार से सर्जरी तुरंत की जानी चाहिये। हालांकि मरीज के क्लिनिकल लक्षणों का इन रिपोर्टों और स्कैंस से पूरा पता नहीं चलता, लेकिन सर्जरी टालना अत्यंत जोखिमपूर्ण होगा। मेरी पुत्रवधु ने इलाज कर रहे डॉक्टर को डॉ. मेहता की राय बतायी, लेकिन डॉक्टर झा ने सर्जरी स्थगित रखने का अपना निर्णय नहीं बदला।
आप समझ सकते हैं कि हमारे लिए वो कितना कशमकश भरा दुविधापूर्ण समय रहा होगा। खैर, हमने अंतत: डॉक्टर झा के निर्णय पर भरोसा करना ही उचित समझा। अगले पाँच दिनों तक मरीज की स्थिति वैसी ही बनी रही और छठे दिन से सूजन घटने लगी, सर्जरी टल गयी। अब डॉक्टरों के मुताबिक मरीज की जान को खतरा नहीं है, पर स्थिति में सुधार की प्रक्रिया धीरे-धीरे शुरू होगी। क्या कहेंगे इस स्थिति में डॉ. मेहता, डॉ. झा और हमारे निर्णय के बारे में आप? दोनों डॉक्टर भारत के कुशलतम डॉक्टरों में गिने जाते हैं। मेरे विचार से डॉक्टर मेहता का सर्जरी करने का निर्णय समझदारी पूर्ण निर्णय था; डॉक्टर झा का सर्जरी रोके रखने या स्थगित करने का निर्णय सूझबूझ भरा यानि बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय था; डॉक्टर झा के निर्णय पर भरोसा करना हमारा समझदारी पूर्ण निर्णय था।
समझदारी या ज्ञान क्या है? शिक्षा या अनुभव के ज़रिये किसी विषय के सम्बन्ध में जानकारी, समझ, और निपुणता हासिल करना। इसका सम्बन्ध तथ्यों और डैटा पर आधारित उस ज्ञान से है जो किसी भी उस व्यक्ति को प्राप्त हो सकता है जिसके पास वांछित संसाधन हों और ज्ञान प्राप्त करने की चाह हो। इसीलिए कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति को अमुक विषय का विस्तृत ज्ञान या जानकारी है। यह नहीं कहा जाता कि अमुक व्यक्ति के पास अमुक विषय की विस्तृत बुद्धिमत्ता है। दूसरी ओर, बुद्धिमत्ता अनुभव और ज्ञान के आधार पर उचित समय पर समझदारी पूर्ण निर्णय लेने और उत्तम परामर्श देने की योग्यता है। किसी व्यक्ति के पास किसी विषय का भरपूर ज्ञान और समझ हो सकती है, लेकिन ज़रूरी नहीं कि उसके पास उस ज्ञान या जानकारी को सही समय पर, सही रूप में उपयोग करने की बुद्धिमत्ता हो। आप उच्चतम शिक्षा के द्वारा ज्ञान अर्जित कर सकते हैं, लेकिन बुद्धिमत्ता के लिए अनुभव अनिवार्य है।
ज्ञान वो है जिसकी आपको जानकारी है, बुद्धिमत्ता निर्णय लेने की योग्यता व क्षमता है। क्या जानना है, कितना जानना है, और उससे क्या करना है, मेरे विचार से यह योग्यता बुद्धिमत्ता कहलाती है। ज्ञान अर्जित किया जाता है, बुद्धिमता विकसित की जाती है। बुद्धिमत्ता न हो तो क्या हम ज्ञान का ठीक से उपयोग कर पायेंगे? मोटे तौर पर कहें तो यह जानना कि टमाटर एक पौधे विशेष का फल है, ज्ञान है; लेकिन बुद्धिमत्ता यह जान लेना है कि टमाटर ‘फ्रूट सलाद’ में नहीं ड़ाला जाता। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम ज्ञानवान बनना चाहते हैं या बुद्धिमान।
- राजेन्द्र चौधरी
आप समझ सकते हैं कि हमारे लिए वो कितना कशमकश भरा दुविधापूर्ण समय रहा होगा। खैर, हमने अंतत: डॉक्टर झा के निर्णय पर भरोसा करना ही उचित समझा। अगले पाँच दिनों तक मरीज की स्थिति वैसी ही बनी रही और छठे दिन से सूजन घटने लगी, सर्जरी टल गयी। अब डॉक्टरों के मुताबिक मरीज की जान को खतरा नहीं है, पर स्थिति में सुधार की प्रक्रिया धीरे-धीरे शुरू होगी। क्या कहेंगे इस स्थिति में डॉ. मेहता, डॉ. झा और हमारे निर्णय के बारे में आप? दोनों डॉक्टर भारत के कुशलतम डॉक्टरों में गिने जाते हैं। मेरे विचार से डॉक्टर मेहता का सर्जरी करने का निर्णय समझदारी पूर्ण निर्णय था; डॉक्टर झा का सर्जरी रोके रखने या स्थगित करने का निर्णय सूझबूझ भरा यानि बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय था; डॉक्टर झा के निर्णय पर भरोसा करना हमारा समझदारी पूर्ण निर्णय था।
समझदारी या ज्ञान क्या है? शिक्षा या अनुभव के ज़रिये किसी विषय के सम्बन्ध में जानकारी, समझ, और निपुणता हासिल करना। इसका सम्बन्ध तथ्यों और डैटा पर आधारित उस ज्ञान से है जो किसी भी उस व्यक्ति को प्राप्त हो सकता है जिसके पास वांछित संसाधन हों और ज्ञान प्राप्त करने की चाह हो। इसीलिए कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति को अमुक विषय का विस्तृत ज्ञान या जानकारी है। यह नहीं कहा जाता कि अमुक व्यक्ति के पास अमुक विषय की विस्तृत बुद्धिमत्ता है। दूसरी ओर, बुद्धिमत्ता अनुभव और ज्ञान के आधार पर उचित समय पर समझदारी पूर्ण निर्णय लेने और उत्तम परामर्श देने की योग्यता है। किसी व्यक्ति के पास किसी विषय का भरपूर ज्ञान और समझ हो सकती है, लेकिन ज़रूरी नहीं कि उसके पास उस ज्ञान या जानकारी को सही समय पर, सही रूप में उपयोग करने की बुद्धिमत्ता हो। आप उच्चतम शिक्षा के द्वारा ज्ञान अर्जित कर सकते हैं, लेकिन बुद्धिमत्ता के लिए अनुभव अनिवार्य है।
ज्ञान वो है जिसकी आपको जानकारी है, बुद्धिमत्ता निर्णय लेने की योग्यता व क्षमता है। क्या जानना है, कितना जानना है, और उससे क्या करना है, मेरे विचार से यह योग्यता बुद्धिमत्ता कहलाती है। ज्ञान अर्जित किया जाता है, बुद्धिमता विकसित की जाती है। बुद्धिमत्ता न हो तो क्या हम ज्ञान का ठीक से उपयोग कर पायेंगे? मोटे तौर पर कहें तो यह जानना कि टमाटर एक पौधे विशेष का फल है, ज्ञान है; लेकिन बुद्धिमत्ता यह जान लेना है कि टमाटर ‘फ्रूट सलाद’ में नहीं ड़ाला जाता। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम ज्ञानवान बनना चाहते हैं या बुद्धिमान।
- राजेन्द्र चौधरी
सोमवार, अगस्त 29, 2011
ग्रहणशीलता (Receptiveness)
मुझे पुराने सुमधुर हिन्दी गीत या जगजीत सिंह की गज़लें सुन कर अजीब सुकून महसूस होता है। मेरे मन की उद्विग्नता शांत होती है इन्हें सुन कर। आपके साथ भी ऐसा होता होगा कि आपका मन कुछ सुनने को उत्सुक रहता होगा। हर कवि हृदय व्यक्ति में तीव्र लालसा होती है कुछ नया लिखने पर किसी को सुनाने की। वैसे चाह हम सभी की रहती है कि कोई हो जो हमारी सुने, कोई हो जो अपने कान धरे हमारी बात पर। मैंने पाया है कि सुनने-सुनाने की चाह देखने-दिखाने की अपेक्षा कहीं अधिक प्रबल होती है। कोई तुम्हें एकटक देख रहा हो तो वो स्थिति परेशान कर देती है, मन में अनेक शंकायें पैदा कर देती है। लेकिन अगर कोई तुम्हें ध्यान से सुन रहा हो, तो अच्छा लगता है। उस व्यक्ति के प्रति प्रशंसा का भाव पैदा होता है मन में।
एक तरह से कहा जाये तो कोई अजनबी व्यक्ति जब हमें अपलक देखता है तो उसकी यह क्रिया असहज कर देने वाली लगती है, आक्रामक लगती है हमें। हम अपनी नज़रें घुमा लेते हैं उसकी ओर से। शायद इसीलिए कहा भी जाता है कि किसी को भी तीन सेकंड से अधिक तक देखना, शालीनता का उल्लंघन है। यह बात अपरिचित लोगों के सन्दर्भ में कही जाती है, प्रियजनों के सम्बन्ध में नहीं। पर अपरिचित लोग आपकी बात ध्यान से सुनें तो हम उन्हें सुहृदय व्यक्ति कहते हैं, कोई समय सीमा नहीं रखते हम सुनने की। कभी सोचा है आपने ऐसा क्यूँ होता है? देखने में एक तलाश है। हमें लगता है कि व्यक्ति कुछ तलाश रहा है हमारे शरीर में, इसलिए असहजता का बोध होता है। सुनने में ग्राह्यता है। सुनने वाला व्यक्ति कुछ ग्रहण कर रहा है हमसे। उसकी यह क्रिया हमें प्रदाता होने का बोध कराती है। शायद इसीलिए हमें किसी का सुनना अच्छा लगता है।
मेरा मानना है कि परमात्मा ने आँखों के बाबत हमें सुविधा दी है, जब चाहे हम अपनी आँखे बंद करके किसी चीज को देखना बंद कर सकते हैं। कानों के बाबत ऐसी सुविधा नहीं दी परमात्मा ने। हम अपने कानों को स्वत: बंद नहीं कर सकते। नींद में भी कान खुले रहते हैं, बंद नहीं होते। कुछ तो प्रयोजन ज़रूर रहा होगा ऐसा करने का। वैसे भी आँखों पर कितने पर्दे पड़े होते हैं हमारी, कितनी पर्तें होती हैं हमारी दृष्टि पर, कभी गौर किया है आपने? हमें वही दिखता है जो हम देखना चाहते हैं। किसी भी वस्तु का एक पक्ष ही तो दिख पाता है हमें। एक कंकड़ तक को समूचा नहीं देख पाते हम, उसका भी एक हिस्सा नज़रों से छिपा रहता है। कानों के साथ ऐसा नहीं होता, कान पूरा सुनते हैं। कान रिक्त होते हैं, आँखें रिक्त नहीं होतीं। किसी चीज को धारण कर पाने के लिए रिक्तता होनी ज़रूरी है, तभी तो धारण कर पायेंगे उस चीज को। रिक्तता सृजनशीलता की बुनियाद है। जो रिक्त नहीं, वो सृजनशील नहीं। नारी शायद इसीलिए पूज्य है क्योंकि वो अपनी रिक्तता सहेज कर रखती है, ग्रहणशील है वो, तभी तो सृजन का बीज धारण कर पाती है अपने अन्दर।
ग्रहणशीलता नींव है सृजनशीलता की। पुराने समय में जब टीवी और वीडियो की सुविधा नहीं थी, तो लोग सुनते-सुनाते थे, आज देखने-दिखाने पर जोर है। मुझे ऐसा कहने लिए क्षमा करें लेकिन शायद पहले लोग इसीलिए अधिक शालीन थे। आज उग्रता है। देखने-दिखाने में लाज और शालीनता की सीमायें कब पार हो गयीं, पता ही नहीं चला। जो दिखता है उसे पा लेने की बेचैनी है, बलात छीन लेने की प्रवृत्ति है, क्योंकि हमें वही दिखता है जो हम देखना चाहते हैं। हम पूर्वाग्रह-विहीन ग्रहणशील बनें, सम्यक भाव से दूसरे की सुनें, तो समाज में सौहार्द बढ़ेगा। स्वभाव से आक्रामकता दूर होगी। दुनिया बेहतर होगी।
- राजेन्द्र चौधरी
एक तरह से कहा जाये तो कोई अजनबी व्यक्ति जब हमें अपलक देखता है तो उसकी यह क्रिया असहज कर देने वाली लगती है, आक्रामक लगती है हमें। हम अपनी नज़रें घुमा लेते हैं उसकी ओर से। शायद इसीलिए कहा भी जाता है कि किसी को भी तीन सेकंड से अधिक तक देखना, शालीनता का उल्लंघन है। यह बात अपरिचित लोगों के सन्दर्भ में कही जाती है, प्रियजनों के सम्बन्ध में नहीं। पर अपरिचित लोग आपकी बात ध्यान से सुनें तो हम उन्हें सुहृदय व्यक्ति कहते हैं, कोई समय सीमा नहीं रखते हम सुनने की। कभी सोचा है आपने ऐसा क्यूँ होता है? देखने में एक तलाश है। हमें लगता है कि व्यक्ति कुछ तलाश रहा है हमारे शरीर में, इसलिए असहजता का बोध होता है। सुनने में ग्राह्यता है। सुनने वाला व्यक्ति कुछ ग्रहण कर रहा है हमसे। उसकी यह क्रिया हमें प्रदाता होने का बोध कराती है। शायद इसीलिए हमें किसी का सुनना अच्छा लगता है।
मेरा मानना है कि परमात्मा ने आँखों के बाबत हमें सुविधा दी है, जब चाहे हम अपनी आँखे बंद करके किसी चीज को देखना बंद कर सकते हैं। कानों के बाबत ऐसी सुविधा नहीं दी परमात्मा ने। हम अपने कानों को स्वत: बंद नहीं कर सकते। नींद में भी कान खुले रहते हैं, बंद नहीं होते। कुछ तो प्रयोजन ज़रूर रहा होगा ऐसा करने का। वैसे भी आँखों पर कितने पर्दे पड़े होते हैं हमारी, कितनी पर्तें होती हैं हमारी दृष्टि पर, कभी गौर किया है आपने? हमें वही दिखता है जो हम देखना चाहते हैं। किसी भी वस्तु का एक पक्ष ही तो दिख पाता है हमें। एक कंकड़ तक को समूचा नहीं देख पाते हम, उसका भी एक हिस्सा नज़रों से छिपा रहता है। कानों के साथ ऐसा नहीं होता, कान पूरा सुनते हैं। कान रिक्त होते हैं, आँखें रिक्त नहीं होतीं। किसी चीज को धारण कर पाने के लिए रिक्तता होनी ज़रूरी है, तभी तो धारण कर पायेंगे उस चीज को। रिक्तता सृजनशीलता की बुनियाद है। जो रिक्त नहीं, वो सृजनशील नहीं। नारी शायद इसीलिए पूज्य है क्योंकि वो अपनी रिक्तता सहेज कर रखती है, ग्रहणशील है वो, तभी तो सृजन का बीज धारण कर पाती है अपने अन्दर।
ग्रहणशीलता नींव है सृजनशीलता की। पुराने समय में जब टीवी और वीडियो की सुविधा नहीं थी, तो लोग सुनते-सुनाते थे, आज देखने-दिखाने पर जोर है। मुझे ऐसा कहने लिए क्षमा करें लेकिन शायद पहले लोग इसीलिए अधिक शालीन थे। आज उग्रता है। देखने-दिखाने में लाज और शालीनता की सीमायें कब पार हो गयीं, पता ही नहीं चला। जो दिखता है उसे पा लेने की बेचैनी है, बलात छीन लेने की प्रवृत्ति है, क्योंकि हमें वही दिखता है जो हम देखना चाहते हैं। हम पूर्वाग्रह-विहीन ग्रहणशील बनें, सम्यक भाव से दूसरे की सुनें, तो समाज में सौहार्द बढ़ेगा। स्वभाव से आक्रामकता दूर होगी। दुनिया बेहतर होगी।
- राजेन्द्र चौधरी
रविवार, अगस्त 28, 2011
अमूर्त
मैंने महसूस किया है कि बचपन से आज तक जैसे-जैसे मेरी आयु, मेरी परिपक्वता, और मेरा अनुभव बढ़ा है, मेरी जिज्ञासा और मेरी चाह मूर्त, गोचर, स्पर्श्य जिसे अंग्रेज़ी भाषा में Tangibles कहा जाता है के बजाय अमूर्त, अगोचर, अस्पर्श्य यानि Intangibles के प्रति अधिक बढ़ी है। बल्कि सच कहा जाये तो ये अमूर्त चीजें ही मुझे सदैव अमूल्य लगी हैं। दुनियादारी के इस मूर्त जीवन में निश्चय ही मूर्त वस्तुएं आवश्यक हैं लेकिन अमूर्त वस्तुओं का होना अनिवार्य है। पर्याप्त धन, दौलत, साधन, सुविधायें होना ज़रूरी हैं इस दुनिया में ढ़ंग से जीने के लिए, लेकिन सोचो अगर ये सब हों और प्रतिष्ठा न हो; ये सब हों और प्यार न हो; विश्वास न हो; अनुभूति न हो; संवेदना न हो; जिज्ञासा न हो; मर्यादा न हो; इंसानियत न हो; या फिर ऊर्जा न हो, तो किस काम के ये सब?
मैं कई बार सोचता हूँ कि आईना न होता तो कैसे पता चलता हमारा चेहरा कैसा है? स्थिर पानी में भी सही से अक्स कहाँ दिख पाता है चेहरे का? खुद को नहीं देख पाते तो खुद से प्रेम कैसे होता? जीते रहते बेहिस यूँ ही। कभी किसी दूसरे व्यक्ति की आँखों में देख लेने भर से या उसके प्रति आदर या स्नेह की अभिव्यक्ति भर से अगर उस व्यक्ति के चेहरे पर एक चमक, एक खुशी पैदा हुई तो कितना अच्छा लगता है खुद को, कितना सार्थक लगने लगता है अपना वजूद, अपना अस्तित्व? हमारी दृष्टि कौन सी मूर्त वस्तु थमा देती है उस व्यक्ति को? कोई नहीं। पर ऐसा करके हम उसके जीवन में एक उमंग भर देते हैं और खुद के लिए भी जीवन का एक अर्थ मिल जाता है हमें। मेरे लिये प्यार या प्रेम की परिभाषा बस यही है, बाकी सब तो शब्दजाल है, अलंकार है।
प्रेम हमारे जीवन को मायने देता है। मैं प्रेम को आत्मा का भोजन मानता हूँ। प्रेम आत्मा में छिपी हुई परमात्मा की ऊर्जा है। प्रेम आत्मा में निहित परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग है। तभी तो कहा भी जाता है कि परमात्मा तक पहुंचने के दो ही मार्ग हैं – प्रेम का मार्ग और ज्ञान का मार्ग। प्रेम अगर आत्मा का भोजन है तो बिना भोजन के आत्मा छटपटायेगी भी, अस्वस्थ भी होगी ही। इसीलिए जब बेहद नकारात्मक बातें करने वाला कोई व्यक्ति मुझे मिलता है, तो मैं अपने आप से कहता हूँ कि अस्वस्थ आत्मा का वाहक है वो, बीमार है वो। उसने कभी किसी को सही अर्थों में प्यार किया नहीं, और शायद सही अर्थों में प्यार पाया नहीं। प्रेम आत्मा को स्वस्थ बनाता है। आत्मा अस्वस्थ होगी तो उसमें छिपी परमात्मा की ऊर्जा स्वस्थ कैसे होगी? इसीलिए मेरा मानना है कि ऐसा व्यक्ति लाख पूजा-पाठ करे, लाख कथा-सत्संग सुने, परमात्मा उसकी पहुँच से दूर ही रहेगा। परमात्मा का अंश ही तो है हमारी देह में छिपी हुई आत्मा भी। शरीर तो सिर्फ पात्र है, एक आवरण है आत्मा का। बर्तन में रखी हुई वस्तु ठीक रहे, इसके लिए बर्तन का निर्मल होना भी ज़रूरी है। यानि निर्मल और स्वस्थ देह, उसमें निर्मल और स्वस्थ आत्मा का वास ही हमें निर्मल और स्वस्थ इंसान बनाता है। बाकी सब तो छलावा है, प्रपंच है। प्रेम अमूर्त है, आत्मा अमूर्त है, परमात्मा अमूर्त है। शायद इसीलिए मेरे लिए इस जीवन में ये अमूल्य हैं। प्रेम इन तीनों में पहली कड़ी है।
कभी किसी को निस्वार्थ, निष्पाप, निर्मल मन से प्रेम करके तो देखो, जीवन सार्थक और ऊर्जित लगने लगेगा। खुद ऊर्जित होगे तो दूसरे को ऊर्जा दे पाओगे। सकारात्मक ऊर्जा का विस्तार हो सकेगा। मन स्वस्थ होगा तो तन स्वस्थ होगा, आत्मा स्वस्थ होगी। आत्मा स्वस्थ होगी तो परमात्मा अदृश्य, अप्राप्य ही सही, पर शायद उसका सामीप्य तो महसूस हो सकेगा। बस मेरे लिए तो इतना पर्याप्त है इस जीवन में।
- राजेन्द्र चौधरी
मैं कई बार सोचता हूँ कि आईना न होता तो कैसे पता चलता हमारा चेहरा कैसा है? स्थिर पानी में भी सही से अक्स कहाँ दिख पाता है चेहरे का? खुद को नहीं देख पाते तो खुद से प्रेम कैसे होता? जीते रहते बेहिस यूँ ही। कभी किसी दूसरे व्यक्ति की आँखों में देख लेने भर से या उसके प्रति आदर या स्नेह की अभिव्यक्ति भर से अगर उस व्यक्ति के चेहरे पर एक चमक, एक खुशी पैदा हुई तो कितना अच्छा लगता है खुद को, कितना सार्थक लगने लगता है अपना वजूद, अपना अस्तित्व? हमारी दृष्टि कौन सी मूर्त वस्तु थमा देती है उस व्यक्ति को? कोई नहीं। पर ऐसा करके हम उसके जीवन में एक उमंग भर देते हैं और खुद के लिए भी जीवन का एक अर्थ मिल जाता है हमें। मेरे लिये प्यार या प्रेम की परिभाषा बस यही है, बाकी सब तो शब्दजाल है, अलंकार है।
प्रेम हमारे जीवन को मायने देता है। मैं प्रेम को आत्मा का भोजन मानता हूँ। प्रेम आत्मा में छिपी हुई परमात्मा की ऊर्जा है। प्रेम आत्मा में निहित परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग है। तभी तो कहा भी जाता है कि परमात्मा तक पहुंचने के दो ही मार्ग हैं – प्रेम का मार्ग और ज्ञान का मार्ग। प्रेम अगर आत्मा का भोजन है तो बिना भोजन के आत्मा छटपटायेगी भी, अस्वस्थ भी होगी ही। इसीलिए जब बेहद नकारात्मक बातें करने वाला कोई व्यक्ति मुझे मिलता है, तो मैं अपने आप से कहता हूँ कि अस्वस्थ आत्मा का वाहक है वो, बीमार है वो। उसने कभी किसी को सही अर्थों में प्यार किया नहीं, और शायद सही अर्थों में प्यार पाया नहीं। प्रेम आत्मा को स्वस्थ बनाता है। आत्मा अस्वस्थ होगी तो उसमें छिपी परमात्मा की ऊर्जा स्वस्थ कैसे होगी? इसीलिए मेरा मानना है कि ऐसा व्यक्ति लाख पूजा-पाठ करे, लाख कथा-सत्संग सुने, परमात्मा उसकी पहुँच से दूर ही रहेगा। परमात्मा का अंश ही तो है हमारी देह में छिपी हुई आत्मा भी। शरीर तो सिर्फ पात्र है, एक आवरण है आत्मा का। बर्तन में रखी हुई वस्तु ठीक रहे, इसके लिए बर्तन का निर्मल होना भी ज़रूरी है। यानि निर्मल और स्वस्थ देह, उसमें निर्मल और स्वस्थ आत्मा का वास ही हमें निर्मल और स्वस्थ इंसान बनाता है। बाकी सब तो छलावा है, प्रपंच है। प्रेम अमूर्त है, आत्मा अमूर्त है, परमात्मा अमूर्त है। शायद इसीलिए मेरे लिए इस जीवन में ये अमूल्य हैं। प्रेम इन तीनों में पहली कड़ी है।
कभी किसी को निस्वार्थ, निष्पाप, निर्मल मन से प्रेम करके तो देखो, जीवन सार्थक और ऊर्जित लगने लगेगा। खुद ऊर्जित होगे तो दूसरे को ऊर्जा दे पाओगे। सकारात्मक ऊर्जा का विस्तार हो सकेगा। मन स्वस्थ होगा तो तन स्वस्थ होगा, आत्मा स्वस्थ होगी। आत्मा स्वस्थ होगी तो परमात्मा अदृश्य, अप्राप्य ही सही, पर शायद उसका सामीप्य तो महसूस हो सकेगा। बस मेरे लिए तो इतना पर्याप्त है इस जीवन में।
- राजेन्द्र चौधरी
शनिवार, अगस्त 27, 2011
सम्बुद्धि
कल हम चार लोग - मैं, मेरी पत्नी, मेरी छोटी बहन, और मेरी पत्नी की मझली बहन - मेरे छोटे भाई की पत्नी, जो कि पिछले दस दिनों से गुडगाँव के एक प्रसिद्ध अस्पताल के आईसीयू में भर्ती है, को देखने गये। अस्पताल के नियमों के मुताबिक दिन में दो बार – दोपहर में बारह बजे और शाम को सात बजे – सिर्फ पन्द्रह मिनट के लिए केवल एक व्यक्ति को ही आईसीयू में जाकर मरीज को देखने की इज़ाजत है। इसलिए अस्पताल में हमारे जाने का मुख्य उद्देश्य डॉक्टर से मरीज की वर्तमान मेडिकल स्थिति के बारे में और उनके आगे की चिकित्सा सम्बन्धी कार्ययोजना के बारे में जानकारी प्राप्त करना तथा अपने छोटे भाई और उसके पुत्र को व्यक्तिगत सम्बल प्रदान करना होता है। डॉक्टर ने बताया कि उनके विचार से अब स्थिति स्थिर हो गयी है और वे शाम तक मरीज को आईसीयू से प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट कर देंगे। उन्होंने इस स्थिति को बीच की स्थिति बताया, यानि उनके विचार से यह संकट की स्थिति से बाहर आने की स्थिति है और इसके बाद सुधार की प्रक्रिया शुरू होगी। अभी लगभग एक सप्ताह और रहना होगा उस अस्पताल में और उसके बाद स्थानीय अस्पताल में इलाज की आगे की प्रक्रिया शुरू होगी। मरीज के शरीर का पूरा दाँया भाग क्योंकि लगभग निष्क्रिय हो गया है, इसलिए दवाओं और नसों की कसरतों के साथ मरीज के बोल पाने और चलने-फिरने लायक होने में अभी महीनों लगेंगे। मैं कुछ घंटे भाई के साथ रहा, उसकी पत्नी के बच जाने पर ईश्वर को धन्यवाद दिया और अब आगे क्या और कैसे करना है, इसके बारे में आपस में मंत्रणा की। शाम को सात बजे के करीब हम वहाँ से वापस घर के लिए चल दिये।
वापसी में मेरी पत्नी की मझली बहन ने अतीत की तकलीफें गिनाने और भविष्य के अनिश्चय और आशंकाओं के बारे में ऐसा निर्बाध बोलना शुरू किया कि मुझे विवश होकर उसे चुप रहने के लिए कहना पड़ा। हम मुश्किल हालात से गुजर रहे हैं, मैं अपना पूरा ध्यान आज की स्थिति पर रखना चाहता हूँ, और उसके अनुसार खुद को तैयार करना चाहता हूँ। जो गुजर गया सो गुजर गया, उन पीड़ाओं को दिल से लगाये रखने से क्या मिलेगा? जो अभी आया नहीं, भविष्य है, उसके प्रति आशंकित रहने से क्या मिलने वाला है? कल तक हम सोचते थे किसी तरह हमारे मरीज की जान बच जाये, जान बच गयी तो हम अतीत की पीड़ायें गिनने लगे और भविष्य के प्रति मन में आशंकायें पालने लगे। ज्ञान और सामर्थ्य के सीमित होने पर अप्रिय हालात से लड़ने के लिए धैर्य रखना होता है। कुछ अप्रत्याशित अप्रिय घट जाने पर स्थिति से निबटने के लिए खुद को संभालना होता है, हौसला रखना होता है। मुझे ये सब बातें हौसला तोड़ने वाली लगती हैं। मुझे एक प्रतीक कथा स्मरण हो आयी:
एक बार सिकन्दर को एक फकीर के हाथ में बहुत चमकदार वस्तु दिखायी दी। सिकन्दर ने फकीर को पास बुलाया और उससे उस अद्वितीय चमकीली वस्तु के बारे में जानना चाहा। फकीर बोला कि मैं इसके बारे में नहीं बता सकता। सिकन्दर बोला कि हारना मैंने सीखा नहीं, तुम्हें बताना पड़ेगा कि यह चीज क्या है। फकीर बोला कि मैं नहीं बता सकता, सिर्फ इतना कह सकता हूँ कि तुम्हारी सारी धन दौलत इसके आगे कुछ भी नहीं है, बहुत हल्की है। आग्रही सिकन्दर ने फौरन एक बहुत विशाल तराजू मंगायी और उसके एक पलड़े में अपने सारे रत्न, हीरे, जवाहरात, सोना, चाँदी सब रख दिये और फकीर से दूसरे पलड़े में वो चमकीली वस्तु रखने के लिए कहा। फकीर ने तराजू के दूसरे खाली पलड़े में वो वस्तु रख दी। ऐसा करते ही ऊपर उठा हुआ वो खाली पलड़ा जमीन पर टिक गया और हीरे, जवाहरात, सोने, चाँदी वाला पलड़ा ऊपर उठ गया। सिकन्दर की आँखे हैरानी से फटी रह गयीं। वो फकीर के चरणों से लिपट गया और उस चीज के बारे में जानने की जिज्ञासा जाहिर की। फकीर बोला कि अब मैं तुमको इसके बारे में बता सकता हूँ क्योंकि अब यह तुम्हारा दम्भ और आग्रह नहीं बल्कि जिज्ञासा है। फकीर ने एक चुटकी मिट्टी ली और उस चमकीली वस्तु पर ड़ाल दी। यकायक चमकीली वस्तु वाला पलड़ा ऊपर उठ गया और हीरे, जवाहरात, सोने, चाँदी वाला पलड़ा नीचा हो गया। सिकन्दर की जिज्ञासा और बढ़ गयी, वह फकीर के चरणों में दण्डवत हो गया। फकीर ने कहा यह वस्तु कोई विचित्र वस्तु नहीं है, यह सम्बुद्धि है, मनुष्य के मन की आँख है यह। अद्भुत है, अमूल्य है, लेकिन जरा सी धूल पड़ जाये इस पर तो दो कौड़ी की होकर रह जाती है यह।
हम लोग अपने मन की आँख पर जाने कैसी-कैसी धूल, मिट्टी ड़ाले रहते हैं। अतीत एक बुझा हुआ अंगारा ही तो है, चिंगारी भी नहीं, राख ही राख है। हम अपने मन की आँख पर ड़ाले रहते हैं उसे। भविष्य एक धुंध ही तो है। जैसे सूरज पर बादलों का घेरा हो जाये। सूरज की रोशनी के लिए इन राख और धुंध के बादलों का छटना ज़रूरी है। अतीत है नहीं क्योंकि गुजर चुका, भविष्य है नहीं क्योंकि अभी आया नहीं, जो है वो वर्तमान है। हम वर्तमान में जीना क्यों नहीं चाहते? अतीत के दुखों को याद करके मरते रहते हैं, भविष्य की आशंकायें पाल कर मरते रहते हैं, जीते कहाँ हैं हम? जो है उसमें जीना नहीं, उसे संवारना नहीं, जो नहीं है उसमें मरते रहना नियति बना ली है हमने अपनी। दोषी परमात्मा नहीं, दोषी कोई और नहीं, दोषी हम खुद हैं क्योंकि ज़िन्दगी को जीने की आदत ही नहीं ड़ाली हमने। ज़िन्दगी वर्तमान है, वर्तमान में जीना कब सीखेंगे हम?
- राजेन्द्र चौधरी
वापसी में मेरी पत्नी की मझली बहन ने अतीत की तकलीफें गिनाने और भविष्य के अनिश्चय और आशंकाओं के बारे में ऐसा निर्बाध बोलना शुरू किया कि मुझे विवश होकर उसे चुप रहने के लिए कहना पड़ा। हम मुश्किल हालात से गुजर रहे हैं, मैं अपना पूरा ध्यान आज की स्थिति पर रखना चाहता हूँ, और उसके अनुसार खुद को तैयार करना चाहता हूँ। जो गुजर गया सो गुजर गया, उन पीड़ाओं को दिल से लगाये रखने से क्या मिलेगा? जो अभी आया नहीं, भविष्य है, उसके प्रति आशंकित रहने से क्या मिलने वाला है? कल तक हम सोचते थे किसी तरह हमारे मरीज की जान बच जाये, जान बच गयी तो हम अतीत की पीड़ायें गिनने लगे और भविष्य के प्रति मन में आशंकायें पालने लगे। ज्ञान और सामर्थ्य के सीमित होने पर अप्रिय हालात से लड़ने के लिए धैर्य रखना होता है। कुछ अप्रत्याशित अप्रिय घट जाने पर स्थिति से निबटने के लिए खुद को संभालना होता है, हौसला रखना होता है। मुझे ये सब बातें हौसला तोड़ने वाली लगती हैं। मुझे एक प्रतीक कथा स्मरण हो आयी:
एक बार सिकन्दर को एक फकीर के हाथ में बहुत चमकदार वस्तु दिखायी दी। सिकन्दर ने फकीर को पास बुलाया और उससे उस अद्वितीय चमकीली वस्तु के बारे में जानना चाहा। फकीर बोला कि मैं इसके बारे में नहीं बता सकता। सिकन्दर बोला कि हारना मैंने सीखा नहीं, तुम्हें बताना पड़ेगा कि यह चीज क्या है। फकीर बोला कि मैं नहीं बता सकता, सिर्फ इतना कह सकता हूँ कि तुम्हारी सारी धन दौलत इसके आगे कुछ भी नहीं है, बहुत हल्की है। आग्रही सिकन्दर ने फौरन एक बहुत विशाल तराजू मंगायी और उसके एक पलड़े में अपने सारे रत्न, हीरे, जवाहरात, सोना, चाँदी सब रख दिये और फकीर से दूसरे पलड़े में वो चमकीली वस्तु रखने के लिए कहा। फकीर ने तराजू के दूसरे खाली पलड़े में वो वस्तु रख दी। ऐसा करते ही ऊपर उठा हुआ वो खाली पलड़ा जमीन पर टिक गया और हीरे, जवाहरात, सोने, चाँदी वाला पलड़ा ऊपर उठ गया। सिकन्दर की आँखे हैरानी से फटी रह गयीं। वो फकीर के चरणों से लिपट गया और उस चीज के बारे में जानने की जिज्ञासा जाहिर की। फकीर बोला कि अब मैं तुमको इसके बारे में बता सकता हूँ क्योंकि अब यह तुम्हारा दम्भ और आग्रह नहीं बल्कि जिज्ञासा है। फकीर ने एक चुटकी मिट्टी ली और उस चमकीली वस्तु पर ड़ाल दी। यकायक चमकीली वस्तु वाला पलड़ा ऊपर उठ गया और हीरे, जवाहरात, सोने, चाँदी वाला पलड़ा नीचा हो गया। सिकन्दर की जिज्ञासा और बढ़ गयी, वह फकीर के चरणों में दण्डवत हो गया। फकीर ने कहा यह वस्तु कोई विचित्र वस्तु नहीं है, यह सम्बुद्धि है, मनुष्य के मन की आँख है यह। अद्भुत है, अमूल्य है, लेकिन जरा सी धूल पड़ जाये इस पर तो दो कौड़ी की होकर रह जाती है यह।
हम लोग अपने मन की आँख पर जाने कैसी-कैसी धूल, मिट्टी ड़ाले रहते हैं। अतीत एक बुझा हुआ अंगारा ही तो है, चिंगारी भी नहीं, राख ही राख है। हम अपने मन की आँख पर ड़ाले रहते हैं उसे। भविष्य एक धुंध ही तो है। जैसे सूरज पर बादलों का घेरा हो जाये। सूरज की रोशनी के लिए इन राख और धुंध के बादलों का छटना ज़रूरी है। अतीत है नहीं क्योंकि गुजर चुका, भविष्य है नहीं क्योंकि अभी आया नहीं, जो है वो वर्तमान है। हम वर्तमान में जीना क्यों नहीं चाहते? अतीत के दुखों को याद करके मरते रहते हैं, भविष्य की आशंकायें पाल कर मरते रहते हैं, जीते कहाँ हैं हम? जो है उसमें जीना नहीं, उसे संवारना नहीं, जो नहीं है उसमें मरते रहना नियति बना ली है हमने अपनी। दोषी परमात्मा नहीं, दोषी कोई और नहीं, दोषी हम खुद हैं क्योंकि ज़िन्दगी को जीने की आदत ही नहीं ड़ाली हमने। ज़िन्दगी वर्तमान है, वर्तमान में जीना कब सीखेंगे हम?
- राजेन्द्र चौधरी
गुरुवार, अगस्त 25, 2011
अभी टूटा नहीं मैं
पिछले नौ दिनों से मैं और मेरे सारे परिवारजन मानसिक यंत्रणा के दौर से गुजर रहे हैं। मेरे छोटे भाई की पत्नी, जो मेरी पत्नी की छोटी बहन भी है, नौ दिनों से उत्तर भारत के कुशलतम डॉक्टरों की टीम और आधुनिकतम चिकित्सा सुविधाओं से लैस अस्पताल के आईसीयू में भर्ती है। डॉक्टरों का कहना है कि उन्होंने अपने पूरे मेडिकल कैरियर में ऐसा केस कभी नहीं देखा। अभी भी स्थिति ऐसी है कि हम डॉक्टरों के चेहरे पर उभरते-मिटते भावों में ही अपनी उम्मीद और नाउम्मीदी के सिरे तलाश रहे हैं।
स्वाभाविक है कि परिवार में सभी लोगों की आँखों की नींद उड़ चुकी है। मैं परिवार में सबसे बड़ा हूँ, तो सभी लोग मेरे कंधे पर अपना सर रख कर कुछ राहत और हौसला पाने का अधिकार रखते हैं। मैं किसी तरह खुद को सहेजे हुए हूँ और अपने दायित्व का निर्वाह कर रहा हूँ। आज सुबह उठ कर बिस्तर पर चाय पी और बाहर पॉर्च में कुर्सी पर चुपचाप बैठा सिगरेट पी रहा था कि घर के दरवाजे के बाहर लगे पेड़ पर मेरी नज़रें टिक गयीं। नज़रें पेड़ पर थीं और मन स्मृतियों की किताब के पन्ने पलट रहा था। मुझे लगा कि मैं भी तो अपने वंश वृक्ष की एक शाख ही था। 1998 में अम्मा क्या गयीं कि मैं देखते ही देखते शाख से तने में तबदील होने लगा। फिर 2006-2007 में ज़िन्दगी में ऐसा तूफान आया कि पिताजी, मंझले भाई, और उसकी पत्नी ने अपनी-अपनी भूमिकायें मेरे कंधे पर ड़ाल दीं और उन्होंने भी अम्मा की तरह इस वृक्ष की जड़ों का रूप धारण कर लिया। मैं अब सिर्फ तना नहीं रहा, यकायक वृक्ष बन गया जिसकी जड़ें अम्मा-पिताजी के संस्कारों और मझले भाई व उसकी पत्नी के अदृश्य स्नेह व आदर से अपना भोजन प्राप्त कर रही हैं। अब मेरा दायित्व परिवार की बची हुई शाखों, उनके पत्तों, फूलों और फलों के प्रति है।
उम्र और अनुभव की लकीरें मेरे चेहरे पर भी साफ दिखने लगी हैं। अब अम्मा की गोद नहीं है मेरे पास अपना सिर रख कर रोने के लिए, पिताजी का हाथ नहीं है मेरी पीठ पर अब। आँखों के कोने गीले हो जाने पर चुपचाप चतुराई के साथ रुमाल से खुद ही पोंछ लेता हूँ मैं ताकि मेरी पत्नी, मेरे छोटे भाई व बहन और बच्चों की नज़र न पड़ जाये उन पर। मैं उनके लिए हौसले का आलम्ब हूँ। अपने जीते जी नहीं टूटने दूँगा उनके हौसले। मेरा यह संकल्प ही मेरी ऊर्जा है और शायद यही मेरे लिए दुनिया से रुखसत हो चुके मेरे अम्मा-पिताजी, मझले भाई और उसकी पत्नी का श्राद्ध व तर्पण भी। रोज सुबह उठ कर अपने जूतों के तस्मे बाँधता हूँ और चल पड़ता हूँ अपने जीवन की इस दायित्व-यात्रा पर। यह और बात है कि अब उतना कसाव नहीं आ पाता तस्मो में, ढीले होने लगते हैं ज़ल्दी ही। थोड़ा चलने पर ही साँस फूलने लगता है लेकिन मैं थका हूँ, टूटा नहीं हूँ अभी मैं। अपनी रीढ़ को सहेज कर रखा है मैंने। साहस बटोरने के लिए मन ही मन में दोहराने लगता हूँ मराठी कवि कुसुमाग्रज की ‘कणा’ शीर्षक की अतुकांत कविता के गुलज़ार साहब द्वारा किये गये हिन्दी रूपांतर की पंक्तियां जिसमें गंगा की बाढ़ में अपना सब कुछ लुटा देने के बाद एक आदमी अपने छात्र जीवन के एक अध्यापक के घर आता है। उस कविता के शब्दों से आत्मबल और ढ़ाढ़स मिलता है मुझे:
"सर, मुझे पहचाना क्या?"
बारिश में कोई आ गया
कपड़े थे मुचड़े हुए और बाल सब भीगे हुए
पल को बैठा, फिर हँसा, और बोला ऊपर देखकर
"गंगा मैया आई थीं, मेहमान होकर
कुटिया में रह कर गईं!
माइके आई हुई लड़की की मानिन्द
चारों दीवारों पर नाची
खाली हाथ अब जाती कैसे?
खैर से, पत्नी बची है
दीवार चूरा हो गई, चूल्हा बुझा,
जो था, नहीं था, सब गया!
"प्रसाद में पलकों के नीचे चार क़तरे रख गई है पानी के!
मेरी औरत और मैं, सर, लड़ रहे हैं
मिट्टी कीचड़ फेंक कर,
दीवार उठा कर आ रहा हूँ!"
जेब की जानिब गया था हाथ, कि हँस कर उठा वो...
’न न’, न पैसे नहीं सर,
यूं ही अकेला लग रहा था
घर तो टूटा, रीढ़ की हड्डी नहीं टूटी मेरी...
हाथ रखिये पीठ पर और इतना कहिये कि लड़ो... बस!"
मैं भी अम्मा-पिताजी के फोटो की तरफ देख कर यही कहता हूँ कि अदृश्य ही सही, पर हाथ रखिये पीठ पर मेरी और इतना कहिये कि लड़ो हालात से बस!
- राजेन्द्र चौधरी
स्वाभाविक है कि परिवार में सभी लोगों की आँखों की नींद उड़ चुकी है। मैं परिवार में सबसे बड़ा हूँ, तो सभी लोग मेरे कंधे पर अपना सर रख कर कुछ राहत और हौसला पाने का अधिकार रखते हैं। मैं किसी तरह खुद को सहेजे हुए हूँ और अपने दायित्व का निर्वाह कर रहा हूँ। आज सुबह उठ कर बिस्तर पर चाय पी और बाहर पॉर्च में कुर्सी पर चुपचाप बैठा सिगरेट पी रहा था कि घर के दरवाजे के बाहर लगे पेड़ पर मेरी नज़रें टिक गयीं। नज़रें पेड़ पर थीं और मन स्मृतियों की किताब के पन्ने पलट रहा था। मुझे लगा कि मैं भी तो अपने वंश वृक्ष की एक शाख ही था। 1998 में अम्मा क्या गयीं कि मैं देखते ही देखते शाख से तने में तबदील होने लगा। फिर 2006-2007 में ज़िन्दगी में ऐसा तूफान आया कि पिताजी, मंझले भाई, और उसकी पत्नी ने अपनी-अपनी भूमिकायें मेरे कंधे पर ड़ाल दीं और उन्होंने भी अम्मा की तरह इस वृक्ष की जड़ों का रूप धारण कर लिया। मैं अब सिर्फ तना नहीं रहा, यकायक वृक्ष बन गया जिसकी जड़ें अम्मा-पिताजी के संस्कारों और मझले भाई व उसकी पत्नी के अदृश्य स्नेह व आदर से अपना भोजन प्राप्त कर रही हैं। अब मेरा दायित्व परिवार की बची हुई शाखों, उनके पत्तों, फूलों और फलों के प्रति है।
उम्र और अनुभव की लकीरें मेरे चेहरे पर भी साफ दिखने लगी हैं। अब अम्मा की गोद नहीं है मेरे पास अपना सिर रख कर रोने के लिए, पिताजी का हाथ नहीं है मेरी पीठ पर अब। आँखों के कोने गीले हो जाने पर चुपचाप चतुराई के साथ रुमाल से खुद ही पोंछ लेता हूँ मैं ताकि मेरी पत्नी, मेरे छोटे भाई व बहन और बच्चों की नज़र न पड़ जाये उन पर। मैं उनके लिए हौसले का आलम्ब हूँ। अपने जीते जी नहीं टूटने दूँगा उनके हौसले। मेरा यह संकल्प ही मेरी ऊर्जा है और शायद यही मेरे लिए दुनिया से रुखसत हो चुके मेरे अम्मा-पिताजी, मझले भाई और उसकी पत्नी का श्राद्ध व तर्पण भी। रोज सुबह उठ कर अपने जूतों के तस्मे बाँधता हूँ और चल पड़ता हूँ अपने जीवन की इस दायित्व-यात्रा पर। यह और बात है कि अब उतना कसाव नहीं आ पाता तस्मो में, ढीले होने लगते हैं ज़ल्दी ही। थोड़ा चलने पर ही साँस फूलने लगता है लेकिन मैं थका हूँ, टूटा नहीं हूँ अभी मैं। अपनी रीढ़ को सहेज कर रखा है मैंने। साहस बटोरने के लिए मन ही मन में दोहराने लगता हूँ मराठी कवि कुसुमाग्रज की ‘कणा’ शीर्षक की अतुकांत कविता के गुलज़ार साहब द्वारा किये गये हिन्दी रूपांतर की पंक्तियां जिसमें गंगा की बाढ़ में अपना सब कुछ लुटा देने के बाद एक आदमी अपने छात्र जीवन के एक अध्यापक के घर आता है। उस कविता के शब्दों से आत्मबल और ढ़ाढ़स मिलता है मुझे:
"सर, मुझे पहचाना क्या?"
बारिश में कोई आ गया
कपड़े थे मुचड़े हुए और बाल सब भीगे हुए
पल को बैठा, फिर हँसा, और बोला ऊपर देखकर
"गंगा मैया आई थीं, मेहमान होकर
कुटिया में रह कर गईं!
माइके आई हुई लड़की की मानिन्द
चारों दीवारों पर नाची
खाली हाथ अब जाती कैसे?
खैर से, पत्नी बची है
दीवार चूरा हो गई, चूल्हा बुझा,
जो था, नहीं था, सब गया!
"प्रसाद में पलकों के नीचे चार क़तरे रख गई है पानी के!
मेरी औरत और मैं, सर, लड़ रहे हैं
मिट्टी कीचड़ फेंक कर,
दीवार उठा कर आ रहा हूँ!"
जेब की जानिब गया था हाथ, कि हँस कर उठा वो...
’न न’, न पैसे नहीं सर,
यूं ही अकेला लग रहा था
घर तो टूटा, रीढ़ की हड्डी नहीं टूटी मेरी...
हाथ रखिये पीठ पर और इतना कहिये कि लड़ो... बस!"
मैं भी अम्मा-पिताजी के फोटो की तरफ देख कर यही कहता हूँ कि अदृश्य ही सही, पर हाथ रखिये पीठ पर मेरी और इतना कहिये कि लड़ो हालात से बस!
- राजेन्द्र चौधरी
बुधवार, अगस्त 24, 2011
जीवट
मेरा आज का यह लेख दिनाँक 12 अगस्त 2011 के इकॉनोमिक टाइम्स के मुम्बई संस्करण में प्रकाशित एक न्यूज़ स्टोरी से प्रेरित है। उस न्यूज़ स्टोरी में एक साहसिक उद्यमी गणेश कृष्णन के पीरज़ादा अबरार को दिये गये एक साक्षात्कार का सारांश प्रकाशित किया गया था।
पाँच साल पहले, उद्यमशील प्रवृत्ति के धनी गणेश कृष्णन ने ट्यूटरविस्टा नामक एक ऑनलाइन शिक्षा सेवायें प्रदान करने वाली कम्पनी शुरू करने का जोखिम उठाया। यह कम्पनी अमेरिका जैसे देशों को अपनी सेवायें उपलब्ध कराती थी। बैंगलोर स्थित इस कम्पनी के लिए उस समय का यह जोखिम भरा दांव अत्यंत लाभप्रद साबित हुआ क्योंकि यूके – स्थित पब्लिशिंग हाउस पीयरसन ने सिर्फ पाँच साल पुरानी इस कम्पनी, जिसका बाज़ार आस्ति मूल्यांकन लगभग 1000 करोड़ आँका गया, का बहुत बड़ा हिस्सा 577 करोड़ में खरीद लिया। गणेश की इस उद्यम यात्रा और उनकी इस कम्पनी ट्यूटरविस्टा को अगले तीन वर्षों में 1 बिलियन डॉलर की कम्पनी बनाने के उनके सपने की कहानी अब आगे खुद गणेश की ज़ुबानी सुनिये:
“यह बात 1990 की है जब मैं HCL में वरिष्ठ प्रबन्धन श्रेणी में कार्यरत था कि एक दिन बैठे-बिठाये मुझे उद्यमशीलता नाम का यह वायरस लग गया। मैं मध्यम-आय वर्ग के परिवार से आया था जिसके पास सम्पत्ति नाम की कोई चीज नहीं थी, यहाँ तक कि अपना मकान तक नहीं था। इसलिए मेरा यह निर्णय जोखिम भरा था जिससे अधिकतर लोग हतप्रभ थे क्योंकि तब नये उद्यम दुर्लभ थे और वेंचर कैपिटल नाम की चीज उस समय अस्तित्व में नहीं थी। मेरे पिताजी का जिस समय स्वर्गवास हुआ उस समय मेरी उम्र केवल नौ वर्ष थी। मेरी माँ, जोकि एक सरकारी नौकरी में थीं, ने बिना किसी पारिवारिक सम्पत्ति या सहारे के मेरी परवरिश बहुत मुश्किल हालात में की थी। बैंक से कर्जा जमानत के तौर पर सम्पत्ति बंधक रखने पर और केवल पूँजीगत खरीद के लिए उपलब्ध था। सेवायें सम्बन्धी बिजनेस तब तक लोगों ने सुना नहीं था। उस माहौल में मैंने और मेरे साझीदारों ने मिलकर 93000 रुपये जुटाये ताकि हम कॉर्पोरेट संस्थाओं के लिए कम्प्यूटर रखरखाव सम्बन्धी सेवायें प्रदान करने वाली IT&T नामक अपनी निजी कम्पनी शुरू कर सकें। मेरी माँ और मेरी पत्नी की माँ दोनों इस बात को लेकर परेशान थीं कि मैं एक अच्छी खासी आरामदायक कॉर्पोरेट नौकरी छोड़ रहा हूँ और सारा पैसा ऐसे कारोबार में लगाने का जोखिम उठा रहा हूँ जिसमें किसी चीज का उत्पादन या निर्माण तक नहीं किया जाता। वे मुझे कम्प्यूटर मेकैनिक कह कर पुकारा करती थीं।
हमारी टीम ने बिना किसी बाहरी सहायता के, अपने बलबूते पर, 1990 से 1998 तक लगभग आठ वर्ष तक कम्पनी चलायी, और उस अवधि के दौरान हमारे 13 कार्यालय और 400 लोगों की टीम हो गयी। वर्ष 2000 में, हमारी कम्पनी एक लिमिटेड कम्पनी बनी और 2003 आते-आते हमने अपना बिजनेस iGate नामक कम्पनी को बेच दिया। मैंने, अपनी पत्नी मीना और एक अन्य बिजनेस साझीदार के साथ मिलकर CustomerAsset नाम का एक नया वेंचर शुरू किया। यह कम्पनी Yahoo और eBay जैसी इंटरनेट कम्पनियों को भारत से ई-मेल सहायता प्रदान करती। उसी वक्त IT बाज़ार में तेज़ गिरावट आयी और हमारे पास सर्विस करने के लिए कोई भी क्लाइंट नहीं रहा। मैंने ई-मेल सहायता से अपना ध्यान हटा कर वॉयस और कॉलसेंटर्स पर लगाया तथा Wal-Mart और Marks and Spencer’s जैसी बड़ी कम्पनियों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। दो वर्षों में हमारी कम्पनी में काम करने वाले लोगों की संख्या 1000 से भी अधिक हो गयी। मई 2002 में, भारत में निजी क्षेत्र के सबसे बड़े बैंक ICICI ने, 20 मिलियन डॉलर से भी अधिक की धनराशि अदा करके CustomerAsset का अधिग्रहण कर लिया। CustomerAsset, ICICI का एक स्रोत और अब भारत में उनका पहला स्रोत बन गयी। मेरे तीसरे वेंचर Marketics Technologies को एक वैश्विक कारोबारी प्रक्रिया आउटसोर्सिंग कम्पनी WNS ने वर्ष 2007 में 63 मिलियन डॉलर में खरीद लिया।
जिस दौरान बैंगलोर IT परिदृश्य पर असाधारण रूप से छाया हुआ था, मेरी नज़र एक कार्टून पर पड़ी जिसमें एक पिता अपने बच्चे से कह रहा था: “नहीं! तुम अपना होमवर्क बैंगलोर को आउटसोर्स नहीं कर सकते!” इसने मेरे मन में एक नयी विचार प्रक्रिया को प्रज्वलित कर दिया। मैंने सोचा, क्यों नहीं? इस विचार से TutorVista की उत्पत्ति हुई, क्योंकि मेरी नज़र ने अमेरिकी स्कूल शिक्षा में उभरता हुआ मार्केट पहचान लिया था। अगर आप तकलीफ का केन्द्रीय बिन्दु पहचान लेते हैं तो आपको अपने नये वेंचर यानि उद्यम के लिए विचार का बीज मिल जाता है।
सफल उद्यमी बनने के लिए दो बुनियादी चीजें ज़रूरी होती हैं – किसी विचार के प्रति ज़ुनून और तमाम सहज बुद्धि के विपरीत यह यकीन कर लेने की मूर्खता कि वह विचार कामयाब होगा! और अंत में, अपनी संभाव्यता को अधिक से अधिक बढ़ायें क्योंकि आपके पास केवल एक ही ज़िन्दगी है और उसमें कोई जाँच-परख या परीक्षण नहीं हो सकता है। कुछ बड़ा करने का लक्ष्य रखिये – भले ही आपकी कोशिश नाकाम हो जाये, लेकिन नाकामी भी शानदार ढंग में हो!”
आपने इससे पहले भी बहुत सी प्रेरणादायक कहानियां पढ़ी और सुनी होंगी। कुछ बातें सामान्यतया ऐसी सभी कहानियों में पायेंगे आप - सृजनशीलता अभावों में पलती है; सपने देखने का हुनर और तकलीफ में अवसर तलाश लेने की पैनी नज़र ऐसी कुँजियां हैं जो तकदीर के बंद दरवाज़े खोल देती है; खुद पर भरोसा और ईमानदारी के साथ सही दिशा में अथक मेहनत करने का ज़ज्बा देर-सबेर मंज़िल तक पहुँचा ही देता है; नाकामयाब हो जाने का डर कामयाबी की दिशा में आगे बढ़ने से पहले ही हमें रोक देता है; मौलिक विचार, उस पर विश्लेषणात्मक गहन चिंतन व समझदारी पूर्ण जोखिम उठाने का जीवट सबके पास नहीं होता, शायद इसीलिए सबको असाधारण सफलतायें हासिल नहीं होतीं। किसी ने सही कहा है:
”मंज़िलें उन्हीं को मिलती हैं जिनके सपनों में जान होती है,
पंख तो महज़ एक दिखावा हैं, हौसलों में उड़ान होती है”
- राजेन्द्र चौधरी
पाँच साल पहले, उद्यमशील प्रवृत्ति के धनी गणेश कृष्णन ने ट्यूटरविस्टा नामक एक ऑनलाइन शिक्षा सेवायें प्रदान करने वाली कम्पनी शुरू करने का जोखिम उठाया। यह कम्पनी अमेरिका जैसे देशों को अपनी सेवायें उपलब्ध कराती थी। बैंगलोर स्थित इस कम्पनी के लिए उस समय का यह जोखिम भरा दांव अत्यंत लाभप्रद साबित हुआ क्योंकि यूके – स्थित पब्लिशिंग हाउस पीयरसन ने सिर्फ पाँच साल पुरानी इस कम्पनी, जिसका बाज़ार आस्ति मूल्यांकन लगभग 1000 करोड़ आँका गया, का बहुत बड़ा हिस्सा 577 करोड़ में खरीद लिया। गणेश की इस उद्यम यात्रा और उनकी इस कम्पनी ट्यूटरविस्टा को अगले तीन वर्षों में 1 बिलियन डॉलर की कम्पनी बनाने के उनके सपने की कहानी अब आगे खुद गणेश की ज़ुबानी सुनिये:
“यह बात 1990 की है जब मैं HCL में वरिष्ठ प्रबन्धन श्रेणी में कार्यरत था कि एक दिन बैठे-बिठाये मुझे उद्यमशीलता नाम का यह वायरस लग गया। मैं मध्यम-आय वर्ग के परिवार से आया था जिसके पास सम्पत्ति नाम की कोई चीज नहीं थी, यहाँ तक कि अपना मकान तक नहीं था। इसलिए मेरा यह निर्णय जोखिम भरा था जिससे अधिकतर लोग हतप्रभ थे क्योंकि तब नये उद्यम दुर्लभ थे और वेंचर कैपिटल नाम की चीज उस समय अस्तित्व में नहीं थी। मेरे पिताजी का जिस समय स्वर्गवास हुआ उस समय मेरी उम्र केवल नौ वर्ष थी। मेरी माँ, जोकि एक सरकारी नौकरी में थीं, ने बिना किसी पारिवारिक सम्पत्ति या सहारे के मेरी परवरिश बहुत मुश्किल हालात में की थी। बैंक से कर्जा जमानत के तौर पर सम्पत्ति बंधक रखने पर और केवल पूँजीगत खरीद के लिए उपलब्ध था। सेवायें सम्बन्धी बिजनेस तब तक लोगों ने सुना नहीं था। उस माहौल में मैंने और मेरे साझीदारों ने मिलकर 93000 रुपये जुटाये ताकि हम कॉर्पोरेट संस्थाओं के लिए कम्प्यूटर रखरखाव सम्बन्धी सेवायें प्रदान करने वाली IT&T नामक अपनी निजी कम्पनी शुरू कर सकें। मेरी माँ और मेरी पत्नी की माँ दोनों इस बात को लेकर परेशान थीं कि मैं एक अच्छी खासी आरामदायक कॉर्पोरेट नौकरी छोड़ रहा हूँ और सारा पैसा ऐसे कारोबार में लगाने का जोखिम उठा रहा हूँ जिसमें किसी चीज का उत्पादन या निर्माण तक नहीं किया जाता। वे मुझे कम्प्यूटर मेकैनिक कह कर पुकारा करती थीं।
हमारी टीम ने बिना किसी बाहरी सहायता के, अपने बलबूते पर, 1990 से 1998 तक लगभग आठ वर्ष तक कम्पनी चलायी, और उस अवधि के दौरान हमारे 13 कार्यालय और 400 लोगों की टीम हो गयी। वर्ष 2000 में, हमारी कम्पनी एक लिमिटेड कम्पनी बनी और 2003 आते-आते हमने अपना बिजनेस iGate नामक कम्पनी को बेच दिया। मैंने, अपनी पत्नी मीना और एक अन्य बिजनेस साझीदार के साथ मिलकर CustomerAsset नाम का एक नया वेंचर शुरू किया। यह कम्पनी Yahoo और eBay जैसी इंटरनेट कम्पनियों को भारत से ई-मेल सहायता प्रदान करती। उसी वक्त IT बाज़ार में तेज़ गिरावट आयी और हमारे पास सर्विस करने के लिए कोई भी क्लाइंट नहीं रहा। मैंने ई-मेल सहायता से अपना ध्यान हटा कर वॉयस और कॉलसेंटर्स पर लगाया तथा Wal-Mart और Marks and Spencer’s जैसी बड़ी कम्पनियों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। दो वर्षों में हमारी कम्पनी में काम करने वाले लोगों की संख्या 1000 से भी अधिक हो गयी। मई 2002 में, भारत में निजी क्षेत्र के सबसे बड़े बैंक ICICI ने, 20 मिलियन डॉलर से भी अधिक की धनराशि अदा करके CustomerAsset का अधिग्रहण कर लिया। CustomerAsset, ICICI का एक स्रोत और अब भारत में उनका पहला स्रोत बन गयी। मेरे तीसरे वेंचर Marketics Technologies को एक वैश्विक कारोबारी प्रक्रिया आउटसोर्सिंग कम्पनी WNS ने वर्ष 2007 में 63 मिलियन डॉलर में खरीद लिया।
जिस दौरान बैंगलोर IT परिदृश्य पर असाधारण रूप से छाया हुआ था, मेरी नज़र एक कार्टून पर पड़ी जिसमें एक पिता अपने बच्चे से कह रहा था: “नहीं! तुम अपना होमवर्क बैंगलोर को आउटसोर्स नहीं कर सकते!” इसने मेरे मन में एक नयी विचार प्रक्रिया को प्रज्वलित कर दिया। मैंने सोचा, क्यों नहीं? इस विचार से TutorVista की उत्पत्ति हुई, क्योंकि मेरी नज़र ने अमेरिकी स्कूल शिक्षा में उभरता हुआ मार्केट पहचान लिया था। अगर आप तकलीफ का केन्द्रीय बिन्दु पहचान लेते हैं तो आपको अपने नये वेंचर यानि उद्यम के लिए विचार का बीज मिल जाता है।
सफल उद्यमी बनने के लिए दो बुनियादी चीजें ज़रूरी होती हैं – किसी विचार के प्रति ज़ुनून और तमाम सहज बुद्धि के विपरीत यह यकीन कर लेने की मूर्खता कि वह विचार कामयाब होगा! और अंत में, अपनी संभाव्यता को अधिक से अधिक बढ़ायें क्योंकि आपके पास केवल एक ही ज़िन्दगी है और उसमें कोई जाँच-परख या परीक्षण नहीं हो सकता है। कुछ बड़ा करने का लक्ष्य रखिये – भले ही आपकी कोशिश नाकाम हो जाये, लेकिन नाकामी भी शानदार ढंग में हो!”
आपने इससे पहले भी बहुत सी प्रेरणादायक कहानियां पढ़ी और सुनी होंगी। कुछ बातें सामान्यतया ऐसी सभी कहानियों में पायेंगे आप - सृजनशीलता अभावों में पलती है; सपने देखने का हुनर और तकलीफ में अवसर तलाश लेने की पैनी नज़र ऐसी कुँजियां हैं जो तकदीर के बंद दरवाज़े खोल देती है; खुद पर भरोसा और ईमानदारी के साथ सही दिशा में अथक मेहनत करने का ज़ज्बा देर-सबेर मंज़िल तक पहुँचा ही देता है; नाकामयाब हो जाने का डर कामयाबी की दिशा में आगे बढ़ने से पहले ही हमें रोक देता है; मौलिक विचार, उस पर विश्लेषणात्मक गहन चिंतन व समझदारी पूर्ण जोखिम उठाने का जीवट सबके पास नहीं होता, शायद इसीलिए सबको असाधारण सफलतायें हासिल नहीं होतीं। किसी ने सही कहा है:
”मंज़िलें उन्हीं को मिलती हैं जिनके सपनों में जान होती है,
पंख तो महज़ एक दिखावा हैं, हौसलों में उड़ान होती है”
- राजेन्द्र चौधरी
मंगलवार, अगस्त 23, 2011
यात्रा
आज मैं अपनी ओर से कुछ भी नहीं लिखना चाहता क्योंकि जो मैंने अभी पढ़ा है, मैं कुछ देर उसके साथ रहना चाहता हूँ, उसे आत्मसात कर लेना चाहता हूँ। उन शब्दों की मौलिकता बनाये रखते हुए उन्हें यथावत आपके सामने रख रहा हूँ:
“एक था परमात्मा, एक थी आत्मा, और एक था शरीर। आत्मा ने परमात्मा से पूछा – मैं कौन हूँ? उत्तर मिला –एक अप्रत्यक्ष, अनश्वर, अपूर्ण सत्य। -पूर्ण कब होऊँगी? –जब मुझमें विलीन हो जाओगी। -विलीन कब होऊँगी? –जब यात्रा समाप्त हो जायेगी।
शरीर ने परमात्मा से पूछा -मैं कौन हूँ? उत्तर मिला –एक प्रत्यक्ष, नश्वर, अपूर्ण सत्य। -पूर्ण कब होऊँगा? –जब विदेह हो जाओगे। -विदेह कब होऊँगा? –जब यात्रा समाप्त हो जायेगी।
शरीर और आत्मा ने एक साथ पूछा –यात्रा कब समाप्त होगी? उत्तर मिला –जब तुम दोनों एक दूसरे का उद्धार करोगे।
एक तरफ था – निष्प्राण, निर्विकार, नश्वर अपूर्ण शरीर। दूसरी ओर थी - निराकार, निरालम्ब, शाश्वत अपूर्ण आत्मा। दोनों ही पूर्ण होना चाहते थे। आत्मा ने शरीर और शरीर ने आत्मा को स्वीकार लिया। शरीर को प्राण और आत्मा को आकार मिला, दोनों अभिव्यक्त हुए एक साथ। अद्भुत, अतुलनीय था यह महामिलन। आरम्भ हो गयी यात्रा और विकसित होने लगीं दोनों की वृत्तियां- एक उत्तर तो दूसरा दक्षिण, एक पूरब तो दूसरा पश्चिम। आत्मा शांत तो शरीर उद्विग्न। शरीर की अपनी आवश्यकता, आत्मा की अपनी मांग। शरीर की अपनी विवशता, आत्मा की अपनी दृढता। नतीजा सामने था – टकराव, बिखराव, टूटन, द्वन्द्व। शरीर धीरे-धीरे बलवान होता गया और क्षीण होती गयी आत्मा। आत्मा ने लाख सर पटका, लाख पुकारा, लाख अनुनय-विनय की, लेकिन भोग-विलास, काम-वासना में लिप्त बलशाली शरीर ने उसकी एक न सुनी। बहुत छटपटाई, बहुत तड़फड़ाई, बहुत कसमसाई आत्मा लेकिन फिर भी दम नहीं तोड़ सकी, अनश्वर जो थी। जब कोई विकल्प शेष न बचा तो चुपचाप, निर्मोही बन कर त्याग दिया आत्मा ने शरीर। क्षण भर में समाप्त हो गया सारा खेल। धराशायी पड़ा था बलशाली शरीर – निर्जीव और निर्विकार।
आत्मा ने परमात्मा से कहा –मेरी यात्रा समाप्त हुई; अब समाहित करो मुझे अपने आप में। परमात्मा ने कहा –अभी कहाँ समाप्त हुई तुम्हारी यात्रा? तुमने तो यात्रा अधूरी ही छोड़ दी। शरीर का उद्धार नहीं तिरस्कार किया तुमने। शरीर तो निर्विकार था, तुमने उसमें प्रवेश कर विकारयुक्त किया उसे। विकार का कारण तुम स्वयं हो, फिर शरीर का तिरस्कार क्यूँ? शरीर में रह कर ही तुम्हें उसे निर्विकार बनाना था। यही तुम्हारी परीक्षा थी, और यही शरीर की। तुम दोनों ही हार गये। पूर्णत्व हासिल करने के लिए – तुम्हें फिर से धारण करना होगा एक नया शरीर। फिर से आरम्भ करनी होगी एक नयी यात्रा।
तब से आज तक – जाने कितने शरीर धारण कर चुकी है आत्मा। निरंतर, सतत, अनवरत यात्रा किये जा रही है इस आस और विश्वास के साथ कि एक न एक दिन वह अपने शरीर को निर्विकार बना लेगी।
उधर – ऊपर बैठा परमात्मा रहस्यमय ढंग से मुस्कुरा रहा है क्योंकि उसने आज तक एक भी शरीर ऐसा नहीं बनाया – जो आत्मा के होते हुए निर्विकार हो”।
आपसे सिर्फ इतना अनुरोध है कि मेरी तरह इसके एक-एक शब्द पर ध्यान देते हुए इसे दोबारा पढ़िये और सोचिये तथा साधुवाद दीजिये मेरे साथ इन पंक्तियों की मूल लेखिका को।
-राजेन्द्र चौधरी
“एक था परमात्मा, एक थी आत्मा, और एक था शरीर। आत्मा ने परमात्मा से पूछा – मैं कौन हूँ? उत्तर मिला –एक अप्रत्यक्ष, अनश्वर, अपूर्ण सत्य। -पूर्ण कब होऊँगी? –जब मुझमें विलीन हो जाओगी। -विलीन कब होऊँगी? –जब यात्रा समाप्त हो जायेगी।
शरीर ने परमात्मा से पूछा -मैं कौन हूँ? उत्तर मिला –एक प्रत्यक्ष, नश्वर, अपूर्ण सत्य। -पूर्ण कब होऊँगा? –जब विदेह हो जाओगे। -विदेह कब होऊँगा? –जब यात्रा समाप्त हो जायेगी।
शरीर और आत्मा ने एक साथ पूछा –यात्रा कब समाप्त होगी? उत्तर मिला –जब तुम दोनों एक दूसरे का उद्धार करोगे।
एक तरफ था – निष्प्राण, निर्विकार, नश्वर अपूर्ण शरीर। दूसरी ओर थी - निराकार, निरालम्ब, शाश्वत अपूर्ण आत्मा। दोनों ही पूर्ण होना चाहते थे। आत्मा ने शरीर और शरीर ने आत्मा को स्वीकार लिया। शरीर को प्राण और आत्मा को आकार मिला, दोनों अभिव्यक्त हुए एक साथ। अद्भुत, अतुलनीय था यह महामिलन। आरम्भ हो गयी यात्रा और विकसित होने लगीं दोनों की वृत्तियां- एक उत्तर तो दूसरा दक्षिण, एक पूरब तो दूसरा पश्चिम। आत्मा शांत तो शरीर उद्विग्न। शरीर की अपनी आवश्यकता, आत्मा की अपनी मांग। शरीर की अपनी विवशता, आत्मा की अपनी दृढता। नतीजा सामने था – टकराव, बिखराव, टूटन, द्वन्द्व। शरीर धीरे-धीरे बलवान होता गया और क्षीण होती गयी आत्मा। आत्मा ने लाख सर पटका, लाख पुकारा, लाख अनुनय-विनय की, लेकिन भोग-विलास, काम-वासना में लिप्त बलशाली शरीर ने उसकी एक न सुनी। बहुत छटपटाई, बहुत तड़फड़ाई, बहुत कसमसाई आत्मा लेकिन फिर भी दम नहीं तोड़ सकी, अनश्वर जो थी। जब कोई विकल्प शेष न बचा तो चुपचाप, निर्मोही बन कर त्याग दिया आत्मा ने शरीर। क्षण भर में समाप्त हो गया सारा खेल। धराशायी पड़ा था बलशाली शरीर – निर्जीव और निर्विकार।
आत्मा ने परमात्मा से कहा –मेरी यात्रा समाप्त हुई; अब समाहित करो मुझे अपने आप में। परमात्मा ने कहा –अभी कहाँ समाप्त हुई तुम्हारी यात्रा? तुमने तो यात्रा अधूरी ही छोड़ दी। शरीर का उद्धार नहीं तिरस्कार किया तुमने। शरीर तो निर्विकार था, तुमने उसमें प्रवेश कर विकारयुक्त किया उसे। विकार का कारण तुम स्वयं हो, फिर शरीर का तिरस्कार क्यूँ? शरीर में रह कर ही तुम्हें उसे निर्विकार बनाना था। यही तुम्हारी परीक्षा थी, और यही शरीर की। तुम दोनों ही हार गये। पूर्णत्व हासिल करने के लिए – तुम्हें फिर से धारण करना होगा एक नया शरीर। फिर से आरम्भ करनी होगी एक नयी यात्रा।
तब से आज तक – जाने कितने शरीर धारण कर चुकी है आत्मा। निरंतर, सतत, अनवरत यात्रा किये जा रही है इस आस और विश्वास के साथ कि एक न एक दिन वह अपने शरीर को निर्विकार बना लेगी।
उधर – ऊपर बैठा परमात्मा रहस्यमय ढंग से मुस्कुरा रहा है क्योंकि उसने आज तक एक भी शरीर ऐसा नहीं बनाया – जो आत्मा के होते हुए निर्विकार हो”।
आपसे सिर्फ इतना अनुरोध है कि मेरी तरह इसके एक-एक शब्द पर ध्यान देते हुए इसे दोबारा पढ़िये और सोचिये तथा साधुवाद दीजिये मेरे साथ इन पंक्तियों की मूल लेखिका को।
-राजेन्द्र चौधरी
रविवार, अगस्त 21, 2011
अनुत्तरित जिज्ञासायें
मेरी अपनी कुछ जिज्ञासायें हैं जो अभी तक अनुत्तरित हैं, मुझे उनका कोई प्रामाणिक समाधान नहीं मिल पाया अभी तक। हो सकता है कि ये या इनमें से कुछ जिज्ञासायें आपकी भी हों या आपके पास इनके समाधान हों, इसलिए बांट रहा हूँ आपके साथ अपनी ये अनुत्तरित जिज्ञासायें:
1.कहा जाता है कि प्यार कभी मरता नहीं। मरता नहीं है, तो जाता कहाँ है?
2.कभी-कभी कुछ देख कर, सुन कर, पढ़ कर यकायक आँसू बह निकलते हैं। वो आँसू क्या शरीर में उसी क्षण बनते हैं? अगर नहीं, तो कहाँ छिपे रहते हैं?
3.कहा जाता है कि हर चीज का एक वक्त होता है। साथ ही यह भी कहा जाता है कि अच्छे काम या अच्छी चीज के लिए हर वक्त एक अच्छा वक्त है, क्यों? क्या बुरी चीज के लिए भी कोई खास वक्त है जो अच्छा होता है। अगर अच्छी चीज के लिए हर वक्त एक अच्छा वक्त है, तो बुरी चीज के लिए कोई भी वक्त हो बुरा है, ऐसा क्यों नहीं कहते हम? गुंजाइश क्यों रखते हैं?
4.हम जन्मदिन मनाते हैं, हमें खुशी क्या इस बात की होती है कि हमारी ज़िन्दगी का एक वर्ष कम हो गया? या फिर इस बात की चलो अच्छे से गुजर गया एक साल? क्या आशंकित रहते हैं हम? अगर दोनों बातें नहीं हैं तो फिर क्यों मनाते हैं जन्मदिन?
5.सब किस्मत के लिखे का खेल है। किस्मत का लिखा नहीं मिटता। कौन लिखता है किस्मत – भगवान। भगवान अपने लिखे को मिटा नहीं सकता? इतना मजबूर है वो सर्वशक्तिमान भगवान?
6.हम तो अपना दुख-दर्द आपस में बांट लेते हैं, भगवान अपना दुख-दर्द किसके साथ बांटता है? या वह संवेदनहीन है? हम सब का पिता है, तो पीड़ा तो उसको भी होती होगी। या ये सब व्यर्थ की बाते हैं, ईश्वर का कोई रूप नहीं है। फिर हम उसे रूप देने पर क्यों तुले हुए हैं?
7.हमारे यहाँ हिन्दू सनातन धर्म में सारे भगवान या भगवान के अवतार श्याम वर्ण के यानि साँवले ही क्यों है? कृपया यह तर्क न दें कि हमारे देश की जलवायु गर्म है और यहां सांवले व्यक्ति ही पैदा होते हैं। फिर सारे भगवान या भगवान के अवतारों की पत्नियां गौरवर्ण की यानि गौरी क्यों होती हैं?
8.हमारे यहाँ जो सृष्टि के पालक कहलाते हैं, यानि भगवान विष्णु, उनका वास समुद्र में और उनकी शैय्या शेषनाग की क्यों है? और जिनका दायित्व सृष्टि का कल्याण करना और उसका संहार करना है, यानि भगवान शिव, उनका वास पर्वत पर क्यों है? ऊपर से उनका भेस ऐसा क्यों है? पालक समुद्र में, और कल्याणकर्ता पहाड़ पर, समंवय कैसे बनता है दोनों में? या फिर यह सब झूठ है, किसी हित के लिए प्रतीक बनाये गये हैं? किसने बनाये ये प्रतीक? अगर व्यक्ति ने, चाहे वह व्यक्ति कितना भी बड़ा ज्ञानी क्यों न रहा हो, तो हम इन प्रतीकों को भगवान क्यों कहते हैं? भगवान का प्रतीक क्यों नहीं कहते? हम अपने पिताजी के फोटो को पिताजी का फोटो कहते हैं, पिताजी तो नहीं कहते उस फोटो को।
9.शरीर छोड़ने के बाद आत्मा कहाँ चली जाती है? फिर से नये शरीर में प्रवेश कर लेती है। किस शरीर में प्रवेश करेगी, क्या यह पहले से ही निर्धारित रहता है? अगर हाँ, तो इस जीवन के कर्मों के फल का क्या हुआ? अगर नहीं, तो जब तक उसके लिए नया शरीर निर्धारित हो, वह कहाँ पर रहती है?
10.क्या सृष्टि में आत्माओं की संख्या निश्चित है? अगर हाँ, तो जिस अवधि में किसी देश या स्थान पर अकाल, गृहयुद्ध या प्राकृतिक आपदाओं में हजारों व्यक्ति मर जाते हैं, उस अवधि के फौरन बाद किसी अन्य स्थान या देश की जनसंख्या में असाधारण रूप से वृद्धि क्यों नहीं देखी गयी? अगर नहीं, तो क्या आत्माओं के निर्माण का कोई कारखाना है? कितना उत्पादन होता है उसमें आत्माओं का? क्या कोई लक्ष्य निर्धारित रहता है?
11.क्या जीवों में भी आत्मा होती है? अगर हाँ तो पूरी दुनिया में मांसाहार पर पाबन्दी क्यों नहीं है, जैसे कि शायद हर जगह आदमी के मांस का सेवन निषिद्ध है? अगर नहीं, तो क्या ये जीव परमात्मा के रूप नहीं हैं?
12.हमारे यहाँ विद्या, शक्ति, धन जैसी मानवीय कामनाओं की पूर्ति का दायित्व देवियों के पास क्यों है? विद्या के लिए सरस्वती जी, शक्ति के लिए दुर्गा जी, धन के लिए लक्ष्मी जी... क्यों? क्या परमात्मा ने भी अपने विभागों का आबंटन किया हुआ है? अगर हाँ, तो इन शक्तियों के विभागों का दायित्व देवियों को ही क्यों सौंपा उसने? अगर इस व्यवस्था के पीछे कोई और गूढ़ अर्थ है तो वो क्या है?
जिज्ञासायें तो और भी बहुत हैं, लेकिन समय और लेख की सीमायें हैं। मैं जानता हूँ कि आपमें से कुछ दावा कर सकते हैं मेरी इन जिज्ञासाओं के या इनमें से कुछ के उत्तर देने का। स्वागत है उनका, लेकिन मुझे आस्था नहीं तर्कसंगत वैज्ञानिक आधार वाले उत्तर चाहियें। मेरे मन ने मुझे इन जिज्ञासाओं के स्व-स्फूर्त उत्तर भी सुझाये हैं, परंतु वे उत्तर प्रामाणिक नहीं हैं, इसलिए मैं आपके साथ उन्हें नहीं बांटना चाहता।
कृपया इन जिज्ञासाओं को बेतुका बता कर दरकिनार करने से पहले बस इतना ध्यान रखें कि किसी दिन आपके बच्चे या बच्चों ने आपसे ये प्रश्न पूछ लिये तो क्या उत्तर देंगे आप? “मुझे नहीं पता”, कह कर पल्ला झाड़ लेंगे, और बच्चे को छोड़ देंगे किसी भी गलत उत्तर को स्वीकार करने के लिए? अगर नहीं, तो पल भर सोचिये इनके उत्तर क्योंकि ये जिज्ञासायें स्वाभाविक हैं, बेतुकी नहीं।
- राजेन्द्र चौधरी
1.कहा जाता है कि प्यार कभी मरता नहीं। मरता नहीं है, तो जाता कहाँ है?
2.कभी-कभी कुछ देख कर, सुन कर, पढ़ कर यकायक आँसू बह निकलते हैं। वो आँसू क्या शरीर में उसी क्षण बनते हैं? अगर नहीं, तो कहाँ छिपे रहते हैं?
3.कहा जाता है कि हर चीज का एक वक्त होता है। साथ ही यह भी कहा जाता है कि अच्छे काम या अच्छी चीज के लिए हर वक्त एक अच्छा वक्त है, क्यों? क्या बुरी चीज के लिए भी कोई खास वक्त है जो अच्छा होता है। अगर अच्छी चीज के लिए हर वक्त एक अच्छा वक्त है, तो बुरी चीज के लिए कोई भी वक्त हो बुरा है, ऐसा क्यों नहीं कहते हम? गुंजाइश क्यों रखते हैं?
4.हम जन्मदिन मनाते हैं, हमें खुशी क्या इस बात की होती है कि हमारी ज़िन्दगी का एक वर्ष कम हो गया? या फिर इस बात की चलो अच्छे से गुजर गया एक साल? क्या आशंकित रहते हैं हम? अगर दोनों बातें नहीं हैं तो फिर क्यों मनाते हैं जन्मदिन?
5.सब किस्मत के लिखे का खेल है। किस्मत का लिखा नहीं मिटता। कौन लिखता है किस्मत – भगवान। भगवान अपने लिखे को मिटा नहीं सकता? इतना मजबूर है वो सर्वशक्तिमान भगवान?
6.हम तो अपना दुख-दर्द आपस में बांट लेते हैं, भगवान अपना दुख-दर्द किसके साथ बांटता है? या वह संवेदनहीन है? हम सब का पिता है, तो पीड़ा तो उसको भी होती होगी। या ये सब व्यर्थ की बाते हैं, ईश्वर का कोई रूप नहीं है। फिर हम उसे रूप देने पर क्यों तुले हुए हैं?
7.हमारे यहाँ हिन्दू सनातन धर्म में सारे भगवान या भगवान के अवतार श्याम वर्ण के यानि साँवले ही क्यों है? कृपया यह तर्क न दें कि हमारे देश की जलवायु गर्म है और यहां सांवले व्यक्ति ही पैदा होते हैं। फिर सारे भगवान या भगवान के अवतारों की पत्नियां गौरवर्ण की यानि गौरी क्यों होती हैं?
8.हमारे यहाँ जो सृष्टि के पालक कहलाते हैं, यानि भगवान विष्णु, उनका वास समुद्र में और उनकी शैय्या शेषनाग की क्यों है? और जिनका दायित्व सृष्टि का कल्याण करना और उसका संहार करना है, यानि भगवान शिव, उनका वास पर्वत पर क्यों है? ऊपर से उनका भेस ऐसा क्यों है? पालक समुद्र में, और कल्याणकर्ता पहाड़ पर, समंवय कैसे बनता है दोनों में? या फिर यह सब झूठ है, किसी हित के लिए प्रतीक बनाये गये हैं? किसने बनाये ये प्रतीक? अगर व्यक्ति ने, चाहे वह व्यक्ति कितना भी बड़ा ज्ञानी क्यों न रहा हो, तो हम इन प्रतीकों को भगवान क्यों कहते हैं? भगवान का प्रतीक क्यों नहीं कहते? हम अपने पिताजी के फोटो को पिताजी का फोटो कहते हैं, पिताजी तो नहीं कहते उस फोटो को।
9.शरीर छोड़ने के बाद आत्मा कहाँ चली जाती है? फिर से नये शरीर में प्रवेश कर लेती है। किस शरीर में प्रवेश करेगी, क्या यह पहले से ही निर्धारित रहता है? अगर हाँ, तो इस जीवन के कर्मों के फल का क्या हुआ? अगर नहीं, तो जब तक उसके लिए नया शरीर निर्धारित हो, वह कहाँ पर रहती है?
10.क्या सृष्टि में आत्माओं की संख्या निश्चित है? अगर हाँ, तो जिस अवधि में किसी देश या स्थान पर अकाल, गृहयुद्ध या प्राकृतिक आपदाओं में हजारों व्यक्ति मर जाते हैं, उस अवधि के फौरन बाद किसी अन्य स्थान या देश की जनसंख्या में असाधारण रूप से वृद्धि क्यों नहीं देखी गयी? अगर नहीं, तो क्या आत्माओं के निर्माण का कोई कारखाना है? कितना उत्पादन होता है उसमें आत्माओं का? क्या कोई लक्ष्य निर्धारित रहता है?
11.क्या जीवों में भी आत्मा होती है? अगर हाँ तो पूरी दुनिया में मांसाहार पर पाबन्दी क्यों नहीं है, जैसे कि शायद हर जगह आदमी के मांस का सेवन निषिद्ध है? अगर नहीं, तो क्या ये जीव परमात्मा के रूप नहीं हैं?
12.हमारे यहाँ विद्या, शक्ति, धन जैसी मानवीय कामनाओं की पूर्ति का दायित्व देवियों के पास क्यों है? विद्या के लिए सरस्वती जी, शक्ति के लिए दुर्गा जी, धन के लिए लक्ष्मी जी... क्यों? क्या परमात्मा ने भी अपने विभागों का आबंटन किया हुआ है? अगर हाँ, तो इन शक्तियों के विभागों का दायित्व देवियों को ही क्यों सौंपा उसने? अगर इस व्यवस्था के पीछे कोई और गूढ़ अर्थ है तो वो क्या है?
जिज्ञासायें तो और भी बहुत हैं, लेकिन समय और लेख की सीमायें हैं। मैं जानता हूँ कि आपमें से कुछ दावा कर सकते हैं मेरी इन जिज्ञासाओं के या इनमें से कुछ के उत्तर देने का। स्वागत है उनका, लेकिन मुझे आस्था नहीं तर्कसंगत वैज्ञानिक आधार वाले उत्तर चाहियें। मेरे मन ने मुझे इन जिज्ञासाओं के स्व-स्फूर्त उत्तर भी सुझाये हैं, परंतु वे उत्तर प्रामाणिक नहीं हैं, इसलिए मैं आपके साथ उन्हें नहीं बांटना चाहता।
कृपया इन जिज्ञासाओं को बेतुका बता कर दरकिनार करने से पहले बस इतना ध्यान रखें कि किसी दिन आपके बच्चे या बच्चों ने आपसे ये प्रश्न पूछ लिये तो क्या उत्तर देंगे आप? “मुझे नहीं पता”, कह कर पल्ला झाड़ लेंगे, और बच्चे को छोड़ देंगे किसी भी गलत उत्तर को स्वीकार करने के लिए? अगर नहीं, तो पल भर सोचिये इनके उत्तर क्योंकि ये जिज्ञासायें स्वाभाविक हैं, बेतुकी नहीं।
- राजेन्द्र चौधरी
बुधवार, अगस्त 17, 2011
एक थी चिड़िया
एक थी चिड़िया। आकार में छोटी लेकिन उत्साह और ऊर्जा से भरपूर। उसे लगता था कि आकाश का विस्तीर्ण फैलाव उसे आमंत्रण दे रहा है कि आओ अपने पंख खोलो और नाप कर देखो मेरा विस्तार! युवा थी, आँखों में सपने थे, अपने परों पर भरोसा था, एक दिन ठान ली पृथ्वी के दूरस्थ सिरे तक उड़ान भरने की और पृथ्वी के उत्तरी छोर पर जाकर उसकी छटा निहारने की। आँखों में सपने हों और खुद पर भरोसा हो, तो स्वत: रगों में खून के साथ साहस प्रवाहित होने लगता है। उड़ चली चिड़िया भी एक दिन अपने अभिलाषित गंतव्य की ओर। दूरियां कैसी भी हों, थकाती हैं। स्वाभाविक है उड़ती उड़ती चिड़िया भी थकती, कुछ देर सुस्ताने बैठ जाती, फिर से वह नन्हीं सी जान पूरा हौसला बटोर कर उड़ने लगती। उसके लिए यह दूरी तय कर पाना बहुत मुश्किल था लेकिन उसका विश्वास और संकल्प अटल था। किसी पेड़ पर रात्रि में विश्राम करती, इधर-उधर से किसी तरह भोजन की व्यवस्था करती, और फिर चल देती अपनी लक्षित दिशा की ओर।
स्थान परिवर्तन के साथ-साथ जलवायु और मौसम परिवर्तन के दौर से भी गुजरना पड़ता उसे। रास्ते में उसे अपने से भिन्न रंग रूप की चिड़ियाएं दिखतीं। कोई उसकी ओर उत्सुकता से देखती तो कोई आश्चर्य से। एक प्रौढ़ चिड़िया ने उससे उसके गंतव्य के बारे में पूछा, चिड़िया ने भोलेपन से बताया कि मुझे पृथ्वी के उत्तरी छोर पर पहुँचना है। प्रौढ़ चिड़िया ने उस नन्हीं सी चिड़िया की ओर देखा और मुस्कुरा कर कहा - पृथ्वी का उत्तरी छोर तो बहुत दूर है, वहाँ तक उड़ना तुम्हारे बस की बात नहीं है। फिर वहाँ का मौसम भी पता नहीं कैसा हो। तुम्हारे लिए अच्छा होगा कि तुम अपना इरादा बदल लो। नन्हीं चिड़िया को उसकी सीख चुनौती लगी। आयु का बुनियादी फर्क शायद यही होता है। चिड़िया ने गहरी साँस ली, कुछ सोचा और फिर से चल पड़ी अपनी मंजिल की ओर।
खैर, रास्ते की अनेकों बाधाओं और चुनौतियों को अपने संकल्प की शक्ति से पार करते हुए किसी तरह एक दिन उसे लगा कि अब मंजिल शायद दूर नहीं है। ठंड की तीव्रता उसे मंजिल करीब होने के संकेत दे रही थी। मन ही मन खुश हुई लेकिन मौसम की विषमता की यह परीक्षा तो उसके लिए अत्यंत कड़ी थी। अपने साहस और जीवट की उष्मा बटोरती, थोड़ा उड़ती, फिर पंख हिम्मत हार जाते। अब उड़ना तो दूर जीवित रह पाना मुश्किल हो गया था। चारों ओर दूर-दूर तक बर्फ ही बर्फ नजर आ रही थी। जो पेड़ पौधे भी थे, तो उन पर भी बर्फ जमी हुई थी। एक जगह बैठी विचार ही कर रही थी कि तीव्र हिमपात शुरू हो गया और चिड़िया बर्फ में दब गयी। बर्फ में दबी चिड़िया ने सोचा - बस हो गया खेल खत्म। अब तो इस बर्फ में ही जम जायेगा मेरी रगों का खून। सारी मेहनत पर पानी फिर गया। इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता।
थोड़ी देर बाद हिमपात बंद हुआ। चिड़िया ने हिम्मत जुटा कर अपना शरीर हिलाया-डुलाया लेकिन उसके ऊपर बर्फ की चादर काफी मोटी थी, चिड़िया उसी में सिमटी बैठी रही। पता नहीं कहीं से बर्फ से ओत-प्रोत कोई पहाड़ी भालू उधर आया और बर्फ के उस ढेले के ऊपर से होता हुआ गुजरा जिसमें वह चिड़िया दबी हुई थी। भालू के पंजे और उसके वजन से वह बर्फ का ढेला दब गया और चिड़िया के ऊपर बर्फ की मोटाई काफी कम हो गयी। चिड़िया मन में खुश हुई कि किसी न किसी तरह अपने ऊपर इस बची हुई बर्फ को तो वह हटा ही लेगी। तभी कुछ पहाड़ी जानवर उधर से गुजरे और उन्होंने उस बर्फ के ऊपर जिसमें वह चिड़िया थी, गोबर कर दिया। चिड़िया ने सोचा कि अब कुछ नहीं हो सकता – मैं किसी न किसी तरह अपने ऊपर से उस बर्फ को तो हटा लेती लेकिन उसके ऊपर हुए इस गोबर में तो मैं शर्तिया अब दब कर मर जाऊँगी। साँस भी कैसे ले पाऊँगी इसमें। इससे बुरा तो कुछ हो ही नहीं सकता। अब तो बस कुछ ही क्षण बचे हैं मेरी आयु के।
उदास, खिन्न, मृत्यु के इंतजार में नन्हीं चिड़िया, उस प्रौढ़ चिड़िया की सीख को अनसुना करने पर मन ही मन पछताने लगी। लेकिन गोबर की गर्मी से उसके ऊपर की बर्फ पिघलने लगी। यह देख कर चिड़िया की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। वह हर्षित हो उठी कि अब सारी परेशानियां खत्म, मौत टल गयी। तभी उधर से एक पहाड़ी बिल्ली गुजरी। बिल्ली ने रास्ते में पड़े हुए गोबर में कुछ हलचल देखी। चिड़िया बिल्ली की मौजूदगी से अनजान खुशी से नाच रही थी। बिल्ली आगे बढ़ी और उसने चिड़िया को अपना ग्रास बना लिया।
हमारे जीवन में भी कुछ ऐसा ही होता है। हम सपने देखते हैं और निकल पड़ते हैं उन्हें पूरा करने, हर चुनौती को नकारते हुए, हर सीख को अनसुना करते हुए, हर बाधा को पार करते हुए। फिर अचानक कुछ ऐसा होता है कि सारा उत्साह काफूर हो जाता है। लगता है कि इससे बुरा नहीं हो सकता था। फिर कुछ उम्मीद की किरण दिखती है, कोशिश करके फिर सहेजते हैं हम अपना आत्मबल। फिर कुछ ऐसा घटता है कि आगे रास्ता दिखायी नहीं देता। अचानक धुँध छटने लगती है, हम फिर खुशी से नाचने लगते हैं। फिर अचानक काल की बिल्ली झपट्टा मारती है और खत्म कर देती है हमारी जीवन-लीला।
दरअसल, हमें सिर्फ उतना ही दिखायी और सुनायी देता है जितना हम देखना और सुनना चाहते हैं। हम किसी स्थिति को अच्छा या बुरा इस आधार पर कहते हैं कि वह स्थिति उस समय हमारे अनुकूल है या प्रतिकूल। हमारा निर्णय समय या स्थिति विशेष के आधार पर होता है। ज़रूरी नहीं है कि हमें बुरी दिख रही स्थिति अनिष्टकारी हो और यह भी ज़रूरी नहीं है कि हमें अच्छी नज़र आ रही स्थिति वास्तव में अच्छी ही हो। लेकिन सोचो अगर वह चिड़िया खुशी से नाचने में मग्न नहीं होती तो हो सकता है कि गोबर में दबी पड़ी उस चिड़िया की ओर बिल्ली का ध्यान ही नहीं जाता और वह बच जाती। कितनी भी खुशी क्यों न हो, उसमें संयम और सावधानी खो देना, निश्चय ही अनिष्ट को आमंत्रण देना है।
- राजेन्द्र चौधरी
स्थान परिवर्तन के साथ-साथ जलवायु और मौसम परिवर्तन के दौर से भी गुजरना पड़ता उसे। रास्ते में उसे अपने से भिन्न रंग रूप की चिड़ियाएं दिखतीं। कोई उसकी ओर उत्सुकता से देखती तो कोई आश्चर्य से। एक प्रौढ़ चिड़िया ने उससे उसके गंतव्य के बारे में पूछा, चिड़िया ने भोलेपन से बताया कि मुझे पृथ्वी के उत्तरी छोर पर पहुँचना है। प्रौढ़ चिड़िया ने उस नन्हीं सी चिड़िया की ओर देखा और मुस्कुरा कर कहा - पृथ्वी का उत्तरी छोर तो बहुत दूर है, वहाँ तक उड़ना तुम्हारे बस की बात नहीं है। फिर वहाँ का मौसम भी पता नहीं कैसा हो। तुम्हारे लिए अच्छा होगा कि तुम अपना इरादा बदल लो। नन्हीं चिड़िया को उसकी सीख चुनौती लगी। आयु का बुनियादी फर्क शायद यही होता है। चिड़िया ने गहरी साँस ली, कुछ सोचा और फिर से चल पड़ी अपनी मंजिल की ओर।
खैर, रास्ते की अनेकों बाधाओं और चुनौतियों को अपने संकल्प की शक्ति से पार करते हुए किसी तरह एक दिन उसे लगा कि अब मंजिल शायद दूर नहीं है। ठंड की तीव्रता उसे मंजिल करीब होने के संकेत दे रही थी। मन ही मन खुश हुई लेकिन मौसम की विषमता की यह परीक्षा तो उसके लिए अत्यंत कड़ी थी। अपने साहस और जीवट की उष्मा बटोरती, थोड़ा उड़ती, फिर पंख हिम्मत हार जाते। अब उड़ना तो दूर जीवित रह पाना मुश्किल हो गया था। चारों ओर दूर-दूर तक बर्फ ही बर्फ नजर आ रही थी। जो पेड़ पौधे भी थे, तो उन पर भी बर्फ जमी हुई थी। एक जगह बैठी विचार ही कर रही थी कि तीव्र हिमपात शुरू हो गया और चिड़िया बर्फ में दब गयी। बर्फ में दबी चिड़िया ने सोचा - बस हो गया खेल खत्म। अब तो इस बर्फ में ही जम जायेगा मेरी रगों का खून। सारी मेहनत पर पानी फिर गया। इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता।
थोड़ी देर बाद हिमपात बंद हुआ। चिड़िया ने हिम्मत जुटा कर अपना शरीर हिलाया-डुलाया लेकिन उसके ऊपर बर्फ की चादर काफी मोटी थी, चिड़िया उसी में सिमटी बैठी रही। पता नहीं कहीं से बर्फ से ओत-प्रोत कोई पहाड़ी भालू उधर आया और बर्फ के उस ढेले के ऊपर से होता हुआ गुजरा जिसमें वह चिड़िया दबी हुई थी। भालू के पंजे और उसके वजन से वह बर्फ का ढेला दब गया और चिड़िया के ऊपर बर्फ की मोटाई काफी कम हो गयी। चिड़िया मन में खुश हुई कि किसी न किसी तरह अपने ऊपर इस बची हुई बर्फ को तो वह हटा ही लेगी। तभी कुछ पहाड़ी जानवर उधर से गुजरे और उन्होंने उस बर्फ के ऊपर जिसमें वह चिड़िया थी, गोबर कर दिया। चिड़िया ने सोचा कि अब कुछ नहीं हो सकता – मैं किसी न किसी तरह अपने ऊपर से उस बर्फ को तो हटा लेती लेकिन उसके ऊपर हुए इस गोबर में तो मैं शर्तिया अब दब कर मर जाऊँगी। साँस भी कैसे ले पाऊँगी इसमें। इससे बुरा तो कुछ हो ही नहीं सकता। अब तो बस कुछ ही क्षण बचे हैं मेरी आयु के।
उदास, खिन्न, मृत्यु के इंतजार में नन्हीं चिड़िया, उस प्रौढ़ चिड़िया की सीख को अनसुना करने पर मन ही मन पछताने लगी। लेकिन गोबर की गर्मी से उसके ऊपर की बर्फ पिघलने लगी। यह देख कर चिड़िया की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। वह हर्षित हो उठी कि अब सारी परेशानियां खत्म, मौत टल गयी। तभी उधर से एक पहाड़ी बिल्ली गुजरी। बिल्ली ने रास्ते में पड़े हुए गोबर में कुछ हलचल देखी। चिड़िया बिल्ली की मौजूदगी से अनजान खुशी से नाच रही थी। बिल्ली आगे बढ़ी और उसने चिड़िया को अपना ग्रास बना लिया।
हमारे जीवन में भी कुछ ऐसा ही होता है। हम सपने देखते हैं और निकल पड़ते हैं उन्हें पूरा करने, हर चुनौती को नकारते हुए, हर सीख को अनसुना करते हुए, हर बाधा को पार करते हुए। फिर अचानक कुछ ऐसा होता है कि सारा उत्साह काफूर हो जाता है। लगता है कि इससे बुरा नहीं हो सकता था। फिर कुछ उम्मीद की किरण दिखती है, कोशिश करके फिर सहेजते हैं हम अपना आत्मबल। फिर कुछ ऐसा घटता है कि आगे रास्ता दिखायी नहीं देता। अचानक धुँध छटने लगती है, हम फिर खुशी से नाचने लगते हैं। फिर अचानक काल की बिल्ली झपट्टा मारती है और खत्म कर देती है हमारी जीवन-लीला।
दरअसल, हमें सिर्फ उतना ही दिखायी और सुनायी देता है जितना हम देखना और सुनना चाहते हैं। हम किसी स्थिति को अच्छा या बुरा इस आधार पर कहते हैं कि वह स्थिति उस समय हमारे अनुकूल है या प्रतिकूल। हमारा निर्णय समय या स्थिति विशेष के आधार पर होता है। ज़रूरी नहीं है कि हमें बुरी दिख रही स्थिति अनिष्टकारी हो और यह भी ज़रूरी नहीं है कि हमें अच्छी नज़र आ रही स्थिति वास्तव में अच्छी ही हो। लेकिन सोचो अगर वह चिड़िया खुशी से नाचने में मग्न नहीं होती तो हो सकता है कि गोबर में दबी पड़ी उस चिड़िया की ओर बिल्ली का ध्यान ही नहीं जाता और वह बच जाती। कितनी भी खुशी क्यों न हो, उसमें संयम और सावधानी खो देना, निश्चय ही अनिष्ट को आमंत्रण देना है।
- राजेन्द्र चौधरी
मंगलवार, अगस्त 16, 2011
नारी-सशक्तिकरण
पिछले कुछ वर्षों से ‘नारी-सशक्तिकरण’ (Women Empowerment) शब्द का प्रयोग अपेक्षतया कुछ अधिक ही किया जा रहा है, खास तौर से नेताओं और तथाकथित बुद्धिजीवियों के द्वारा। हर बार संसद सत्र शुरू होने से पहले सुनाई देने लगता है कि अमुक पार्टी नारी सशक्तिकरण के लिए आरक्षण बिल लाना चाहती है और अमुक पार्टी या पार्टियां इसका विरोध कर रही हैं, इसलिए यह बिल फिर लम्बित रह जाता है। मुझे राजनीति का ककहरा भी नहीं आता और न ही इसे सीखने में मेरी कोई रुचि है, परंतु मुझे यह ‘नारी-सशक्तिकरण’ शब्द विरोधाभासी लगता है। जो स्वयं सशक्त है, उसका सशक्तिकरण करेगा उससे अपेक्षतया कम सशक्त व्यक्ति? आपको मेरी बात अजीब लगती है? आप पुरुष को नारी से अधिक सशक्त मानते हैं? आप सोचते हैं कि सशक्त होने के लिए नारी, पुरुष की मोहताज है?
हम लोग राम को भगवान मानते हैं। लेकिन क्षमा करना, ध्यान से पढ़ोगे तो न जाने कितने उदाहरण मिलेंगे रामचरितमानस में जहाँ पर राम अशक्त, विवश दिखायी पड़े। दूसरी ओर एक भी उदाहरण नहीं मिलेगा जहाँ पर सीता अशक्त प्रतीत हुई हों। वो सशक्त थीं तभी तो रावण के क्रूर हाथों से भी अनछुई लौट आयीं। ऐसी विपरीत स्थिति में भी उन्होंने पति के विश्वास को मरने नहीं दिया, उस पर आँच तक नहीं आने दी। राम ने क्या सिला दिया अग्नि को साक्षी मान कर अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार की गयी सीता को – अग्नि-परीक्षा? किसका आचरण बड़ा हुआ दोनों में? कौन अधिक सशक्त हुआ?
द्रौपदी के साथ क्या हुआ था? जुए में हार दी थी वो, खुद उसके पति ने, वो भी जो धर्मराज था। पाँच-पाँच अद्वितीय योद्धा कहलाने वाले पतियों के मौजूद होते हुए भी, उनमें से कोई आगे नहीं बढ़ा दुश्शासन द्वारा किये जा रहे चीरहरण से उसे बचाने के लिए। कृष्णा के कृष्ण न आते अगर उस क्षण उसकी रक्षा करने, तो क्या होता? दुस्साहसियों और अन्याय के मूक दृष्टाओं का अंत कराने के पीछे अग्निधर्मा द्रौपदी के अन्दर धधकने वाली अग्नि की ज्वाला नहीं थी तो क्या था?
सत्यवान को यमराज के हाथों से भी वापस ले आने की शक्ति किस में थी? वो सावित्री क्या नारी नहीं थी?
तुलसीदास को रामचरितमानस के रचयिता तुलसीदास के रूप में प्रतिष्ठित कराने के पीछे उनकी पत्नी रत्नावली का उलाहना ही तो था जो शक्ति और प्रेरणा बन गया तुलसीदास के लिए। रत्नावली नारी नहीं थी तो कौन थी? कालिदास को कालिदास भी तो एक नारी की उपेक्षा ने ही बनाया था।
अपनी नवविवाहिता पत्नी के प्यार में अपने राजधर्म से ड़गमगाते हुए और युद्ध पर जाने के लिए तैयार न होने वाले राजपूत पति को उसका कर्तव्य याद दिलाने के लिए उसी की तलवार से अपना सिर काट कर भेंट कर देने वाली उसकी राजपूत वीरांगना पत्नी नारी नहीं थी तो कौन थी?
इतिहास भरा पड़ा है ऐसी मिसालों से जो सिद्ध करती हैं कि नारी सदा से शक्तिशाली रही है। हमारे यहाँ शक्ति की आराध्य देवी दुर्गा नारी रूप में ही तो हैं। विद्या की देवी सरस्वती, धन की देवी लक्ष्मी नारी रूपा ही तो हैं।
फिर नारी का सशक्तिकरण पुरुष पर निर्भर कैसे हुआ? झूठा, खोखला दम्भ है पुरुष का यह। नारी सदा से सशक्त है, तभी तो उसे ही जननी होने का गौरव प्राप्त है। पुरुष का दायित्व है नारी का सम्मान करना क्योंकि वह उसकी अधिकारी है और इसी में पुरुष की भी भलाई है। नारी का सम्मान करके, उसे उसका उचित अधिकार देकर पुरुष उस पर कोई उपकार नहीं करता वरन अपने दायित्व का निर्वाह करता है। नारी का अपमान करके पुरुष अपनी माँ की कोख का अपमान करता है, अपनी बहन के रक्षा-सूत्र का निरादर करता है, अपनी पत्नी के सिंदूर का उपहास करता है। कम से कम मेरी नज़र में तो यह अक्षम्य है।
- राजेन्द्र चौधरी
हम लोग राम को भगवान मानते हैं। लेकिन क्षमा करना, ध्यान से पढ़ोगे तो न जाने कितने उदाहरण मिलेंगे रामचरितमानस में जहाँ पर राम अशक्त, विवश दिखायी पड़े। दूसरी ओर एक भी उदाहरण नहीं मिलेगा जहाँ पर सीता अशक्त प्रतीत हुई हों। वो सशक्त थीं तभी तो रावण के क्रूर हाथों से भी अनछुई लौट आयीं। ऐसी विपरीत स्थिति में भी उन्होंने पति के विश्वास को मरने नहीं दिया, उस पर आँच तक नहीं आने दी। राम ने क्या सिला दिया अग्नि को साक्षी मान कर अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार की गयी सीता को – अग्नि-परीक्षा? किसका आचरण बड़ा हुआ दोनों में? कौन अधिक सशक्त हुआ?
द्रौपदी के साथ क्या हुआ था? जुए में हार दी थी वो, खुद उसके पति ने, वो भी जो धर्मराज था। पाँच-पाँच अद्वितीय योद्धा कहलाने वाले पतियों के मौजूद होते हुए भी, उनमें से कोई आगे नहीं बढ़ा दुश्शासन द्वारा किये जा रहे चीरहरण से उसे बचाने के लिए। कृष्णा के कृष्ण न आते अगर उस क्षण उसकी रक्षा करने, तो क्या होता? दुस्साहसियों और अन्याय के मूक दृष्टाओं का अंत कराने के पीछे अग्निधर्मा द्रौपदी के अन्दर धधकने वाली अग्नि की ज्वाला नहीं थी तो क्या था?
सत्यवान को यमराज के हाथों से भी वापस ले आने की शक्ति किस में थी? वो सावित्री क्या नारी नहीं थी?
तुलसीदास को रामचरितमानस के रचयिता तुलसीदास के रूप में प्रतिष्ठित कराने के पीछे उनकी पत्नी रत्नावली का उलाहना ही तो था जो शक्ति और प्रेरणा बन गया तुलसीदास के लिए। रत्नावली नारी नहीं थी तो कौन थी? कालिदास को कालिदास भी तो एक नारी की उपेक्षा ने ही बनाया था।
अपनी नवविवाहिता पत्नी के प्यार में अपने राजधर्म से ड़गमगाते हुए और युद्ध पर जाने के लिए तैयार न होने वाले राजपूत पति को उसका कर्तव्य याद दिलाने के लिए उसी की तलवार से अपना सिर काट कर भेंट कर देने वाली उसकी राजपूत वीरांगना पत्नी नारी नहीं थी तो कौन थी?
इतिहास भरा पड़ा है ऐसी मिसालों से जो सिद्ध करती हैं कि नारी सदा से शक्तिशाली रही है। हमारे यहाँ शक्ति की आराध्य देवी दुर्गा नारी रूप में ही तो हैं। विद्या की देवी सरस्वती, धन की देवी लक्ष्मी नारी रूपा ही तो हैं।
फिर नारी का सशक्तिकरण पुरुष पर निर्भर कैसे हुआ? झूठा, खोखला दम्भ है पुरुष का यह। नारी सदा से सशक्त है, तभी तो उसे ही जननी होने का गौरव प्राप्त है। पुरुष का दायित्व है नारी का सम्मान करना क्योंकि वह उसकी अधिकारी है और इसी में पुरुष की भी भलाई है। नारी का सम्मान करके, उसे उसका उचित अधिकार देकर पुरुष उस पर कोई उपकार नहीं करता वरन अपने दायित्व का निर्वाह करता है। नारी का अपमान करके पुरुष अपनी माँ की कोख का अपमान करता है, अपनी बहन के रक्षा-सूत्र का निरादर करता है, अपनी पत्नी के सिंदूर का उपहास करता है। कम से कम मेरी नज़र में तो यह अक्षम्य है।
- राजेन्द्र चौधरी
सोमवार, अगस्त 15, 2011
हँसूं या रोऊँ?
यह लेख मैं 15 अगस्त की पूर्व संध्या पर लिख रहा हूँ। कल मेरा भारत अपनी स्वतंत्रता के 64 वर्ष पूरे कर लेगा। मेरा जन्म हालांकि 15 अगस्त 1947 के कुछ वर्ष बाद हुआ, लेकिन मैंने जितना पढ़ा और सुना है वह मुझे यह बोध कराने के लिए काफी है कि हमारे पूर्वजों ने कितने संघर्ष और अथक प्रयासों से अपना जीवन होम करके हमें स्वतंत्र भारत के नागरिक कहलाने का गौरव प्रदान किया है। उनके उन प्रयासों को भूलना तो दूर, हम उनसे कभी भी उऋण नहीं हो सकते। कल प्रधानमंत्री लाल किले के प्राचीर पर ध्वजारोहण करेंगे। मैं अपनी पूरी आयु बड़े गर्व के साथ पहले रेडियो पर उस कार्यक्रम का आँखों देखा हाल सुनता आया हूँ और पिछले काफी वर्षों से टीवी पर देखता आया हूँ। ऐसा पहली बार हो रहा है कि देश को जितनी प्रतीक्षा इस बार 15 अगस्त पर प्रधानमंत्री के अभिभाषण की है, उससे कहीं अधिक प्रतीक्षा 16 अगस्त को अण्णा के अनशन की है। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि इस स्थिति पर मैं हँसूं या रोऊँ?
64 वर्ष की स्वतंत्र भारत की यात्रा में प्रगति के कई मील के पत्थर हमने पार किये। हम विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र हैं। हमारे यहाँ हर धर्म को, हर जाति को बराबरी का दर्जा प्राप्त है। हमारे यहाँ 22 भाषायें और 100 से अधिक बोलियां बोली जाती हैं। अपने आप में इतनी विभिन्नताएं समेटे हुए हमारा देश आज अविकसित से विकासशील हो गया है और विकसित होने की दिशा में तेज़ी के साथ अग्रसर है। लेकिन इस विकास यात्रा में खुशी और पीड़ा दोनों ही अपनी चरम स्थिति का अहसास करा रही हैं। ब्रिटिश काल तक विश्व का सबसे अमीर देश कहलाने वाले मेरे इस देश में आज विश्व के 36% गरीब लोग बसते हैं। मेरा देश परस्पर विरोधी उदाहरणों की खान बन गया है।
मेरे देश के जिस शहर को किसी एक व्यक्ति के विश्व के सबसे मंहगे आवासों में गिने जाने वाले शायद 2 बिलियन डॉलर की लागत के, 27 मंजिले, व 6 मंजिल तक पार्किंग की सुविधा और 3 हैलिपैड की सुविधा से सुसज्जित ऐंटिला भवन का शहर होने का गौरव प्राप्त है, उसी शहर में विश्व की सबसे बड़ी मलिन बस्ती धारावी भी स्थित है। इस बस्ती में एक मिलियन से भी अधिक लोग रहते हैं और शायद प्रति 1440 निवासियों पर एक टॉयलेट की सुविधा उपलब्ध है। हमारे देश में सड़कों पर चलती हुई अगर विश्व की सबसे मंहगी कारें दिखायी देती हैं तो उन्हीं सड़कों पर आज भी बैलगाडियां और हाथ से खींचे जाने वाले रिक्शा आसानी से दिखायी दे जायेंगी। मैं हँसूं या रोऊँ?
जिस देश में विश्व का सबसे पहला विश्वविद्यालय ‘तक्षशिला’ था और आज जिसके विश्वविद्यालय अंतर्राष्ट्रीय स्तर के होने का दम भरते हों और जो देश वैश्विक रूप से नये शैक्षणिक गंतव्य के रूप में उभर रहा हो, वही देश दुनिया में सबसे अधिक अशिक्षित आबादी वाले देशों में गिना जाता हो और उसी देश में बाल-मजदूरों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक हो। युनेस्को की एक रिपॉर्ट के अनुसार जिस देश में 72 मिलियन प्राइमरी स्कूल के बच्चे स्कूल में नहीं होते, और करीब 13 मिलियन बच्चे खतरनाक कामों में लगे होते हैं। और उस देश का नाम भारत हो, तो मैं हँसूं या रोऊँ?
कभी सोने की चिड़िया कहलाने वाले जिस भारत देश में आज भी लोग भुखमरी से मर जाते हों, जो देश बच्चों के कुपोषण के मामले में दुनिया में नम्बर दो पर आता हो, जिस देश में दामों की बढ़ोत्तरी के लिए खाद्य पदार्थों की जमाखोरी होती हो और खाद्य पदार्थों में मिलावट अपने चरम पर हो, जिस देश के हर शहर में बारातघरों में बड़ी-बड़ी दावतों के आयोजन होते हों और उन्हीं बारातघरों के बाहर भिखारी फेंके हुए खाद्य पदार्थों में से अपने जीवित रहने के लिए खाने हेतु खाद्य पदार्थ बीनते हुए दिखायी दें, तो मैं हँसूं या रोऊँ?
जिस देश में नारी को सीता, दुर्गा, काली, लक्ष्मी के रूप में पूजा जाता हो और जिस देश में जन्म पूर्व लिंग-निर्धारण सम्बन्धी जाँच गैरकानूनी होते हुए भी भ्रूण हत्या और अवैध गर्भपात का कारोबार 1000 करोड़ की इंडस्ट्री बन गया हो। जहाँ पर आज भी ऐसे गाँव हों जिनमें महिलायें प्रतिदिन 2.5 से 5 किलोमीटर पैदल चल कर घर की दैनिक ज़रूरत के लिए पानी लेकर आती हों। जहाँ पर कृषि व उद्योग पानी के स्तर के तीव्रता से घट जाने का रोना रोते हों और इस दिशा में कोई कारगर कदम न उठाये जा रहे हों। जो देश अपनी राष्ट्रीय बिजली की खपत का 25% न्यूक्लियर पॉवर प्लांट्स से आपूर्ति करने की महत्वाकांक्षा रखता हो, और उसकी 35% आबादी को बिजली की सुलभता प्राप्त न हो। जिस देश की आम जनता मंहगाई व भ्रष्टाचार से त्रस्त हो और उसी देश के आध्यात्मिक गुरुओं के आश्रमों में अकूत मात्रा में धन सम्पदा हो। आध्यात्मिक गुरुओं के आश्रमों में हत्या और बलात्कार जैसे दुष्कर्म हो जाते हों और वो देश मेरा अपना भारत हो, तो मैं हँसूं या रोऊँ?
जो देश बायोटेक्नोलोजी के क्षेत्र में अपनी रिसर्च और उससे जुड़ी सुविधाओं के लिए विश्व में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता हो, उसी देश में संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के अनुसार प्रति मिनट चार बच्चे रोकी जा सकने वाली बीमारियों से मर जाते हों और प्रतिदिन लगभग 1000 बच्चे अकेले डायरिया रोग से मर जाते हों। उसी देश के सबसे घनी आबादी वाले राज्य में स्वास्थ्य विभाग के करोड़ों रुपयों के घपले पर पर्दा ड़ालने के प्रयास में तीन-तीन उच्च पदस्थ अधिकारियों की हत्याएं हो जाती हों, तो मैं हँसूं या रोऊँ?
जिस देश में आज भी बसों और रेलगाडियों की छतों पर बैठ कर लोग यात्रा करते हों, और दूसरी ओर उसी देश में मुम्बई-देहली एयर कोरिडॉर विश्व के व्यततम एयर रूट्स में गिना जाता हो। जिस देश का रेलवे नेटवर्क विश्व का चौथा सबसे बड़ा नेटवर्क हो। दूसरी ओर अकेले मुम्बई शहर की उपनगरीय रेल सेवा भारतीय रेलवे की प्रतिदिन कुल यात्री संख्या के आधे से अधिक यात्रियों के आवागमन का साधन हो। जिस देश में टेलीकम्युनिकेशन उद्योग ने विश्व में तीव्रतम गति से प्रगति की हो और जिसके मोबाइल फोन उपभोक्ताओं का नेटवर्क चीन के बाद दूसरे नम्बर पर आता हो। जिसमें विश्व की सबसे व्यापक डाक व्यवस्था हो। उसी देश की गिनती विश्व के भ्रष्टतम देशों में नयी ऊचाइयां छू रही हो और वो देश मेरा अपना भारत हो, तो मैं हँसूं या रोऊँ?
उपरोक्त आँकड़े प्रकाशित और सहज सुलभ आँकड़े हैं। ये मेरे जैसे हर संवेदनशील नागरिक को सोचने के लिए विवश करते हैं। जिस स्वतंत्रता के लिए हमारे पूर्वजों ने अपने जीवन की आहुति दे दी, उनकी विरासत को इस तरह से संभाला और सहेजा हमने? आने वाली पीढ़ी को हम क्या इन विसंगतियों की विरासत सौंपेंगे? पल भर सोचिये, देश सिर्फ नेताओं से नहीं देशवासियों से बनता है। 15-64 वर्ष की उम्र की 64% आबादी वाला यह देश, विश्व की 10 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में गिना जाने वाला यह देश भारतवर्ष हम सब का है, यह हम सब से उत्तरदायी आचरण की अपेक्षा रखता है।
- राजेन्द्र चौधरी
64 वर्ष की स्वतंत्र भारत की यात्रा में प्रगति के कई मील के पत्थर हमने पार किये। हम विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र हैं। हमारे यहाँ हर धर्म को, हर जाति को बराबरी का दर्जा प्राप्त है। हमारे यहाँ 22 भाषायें और 100 से अधिक बोलियां बोली जाती हैं। अपने आप में इतनी विभिन्नताएं समेटे हुए हमारा देश आज अविकसित से विकासशील हो गया है और विकसित होने की दिशा में तेज़ी के साथ अग्रसर है। लेकिन इस विकास यात्रा में खुशी और पीड़ा दोनों ही अपनी चरम स्थिति का अहसास करा रही हैं। ब्रिटिश काल तक विश्व का सबसे अमीर देश कहलाने वाले मेरे इस देश में आज विश्व के 36% गरीब लोग बसते हैं। मेरा देश परस्पर विरोधी उदाहरणों की खान बन गया है।
मेरे देश के जिस शहर को किसी एक व्यक्ति के विश्व के सबसे मंहगे आवासों में गिने जाने वाले शायद 2 बिलियन डॉलर की लागत के, 27 मंजिले, व 6 मंजिल तक पार्किंग की सुविधा और 3 हैलिपैड की सुविधा से सुसज्जित ऐंटिला भवन का शहर होने का गौरव प्राप्त है, उसी शहर में विश्व की सबसे बड़ी मलिन बस्ती धारावी भी स्थित है। इस बस्ती में एक मिलियन से भी अधिक लोग रहते हैं और शायद प्रति 1440 निवासियों पर एक टॉयलेट की सुविधा उपलब्ध है। हमारे देश में सड़कों पर चलती हुई अगर विश्व की सबसे मंहगी कारें दिखायी देती हैं तो उन्हीं सड़कों पर आज भी बैलगाडियां और हाथ से खींचे जाने वाले रिक्शा आसानी से दिखायी दे जायेंगी। मैं हँसूं या रोऊँ?
जिस देश में विश्व का सबसे पहला विश्वविद्यालय ‘तक्षशिला’ था और आज जिसके विश्वविद्यालय अंतर्राष्ट्रीय स्तर के होने का दम भरते हों और जो देश वैश्विक रूप से नये शैक्षणिक गंतव्य के रूप में उभर रहा हो, वही देश दुनिया में सबसे अधिक अशिक्षित आबादी वाले देशों में गिना जाता हो और उसी देश में बाल-मजदूरों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक हो। युनेस्को की एक रिपॉर्ट के अनुसार जिस देश में 72 मिलियन प्राइमरी स्कूल के बच्चे स्कूल में नहीं होते, और करीब 13 मिलियन बच्चे खतरनाक कामों में लगे होते हैं। और उस देश का नाम भारत हो, तो मैं हँसूं या रोऊँ?
कभी सोने की चिड़िया कहलाने वाले जिस भारत देश में आज भी लोग भुखमरी से मर जाते हों, जो देश बच्चों के कुपोषण के मामले में दुनिया में नम्बर दो पर आता हो, जिस देश में दामों की बढ़ोत्तरी के लिए खाद्य पदार्थों की जमाखोरी होती हो और खाद्य पदार्थों में मिलावट अपने चरम पर हो, जिस देश के हर शहर में बारातघरों में बड़ी-बड़ी दावतों के आयोजन होते हों और उन्हीं बारातघरों के बाहर भिखारी फेंके हुए खाद्य पदार्थों में से अपने जीवित रहने के लिए खाने हेतु खाद्य पदार्थ बीनते हुए दिखायी दें, तो मैं हँसूं या रोऊँ?
जिस देश में नारी को सीता, दुर्गा, काली, लक्ष्मी के रूप में पूजा जाता हो और जिस देश में जन्म पूर्व लिंग-निर्धारण सम्बन्धी जाँच गैरकानूनी होते हुए भी भ्रूण हत्या और अवैध गर्भपात का कारोबार 1000 करोड़ की इंडस्ट्री बन गया हो। जहाँ पर आज भी ऐसे गाँव हों जिनमें महिलायें प्रतिदिन 2.5 से 5 किलोमीटर पैदल चल कर घर की दैनिक ज़रूरत के लिए पानी लेकर आती हों। जहाँ पर कृषि व उद्योग पानी के स्तर के तीव्रता से घट जाने का रोना रोते हों और इस दिशा में कोई कारगर कदम न उठाये जा रहे हों। जो देश अपनी राष्ट्रीय बिजली की खपत का 25% न्यूक्लियर पॉवर प्लांट्स से आपूर्ति करने की महत्वाकांक्षा रखता हो, और उसकी 35% आबादी को बिजली की सुलभता प्राप्त न हो। जिस देश की आम जनता मंहगाई व भ्रष्टाचार से त्रस्त हो और उसी देश के आध्यात्मिक गुरुओं के आश्रमों में अकूत मात्रा में धन सम्पदा हो। आध्यात्मिक गुरुओं के आश्रमों में हत्या और बलात्कार जैसे दुष्कर्म हो जाते हों और वो देश मेरा अपना भारत हो, तो मैं हँसूं या रोऊँ?
जो देश बायोटेक्नोलोजी के क्षेत्र में अपनी रिसर्च और उससे जुड़ी सुविधाओं के लिए विश्व में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता हो, उसी देश में संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के अनुसार प्रति मिनट चार बच्चे रोकी जा सकने वाली बीमारियों से मर जाते हों और प्रतिदिन लगभग 1000 बच्चे अकेले डायरिया रोग से मर जाते हों। उसी देश के सबसे घनी आबादी वाले राज्य में स्वास्थ्य विभाग के करोड़ों रुपयों के घपले पर पर्दा ड़ालने के प्रयास में तीन-तीन उच्च पदस्थ अधिकारियों की हत्याएं हो जाती हों, तो मैं हँसूं या रोऊँ?
जिस देश में आज भी बसों और रेलगाडियों की छतों पर बैठ कर लोग यात्रा करते हों, और दूसरी ओर उसी देश में मुम्बई-देहली एयर कोरिडॉर विश्व के व्यततम एयर रूट्स में गिना जाता हो। जिस देश का रेलवे नेटवर्क विश्व का चौथा सबसे बड़ा नेटवर्क हो। दूसरी ओर अकेले मुम्बई शहर की उपनगरीय रेल सेवा भारतीय रेलवे की प्रतिदिन कुल यात्री संख्या के आधे से अधिक यात्रियों के आवागमन का साधन हो। जिस देश में टेलीकम्युनिकेशन उद्योग ने विश्व में तीव्रतम गति से प्रगति की हो और जिसके मोबाइल फोन उपभोक्ताओं का नेटवर्क चीन के बाद दूसरे नम्बर पर आता हो। जिसमें विश्व की सबसे व्यापक डाक व्यवस्था हो। उसी देश की गिनती विश्व के भ्रष्टतम देशों में नयी ऊचाइयां छू रही हो और वो देश मेरा अपना भारत हो, तो मैं हँसूं या रोऊँ?
उपरोक्त आँकड़े प्रकाशित और सहज सुलभ आँकड़े हैं। ये मेरे जैसे हर संवेदनशील नागरिक को सोचने के लिए विवश करते हैं। जिस स्वतंत्रता के लिए हमारे पूर्वजों ने अपने जीवन की आहुति दे दी, उनकी विरासत को इस तरह से संभाला और सहेजा हमने? आने वाली पीढ़ी को हम क्या इन विसंगतियों की विरासत सौंपेंगे? पल भर सोचिये, देश सिर्फ नेताओं से नहीं देशवासियों से बनता है। 15-64 वर्ष की उम्र की 64% आबादी वाला यह देश, विश्व की 10 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में गिना जाने वाला यह देश भारतवर्ष हम सब का है, यह हम सब से उत्तरदायी आचरण की अपेक्षा रखता है।
- राजेन्द्र चौधरी
रविवार, अगस्त 14, 2011
देहधारी
हिन्दी की एक समर्थ और प्रसिद्ध कवयित्री दीप्ति मिश्रा जी की एक अतुकांत कविता है –‘भगवान और इंसान’। वह कविता मेरे मानस पटल पर अंकित है। इस लेख का शुरू का आधा भाग उन्हीं की उस कविता से प्रेरित और प्रभावित है। इसलिए उनके शब्द भी हूबहू चले आये हैं और कहीं-कहीं पर मेरे शब्द भी कथ्य में शायद उनके शब्दों के साथ जुड़ गये हैं, इसीलिए मैं उनके शब्दों को “...” के रूप में नहीं रख पाया। लेकिन बाद का भाग मेरे मौलिक विचारों की मौलिक अभिव्यक्ति है। मेरे और उनके शब्दों व विचारों की आत्मा क्योंकि एक है, इसलिए आपको ये एक ही व्यक्ति के द्वारा व्यक्त विचार लगेंगे। अगर ऐसा होता है, तो शायद यही इस लेख की सफलता भी होगी, लेकिन लेखक-धर्म का निर्वाह करते हुए यह स्पष्ट कर देना मेरा दायित्व बन जाता है।
पता नहीं – किसने किसे बनाया, तुमने उसे बनाया या उसने तुम्हें। परन्तु तुम दोनों ही एक जैसा खेल खेलते हो, एक दूसरे के साथ। थोड़ी सी मिट्टी, थोड़ा सा पानी, थोड़ी सी आग, थोड़ी सी हवा, और थोड़ा सा आकाश लेकर गढ़ देते हो एक खिलोना। फिर खेलते हो उसके साथ, मन बहलाते हो अपना, कठपुतली सा नचाते हो उसे अपने मन के अनुसार। फिर जब मन भर जाता है या उकता जाते हो उससे, तो खत्म कर देते हो अपना खेल – फिर से मिला देते हो मिट्टी को मिट्टी में, पानी को पानी में, आग को आग में, हवा को हवा में, और आकाश को आकाश में। विलीन हो जाते हैं ये सब फिर से अपने मूल रूप में।
ऐसा ही खेल वह भी खेलता है तुम्हारे साथ। बड़े उत्साह, बड़े चाव, और बड़ी मेहनत से वह भी गढ़ता है तुम्हें कभी गणपति तो कभी दुर्गा के आकार में। बड़े उल्लास के साथ वह भी तुम्हारी प्राण-प्रतिष्ठा करता है। पूरा आयोजन करता है रीझने-रिझाने का। दीप-धूप, फल-फूल, रोली-अक्षत, नारियल-सुपारी, मेवा-मिष्ठान का अम्बार लगा देता है। आरती-अर्चना करता है तुम्हारी। अपने सगे-सम्बन्धियों को आमंत्रित करता है अपने इस अनुष्ठान में। पूरा पर्व सा चलता है कुछ दिन। फिर एक नियत अवधि के बाद, झूमता-नाचता, गाता-बजाता विसर्जित कर देता है तुम्हें जल में। और साथ ही विसर्जित हो जाता है उसका वो उत्साह और चाव भी। विसर्जित हो जाती है सारी श्रद्धा और भक्ति।
कई बार किसी नदी या समुद्र के किनारे बिखरे पड़े तुम्हारे छिन्न-भिन्न अंग-प्रत्यंग बताते हैं कि देह धारण कर लेने पर तुम भी टूटते हो, तुम भी बिखरते हो, तुम्हारी भी मृत्यु होती है। भगवान होकर भी नहीं बचा पाते स्वयं को मृत्यु से।
लेकिन – तुम्हारे द्वारा बनाया गया इंसान जीवन में एक बार ही मृत्यु को प्राप्त होता है और इंसान के द्वारा बनाये गये भगवान! तुम्हारी मृत्यु तो बार-बार होती है। होती चली आ रही है ...होती चली जायेगी। उकता जाने पर तुम भी विलीन कर देते हो इंसान को, तुम्हारा इंसान भी विलीन कर देता है अपने भगवान को। तुम भी मन बहलाते हो उससे, वह भी मन बहला रहा है तुमसे। न तुम रुकने का नाम लेते हो, न वो। न तुम्हारा खेल समझ आता है, न उसका।
जब-जब देह धरोगे तुम, तब-तब निश्चित रूप से मरोगे भी। देहधारी बन कर अमर कैसे बन पाओगे। किसी भी नाम से देह धारण कर लो – राम के नाम से आओगे तो सरयू में डूब कर मरोगे, कृष्ण के नाम से आओगे तो बहेलिये के तीर से मर जाओगे, जीसस बनोगे तो सूली पर लटकोगे, बुद्ध बनोगे तो भी मरोगे। इसलिए बेहतर है निराकार रहो। कोई यह तो नहीं कहेगा कि भगवान मृत्यु को प्राप्त हो गये।
यह दुनिया भले ही तुम्हारी रची हुई हो, लेकिन इसमें रह कर तुम अमर कैसे रह पाओगे। कोशिश तो कर चुके हो कितनी बार! तुम इंसान को प्यार करो, उसे राह दिखाओ और इंसान तुम्हें प्यार करे, बस इतना काफी है। समझाओ अपने इंसान को कि तुम निराकार हो, निर्विकार हो, शाश्वत हो, हर व्यक्ति में तुम्हारा ही अंश मौजूद है। तुम्हारा काम तुम्हारे ही पास रहने दे वो। यूँ बार-बार भिन्न-भिन्न आकार देकर तुम्हें आदमी की मौत न मारे वो।
आज मेरी इस वार्तालाप को ही मेरी पूजा मान लेना तुम!
- राजेन्द्र चौधरी
पता नहीं – किसने किसे बनाया, तुमने उसे बनाया या उसने तुम्हें। परन्तु तुम दोनों ही एक जैसा खेल खेलते हो, एक दूसरे के साथ। थोड़ी सी मिट्टी, थोड़ा सा पानी, थोड़ी सी आग, थोड़ी सी हवा, और थोड़ा सा आकाश लेकर गढ़ देते हो एक खिलोना। फिर खेलते हो उसके साथ, मन बहलाते हो अपना, कठपुतली सा नचाते हो उसे अपने मन के अनुसार। फिर जब मन भर जाता है या उकता जाते हो उससे, तो खत्म कर देते हो अपना खेल – फिर से मिला देते हो मिट्टी को मिट्टी में, पानी को पानी में, आग को आग में, हवा को हवा में, और आकाश को आकाश में। विलीन हो जाते हैं ये सब फिर से अपने मूल रूप में।
ऐसा ही खेल वह भी खेलता है तुम्हारे साथ। बड़े उत्साह, बड़े चाव, और बड़ी मेहनत से वह भी गढ़ता है तुम्हें कभी गणपति तो कभी दुर्गा के आकार में। बड़े उल्लास के साथ वह भी तुम्हारी प्राण-प्रतिष्ठा करता है। पूरा आयोजन करता है रीझने-रिझाने का। दीप-धूप, फल-फूल, रोली-अक्षत, नारियल-सुपारी, मेवा-मिष्ठान का अम्बार लगा देता है। आरती-अर्चना करता है तुम्हारी। अपने सगे-सम्बन्धियों को आमंत्रित करता है अपने इस अनुष्ठान में। पूरा पर्व सा चलता है कुछ दिन। फिर एक नियत अवधि के बाद, झूमता-नाचता, गाता-बजाता विसर्जित कर देता है तुम्हें जल में। और साथ ही विसर्जित हो जाता है उसका वो उत्साह और चाव भी। विसर्जित हो जाती है सारी श्रद्धा और भक्ति।
कई बार किसी नदी या समुद्र के किनारे बिखरे पड़े तुम्हारे छिन्न-भिन्न अंग-प्रत्यंग बताते हैं कि देह धारण कर लेने पर तुम भी टूटते हो, तुम भी बिखरते हो, तुम्हारी भी मृत्यु होती है। भगवान होकर भी नहीं बचा पाते स्वयं को मृत्यु से।
लेकिन – तुम्हारे द्वारा बनाया गया इंसान जीवन में एक बार ही मृत्यु को प्राप्त होता है और इंसान के द्वारा बनाये गये भगवान! तुम्हारी मृत्यु तो बार-बार होती है। होती चली आ रही है ...होती चली जायेगी। उकता जाने पर तुम भी विलीन कर देते हो इंसान को, तुम्हारा इंसान भी विलीन कर देता है अपने भगवान को। तुम भी मन बहलाते हो उससे, वह भी मन बहला रहा है तुमसे। न तुम रुकने का नाम लेते हो, न वो। न तुम्हारा खेल समझ आता है, न उसका।
जब-जब देह धरोगे तुम, तब-तब निश्चित रूप से मरोगे भी। देहधारी बन कर अमर कैसे बन पाओगे। किसी भी नाम से देह धारण कर लो – राम के नाम से आओगे तो सरयू में डूब कर मरोगे, कृष्ण के नाम से आओगे तो बहेलिये के तीर से मर जाओगे, जीसस बनोगे तो सूली पर लटकोगे, बुद्ध बनोगे तो भी मरोगे। इसलिए बेहतर है निराकार रहो। कोई यह तो नहीं कहेगा कि भगवान मृत्यु को प्राप्त हो गये।
यह दुनिया भले ही तुम्हारी रची हुई हो, लेकिन इसमें रह कर तुम अमर कैसे रह पाओगे। कोशिश तो कर चुके हो कितनी बार! तुम इंसान को प्यार करो, उसे राह दिखाओ और इंसान तुम्हें प्यार करे, बस इतना काफी है। समझाओ अपने इंसान को कि तुम निराकार हो, निर्विकार हो, शाश्वत हो, हर व्यक्ति में तुम्हारा ही अंश मौजूद है। तुम्हारा काम तुम्हारे ही पास रहने दे वो। यूँ बार-बार भिन्न-भिन्न आकार देकर तुम्हें आदमी की मौत न मारे वो।
आज मेरी इस वार्तालाप को ही मेरी पूजा मान लेना तुम!
- राजेन्द्र चौधरी
शनिवार, अगस्त 13, 2011
आदर्श
बच्चे परमात्मा का प्रतिरूप होते हैं, निष्पाप, निश्छल। तेर-मेर, छल-कपट से दूर, सिर्फ प्यार की भाषा को समझने वाले। उनकी अबोधता, उनका अज्ञान भी पवित्र होता है क्योंकि वह प्रकृति-दत्त है। उनकी सहजता लुभाती है क्योंकि वह निर्मल होती है, उस पर दुनियावी मुखौटे नहीं चढ़े होते। जैसा है–वैसा है, की सुविधा उन्हें प्राप्त होती है। बनावट, कृत्रिमता, औपचारिकताओं से उनका परिचय नहीं हुआ होता तब तक। इन सब चीजों की परतें तो हम चढ़ाते हैं उनके व्यक्तित्व पर। शिष्टाचार सिखाने के नाम पर हम कितनी बनावट, कितनी औपचारिकता सिखा देते हैं, हर लेते हैं हम उनका भोलापन, बनाने पर तुले होते हैं उन्हें भी अपने जैसा। यह सब करके हम अपने लिए आसानी पैदा करना चाहते हैं। जो बच्चा समय से पहले अपना भोलापन खो दे और बड़ों जैसी बातें करने लगे, हम उसे होनहार और जिम्मेदार बताने लगते हैं। बच्चे का भोलापन खो देना हमें सुहाता है, हमारे लिए सुविधा पैदा करता है। भोला रहेगा तो किसी भी समय, कहीं भी, कुछ भी कह देगा या पूछ लेगा। हो सकता है उसकी बात हमारे लिए शर्मिन्दगी पैदा कर दे। भोला इसीलिए तो भोला कहलाता है क्योंकि उसकी अभिव्यक्ति व्यवहार की तथाकथित समाजिक मर्यादाओं या सीमाओं से अपरिचित होती है।
लेकिन बाल-मन हमसे कहीं अधिक जिज्ञासु, कहीं अधिक ऊर्जावान, कहीं अधिक कुशाग्र होता है। वह मौन-दृष्टा होता है हमारे व्यवहार, हमारे आचरण का। बहुत सी बातें वह हमें देख कर, सुन कर ही सीख लेता है। जब मैं पहली बार अपने पौत्र का बाबा बना, तो मुझे मौका मिला बाल-मन को और बचपन को करीब से अवलोकित करने का। इतना नज़दीकी से अवलोकन मैं अपने बेटे के बचपन का नहीं कर पाया था। हम लोगों ने अपने पौत्र का नाम ऊर्जित रखा। ईश्वर की कृपा से बला की ऊर्जा, कुशाग्रता और ईमानदारी है उसमें। मैं उसमें अपना खोया हुआ बचपन देखता हूँ और शायद वह भी मुझे देख कर गढ़ रहा होता है कुछ अपने मन में। मुझे घनिष्ठता का इतना सजीव अनुभव आज तक किसी भी रिश्ते में महसूस नहीं हुआ। यूँ तो हर रिश्ता जिम्मेदारी सिखाता है, लेकिन अब मुझे हर पल यह अहसास रहता है कि मेरा आचरण उत्तरदायी हो। आने वाले दिसम्बर में वह अभी सिर्फ आठ वर्ष का होगा लेकिन उससे जो मैंने सीखा है वह अनुपम है। सीखने की चाह बल्कि ललक उसी से आयी है मुझमें। वह मेरा पौत्र है, लाड़ला है, अपनी परछायी तलाशता हूँ मैं उसमें, लेकिन कुछ बातों में वह गुरु भी है मेरा। उसे भी जब हिन्दी के किसी शब्द को लिखने या समझने में कोई परेशानी होती है, तो बम्बई से फोन करके पूछता है मुझसे। एक विश्वास है उसे कि उसकी जिज्ञासा का समाधान उसके बाबा के पास ज़रूर होगा।
मैं उसकी जिज्ञासाओं का समाधान कर पाऊँ, इसके लिए ज़रूरी है कि मैं अपने ज्ञान को, अपनी जानकारी को ताज़ा रखूँ। इसलिए और ज्यादा कोशिश करता हूँ सीखने की। लेकिन कुछ बातों के उत्तर अभी तक नहीं ढूँढ पाया हूँ मैं और मन ही मन डरता हूँ कि किसी दिन उसने पूछ लिया तो क्या उत्तर दूँगा। अगर उसने पूछ लिया कि बाबा आदर्श कौन है या आदर्श बाबा कौन हुआ है? आदर्श पिता कौन हुआ है? आदर्श माता कौन हुई है? आदर्श भाई कौन हुए हैं? आदर्श गुरू कौन हुआ है? आदर्श पति कौन हुआ है? क्या जवाब दूँगा मैं उसे? क्योंकि मुझे कोई भी आदर्श की कसौटी पर खरा उतरता हुआ दिखायी नहीं दिया।
क्या वचनबद्धता की आड़ लेकर मौन बने अपनी पौत्रवधु द्रौपदी का चीरहरण देखते रहने वाले भीष्म को आदर्श बाबा बता पाऊँगा? क्या अपनी पत्नी को दिये गये वचन की कीमत अपने बेटे से वसूलने वाले दशरथ को आदर्श पिता बता पाऊँगा? क्या पति के वचन की लाज रखने के लिए बेटे को बनवास भेजने का पुरजोर ढंग से विरोध न कर पाने वाली कौशल्या को या जिज्ञासावश अविवाहित माँ बन जाने पर इस सत्य को छुपाने वाली और कर्ण को अनुपम योद्धा व अद्वितीय दानी होने के बावजूद अकारण आजीवन सूतपुत्र कहलाने का दंश झेलने के लिए मजबूर करने वाली कुंती को आदर्श माता बता पाऊँगा? स्वयं की तरह नव-विवाहित होने के बावजूद पत्नी को त्याग कर अपने साथ बनवास के कष्टों से लक्ष्मण को गुजरते हुए देखने वाले राम को या रामभक्त कहलाने के लिए रावण की मृत्यु का रास्ता सुझाने वाले विभीषण को आदर्श भाई बता पाऊँगा? भरत की उपमा मैं शायद इसलिए न दे पाऊँ क्योंकि राम उससे बड़े थे। ऊर्जित भी उदयन का बड़ा भाई है, उसकी जिज्ञासा अपने लिए आदर्श पूछने की होगी। क्या गुरू दक्षिणा में एकलव्य का अँगूठा माँगने वाले और ज्ञान को विक्रय की वस्तु बना देने का घृणित काम करने वाले गुरू द्रोणाचार्य को या कर्ण की विद्वता व योग्यताओं के बावजूद उसके ब्राहमण न होने के कारण उसे शाप देने वाले परशुराम को मैं आदर्श गुरू बता पाऊँगा? क्या एक धोबी के कह देने भर से अपनी पत्नी सीता को निर्वासित करके उसकी अग्निपरीक्षा लेने वाले पति राम को या पत्नी को जुए में दांव पर लगा देने वाले तथाकथित धर्मराज युधिष्ठिर को आदर्श पति बता पाऊँगा? इन बड़े व महिमा-मंडित व्यक्तियों में ही तो अपने आदर्श ढूँढते हैं हम। ये तो उस कसौटी पर खरे नहीं उतरते।
जब मैं उसके सामने रिश्तों के इन विभिन्न रूपों के आदर्श नहीं रख पाऊँगा तो उससे एक आदर्श पुत्र या आदर्श पौत्र होने की अपेक्षा किस मुँह से करूँगा? ईश्वर से प्रार्थना है कि वह ऐसी स्थिति उत्पन्न न करे वरना बहुत शर्मसार होना पड़ेगा मुझे कि हम अपनी संस्कृति और संस्कारों की दुहाई देने वाले भारतवासी जीवन के इन बुनियादी रिश्तों तक में भी आदर्श स्थापित नहीं कर पाये।
- राजेन्द्र चौधरी
लेकिन बाल-मन हमसे कहीं अधिक जिज्ञासु, कहीं अधिक ऊर्जावान, कहीं अधिक कुशाग्र होता है। वह मौन-दृष्टा होता है हमारे व्यवहार, हमारे आचरण का। बहुत सी बातें वह हमें देख कर, सुन कर ही सीख लेता है। जब मैं पहली बार अपने पौत्र का बाबा बना, तो मुझे मौका मिला बाल-मन को और बचपन को करीब से अवलोकित करने का। इतना नज़दीकी से अवलोकन मैं अपने बेटे के बचपन का नहीं कर पाया था। हम लोगों ने अपने पौत्र का नाम ऊर्जित रखा। ईश्वर की कृपा से बला की ऊर्जा, कुशाग्रता और ईमानदारी है उसमें। मैं उसमें अपना खोया हुआ बचपन देखता हूँ और शायद वह भी मुझे देख कर गढ़ रहा होता है कुछ अपने मन में। मुझे घनिष्ठता का इतना सजीव अनुभव आज तक किसी भी रिश्ते में महसूस नहीं हुआ। यूँ तो हर रिश्ता जिम्मेदारी सिखाता है, लेकिन अब मुझे हर पल यह अहसास रहता है कि मेरा आचरण उत्तरदायी हो। आने वाले दिसम्बर में वह अभी सिर्फ आठ वर्ष का होगा लेकिन उससे जो मैंने सीखा है वह अनुपम है। सीखने की चाह बल्कि ललक उसी से आयी है मुझमें। वह मेरा पौत्र है, लाड़ला है, अपनी परछायी तलाशता हूँ मैं उसमें, लेकिन कुछ बातों में वह गुरु भी है मेरा। उसे भी जब हिन्दी के किसी शब्द को लिखने या समझने में कोई परेशानी होती है, तो बम्बई से फोन करके पूछता है मुझसे। एक विश्वास है उसे कि उसकी जिज्ञासा का समाधान उसके बाबा के पास ज़रूर होगा।
मैं उसकी जिज्ञासाओं का समाधान कर पाऊँ, इसके लिए ज़रूरी है कि मैं अपने ज्ञान को, अपनी जानकारी को ताज़ा रखूँ। इसलिए और ज्यादा कोशिश करता हूँ सीखने की। लेकिन कुछ बातों के उत्तर अभी तक नहीं ढूँढ पाया हूँ मैं और मन ही मन डरता हूँ कि किसी दिन उसने पूछ लिया तो क्या उत्तर दूँगा। अगर उसने पूछ लिया कि बाबा आदर्श कौन है या आदर्श बाबा कौन हुआ है? आदर्श पिता कौन हुआ है? आदर्श माता कौन हुई है? आदर्श भाई कौन हुए हैं? आदर्श गुरू कौन हुआ है? आदर्श पति कौन हुआ है? क्या जवाब दूँगा मैं उसे? क्योंकि मुझे कोई भी आदर्श की कसौटी पर खरा उतरता हुआ दिखायी नहीं दिया।
क्या वचनबद्धता की आड़ लेकर मौन बने अपनी पौत्रवधु द्रौपदी का चीरहरण देखते रहने वाले भीष्म को आदर्श बाबा बता पाऊँगा? क्या अपनी पत्नी को दिये गये वचन की कीमत अपने बेटे से वसूलने वाले दशरथ को आदर्श पिता बता पाऊँगा? क्या पति के वचन की लाज रखने के लिए बेटे को बनवास भेजने का पुरजोर ढंग से विरोध न कर पाने वाली कौशल्या को या जिज्ञासावश अविवाहित माँ बन जाने पर इस सत्य को छुपाने वाली और कर्ण को अनुपम योद्धा व अद्वितीय दानी होने के बावजूद अकारण आजीवन सूतपुत्र कहलाने का दंश झेलने के लिए मजबूर करने वाली कुंती को आदर्श माता बता पाऊँगा? स्वयं की तरह नव-विवाहित होने के बावजूद पत्नी को त्याग कर अपने साथ बनवास के कष्टों से लक्ष्मण को गुजरते हुए देखने वाले राम को या रामभक्त कहलाने के लिए रावण की मृत्यु का रास्ता सुझाने वाले विभीषण को आदर्श भाई बता पाऊँगा? भरत की उपमा मैं शायद इसलिए न दे पाऊँ क्योंकि राम उससे बड़े थे। ऊर्जित भी उदयन का बड़ा भाई है, उसकी जिज्ञासा अपने लिए आदर्श पूछने की होगी। क्या गुरू दक्षिणा में एकलव्य का अँगूठा माँगने वाले और ज्ञान को विक्रय की वस्तु बना देने का घृणित काम करने वाले गुरू द्रोणाचार्य को या कर्ण की विद्वता व योग्यताओं के बावजूद उसके ब्राहमण न होने के कारण उसे शाप देने वाले परशुराम को मैं आदर्श गुरू बता पाऊँगा? क्या एक धोबी के कह देने भर से अपनी पत्नी सीता को निर्वासित करके उसकी अग्निपरीक्षा लेने वाले पति राम को या पत्नी को जुए में दांव पर लगा देने वाले तथाकथित धर्मराज युधिष्ठिर को आदर्श पति बता पाऊँगा? इन बड़े व महिमा-मंडित व्यक्तियों में ही तो अपने आदर्श ढूँढते हैं हम। ये तो उस कसौटी पर खरे नहीं उतरते।
जब मैं उसके सामने रिश्तों के इन विभिन्न रूपों के आदर्श नहीं रख पाऊँगा तो उससे एक आदर्श पुत्र या आदर्श पौत्र होने की अपेक्षा किस मुँह से करूँगा? ईश्वर से प्रार्थना है कि वह ऐसी स्थिति उत्पन्न न करे वरना बहुत शर्मसार होना पड़ेगा मुझे कि हम अपनी संस्कृति और संस्कारों की दुहाई देने वाले भारतवासी जीवन के इन बुनियादी रिश्तों तक में भी आदर्श स्थापित नहीं कर पाये।
- राजेन्द्र चौधरी
शुक्रवार, अगस्त 12, 2011
झूठ और सच
झूठ और सच क्या हैं? कुछ शाश्वत सच को छोड़ दें, तो बाकी के झूठ और सच एक नज़रिया ही तो हैं। एक सिक्के के दो पहलुओं की तरह सच और झूठ में फर्क होते हुए भी ज्यादा फर्क नहीं होता। शायद इसीलिए ‘अपना-अपना सच’ वाक्यांश या मुहावरा गढ़ा गया है। लेकिन क्या कभी आपने झूठ को सच बनते देखा है, नहीं ना? मैंने देखा है – आज इसी झूठ के सच बनने का किस्सा सुनाता हूँ आपको।
बात आज से करीब बयालीस साल पहले की है, तब मैं अपना ग्रेजुएशन कर रहा था। हम लोग उन दिनों मेरठ की एक बाहरी बस्ती में रहते थे। गर्मियों की छुट्टियां थीं, तो अम्मा ने दो-चार दिन के लिए मेरे मामाजी के यहाँ अपने जाने का प्रोग्राम बनाया। पिताजी की अनुमति मिल जाने पर तय हुआ कि मैं अम्मा को मामाजी के गाँव तक जाने वाली बस में बिठा आऊँ। अम्मा रिक्शे में और मैं उनके पीछे-पीछे अपनी साइकिल पर बस स्टैंड के लिए चल दिये। मैंने अम्मा के लिए टिकट खरीदा, उन्हें बस में ठीक सी सीट देख कर बिठाया, उनके चरण स्पर्श किये, और फिर उनकी बस के चल देने पर मैं अपनी साइकिल से घर के लिए वापस चल दिया। थोड़ी दूर चलने के बाद, मुझे लगा कि मेरी दांयी आँख से यकायक दिखना बंद हो गया है। न कोई चोट लगी, न कोई तिनका या कीड़ा गिरा, न धूल गिरी, न कोई दर्द हुआ, बस अचानक दांयी ओर का दिखना बंद हो गया। मैंने साइकिल रोकी, पास के एक नल पर अपना मुँह धोया, आँखों पर पानी के छपके मारे, लेकिन स्थिति जस की तस रही। किसी तरह घर पहुँचा, सौभाग्य से पिताजी घर पर ही थे। उन्हें पूरी बात बतायी, वो बोले - घबराओ नहीं, ठीक से अपना मुँह धोकर आँखें बंद करके लेट जाओ और उन्होंने मेरे छोटे भाई को आँखों की जो दवा घर पर थी (शायद लोकुला) उसे मेरी आँख में ड़ालने के लिए कहा। थोड़ी देर बाद पिताजी ने पूछा कि क्या अब कुछ दिखना शुरू हुआ उस आँख से? मेरे ना कहने पर वो मुझे लेकर पास के ही आँख के एक डॉक्टर के पास पहुँचे। डॉक्टर ने पूरी बात सुनी, मेरी आँख देखी, कुछ दवाइयां दीं खाने के लिए, और साथ ही कह दिया कि अगर सुबह तक आराम न आये, तो डॉ. माथुर को दिखायें।
सुबह तक भी मेरी आँख की स्थिति वैसी ही बनी रही। पिताजी मुझे लेकर डॉ. माथुर के क्लिनिक पर गये। उन दिनों मेरठ में आँखों के दो ही डॉक्टर प्रसिद्ध थे, डॉ. के. जी. माथुर और डॉ. वीरचन्द्र। डॉ. माथुर ने बारीकी से मेरी आँख का मुआयना किया, और पिताजी को परामर्श दिया कि वो मुझे फौरन अलीगढ ले जायें। अलीगढ में उन दिनों उत्तर प्रदेश का आँखों का सर्वोत्तम अस्पताल था। पिताजी के पूछने पर डॉक्टर ने मुझे बाहर बैठने के लिए कहा और उन्हें आँख की आकृति बना कर कुछ मेडिकल भाषा में समझाया। मैंने पिताजी से पूछा तो उन्होंने कुछ बताया नही, सिर्फ इतना कहा कि ठीक हो जायेगा, लेकिन हमें अलीगढ चलना होगा, वहीं पर इस बीमारी के इलाज की सुविधा है। पिताजी ने फिर मुझे डॉ. वीरचन्द्र को भी दिखाया, उन्होंने भी पिताजी को वही राय दी। सौभाग्यवश, अचानक सामने से मामाजी आते दिखायी दिये, और पिताजी व मामाजी ने कुछ पैसों की व्यवस्था की, घर से ज़रूरी चीजें लीं और उसी दिन हम तीनों शाम तक अलीगढ अस्पताल (गांधी नेत्र चिकित्सालय) पहुँच गये। डॉक्टरों ने मेरी आँख का निरीक्षण किया और अपताल के एक प्राइवेट वार्ड में भर्ती कर लिया।
हम लोग वहाँ पर दो सप्ताह रहे। रोज बड़ी सी मशीन से मेरी आँख की जाँच की जाती, आँख के कोने पर बहुत पीड़ादायक इंजेक्शन लगाये जाते और खाने के लिए कुछ दवायें दी जातीं। पन्द्रह दिन के बाद भी कोई सुधार नहीं हुआ। मुझे याद है कि पिताजी और मामाजी जब कमरे से बाहर चले जाते, तो मैं अकेले रोने लगता था अपने बारे में सोच कर। खैर, पन्द्रह दिन बाद कुछ मेडिकल रिपॉर्टों के साथ हम घर वापस लौट आये, बिना किसी सुधार के। आप यह समझ सकते हैं कि घर पर सब लोगों पर क्या बीती होगी, खास कर अम्मा के दिल पर।
यह खबर एक दूसरे से सब रिश्तेदारों और परिचितों तक आग की तरह पहुँची और रोज घर पर आने वालों का तांता लग गया। हर कोई मेरे पास आता, अपनी संवेदनायें जताता, और ‘इस छोटी सी उम्र में बेचारे पर क्या मुसीबत आ पड़ी’, आदि आदि कह कर वापस चला जाता। पिताजी और अम्मा भी टूट चुके थे। एक दिन पिताजी ने मेरी पढ़ाई बंद कराने की घोषणा कर दी। वो डर गये थे कि कहीं दूसरी आँख की भी रोशनी न जाती रहे। उस क्षण मुझ पर जो बीता, मैं ही जानता हूँ। मैं बिखर पड़ा, रो-रोकर अम्मा के साथ लिपट गया कि मेरी पढ़ाई बंद न होने दें। अम्मा ने जैसे तैसे पिताजी को मेरा ग्रेजुएशन पूरा करने देने के लिए सहमत करा लिया।
मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था। मैं जान चुका था कि मेरी दांयी आँख की ऑप्टिक नर्व में रक्त की आपूर्ति बंद हो गयी है, वो नस सूख चुकी है, ऐसा अचानक ही होता है, यह एक लाइलाज बीमारी है, और कहीं पर भी इसका कोई उपचार उपलब्ध नहीं है। आयु कम थी, अम्मा-पिताजी खुद दुखी थे, बाकी भाई-बहन मुझसे छोटे थे, हौसला पाऊँ तो किससे, कहाँ से? पर मैं बेचारा बन कर जीना नहीं चाहता था। किशोर आयु थी, एक दिन शाम को घर से पिताजी की एक सिगरेट और माचिस उठायी और घूमने निकल पड़ा, बस्ती से बाहर एक सुनसान सी जगह पर बैठ गया। अपनी ज़िन्दगी में पहली सिगरेट जलायी, जैसे तैसे दो-चार कश लिये फिर फेंक दी सिगरेट और निश्चय कर लिया एक झूठ बोलने का। घर आकर अम्मा को अपनी योजना में साझी किया, और उनसे प्रार्थना की कि किसी भी तरह पिताजी को इस बात के लिए मना लें। अगले दिन से मैंने कहना शुरू कर दिया कि मेरी दांयी आँख में रोशनी लौट आयी। धीरे-धीरे यह बात भी फैलती गयी, लोगों ने मिलने पर मुझसे इसकी पुष्टि चाही और मैंने पुष्टि कर दी। लोगों ने मान लिया कि जैसे अचानक रोशनी गयी थी, वैसे ही अचानक आ भी गयी होगी। सब उसकी कुदरत है। सब कुछ फिर से सामान्य हो गया। मैं बेचारे से फिर समर्थ बन गया। मुझे याद है कि अपने बेटे के जन्म के बाद मैंने सबसे पहले उसकी आँखें ही देखी थीं और सब कुछ सामान्य पाकर मन ही मन ईश्वर का धन्यवाद दिया था। हाँ, मैं ग्रेजुएशन से आगे नहीं पढ़ पाया और बेवकूफी में ही सही पर सिगरेट पीने की लत भी लग गयी।
बस जब तक अम्मा रहीं, वो आखिरी दम तक भी अकेले में मेरी दांयी आँख पर अपना हाथ फिराना नहीं भूलती थीं। अब तो मैं भी भूल चुका हूँ अपने इस अधूरेपन को, इसके साथ जीने का आदी हो गया हूँ। कभी अगर मेरी दायीं साइड किसी चीज से टकरा जाती है तो पल भर ठिठकता हूँ, फिर आगे बढ़ लेता हूँ।
आज एक वीडियो देखी जिसमें अमेरिका में एक महिला अपनी दोनों बाजू न होने पर अपने पैरों से न सिर्फ पियानो बजाती है, अपनी आँखों के कॉंटैक्ट लैंस बदल लेती है, बल्कि हवाई जहाज भी पूरी कुशलता के साथ उड़ाती है। उसे देख कर अपनी ज़िन्दगी का रहा सहा अधूरापन भी भूल गया।
विकलांगता तभी तक विकलांगता रहती है जब तक ज़हनी तौर पर हम उसे अपंगता माने रहते हैं। मेरा यह झूठ जो दुनिया की नज़र में सच बन चुका है और जिसने मुझे ज़िन्दगी जीने का हौसला दिया है, उसे बोल कर मुझे कोई अपराध बोध नहीं है। ऐसा झूठ, जो किसी दूसरे के लिए अहितकर न हो और मेरी ज़िन्दगी को ऊर्जा दे, मैं सौ बार बोलने को तैयार हूँ।
- राजेन्द्र चौधरी
बात आज से करीब बयालीस साल पहले की है, तब मैं अपना ग्रेजुएशन कर रहा था। हम लोग उन दिनों मेरठ की एक बाहरी बस्ती में रहते थे। गर्मियों की छुट्टियां थीं, तो अम्मा ने दो-चार दिन के लिए मेरे मामाजी के यहाँ अपने जाने का प्रोग्राम बनाया। पिताजी की अनुमति मिल जाने पर तय हुआ कि मैं अम्मा को मामाजी के गाँव तक जाने वाली बस में बिठा आऊँ। अम्मा रिक्शे में और मैं उनके पीछे-पीछे अपनी साइकिल पर बस स्टैंड के लिए चल दिये। मैंने अम्मा के लिए टिकट खरीदा, उन्हें बस में ठीक सी सीट देख कर बिठाया, उनके चरण स्पर्श किये, और फिर उनकी बस के चल देने पर मैं अपनी साइकिल से घर के लिए वापस चल दिया। थोड़ी दूर चलने के बाद, मुझे लगा कि मेरी दांयी आँख से यकायक दिखना बंद हो गया है। न कोई चोट लगी, न कोई तिनका या कीड़ा गिरा, न धूल गिरी, न कोई दर्द हुआ, बस अचानक दांयी ओर का दिखना बंद हो गया। मैंने साइकिल रोकी, पास के एक नल पर अपना मुँह धोया, आँखों पर पानी के छपके मारे, लेकिन स्थिति जस की तस रही। किसी तरह घर पहुँचा, सौभाग्य से पिताजी घर पर ही थे। उन्हें पूरी बात बतायी, वो बोले - घबराओ नहीं, ठीक से अपना मुँह धोकर आँखें बंद करके लेट जाओ और उन्होंने मेरे छोटे भाई को आँखों की जो दवा घर पर थी (शायद लोकुला) उसे मेरी आँख में ड़ालने के लिए कहा। थोड़ी देर बाद पिताजी ने पूछा कि क्या अब कुछ दिखना शुरू हुआ उस आँख से? मेरे ना कहने पर वो मुझे लेकर पास के ही आँख के एक डॉक्टर के पास पहुँचे। डॉक्टर ने पूरी बात सुनी, मेरी आँख देखी, कुछ दवाइयां दीं खाने के लिए, और साथ ही कह दिया कि अगर सुबह तक आराम न आये, तो डॉ. माथुर को दिखायें।
सुबह तक भी मेरी आँख की स्थिति वैसी ही बनी रही। पिताजी मुझे लेकर डॉ. माथुर के क्लिनिक पर गये। उन दिनों मेरठ में आँखों के दो ही डॉक्टर प्रसिद्ध थे, डॉ. के. जी. माथुर और डॉ. वीरचन्द्र। डॉ. माथुर ने बारीकी से मेरी आँख का मुआयना किया, और पिताजी को परामर्श दिया कि वो मुझे फौरन अलीगढ ले जायें। अलीगढ में उन दिनों उत्तर प्रदेश का आँखों का सर्वोत्तम अस्पताल था। पिताजी के पूछने पर डॉक्टर ने मुझे बाहर बैठने के लिए कहा और उन्हें आँख की आकृति बना कर कुछ मेडिकल भाषा में समझाया। मैंने पिताजी से पूछा तो उन्होंने कुछ बताया नही, सिर्फ इतना कहा कि ठीक हो जायेगा, लेकिन हमें अलीगढ चलना होगा, वहीं पर इस बीमारी के इलाज की सुविधा है। पिताजी ने फिर मुझे डॉ. वीरचन्द्र को भी दिखाया, उन्होंने भी पिताजी को वही राय दी। सौभाग्यवश, अचानक सामने से मामाजी आते दिखायी दिये, और पिताजी व मामाजी ने कुछ पैसों की व्यवस्था की, घर से ज़रूरी चीजें लीं और उसी दिन हम तीनों शाम तक अलीगढ अस्पताल (गांधी नेत्र चिकित्सालय) पहुँच गये। डॉक्टरों ने मेरी आँख का निरीक्षण किया और अपताल के एक प्राइवेट वार्ड में भर्ती कर लिया।
हम लोग वहाँ पर दो सप्ताह रहे। रोज बड़ी सी मशीन से मेरी आँख की जाँच की जाती, आँख के कोने पर बहुत पीड़ादायक इंजेक्शन लगाये जाते और खाने के लिए कुछ दवायें दी जातीं। पन्द्रह दिन के बाद भी कोई सुधार नहीं हुआ। मुझे याद है कि पिताजी और मामाजी जब कमरे से बाहर चले जाते, तो मैं अकेले रोने लगता था अपने बारे में सोच कर। खैर, पन्द्रह दिन बाद कुछ मेडिकल रिपॉर्टों के साथ हम घर वापस लौट आये, बिना किसी सुधार के। आप यह समझ सकते हैं कि घर पर सब लोगों पर क्या बीती होगी, खास कर अम्मा के दिल पर।
यह खबर एक दूसरे से सब रिश्तेदारों और परिचितों तक आग की तरह पहुँची और रोज घर पर आने वालों का तांता लग गया। हर कोई मेरे पास आता, अपनी संवेदनायें जताता, और ‘इस छोटी सी उम्र में बेचारे पर क्या मुसीबत आ पड़ी’, आदि आदि कह कर वापस चला जाता। पिताजी और अम्मा भी टूट चुके थे। एक दिन पिताजी ने मेरी पढ़ाई बंद कराने की घोषणा कर दी। वो डर गये थे कि कहीं दूसरी आँख की भी रोशनी न जाती रहे। उस क्षण मुझ पर जो बीता, मैं ही जानता हूँ। मैं बिखर पड़ा, रो-रोकर अम्मा के साथ लिपट गया कि मेरी पढ़ाई बंद न होने दें। अम्मा ने जैसे तैसे पिताजी को मेरा ग्रेजुएशन पूरा करने देने के लिए सहमत करा लिया।
मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था। मैं जान चुका था कि मेरी दांयी आँख की ऑप्टिक नर्व में रक्त की आपूर्ति बंद हो गयी है, वो नस सूख चुकी है, ऐसा अचानक ही होता है, यह एक लाइलाज बीमारी है, और कहीं पर भी इसका कोई उपचार उपलब्ध नहीं है। आयु कम थी, अम्मा-पिताजी खुद दुखी थे, बाकी भाई-बहन मुझसे छोटे थे, हौसला पाऊँ तो किससे, कहाँ से? पर मैं बेचारा बन कर जीना नहीं चाहता था। किशोर आयु थी, एक दिन शाम को घर से पिताजी की एक सिगरेट और माचिस उठायी और घूमने निकल पड़ा, बस्ती से बाहर एक सुनसान सी जगह पर बैठ गया। अपनी ज़िन्दगी में पहली सिगरेट जलायी, जैसे तैसे दो-चार कश लिये फिर फेंक दी सिगरेट और निश्चय कर लिया एक झूठ बोलने का। घर आकर अम्मा को अपनी योजना में साझी किया, और उनसे प्रार्थना की कि किसी भी तरह पिताजी को इस बात के लिए मना लें। अगले दिन से मैंने कहना शुरू कर दिया कि मेरी दांयी आँख में रोशनी लौट आयी। धीरे-धीरे यह बात भी फैलती गयी, लोगों ने मिलने पर मुझसे इसकी पुष्टि चाही और मैंने पुष्टि कर दी। लोगों ने मान लिया कि जैसे अचानक रोशनी गयी थी, वैसे ही अचानक आ भी गयी होगी। सब उसकी कुदरत है। सब कुछ फिर से सामान्य हो गया। मैं बेचारे से फिर समर्थ बन गया। मुझे याद है कि अपने बेटे के जन्म के बाद मैंने सबसे पहले उसकी आँखें ही देखी थीं और सब कुछ सामान्य पाकर मन ही मन ईश्वर का धन्यवाद दिया था। हाँ, मैं ग्रेजुएशन से आगे नहीं पढ़ पाया और बेवकूफी में ही सही पर सिगरेट पीने की लत भी लग गयी।
बस जब तक अम्मा रहीं, वो आखिरी दम तक भी अकेले में मेरी दांयी आँख पर अपना हाथ फिराना नहीं भूलती थीं। अब तो मैं भी भूल चुका हूँ अपने इस अधूरेपन को, इसके साथ जीने का आदी हो गया हूँ। कभी अगर मेरी दायीं साइड किसी चीज से टकरा जाती है तो पल भर ठिठकता हूँ, फिर आगे बढ़ लेता हूँ।
आज एक वीडियो देखी जिसमें अमेरिका में एक महिला अपनी दोनों बाजू न होने पर अपने पैरों से न सिर्फ पियानो बजाती है, अपनी आँखों के कॉंटैक्ट लैंस बदल लेती है, बल्कि हवाई जहाज भी पूरी कुशलता के साथ उड़ाती है। उसे देख कर अपनी ज़िन्दगी का रहा सहा अधूरापन भी भूल गया।
विकलांगता तभी तक विकलांगता रहती है जब तक ज़हनी तौर पर हम उसे अपंगता माने रहते हैं। मेरा यह झूठ जो दुनिया की नज़र में सच बन चुका है और जिसने मुझे ज़िन्दगी जीने का हौसला दिया है, उसे बोल कर मुझे कोई अपराध बोध नहीं है। ऐसा झूठ, जो किसी दूसरे के लिए अहितकर न हो और मेरी ज़िन्दगी को ऊर्जा दे, मैं सौ बार बोलने को तैयार हूँ।
- राजेन्द्र चौधरी
गुरुवार, अगस्त 11, 2011
अपनी-अपनी परिभाषायें
आपने गाँव के उस आलसी की कहानी ज़रूर पढ़ी या सुनी होगी जो पूरी तरह स्वस्थ होने के बावजूद भी कुछ भी करना ही नहीं चाहता था। बस, पेड़ के नीचे चारपाई पर पड़ा रहता था। कोई घर का या बाहर का उधर से गुजरता, तो उससे पानी के लिए या भोजन के लिए पूछ लेता और वो उसे लाकर दे देता। कई बार वह खुद ही गुजरने वाले को आवाज़ देकर अपनी ज़रूरत बता देता। कट रही थी ज़िन्दगी बिना कुछ किये धरे ही। एक दिन कोई पढ़ा-लिखा शहरी नौजवान उधर से गुजरा, आलसी ने उसे आवाज़ दी और कहा कि प्यास लगी है, जरा पानी पिला दो। नौजवान रुका, उसके पास गया और उसे पानी पिला कर उससे पूछा - क्या चल-फिर नहीं पाते आप? आलसी बोला - नहीं मैं पूरी तरह स्वस्थ हूँ। नौजवान ने कहा – फिर खुद पानी क्यों नहीं पी लिया आपने? आलसी बोला – तुम जो नज़र आ गये थे। नौजवान ने फिर पूछा – क्या करते हैं आप? आलसी बोला – आराम। नौजवान बोला – कुछ करते क्यों नहीं? आलसी बोला – उससे क्या होगा? नौजवान बोला - कुछ करोगे, तो शरीर स्वस्थ रहेगा। आलसी बोला –वो तो अभी भी है। नौजवान बोला - चार पैसे कमाओगे। आलसी बोला – उससे क्या होगा? नौजवान ने कहा – पैसे कमाओगे तो आराम से रह पाओगे। आलसी बोला – आराम से ही तो रह रहा हूँ।
एक थी औरत और एक था पुरुष। दोनों में कोई रिश्ता नहीं था। फिर भी दोनों साथ-साथ रहते थे। आहिस्ता-आहिस्ता दोनों में प्यार पनपने लगा, और फिर बहुत प्यार करने लगे एक-दूसरे को। पर आखिरकार दोनों में नहीं निभी और एक दिन अलग हो गये दोनों। किसी ने उस औरत से पूछा – वो पुरुष तुम्हारा कौन था? औरत ने कहा – प्रेमी जो पति नहीं बन सका। किसी ने पुरुष से पूछा – वो औरत तुम्हारी कौन थी? पुरुष ने कहा – रखैल।
एक पिता अपनी बेटी को बहुत प्यार करता था। अपनी सामर्थ्य से आगे बढ़ कर उसकी इच्छायें पूरी करता था। लड़की शहर के एक प्रतिष्ठित कॉलेज से अंग्रेज़ी में पोस्ट-ग्रेजुएशन कर रही थी। एक दिन पिता और पुत्री दोनों साथ में कहीं जा रहे थे, पिता के कोई परिचित मिले और उन्होंने उस लड़की के बारे में पूछा। पिता ने कहा – यह मेरा गुरूर है, मेरी बेटी। बेटी अपने एक सहपाठी के प्रति आकर्षित हो गयी। एक दिन घर पर अपने मां-बाप की अनुपस्थिति में उसने अपने उस सहपाठी को बुलाया, दोनों प्रेम की बातों में मशगूल थे कि पिता आ गया। पिता के कान में बेटी की खुसपुसाहट पड़ चुकी थी। पिता ने बेटी की ओर तिरछी नज़रों से देखा। लड़के ने लड़की से पूछा – ये कौन हैं? लड़की बोली – हमारे प्यार के दुश्मन।
उपरोक्त उदाहरणों में दो अलग-अलग व्यक्तियों के द्वारा स्थिति विशेष का या एक दूसरे का परिचय परिभाषित करने के लिए भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया। कभी-कभी दो भिन्न-भिन्न स्थितियों को परिभाषित करने के लिए एक ही शब्द अलग अर्थों में प्रयोग करते हैं हम। गाँव में हमारे कुटुम्ब में ही मेरे एक ताऊजी थे, गंगाशरण नाम था उनका। उनका एक ही बेटा था और अच्छा खासा काम था उनका। ताऊ बूढ़े होते गये लेकिन उनकी लालसाएं बदस्तूर रहीं। मैं जब भी कभी अपने घर गया तो ताऊ जिनका घर हमारे घर के पास ही था, पहले मेरे स्कूटर और बाद में कार की आवाज़ सुन कर आ धमकते थे फौरन। मैं घर आया हूँ तो कुछ चाय-पानी बनेगा और उनसे भी पूछा जायेगा ग्रहण करने के लिए। बहुत आशावादी नज़रिया था उनका। चलता रहा ऐसे ही। फिर हमारे परिवार पर वक्त ने अपनी नज़रें तरेरीं और पहले मेरी अम्मा, फिर छोटे भाई की पत्नी, फिर पिताजी और फिर छोटा भाई भी दुनिया से रुखसत हो गया। ताऊ अब भी जीवित थे, हाँ बहुत वृद्ध हो गये थे। पर अपनी लाठी टेकते हुए आ धमकते थे तब भी जब मैं और मेरा सबसे छोटा भाई कभी गाँव जाते थे। मैंने एक बार देखा कि ताऊ के चश्मे की एक आर्म टूट गयी थी और उन्होंने धागा बाँध कर एक ही आर्म से चश्मे के कान पर टिकने की व्यवस्था कर रखी थी। ताऊ चाय नाश्ता ग्रहण करके जा चुके थे कि उनका बेटा मेरे पास आकर बैठ गया। इधर-उधर की बातों के बाद मैंने उनसे कहा – भाई, ताऊ आये थे। उनका नया चश्मा बनवा दो, पता नहीं कैसे टेके रहते हैं उसे कान पर। भाई बोला – हाँ चश्मा तो बनवाना है भाई उनका, क्या करूँ हाथ थोड़ा तंग है, मजबूरी है। फिर कुछ ही दिन बाद अचानक एक दिन ताऊ की मृत्यु का समाचार मिला। हम लोग गाँव गये, उनके घर पहुँचे, अपना शोक प्रकट किया। भाई यानि स्वर्गीय ताऊ के बेटे ने मुझको बताया कि फलाँ दिन ताऊ की तेरहवीं है, मैं ज़रूर पहुँचूं। तेरहवीं के दिन मैं पहुँचा और देख कर दंग रह गया। विशाल भोज का आयोजन था। पूछ सकता था, इसलिए मैंने ताऊजी के बेटे से पूछ लिया – इस विशाल आयोजन की क्या ज़रूरत थी? उन्होंने जवाब दिया – क्या करें भाई, मजबूरी है।
अपनी सुविधा के अनुसार या स्वयं को उचित ठहराने वाली परिभाषायें गढ़ने में हमारा कोई सानी नहीं है। लेकिन हम भूल जाते हैं कि यह एक घातक छलावा है और छलावा भी खुद अपने आप से। सच के साथ हल्की सी छेड़छाड़ भी उसे झूठ से भी कहीं अधिक घातक बना सकती है। कितनी सहजता के साथ, कितने उपयुक्त शब्दों में परिभाषित कर दिया उस औरत ने उस पुरुष के साथ अपने रिश्ते को - प्रेमी जो पति नहीं बन सका। सच को स्वीकारने में कौनसी हेठी होती है? किसके लिए परिभाषायें गढ़ते हैं हम? अपनी नज़रों में गिर कर किसके प्रमाण-पत्र से ऊँचे हो जायेंगे हम? कब सीखेंगे हम उस महिला की तरह साहस के साथ सही शब्दों में सच कहना? सच्चाई और वह भी उपयुक्त शब्दों में व्यक्त सच्चाई आदर दिलाती है और स्वाभिमान को पोषित करती है, झूठ अपमान दिलाता है और थोथे अहंकार को पोषित करता है। हमको खुद से दूर कर देता है हमारा यह थोथा अहंकार।
- राजेन्द्र चौधरी
एक थी औरत और एक था पुरुष। दोनों में कोई रिश्ता नहीं था। फिर भी दोनों साथ-साथ रहते थे। आहिस्ता-आहिस्ता दोनों में प्यार पनपने लगा, और फिर बहुत प्यार करने लगे एक-दूसरे को। पर आखिरकार दोनों में नहीं निभी और एक दिन अलग हो गये दोनों। किसी ने उस औरत से पूछा – वो पुरुष तुम्हारा कौन था? औरत ने कहा – प्रेमी जो पति नहीं बन सका। किसी ने पुरुष से पूछा – वो औरत तुम्हारी कौन थी? पुरुष ने कहा – रखैल।
एक पिता अपनी बेटी को बहुत प्यार करता था। अपनी सामर्थ्य से आगे बढ़ कर उसकी इच्छायें पूरी करता था। लड़की शहर के एक प्रतिष्ठित कॉलेज से अंग्रेज़ी में पोस्ट-ग्रेजुएशन कर रही थी। एक दिन पिता और पुत्री दोनों साथ में कहीं जा रहे थे, पिता के कोई परिचित मिले और उन्होंने उस लड़की के बारे में पूछा। पिता ने कहा – यह मेरा गुरूर है, मेरी बेटी। बेटी अपने एक सहपाठी के प्रति आकर्षित हो गयी। एक दिन घर पर अपने मां-बाप की अनुपस्थिति में उसने अपने उस सहपाठी को बुलाया, दोनों प्रेम की बातों में मशगूल थे कि पिता आ गया। पिता के कान में बेटी की खुसपुसाहट पड़ चुकी थी। पिता ने बेटी की ओर तिरछी नज़रों से देखा। लड़के ने लड़की से पूछा – ये कौन हैं? लड़की बोली – हमारे प्यार के दुश्मन।
उपरोक्त उदाहरणों में दो अलग-अलग व्यक्तियों के द्वारा स्थिति विशेष का या एक दूसरे का परिचय परिभाषित करने के लिए भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया। कभी-कभी दो भिन्न-भिन्न स्थितियों को परिभाषित करने के लिए एक ही शब्द अलग अर्थों में प्रयोग करते हैं हम। गाँव में हमारे कुटुम्ब में ही मेरे एक ताऊजी थे, गंगाशरण नाम था उनका। उनका एक ही बेटा था और अच्छा खासा काम था उनका। ताऊ बूढ़े होते गये लेकिन उनकी लालसाएं बदस्तूर रहीं। मैं जब भी कभी अपने घर गया तो ताऊ जिनका घर हमारे घर के पास ही था, पहले मेरे स्कूटर और बाद में कार की आवाज़ सुन कर आ धमकते थे फौरन। मैं घर आया हूँ तो कुछ चाय-पानी बनेगा और उनसे भी पूछा जायेगा ग्रहण करने के लिए। बहुत आशावादी नज़रिया था उनका। चलता रहा ऐसे ही। फिर हमारे परिवार पर वक्त ने अपनी नज़रें तरेरीं और पहले मेरी अम्मा, फिर छोटे भाई की पत्नी, फिर पिताजी और फिर छोटा भाई भी दुनिया से रुखसत हो गया। ताऊ अब भी जीवित थे, हाँ बहुत वृद्ध हो गये थे। पर अपनी लाठी टेकते हुए आ धमकते थे तब भी जब मैं और मेरा सबसे छोटा भाई कभी गाँव जाते थे। मैंने एक बार देखा कि ताऊ के चश्मे की एक आर्म टूट गयी थी और उन्होंने धागा बाँध कर एक ही आर्म से चश्मे के कान पर टिकने की व्यवस्था कर रखी थी। ताऊ चाय नाश्ता ग्रहण करके जा चुके थे कि उनका बेटा मेरे पास आकर बैठ गया। इधर-उधर की बातों के बाद मैंने उनसे कहा – भाई, ताऊ आये थे। उनका नया चश्मा बनवा दो, पता नहीं कैसे टेके रहते हैं उसे कान पर। भाई बोला – हाँ चश्मा तो बनवाना है भाई उनका, क्या करूँ हाथ थोड़ा तंग है, मजबूरी है। फिर कुछ ही दिन बाद अचानक एक दिन ताऊ की मृत्यु का समाचार मिला। हम लोग गाँव गये, उनके घर पहुँचे, अपना शोक प्रकट किया। भाई यानि स्वर्गीय ताऊ के बेटे ने मुझको बताया कि फलाँ दिन ताऊ की तेरहवीं है, मैं ज़रूर पहुँचूं। तेरहवीं के दिन मैं पहुँचा और देख कर दंग रह गया। विशाल भोज का आयोजन था। पूछ सकता था, इसलिए मैंने ताऊजी के बेटे से पूछ लिया – इस विशाल आयोजन की क्या ज़रूरत थी? उन्होंने जवाब दिया – क्या करें भाई, मजबूरी है।
अपनी सुविधा के अनुसार या स्वयं को उचित ठहराने वाली परिभाषायें गढ़ने में हमारा कोई सानी नहीं है। लेकिन हम भूल जाते हैं कि यह एक घातक छलावा है और छलावा भी खुद अपने आप से। सच के साथ हल्की सी छेड़छाड़ भी उसे झूठ से भी कहीं अधिक घातक बना सकती है। कितनी सहजता के साथ, कितने उपयुक्त शब्दों में परिभाषित कर दिया उस औरत ने उस पुरुष के साथ अपने रिश्ते को - प्रेमी जो पति नहीं बन सका। सच को स्वीकारने में कौनसी हेठी होती है? किसके लिए परिभाषायें गढ़ते हैं हम? अपनी नज़रों में गिर कर किसके प्रमाण-पत्र से ऊँचे हो जायेंगे हम? कब सीखेंगे हम उस महिला की तरह साहस के साथ सही शब्दों में सच कहना? सच्चाई और वह भी उपयुक्त शब्दों में व्यक्त सच्चाई आदर दिलाती है और स्वाभिमान को पोषित करती है, झूठ अपमान दिलाता है और थोथे अहंकार को पोषित करता है। हमको खुद से दूर कर देता है हमारा यह थोथा अहंकार।
- राजेन्द्र चौधरी
बुधवार, अगस्त 10, 2011
आदमी और सुनहरी मछली
“बात है तो विचित्र, किंतु फिर भी है। हो गया ‘प्रेम’ एक पुरुष को एक सुनहरी मछली से। लहरों से अठखेलियां करती, बलखाती, चमचमाती मछली भा गयी थी पुरुष को। टकटकी बाँधे पहरों देखता रहता वह उस चंचला की अठखेलियां। मछली को भी अच्छा लगता था पुरुष का यूँ निहारना। बँध गये दोनों प्रेम-बंधन में, मिलन की आकांक्षा स्वाभाविक थी।
पुरुष ने मछली से मनुहार की –“एक बार, सिर्फ एक बार जल से बाहर आने का प्रयत्न करो”। प्रिय-मिलन की लालसा इतनी तीव्र थी कि भाव-विह्वल हो मछली जल से बाहर आ गयी। छटपटा गयी, बुरी तरह छटपटा गयी, किंतु अब वह अपने प्रियतम की बाहों में थी। प्रेम की गहन अनुभूति में... कुछ पल को – सारी तड़प, सारी छटपटाहट जाती रही। एकाकार हो गये दोनों। प्रेम की पराकाष्ठा को पा लिया दोनों ने। तृप्त हो, प्रेमी ने उसे फिर से जल में प्रवाहित कर दिया। बड़ा विचित्र, बड़ा सुखद और साथ ही बड़ा दर्दनाक था यह मेल। हर बार पूरी शक्ति बटोर – चल पड़ती प्रेयसी अपने प्रियतम से मिलने। तड़फड़ाती-छटपटाती, प्रेम देती-प्रेम पाती, तृप्त करती-तृप्त होती फिर लौट आती वापस जल में।
बहुत दिनों तक चलता रहा यह खेल। एक दिन मछली को जाने क्या सूझी... उसने पुरुष से कहा –“आज तुम आओ!” पुरुष बोला –“मैं...मैं जल में कैसे आऊँ? मेरा दम घुट जायेगा”। मछली ने कहा –“कुछ पल को साँस रोक लो”। पुरुष बोला, “साँस रोक लूँ...यानि जीना रोक लूँ? एक पल ‘जीने’ ही तो आता हूँ तुम्हारे पास, साँस रोक लूँगा तो जियूँगा कैसे”?
मछली अवाक थी। एक ही पल में – पुरुष-प्रकृति और प्रेम के पारस्परिक सम्बन्ध का सच उसके सामने था। अब कुछ भी जानने-पाने और चाहने को शेष नहीं था। मछली ने निर्विकार भाव से पुरुष को देखा... फिर डूब गयी जल की अतल गहराइयों में। अनभिज्ञ पुरुष – ‘जीने’ की लालसा लिये, अभी तक बैठा सोच रहा है –मेरा दोष क्या है”?
ये शब्द मेरे नहीं हैं। मैंने इन्हें जस का तस आपके सामने रख दिया है बस, ताकि आपके मन के किसी कोने में ये सत्य का दिआ रोशन कर सकें। सच महत्वपूर्ण होता है, किसने कहा यह महत्वपूर्ण नहीं होता। प्रेम के सम्बन्ध का यह सच भावों के ज्वार में भी आपको अपनी और दूसरे की सीमाओं और मर्यादाओं का अहसास कराता रहे ताकि कोई भी रिश्ता कभी निरर्थक, बेमानी या बासी न लगे। रिश्तों की उष्मा बरकरार रहे।
मर्जी आपकी है, इसे स्वीकारें या न स्वीकारें।
- राजेन्द्र चौधरी
पुरुष ने मछली से मनुहार की –“एक बार, सिर्फ एक बार जल से बाहर आने का प्रयत्न करो”। प्रिय-मिलन की लालसा इतनी तीव्र थी कि भाव-विह्वल हो मछली जल से बाहर आ गयी। छटपटा गयी, बुरी तरह छटपटा गयी, किंतु अब वह अपने प्रियतम की बाहों में थी। प्रेम की गहन अनुभूति में... कुछ पल को – सारी तड़प, सारी छटपटाहट जाती रही। एकाकार हो गये दोनों। प्रेम की पराकाष्ठा को पा लिया दोनों ने। तृप्त हो, प्रेमी ने उसे फिर से जल में प्रवाहित कर दिया। बड़ा विचित्र, बड़ा सुखद और साथ ही बड़ा दर्दनाक था यह मेल। हर बार पूरी शक्ति बटोर – चल पड़ती प्रेयसी अपने प्रियतम से मिलने। तड़फड़ाती-छटपटाती, प्रेम देती-प्रेम पाती, तृप्त करती-तृप्त होती फिर लौट आती वापस जल में।
बहुत दिनों तक चलता रहा यह खेल। एक दिन मछली को जाने क्या सूझी... उसने पुरुष से कहा –“आज तुम आओ!” पुरुष बोला –“मैं...मैं जल में कैसे आऊँ? मेरा दम घुट जायेगा”। मछली ने कहा –“कुछ पल को साँस रोक लो”। पुरुष बोला, “साँस रोक लूँ...यानि जीना रोक लूँ? एक पल ‘जीने’ ही तो आता हूँ तुम्हारे पास, साँस रोक लूँगा तो जियूँगा कैसे”?
मछली अवाक थी। एक ही पल में – पुरुष-प्रकृति और प्रेम के पारस्परिक सम्बन्ध का सच उसके सामने था। अब कुछ भी जानने-पाने और चाहने को शेष नहीं था। मछली ने निर्विकार भाव से पुरुष को देखा... फिर डूब गयी जल की अतल गहराइयों में। अनभिज्ञ पुरुष – ‘जीने’ की लालसा लिये, अभी तक बैठा सोच रहा है –मेरा दोष क्या है”?
ये शब्द मेरे नहीं हैं। मैंने इन्हें जस का तस आपके सामने रख दिया है बस, ताकि आपके मन के किसी कोने में ये सत्य का दिआ रोशन कर सकें। सच महत्वपूर्ण होता है, किसने कहा यह महत्वपूर्ण नहीं होता। प्रेम के सम्बन्ध का यह सच भावों के ज्वार में भी आपको अपनी और दूसरे की सीमाओं और मर्यादाओं का अहसास कराता रहे ताकि कोई भी रिश्ता कभी निरर्थक, बेमानी या बासी न लगे। रिश्तों की उष्मा बरकरार रहे।
मर्जी आपकी है, इसे स्वीकारें या न स्वीकारें।
- राजेन्द्र चौधरी
मंगलवार, अगस्त 09, 2011
परमात्मा पूर्ण है?
मेरे मन ने आज जिस विषय पर और उस विषय के जिस पहलू पर लिखने की ठानी है, वह जरा संवेदनशील है और उसके बारे में मुझे कोई विशेष ज्ञान भी नहीं है। हाँ मैं स्वभाव से जिज्ञासु अवश्य हूँ। मुझे उस बात को स्वीकारने में कभी कोई संकोच नहीं रहा जिसे पुष्ट वैज्ञानिक तर्क के साथ प्रस्तुत किया गया हो। फिर भी अपनी अल्पज्ञता को स्वीकारते हुए, मेरा निवेदन है कि ये विचार मेरे व्यक्तिगत विचार हैं। ये जिज्ञासाएं मेरी व्यक्तिगत हैं। मेरा लेशमात्र उद्देश्य किसी की भी भवनाओं को आघात पहुँचाने का नहीं है। जो मेरी जिज्ञासाओं से सहमत नहीं हों या जिन्हें मुझसे अधिक ज्ञान प्राप्त हो, वे कृपया विनम्रता दर्शाते हुए मुझे क्षमा करें।
मैं बचपन से यही पढ़ता और सुनता आया हूँ कि परमात्मा के अलावा कोई भी चीज पूर्ण (Absolute) नहीं है। यही सुना व पढ़ा था, इसलिए इसे ही सच मान कर जीता रहा। कोई अदृश्य उच्च शक्ति है, इसका अहसास भी कई बार हुआ मुझे। मैंने अगर हताश होकर कभी किसी कठिन परिस्थिति में अपनी आँखें बंद करके उससे उपयुक्त रास्ता सुझाने के लिए मौन प्रार्थना की, तो उसने रास्ता भी सुझाया है मुझे। मैं उसकी सर्वोच्च शक्ति में विश्वास करता हूँ और उसका आराधक भी हूँ। पर परमात्मा को मैंने कभी साक्षात देखा तो है नहीं कि मन में कभी कोई प्रश्न पैदा होता या शंका जन्म लेती। सहज स्वीकार कर लिया कि ऐसा ही होगा, परमात्मा पूर्ण ही होगा। इसलिए हम लोग Absolute शब्द के प्रयोग में एहतियात बरतते हैं। किसी व्यक्ति के लिए इस शब्द का प्रयोग नहीं करते।
जितनी पुस्तकें परमात्मा के बारे में लिखी गयीं, या जितने लोग परमात्मा पर प्रवचन करते हैं शायद ही कभी किसी विषय पर इतना बोला या लिखा गया हो। और परमात्मा है कि अभी भी उतना ही अबूझ, उतना ही अप्राप्य बना हुआ है। धर्म कोई भी हो, तरीका कोई भी हो, हर कोई परमात्मा को पाने के रास्ते सुझा रहा है। मानो उनकी रोज की उठाबैठ हो उसके साथ। कोई मुझ जैसा अगर उनसे पूछे कि मुलाकात हुई थी क्या आपकी परमात्मा से कभी, तो मैं जानता हूँ कि ऐसे भी बहुत दुराग्रही निकल आयेंगे इन प्रवचनदाताओं में जो कहेंगे कि हाँ कई बार दर्शन प्राप्त हो चुके हैं परमात्मा के। खैर, उनकी सोच, उनके दावे, उनका व्यवसाय उनके साथ। मैं न तो कोई समाज सुधारक हूँ, न ही किसी का आलोचक। लेकिन मुझे आज तक कोई व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जिसने कहा हो कि परमात्मा अपूर्ण है। मैने परमात्मा को अपूर्ण बताने वाली किसी भी धर्म की कोई पुस्तक न देखी, न पढ़ी। सभी बताते हैं कि मनुष्य अपूर्ण है, और उसे पूर्णता तभी प्राप्त होती है जब वह परमात्मा में विलीन हो जाता है। मुझे इस पर कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि मेरे पास आपत्ति का कोई कारण या तथ्य नहीं है।
मुझे आज तक हर किसी ने यही बताया है और मेरा भी यही मानना है कि मैं एक आत्मा हूँ जो फिलहाल इस शरीर में स्थित है। आत्मा अनश्वर है और यह शरीर नश्वर है। आत्मा का परम उद्देश्य परमात्मा में समा जाना है। बस, यहीं से मेरे मन में जिज्ञासा पैदा होती है। मुझे परमात्मा में समाना अभी बाकी है, तो मेरा स्थान तो परमात्मा में या परमात्मा के यहाँ रिक्त होगा। जिसमें किसी का समाना अभी बाकी हो, तो वह पूर्ण कैसे हुआ? मुझ जैसी असंख्य आत्माओं का परमात्मा में मिलना अभी बाकी है, तो परमात्मा पूर्ण कैसे हुआ? रीता है, खाली है अभी वह। जाने कितनी आत्माओं की रिक्तता से भरा है वह? और ये आत्माएं जाने कब विलीन होंगी उसमें? जाने कब भरेगा उसका रीतापन, खालीपन? भरेगा भी या नहीं? पता नहीं। इस दृष्टि से तो वह सर्वाधिक अपूर्ण हुआ।
या फिर यह ‘पूर्ण’ विशेषण परमात्मा के साथ आदमी को उसकी अपूर्णता का अहसास कराने मात्र के लिए जोड़ा गया है ताकि वह दंभी न हो, अनाचारी न बने। मैं अपूर्ण हूँ, इसमें मुझे कोई शक नहीं है, इस पृथ्वी पर कोई भी पूर्ण नहीं है, इसमें भी कोई शक नहीं है। अपूर्णता है तो पूर्णता को लक्ष्य बनाया जा सकता है, इसमें भी कोई शक नहीं है। लेकिन विश्व के हर कोने में, हर धर्म और मत के अनुसार कोई पूर्ण कहलाता हो और पूर्णता के ज्ञात पैमाने पर अपूर्ण नज़र आता हो तो जिज्ञासा तो होगी ही। मैं भी इसी जिज्ञासा के साथ जी रहा हूँ, लेकिन यह एक जिज्ञासा ही है, उसकी सर्वोच्च सत्ता के प्रति अविश्वास नहीं।
मेरे मन ने कई बार मुझको इस जिज्ञासा के स्व-स्फूर्त उत्तर भी सुझाये हैं कि भले ही दुनिया वाले उसके यानि परमात्मा के अलग-अलग रूप बतायें, प्रवचन दें, किस्से सुनायें, पूजा की विधियां सुझायें, वह तो किसी से आकर नहीं कहता कि मुझे पाना है तो इस विधि-विधान से मेरी पूजा करो। सब आदमी की ही रची हुई व्यवस्थायें हैं। उससे आँखे बंद करके दो बात कर लो, वह इसी में खुश है। हम स्वभाव से याचक हैं, मंगते हैं हम। किसी से मांगने के लिए पचास चीजें देखनी पड़ती हैं, पचास औपचारिकताएं बरतनी पड़ती हैं। मुझे ये पूजा की विधियां वैसी ही औपचारिकताएं दिखती हैं, व्यावसायिक प्रयोजन से निर्मित। बच्चे को अपने पिता से मिलने के लिए आडम्बरों की आवश्यकता नहीं होती। मैं आत्मा हूँ और परमात्मा मेरा पिता है, मैं इस रिश्ते से खुश हूँ। आसानी लगती है मुझे इस रिश्ते में। विश्वास रहता कि पिता नाराज़ भी हो गया तो मना लूँगा उसे। पिता को खुश करने के लिए कुछ अच्छा करने की चाह रहती है मुझमें ताकि वह मुझे गर्व से अपना बेटा कह सके।
तुम अदृश्य हो, इसीलिए भगवान हो। तुम मेरे पिता हो - पूर्ण हो या अपूर्ण, पिता तो पिता ही होता है। मेरी यह जिज्ञासा कि तुम पूर्णता के मापदंड पूरे नहीं करते, न तो मेरी उद्दंडता है और ना ही तुम्हारी सर्वोच्च सत्ता पर कोई प्रश्नचिन्ह। यह प्रश्नचिन्ह है तो तुम्हारे नाम पर व्यापार करने वाले उन स्वघोषित ज्ञानियों पर जो जिज्ञासाओं को नास्तिकता का नाम देकर उनका दमन करते आये हैं। ‘आस्था में कोई तर्क नहीं चलता’, ऐसा कह कर अपनी रोटियां सेकते आये हैं। यह ‘पूर्ण’ विशेषण भी अपने नाम के आगे तुमने खुद कहाँ लगाया है, यह भी उन्हीं के द्वारा सोचा-विचारा शब्द है।
अगर यह विरोध है, तो मेरा यह विरोध उन तथाकथित ज्ञानियों के प्रति है जो परमात्मा के बारे में जिज्ञासावश पूछे जाने वाले प्रश्नों का समुचित उत्तर देने के बजाय उसे नास्तिकता बताने लगते हैं। अगर यह गुस्ताखी है, तो मैं अपने परमात्मा से और पाठकों से क्षमा मांगता हूँ।
- राजेन्द्र चौधरी
मैं बचपन से यही पढ़ता और सुनता आया हूँ कि परमात्मा के अलावा कोई भी चीज पूर्ण (Absolute) नहीं है। यही सुना व पढ़ा था, इसलिए इसे ही सच मान कर जीता रहा। कोई अदृश्य उच्च शक्ति है, इसका अहसास भी कई बार हुआ मुझे। मैंने अगर हताश होकर कभी किसी कठिन परिस्थिति में अपनी आँखें बंद करके उससे उपयुक्त रास्ता सुझाने के लिए मौन प्रार्थना की, तो उसने रास्ता भी सुझाया है मुझे। मैं उसकी सर्वोच्च शक्ति में विश्वास करता हूँ और उसका आराधक भी हूँ। पर परमात्मा को मैंने कभी साक्षात देखा तो है नहीं कि मन में कभी कोई प्रश्न पैदा होता या शंका जन्म लेती। सहज स्वीकार कर लिया कि ऐसा ही होगा, परमात्मा पूर्ण ही होगा। इसलिए हम लोग Absolute शब्द के प्रयोग में एहतियात बरतते हैं। किसी व्यक्ति के लिए इस शब्द का प्रयोग नहीं करते।
जितनी पुस्तकें परमात्मा के बारे में लिखी गयीं, या जितने लोग परमात्मा पर प्रवचन करते हैं शायद ही कभी किसी विषय पर इतना बोला या लिखा गया हो। और परमात्मा है कि अभी भी उतना ही अबूझ, उतना ही अप्राप्य बना हुआ है। धर्म कोई भी हो, तरीका कोई भी हो, हर कोई परमात्मा को पाने के रास्ते सुझा रहा है। मानो उनकी रोज की उठाबैठ हो उसके साथ। कोई मुझ जैसा अगर उनसे पूछे कि मुलाकात हुई थी क्या आपकी परमात्मा से कभी, तो मैं जानता हूँ कि ऐसे भी बहुत दुराग्रही निकल आयेंगे इन प्रवचनदाताओं में जो कहेंगे कि हाँ कई बार दर्शन प्राप्त हो चुके हैं परमात्मा के। खैर, उनकी सोच, उनके दावे, उनका व्यवसाय उनके साथ। मैं न तो कोई समाज सुधारक हूँ, न ही किसी का आलोचक। लेकिन मुझे आज तक कोई व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जिसने कहा हो कि परमात्मा अपूर्ण है। मैने परमात्मा को अपूर्ण बताने वाली किसी भी धर्म की कोई पुस्तक न देखी, न पढ़ी। सभी बताते हैं कि मनुष्य अपूर्ण है, और उसे पूर्णता तभी प्राप्त होती है जब वह परमात्मा में विलीन हो जाता है। मुझे इस पर कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि मेरे पास आपत्ति का कोई कारण या तथ्य नहीं है।
मुझे आज तक हर किसी ने यही बताया है और मेरा भी यही मानना है कि मैं एक आत्मा हूँ जो फिलहाल इस शरीर में स्थित है। आत्मा अनश्वर है और यह शरीर नश्वर है। आत्मा का परम उद्देश्य परमात्मा में समा जाना है। बस, यहीं से मेरे मन में जिज्ञासा पैदा होती है। मुझे परमात्मा में समाना अभी बाकी है, तो मेरा स्थान तो परमात्मा में या परमात्मा के यहाँ रिक्त होगा। जिसमें किसी का समाना अभी बाकी हो, तो वह पूर्ण कैसे हुआ? मुझ जैसी असंख्य आत्माओं का परमात्मा में मिलना अभी बाकी है, तो परमात्मा पूर्ण कैसे हुआ? रीता है, खाली है अभी वह। जाने कितनी आत्माओं की रिक्तता से भरा है वह? और ये आत्माएं जाने कब विलीन होंगी उसमें? जाने कब भरेगा उसका रीतापन, खालीपन? भरेगा भी या नहीं? पता नहीं। इस दृष्टि से तो वह सर्वाधिक अपूर्ण हुआ।
या फिर यह ‘पूर्ण’ विशेषण परमात्मा के साथ आदमी को उसकी अपूर्णता का अहसास कराने मात्र के लिए जोड़ा गया है ताकि वह दंभी न हो, अनाचारी न बने। मैं अपूर्ण हूँ, इसमें मुझे कोई शक नहीं है, इस पृथ्वी पर कोई भी पूर्ण नहीं है, इसमें भी कोई शक नहीं है। अपूर्णता है तो पूर्णता को लक्ष्य बनाया जा सकता है, इसमें भी कोई शक नहीं है। लेकिन विश्व के हर कोने में, हर धर्म और मत के अनुसार कोई पूर्ण कहलाता हो और पूर्णता के ज्ञात पैमाने पर अपूर्ण नज़र आता हो तो जिज्ञासा तो होगी ही। मैं भी इसी जिज्ञासा के साथ जी रहा हूँ, लेकिन यह एक जिज्ञासा ही है, उसकी सर्वोच्च सत्ता के प्रति अविश्वास नहीं।
मेरे मन ने कई बार मुझको इस जिज्ञासा के स्व-स्फूर्त उत्तर भी सुझाये हैं कि भले ही दुनिया वाले उसके यानि परमात्मा के अलग-अलग रूप बतायें, प्रवचन दें, किस्से सुनायें, पूजा की विधियां सुझायें, वह तो किसी से आकर नहीं कहता कि मुझे पाना है तो इस विधि-विधान से मेरी पूजा करो। सब आदमी की ही रची हुई व्यवस्थायें हैं। उससे आँखे बंद करके दो बात कर लो, वह इसी में खुश है। हम स्वभाव से याचक हैं, मंगते हैं हम। किसी से मांगने के लिए पचास चीजें देखनी पड़ती हैं, पचास औपचारिकताएं बरतनी पड़ती हैं। मुझे ये पूजा की विधियां वैसी ही औपचारिकताएं दिखती हैं, व्यावसायिक प्रयोजन से निर्मित। बच्चे को अपने पिता से मिलने के लिए आडम्बरों की आवश्यकता नहीं होती। मैं आत्मा हूँ और परमात्मा मेरा पिता है, मैं इस रिश्ते से खुश हूँ। आसानी लगती है मुझे इस रिश्ते में। विश्वास रहता कि पिता नाराज़ भी हो गया तो मना लूँगा उसे। पिता को खुश करने के लिए कुछ अच्छा करने की चाह रहती है मुझमें ताकि वह मुझे गर्व से अपना बेटा कह सके।
तुम अदृश्य हो, इसीलिए भगवान हो। तुम मेरे पिता हो - पूर्ण हो या अपूर्ण, पिता तो पिता ही होता है। मेरी यह जिज्ञासा कि तुम पूर्णता के मापदंड पूरे नहीं करते, न तो मेरी उद्दंडता है और ना ही तुम्हारी सर्वोच्च सत्ता पर कोई प्रश्नचिन्ह। यह प्रश्नचिन्ह है तो तुम्हारे नाम पर व्यापार करने वाले उन स्वघोषित ज्ञानियों पर जो जिज्ञासाओं को नास्तिकता का नाम देकर उनका दमन करते आये हैं। ‘आस्था में कोई तर्क नहीं चलता’, ऐसा कह कर अपनी रोटियां सेकते आये हैं। यह ‘पूर्ण’ विशेषण भी अपने नाम के आगे तुमने खुद कहाँ लगाया है, यह भी उन्हीं के द्वारा सोचा-विचारा शब्द है।
अगर यह विरोध है, तो मेरा यह विरोध उन तथाकथित ज्ञानियों के प्रति है जो परमात्मा के बारे में जिज्ञासावश पूछे जाने वाले प्रश्नों का समुचित उत्तर देने के बजाय उसे नास्तिकता बताने लगते हैं। अगर यह गुस्ताखी है, तो मैं अपने परमात्मा से और पाठकों से क्षमा मांगता हूँ।
- राजेन्द्र चौधरी
सोमवार, अगस्त 08, 2011
‘ऋण’ का महत्व
परमात्मा ने पता नहीं क्या सोच कर मुझे एक कवि हृदय देकर इस दुनिया में भेजा है। मेरी कवितायें मेरी सोच की परिचायक हैं। उन्होंने मुझे पहचान दी है। लोगों ने मेरी कविताओं को मन से सुना है, जिसके लिए मैं उनका आभारी हूँ। मैं कविताओं में शब्दों के साथ खिलवाड़ नहीं करता। कविता मेरे भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। अब अगर वो चुभती है, तो उसमें मेरा क्या दोष है? हर जुबान का अपना ज़ायका होता है। मेरे अनुभव हो सकता है आपके अनुभव न रहे हों, इसलिए हो सकता है मेरी बात आपके मन को स्पर्श न कर पाये। लेकिन मैं भोगा हुआ सच लिखता हूँ, उधार का सच नहीं। हर व्यक्ति का अपना नज़रिया होता है। मेरा नज़रिया है कि जो बड़े हैं उनसे बड़ों जैसे आचरण की अपेक्षा किया जाना स्वाभाविक है। सूरज अगर अंधेरा उगलने लगे तो उसे इसलिए तो अनदेखा नहीं किया सकता कि वो सूरज है। और जो नन्हा सा दिआ आँधियों से बिना ड़रे थोड़ी देर के लिए ही सही, खुद को जला कर रोशनी भर देता है, उसके महत्व को, सिर्फ इस आधार पर कि वह एक क्षुद्र सा दिआ है, कम करके तो नहीं आंका जा सकता। जब तक मुझमें अँधेरे को अँधेरा और उजाले को उजाला कहने की सामर्थ्य बनी रहे, तभी तक परमात्मा मेरे हाथ में कलम रखे वरना छीन ले, बस उससे इतनी ही प्रार्थना है।
एक बार मेरे बेटे ने मेरी कुछ कविताओं को रिकॉर्ड करवाया। मेरे अपने नज़दीकी लोगों ने उन्हें सुना भी और सराहा भी, लेकिन कुछ संकोच के साथ जिज्ञासावश मेरी पुत्रवधु ने मुझसे पूछा कि मैं अक्सर अपनी कविताओं में व्यक्ति या व्यवस्था के नकारात्मक पक्ष पर लेखनी क्यूँ चलाता हूँ? मुझे वह समय उचित नहीं लगा उसकी जिज्ञासा का समाधान करने के लिए, इसलिए बस इतना कह कर बात बदल दी कि नकारात्मक ही सही लेकिन सच तो है। आज इस लेख के माध्यम से मैं उसकी उस स्वाभाविक जिज्ञासा के समाधान के साथ आपको भी अपनी सोच में साझी करता हूँ। ज़रूरी नहीं है कि आप मुझसे सहमत हों।
हम सब बचपन में आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचते रहते हैं। पता नहीं आपने कभी गौर किया या नहीं कि अगर एक सीधी रेखा पर अनायास एक खड़ी रेखा खिंच जाये तो अचानक ‘ऋण’ का चिन्ह (-) ‘धन’ के चिन्ह (+) में परिवर्तित हो जाता है। यह विचार मूलत: मन में किसी और के आया था लेकिन अंकित मेरे मन पर हो गया। मैं समझ गया कि ‘धन’ होने से पहले ‘ऋण’ का होना आवश्यक है। ‘ऋण’ हेय नहीं है, वह ‘धन’ होने की शुरुआत है, उसकी बुनियाद है। शायद यह कोई ईश्वरीय संकेत रहा होगा कि मैं अपनी कविताओं में इन ‘ऋणों’ पर अपनी अभिव्यक्ति के ‘धन’ बनाता रहता हूँ। ज़िन्दगी में चीजों को अगर ठीक से देखने की आदत हो जाये तो काफी आसानी हो जाती है। मुझ पर शायद ईश्वर की कृपा रही कि मैं बहुत पहले यह समझ गया कि ‘ऋण’ ही ‘धन’ में परिवर्तित होगा। इसलिए ऋणात्मक चीजों से मेरा मन कसैला नहीं होता। अब तो अनुभव ने यह भी सिखा दिया है कि अगर ‘धन’ में थोड़ी सी वक्रता यानि तिरछापन आ जाय तो गुणनफल आ जाता है। शायद उम्र बढ़ने के अब थोड़ा लोभी भी हो गया हूँ, इसलिए वक्रताओं को सहजता के साथ स्वीकारने लगा हूँ, उनसे कतराता नहीं।
सिर के बाल उड़ जाने पर समझ में आ पाया कि ईश्वर जिन पर अधिक भरोसा करता है, उन्हें ऋणात्मक या नकारात्मक अनुभवों से अधिक गुजारता है ताकि वे उन अनुभवों को धनात्मक या सकारात्मक कोष में परिवर्तित कर सकें। शायद वह मन के सोने को तपा कर कुन्दन बना देना चाहता है। वह पारखी भी है और पिता भी, इसलिए वह मन के सोने को पिघल कर बह जाने नहीं देगा, संभाल लेगा अपने हाथों के स्वर्ण-पात्र में उसे। निर्जीव पत्थर को जीवंत मूरत बनने के लिए शिल्पकार की छेनी के आघात तो सहने ही होंगे। यह मेरी प्रौढ़ता का उत्तरदायित्व बोध है या प्रारब्ध का कुछ और संकेत, मैं नहीं जानता।
- राजेन्द्र चौधरी
एक बार मेरे बेटे ने मेरी कुछ कविताओं को रिकॉर्ड करवाया। मेरे अपने नज़दीकी लोगों ने उन्हें सुना भी और सराहा भी, लेकिन कुछ संकोच के साथ जिज्ञासावश मेरी पुत्रवधु ने मुझसे पूछा कि मैं अक्सर अपनी कविताओं में व्यक्ति या व्यवस्था के नकारात्मक पक्ष पर लेखनी क्यूँ चलाता हूँ? मुझे वह समय उचित नहीं लगा उसकी जिज्ञासा का समाधान करने के लिए, इसलिए बस इतना कह कर बात बदल दी कि नकारात्मक ही सही लेकिन सच तो है। आज इस लेख के माध्यम से मैं उसकी उस स्वाभाविक जिज्ञासा के समाधान के साथ आपको भी अपनी सोच में साझी करता हूँ। ज़रूरी नहीं है कि आप मुझसे सहमत हों।
हम सब बचपन में आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचते रहते हैं। पता नहीं आपने कभी गौर किया या नहीं कि अगर एक सीधी रेखा पर अनायास एक खड़ी रेखा खिंच जाये तो अचानक ‘ऋण’ का चिन्ह (-) ‘धन’ के चिन्ह (+) में परिवर्तित हो जाता है। यह विचार मूलत: मन में किसी और के आया था लेकिन अंकित मेरे मन पर हो गया। मैं समझ गया कि ‘धन’ होने से पहले ‘ऋण’ का होना आवश्यक है। ‘ऋण’ हेय नहीं है, वह ‘धन’ होने की शुरुआत है, उसकी बुनियाद है। शायद यह कोई ईश्वरीय संकेत रहा होगा कि मैं अपनी कविताओं में इन ‘ऋणों’ पर अपनी अभिव्यक्ति के ‘धन’ बनाता रहता हूँ। ज़िन्दगी में चीजों को अगर ठीक से देखने की आदत हो जाये तो काफी आसानी हो जाती है। मुझ पर शायद ईश्वर की कृपा रही कि मैं बहुत पहले यह समझ गया कि ‘ऋण’ ही ‘धन’ में परिवर्तित होगा। इसलिए ऋणात्मक चीजों से मेरा मन कसैला नहीं होता। अब तो अनुभव ने यह भी सिखा दिया है कि अगर ‘धन’ में थोड़ी सी वक्रता यानि तिरछापन आ जाय तो गुणनफल आ जाता है। शायद उम्र बढ़ने के अब थोड़ा लोभी भी हो गया हूँ, इसलिए वक्रताओं को सहजता के साथ स्वीकारने लगा हूँ, उनसे कतराता नहीं।
सिर के बाल उड़ जाने पर समझ में आ पाया कि ईश्वर जिन पर अधिक भरोसा करता है, उन्हें ऋणात्मक या नकारात्मक अनुभवों से अधिक गुजारता है ताकि वे उन अनुभवों को धनात्मक या सकारात्मक कोष में परिवर्तित कर सकें। शायद वह मन के सोने को तपा कर कुन्दन बना देना चाहता है। वह पारखी भी है और पिता भी, इसलिए वह मन के सोने को पिघल कर बह जाने नहीं देगा, संभाल लेगा अपने हाथों के स्वर्ण-पात्र में उसे। निर्जीव पत्थर को जीवंत मूरत बनने के लिए शिल्पकार की छेनी के आघात तो सहने ही होंगे। यह मेरी प्रौढ़ता का उत्तरदायित्व बोध है या प्रारब्ध का कुछ और संकेत, मैं नहीं जानता।
- राजेन्द्र चौधरी
रविवार, अगस्त 07, 2011
आदमी
मेरा बचपन गाँव में बीता। तब के गाँव आज जैसे गाँव नहीं थे क्योंकि तब के आदमी आज जैसे नहीं थे। कुछ बातें जो बदल जानी चाहियें थीं, वो तो नहीं बदलीं; लेकिन जो बातें गाँव को गाँव बनाये हुए थीं, वो ज़रूर बदल गयीं। गाँव शहर से जुड़ गये, सुविधायें बढ़ गयीं, पर शहर का बाज़ार भी गाँव में जा पहुँचा। सहजता मिट गयी, बाज़ारूपन आ गया। सरलता खत्म हुई, नुमाइश की प्रवृत्ति बढ़ गयी। पुरानी हवेली को ढ़हा कर जब कोठी बनाई जाती है, तो उस हवेली के साथ बया के घोंसले भी जाते रहते हैं। हवेली की कभी पहचान रहा आम का पेड़ देखते ही देखते तख्तों में तबदील हो जाता है, क्योंकि अब कोठियों में आयातित किस्म के पौधे लगाये जाते हैं, आम के पेड़ के लिए वहाँ पर कोई जगह नहीं होती। आम के साथ वो कोयल भी चली जाती है जो बौर आने पर ऐसे कूकती थी मानों उसे अपार सम्पदा मिलने वाली हो। कोयल चली जाती है तो अपने साथ दिलों में घुलने वाली वो मिठास भी ले जाती है। बचपन में गायों तक के नाम होते थे – गौरी, श्यामा, आदि। अब गाँव में गायें ही नहीं दिखतीं। आज के विकासोन्मुख गाँवों में आप को शराब तो किसी भी समय मिल सकती है, गाय का दूध, गाय का घी दुर्लभ वस्तुएं है।
शहरी संस्कृति ने अपनी जड़ें जमा ली हैं गाँवों में भी। गाँव के व्यंजन अब यादों में या पुरानी हिन्दी की किताबों में ही रह गये हैं, अब वहाँ पर भी खाना-पीना शहरों जैसा ही है। गाँववासियों का पेशा खेती है, इसलिए जमीन, फसलें, हरियाली तो हैं लेकिन खाना-पीना, पहनावा, व्यवहार सब शहरी हो गया है। शहरों की हिरस-ओ-हवस में हम अपनी ग्रामीण संस्कृति को सहेज कर नहीं रख पाये। ऐसा क्यों होता है कि हमें परायी चीज ज्यादा आकर्षित करती है। दूसरे का पैसा, दूसरे की आमदनी, दूसरे के सुख, यहाँ तक कि दूसरे की बीवी अधिक लुभाते हैं। अपनी ताकतें, अपने हुनर, अपने रिश्ते, बेमानी क्यों लगने लगते हैं? दबे पाँव बनावट क्यों आ जाती है हमारे व्यवहार में?
मैं क्योंकि गाँव में पला हूँ, इसलिए मुझे पुरानी कहावतें अक्सर याद आ जाती हैं। यह कहानी कभी मेरी अम्मा ने सुनायी थी। यह लेख लिखते हुए स्मरण हो आयी, इसलिए आपके साथ बांटता हूँ:
“जब भगवान ने पहली बार आदमी की रचना की, तो उसे अपनी उस कृति को देख कर बहुत प्रसन्नता हुई। भगवान के पास जो भी हुनर था, उन्होंने वो सब अपनी उस कृति में उँडेल दिया। उस कृति में वो खुद बस गये। वो बैठे हुए अपनी इस रचना को निहार रहे थे कि द्वारपाल ने नारद जी के आगमन की सूचना दी। नारद जी में अवश्य ही कोई विशिष्ट गुण रहा होगा कि वो सभी के प्रिय थे। देवी, देवताओं, और राक्षसों के भी। मुझे हालांकि आज तक उनकी भूमिकायें समझ नहीं आयीं, लेकिन नारद पुराण के बजाय वापस अम्मा की कहानी पर लौटते हैं। भगवान जी ने द्वारपाल से नारद जी को ससम्मान उनके पास भेजने के लिए कहा। नारद जी पहुँचे, तो उस कृति को देख कर दंग रह गये। भगवान बोले, “नारद, मेरे पास जो भी था, वो सब मैंने अपनी इस कृति में ड़ाल दिया है। यह मेरा ही प्रतिरूप है। अब मैं इसे पृथ्वी लोक पर भेज दूँगा ताकि वहाँ पर भी मेरी बस्ती बस सके”। नारद तो नारद ठहरे, भगवान से बोले कि आपकी रचना तो अद्वितीय है लेकिन इसे ऐसे ही पृथ्वी पर ना भेजें, इसमें बहुत बड़ा खतरा है। भगवान ने जिज्ञासावश पूछा कि कैसा खतरा? नारद बोले, “भगवन, क्षमा करें, यह आपका प्रतिरूप है लेकिन पृथ्वी पर जाकर अगर इसे अभिमान हो गया कि मैं सर्वोत्तम हूँ, मेरे अन्दर सारे ईश्वरीय गुण हैं, तो क्या होगा? यह आदमी आपकी पूरी व्यवस्था के लिए चुनौती बन जायेगा”। भगवान पल भर के लिए सोच में पड़ गये और बोले कि नारद बात तो आपकी सही है, लेकिन मैं अपनी इतनी मेहनत से तैयार की गयी इस कृति को नष्ट नहीं करना चाहता। नारद बोले, “नष्ट करने की आवश्यकता नहीं है प्रभु, बस इसकी आँखों में थोड़ा बदलाव कर दीजिये। इन्हें वाह्यमुखी बना दीजिये, ये स्वभावतया बाहर की ओर देखें, बस इतना सुधार कर दीजिये”। भगवान बोले कि ठीक है लेकिन उससे क्या फर्क पड़ेगा? नारद बोले कि यह बाहर देखता रहेगा तो इसे अपने अन्दर विराजमान भगवान को देखने की फुरसत ही नहीं मिलेगी। इसे यह पता ही नहीं चलेगा कि आप खुद इसके अन्दर मौजूद हैं। भगवान ने ऐसा ही किया, आदमी की आँखें वाह्यमुखी बना दीं, वह अपने अन्दर झाँकता ही नहीं। अगर कभी भगवान की याद भी आये, तो उसे इधर-उधर ढूँढता रहता है। भगवान आदमी के अन्दर बैठे अपनी लीला देखते रहते हैं”।
हम बाहर की ओर देखने में व्यस्त हैं। दूसरे की हिरस करने की प्रवृत्ति हमें खुद से अनजान बना देती है। हम अपना अस्तित्व भूल कर हिरस की आँधीं में बहे चले जाते हैं। न तो हम दूसरे के जैसा बन पाते हैं, और ना ही खुद को सहेज कर रख पाते हैं। आँखें बंद करके सिर्फ सोया ही नहीं जाता, खुद में झांकने के लिए भी आँखें बंद करनी होती हैं। कभी कोशिश तो करो आँखें बंद करके अपने अन्दर देखने की। ज़िन्दगी नयी करवट लेने लगेगी।
- राजेन्द्र चौधरी
शहरी संस्कृति ने अपनी जड़ें जमा ली हैं गाँवों में भी। गाँव के व्यंजन अब यादों में या पुरानी हिन्दी की किताबों में ही रह गये हैं, अब वहाँ पर भी खाना-पीना शहरों जैसा ही है। गाँववासियों का पेशा खेती है, इसलिए जमीन, फसलें, हरियाली तो हैं लेकिन खाना-पीना, पहनावा, व्यवहार सब शहरी हो गया है। शहरों की हिरस-ओ-हवस में हम अपनी ग्रामीण संस्कृति को सहेज कर नहीं रख पाये। ऐसा क्यों होता है कि हमें परायी चीज ज्यादा आकर्षित करती है। दूसरे का पैसा, दूसरे की आमदनी, दूसरे के सुख, यहाँ तक कि दूसरे की बीवी अधिक लुभाते हैं। अपनी ताकतें, अपने हुनर, अपने रिश्ते, बेमानी क्यों लगने लगते हैं? दबे पाँव बनावट क्यों आ जाती है हमारे व्यवहार में?
मैं क्योंकि गाँव में पला हूँ, इसलिए मुझे पुरानी कहावतें अक्सर याद आ जाती हैं। यह कहानी कभी मेरी अम्मा ने सुनायी थी। यह लेख लिखते हुए स्मरण हो आयी, इसलिए आपके साथ बांटता हूँ:
“जब भगवान ने पहली बार आदमी की रचना की, तो उसे अपनी उस कृति को देख कर बहुत प्रसन्नता हुई। भगवान के पास जो भी हुनर था, उन्होंने वो सब अपनी उस कृति में उँडेल दिया। उस कृति में वो खुद बस गये। वो बैठे हुए अपनी इस रचना को निहार रहे थे कि द्वारपाल ने नारद जी के आगमन की सूचना दी। नारद जी में अवश्य ही कोई विशिष्ट गुण रहा होगा कि वो सभी के प्रिय थे। देवी, देवताओं, और राक्षसों के भी। मुझे हालांकि आज तक उनकी भूमिकायें समझ नहीं आयीं, लेकिन नारद पुराण के बजाय वापस अम्मा की कहानी पर लौटते हैं। भगवान जी ने द्वारपाल से नारद जी को ससम्मान उनके पास भेजने के लिए कहा। नारद जी पहुँचे, तो उस कृति को देख कर दंग रह गये। भगवान बोले, “नारद, मेरे पास जो भी था, वो सब मैंने अपनी इस कृति में ड़ाल दिया है। यह मेरा ही प्रतिरूप है। अब मैं इसे पृथ्वी लोक पर भेज दूँगा ताकि वहाँ पर भी मेरी बस्ती बस सके”। नारद तो नारद ठहरे, भगवान से बोले कि आपकी रचना तो अद्वितीय है लेकिन इसे ऐसे ही पृथ्वी पर ना भेजें, इसमें बहुत बड़ा खतरा है। भगवान ने जिज्ञासावश पूछा कि कैसा खतरा? नारद बोले, “भगवन, क्षमा करें, यह आपका प्रतिरूप है लेकिन पृथ्वी पर जाकर अगर इसे अभिमान हो गया कि मैं सर्वोत्तम हूँ, मेरे अन्दर सारे ईश्वरीय गुण हैं, तो क्या होगा? यह आदमी आपकी पूरी व्यवस्था के लिए चुनौती बन जायेगा”। भगवान पल भर के लिए सोच में पड़ गये और बोले कि नारद बात तो आपकी सही है, लेकिन मैं अपनी इतनी मेहनत से तैयार की गयी इस कृति को नष्ट नहीं करना चाहता। नारद बोले, “नष्ट करने की आवश्यकता नहीं है प्रभु, बस इसकी आँखों में थोड़ा बदलाव कर दीजिये। इन्हें वाह्यमुखी बना दीजिये, ये स्वभावतया बाहर की ओर देखें, बस इतना सुधार कर दीजिये”। भगवान बोले कि ठीक है लेकिन उससे क्या फर्क पड़ेगा? नारद बोले कि यह बाहर देखता रहेगा तो इसे अपने अन्दर विराजमान भगवान को देखने की फुरसत ही नहीं मिलेगी। इसे यह पता ही नहीं चलेगा कि आप खुद इसके अन्दर मौजूद हैं। भगवान ने ऐसा ही किया, आदमी की आँखें वाह्यमुखी बना दीं, वह अपने अन्दर झाँकता ही नहीं। अगर कभी भगवान की याद भी आये, तो उसे इधर-उधर ढूँढता रहता है। भगवान आदमी के अन्दर बैठे अपनी लीला देखते रहते हैं”।
हम बाहर की ओर देखने में व्यस्त हैं। दूसरे की हिरस करने की प्रवृत्ति हमें खुद से अनजान बना देती है। हम अपना अस्तित्व भूल कर हिरस की आँधीं में बहे चले जाते हैं। न तो हम दूसरे के जैसा बन पाते हैं, और ना ही खुद को सहेज कर रख पाते हैं। आँखें बंद करके सिर्फ सोया ही नहीं जाता, खुद में झांकने के लिए भी आँखें बंद करनी होती हैं। कभी कोशिश तो करो आँखें बंद करके अपने अन्दर देखने की। ज़िन्दगी नयी करवट लेने लगेगी।
- राजेन्द्र चौधरी
शनिवार, अगस्त 06, 2011
हम और हमारे शब्द
मुझे बचपन से ही शब्द बहुत आकर्षित करते रहे हैं। यूँ तो पढ़ने व सुनने में यह वाक्य बड़ा अटपटा सा लग सकता है कि इस दुनिया में इतनी आकर्षक चीजें होने के बाद भी मुझे शब्दों में ही आकर्षण दिखायी दिया। वस्तुत: मुझे शब्द ही नहीं बल्कि शब्दों को प्रयोग करने का ढंग आकर्षित करता है। कौनसा शब्द प्रयोग किया गया है के बजाय कोई शब्द कैसे प्रयोग किया गया है, यह मेरे लिए अधिक महत्वपूर्ण रहा है। क्या कहा गया है के बजाय मेरा ध्यान इस पर अधिक रहता है कि कैसे कहा गया है। मैं जानता हूँ कि हर व्यक्ति की शब्द सामर्थ्य अलग-अलग होती है। कुछ लोगों के पास शब्दों का प्रचुर भंडार होता है और उन्हें अलंकारों के प्रयोग में प्रवीणता प्राप्त होती है। मैं उन शब्दों के बारे में नहीं कह रहा हूँ। मेरा मतलब सीधे सादे रोजमर्रा के शब्दों के सही और प्रभावी प्रयोग से है।
उदाहरण के लिए: यह राम की पत्नी सीता है; और यह सीता है, राम की पत्नी। हम लोगों को ये दोनो वाक्य समानार्थी लगते हैं और हम पहले वाले वाक्य, यानि यह राम की पत्नी सीता है, का ही प्रयोग अधिकतर करते हैं। भोजन अच्छा बना है और अच्छा भोजन बना है, हमें एक ही वाक्य लगते हैं। मुझे भाई ने एक काम से भेजा था और मुझे एक काम से भाई ने भेजा था, में हमें कोई फर्क नज़र नहीं आता। यह हमारी सोच, हमारी मानसिकता को दर्शाता है। हमारे लिए राम महत्वपूर्ण है, सीता गौण है। इसलिए हमें “यह राम की पत्नी सीता है” कहने की आदत है। “यह सीता है, राम की पत्नी” में सीता प्रमुख है, वह एक अलग व्यक्ति है जिसके बारे में बताया जा रहा है। “राम की पत्नी” उसका सामाजिक परिचय है। हमें पत्नी का अलग व्यक्तित्व सहज स्वीकार्य ही नहीं है, इसलिए हमारे मुँह से “यह सीता है, राम की पत्नी” निकलता ही नहीं है। हद तो तब हो जाती है जब हमारे मन में शब्दों को सही ढ़ंग से प्रयोग करने की चाह या जिज्ञासा पैदा ही नहीं होती और हमें सही या गलत का पता ही नहीं चलता।
एक अंग्रेज़ी की कहावत है जिसका अर्थ है कि अपने विचारों पर गौर कीजिये, वे ही आपके शब्द बनते हैं; अपने शब्दों पर गौर कीजिये, वे ही आपके कार्य बनते हैं; अपने कार्यों पर गौर कीजिये, वे ही आपकी आदत बनते हैं; अपनी आदतों पर गौर कीजिये, वे ही आपका चरित्र बनती हैं; अपने चरित्र पर गौर कीजिये, वह ही आपकी नियति बनता है। हम ये सब जानने के बाद भी सुधरने के लिए तैयार नहीं हैं। शब्द अक्षरों से बनते हैं। ‘अक्षर’ स्वयं अपना परिचय दे रहा है कि वह क्षर यानि नष्ट नहीं होगा। हम जो भी बोलते हैं वो वातावरण में ही रहता है। ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती, वह अपना स्वरूप परिवर्तित कर लेती है। अब तो वैज्ञानिकों ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि उन्नत वैज्ञानिक उपकरणों की मदद से वातावरण में स्थित सूक्ष्म ध्वनियों को भी सुना जा सकता है। नकारात्मक शब्द नकारात्मक ऊर्जा पैदा करते हैं और ऊर्जा मिटती नहीं है।
हम अपनी इस लापरवाही या गैर-जिम्मेदाराना आचरण का परिणाम अपनी आँखों के सामने देख रहे हैं। आज हमारे शब्दों का हमारे बच्चों तक पर कोई प्रभाव नहीं होता। हम अधिकांशतया अब सोच कर बोलते ही कहाँ हैं, हाँ कई बार बोलने के बाद सोचने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि गलत बोल गये। कौनसी बात, कहाँ पर, और कैसे कही जाती है, यह सलीका हो तो हर बात सुनी जाती है।
मुझे एक घटना याद आ गयी। एक पिता अपनी छोटी सी बच्ची के साथ जंगल से गुजर रहा था कि सामने एक नदी आ गयी। नदी अपने उफान पर थी और उस पर एक बहुत कमजोर सा अत्यंत संकरा पुल था। नदी पार करने का कोई और रास्ता या तरीका नहीं था। इसलिए उस पुल से गुजर कर ही पार होना था। पिता थोड़ा डरा, पुल पर जाते हुए उसने बच्ची से कहा कि वह उसका हाथ कस कर थाम ले। बच्ची बोली कि नहीं पापा, आप मेरा हाथ पकड़ लीजिये। पिता बोला कि जो मैंने कहा, उसका मतलब भी तो यही है। क्या फर्क है दोनों बातों में? बच्ची ने शालीनता से कहा, “बहुत फर्क है, मैं छोटी हूँ, कुछ हो गया तो मुझसे आपका हाथ छूट सकता है। लेकिन मैं जानती हूँ कि चाहे कुछ भी हो जाये, आप प्राण रहते मेरा हाथ नहीं छोड़ सकते”। पिता निरुत्तर सा अपनी बच्ची का चेहरा देखता रहा।
मैं बस यही बात कहने की चेष्टा कर रहा हूँ। शब्द सिर्फ शब्द नहीं हैं, वे भावों के संवाहक हैं। उनके दुरुपयोग से बचिये और उन्हें अपनी सोच का आईना बनाइये। सबको आसानी हो जायेगी, पाखंड जाता रहेगा। दुनिया संवर जायेगी।
- राजेन्द्र चौधरी
उदाहरण के लिए: यह राम की पत्नी सीता है; और यह सीता है, राम की पत्नी। हम लोगों को ये दोनो वाक्य समानार्थी लगते हैं और हम पहले वाले वाक्य, यानि यह राम की पत्नी सीता है, का ही प्रयोग अधिकतर करते हैं। भोजन अच्छा बना है और अच्छा भोजन बना है, हमें एक ही वाक्य लगते हैं। मुझे भाई ने एक काम से भेजा था और मुझे एक काम से भाई ने भेजा था, में हमें कोई फर्क नज़र नहीं आता। यह हमारी सोच, हमारी मानसिकता को दर्शाता है। हमारे लिए राम महत्वपूर्ण है, सीता गौण है। इसलिए हमें “यह राम की पत्नी सीता है” कहने की आदत है। “यह सीता है, राम की पत्नी” में सीता प्रमुख है, वह एक अलग व्यक्ति है जिसके बारे में बताया जा रहा है। “राम की पत्नी” उसका सामाजिक परिचय है। हमें पत्नी का अलग व्यक्तित्व सहज स्वीकार्य ही नहीं है, इसलिए हमारे मुँह से “यह सीता है, राम की पत्नी” निकलता ही नहीं है। हद तो तब हो जाती है जब हमारे मन में शब्दों को सही ढ़ंग से प्रयोग करने की चाह या जिज्ञासा पैदा ही नहीं होती और हमें सही या गलत का पता ही नहीं चलता।
एक अंग्रेज़ी की कहावत है जिसका अर्थ है कि अपने विचारों पर गौर कीजिये, वे ही आपके शब्द बनते हैं; अपने शब्दों पर गौर कीजिये, वे ही आपके कार्य बनते हैं; अपने कार्यों पर गौर कीजिये, वे ही आपकी आदत बनते हैं; अपनी आदतों पर गौर कीजिये, वे ही आपका चरित्र बनती हैं; अपने चरित्र पर गौर कीजिये, वह ही आपकी नियति बनता है। हम ये सब जानने के बाद भी सुधरने के लिए तैयार नहीं हैं। शब्द अक्षरों से बनते हैं। ‘अक्षर’ स्वयं अपना परिचय दे रहा है कि वह क्षर यानि नष्ट नहीं होगा। हम जो भी बोलते हैं वो वातावरण में ही रहता है। ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती, वह अपना स्वरूप परिवर्तित कर लेती है। अब तो वैज्ञानिकों ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि उन्नत वैज्ञानिक उपकरणों की मदद से वातावरण में स्थित सूक्ष्म ध्वनियों को भी सुना जा सकता है। नकारात्मक शब्द नकारात्मक ऊर्जा पैदा करते हैं और ऊर्जा मिटती नहीं है।
हम अपनी इस लापरवाही या गैर-जिम्मेदाराना आचरण का परिणाम अपनी आँखों के सामने देख रहे हैं। आज हमारे शब्दों का हमारे बच्चों तक पर कोई प्रभाव नहीं होता। हम अधिकांशतया अब सोच कर बोलते ही कहाँ हैं, हाँ कई बार बोलने के बाद सोचने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि गलत बोल गये। कौनसी बात, कहाँ पर, और कैसे कही जाती है, यह सलीका हो तो हर बात सुनी जाती है।
मुझे एक घटना याद आ गयी। एक पिता अपनी छोटी सी बच्ची के साथ जंगल से गुजर रहा था कि सामने एक नदी आ गयी। नदी अपने उफान पर थी और उस पर एक बहुत कमजोर सा अत्यंत संकरा पुल था। नदी पार करने का कोई और रास्ता या तरीका नहीं था। इसलिए उस पुल से गुजर कर ही पार होना था। पिता थोड़ा डरा, पुल पर जाते हुए उसने बच्ची से कहा कि वह उसका हाथ कस कर थाम ले। बच्ची बोली कि नहीं पापा, आप मेरा हाथ पकड़ लीजिये। पिता बोला कि जो मैंने कहा, उसका मतलब भी तो यही है। क्या फर्क है दोनों बातों में? बच्ची ने शालीनता से कहा, “बहुत फर्क है, मैं छोटी हूँ, कुछ हो गया तो मुझसे आपका हाथ छूट सकता है। लेकिन मैं जानती हूँ कि चाहे कुछ भी हो जाये, आप प्राण रहते मेरा हाथ नहीं छोड़ सकते”। पिता निरुत्तर सा अपनी बच्ची का चेहरा देखता रहा।
मैं बस यही बात कहने की चेष्टा कर रहा हूँ। शब्द सिर्फ शब्द नहीं हैं, वे भावों के संवाहक हैं। उनके दुरुपयोग से बचिये और उन्हें अपनी सोच का आईना बनाइये। सबको आसानी हो जायेगी, पाखंड जाता रहेगा। दुनिया संवर जायेगी।
- राजेन्द्र चौधरी
शुक्रवार, अगस्त 05, 2011
पीर बाबा
यह बात सन उन्नीस सौ बासठ की है, जब मैं अपनी ननसाल में रह कर सातवीं कक्षा में पढ़ता था। मेरे पिताजी, जो कि गन्ना सुपरवाईजर थे, का जुलाई महीने में, जब स्कूल खुले ही थे, किसी अन्य जगह पर ट्रांसफर हो गया था। उन्होंने यह सोच कर कि मेरी पढ़ाई का नुकसान न हो, रहने की नयी व्यवस्था होने तक, एक वर्ष के लिए मुझे ननसाल में रह कर पढ़ने का आदेश दिया। वहाँ पर मेरी ननसाल से करीब तीन किलोमीटर दूर एक इंटर कॉलेज था और सौभाग्य से उसी कॉलेज में मेरे मामा जी कृषि प्रसार अध्यापक थे। यह पद उन दिनों ऐसे कॉलेजों में होता था जिन कॉलेजों के पास अपने कृषि फार्म होते थे।
मैं अपनी ननसाल में रह कर पढ़ाई करने लगा। यहाँ पर यह भी बताना प्रासंगिक होगा कि मेरे पिताजी और ताऊ जी मूर्ति पूजा के विरोधी थे, इसलिए हमारे अपने घर पर मूर्ति पूजा नहीं होती थी, लेकिन मेरी ननसाल में मूर्ति पूजा होती थी, वे लोग सनातन हिन्दू धर्म के अनुयायी थे। मेरे दो मामा थे और दोनों के लड़कियां ही थीं, लड़का नहीं था। यूँ तो ननसाल में हर बच्चे का मन लगता है लेकिन घर में अकेला लड़का होने के कारण मैं सबका लाड़ला था। मेरी ममेरी बहनें भी मुझे बहुत प्यार करती थीं। नाना-नानी की तो पूछो ही मत, बहुत दुलार मिला दोनों का मुझको।
वहाँ पर रहते हुए मैंने देखा कि नानी हर जुमेरात यानि गुरुवार की शाम को गाँव की बाहरी सीमा पर स्थित एक पीर बाबा की मजार पर दिआ जलाने जाती थीं और नाना जी हर मंगलवार को गाँव के मन्दिर में बन्दरों को चने और गुड़ खिलाते थे। मैं तब तक यह जान चुका था कि पीर बाबा की मजार पर मुस्लिम लोग दिआ जलाते हैं। इसलिए एक स्वाभाविक जिज्ञासा तो थी कि नानी हिन्दू होते हुए भी पीर पर दिआ क्यों जलाती हैं, लेकिन मैंने कभी पूछा नहीं। वैसे मुस्लिम समाज के कुछ घर थे वहाँ, और मुस्लिम लोग तेली, धोबी, लुहार का काम करते थे। हमारा नौकर नवाब तेली था और मैं उसे भाई कहता था और उसकी मां को ताई कह कर बुलाता था, कुतुबुद्दीन नाम का धोबी का लड़का मेरा सहपाठी और अच्छा दोस्त था। तब रिश्ते मजहबी नहीं होते थे और अपने से बड़ी उम्र के हर व्यक्ति को नमस्ते करने का प्रचलन था चाहे वो नौकर ही क्यों न हो। मुझे अच्छी तरह याद है कि अनारो नाम की एक भंगन घर पर जानवरों का गोबर वगैरा उठाने के लिए आती थी, उसे मेरे मामाजी भाभी कह कर बुलाते थे। व्यक्ति और व्यक्ति के प्रति भाव महत्वपूर्ण थे, जाति, धर्म या सामाजिक हैसियत नहीं।
खैर, एक दिन घर पर हमारी गाय ने बछड़े को जन्म दिया। नानीजी ने गाय का जब पहला दूध निकाला तो मुझे बुला कर कहा कि मैं वह दूध पीर बाबा की मजार पर चढ़ा आऊँ। नाना-नानी, दादा-दादी से बच्चे अक्सर खुले होते हैं, इसलिए सहज ढंग से मैंने पूछ लिया कि क्यों? हम लोग तो हिन्दू हैं, नाना जी हनुमान मन्दिर जाते हैं, इसलिए हनुमान जी को ही यह दूध क्यों न चढ़ा आऊँ। नानी ने लगभग घूरते हुए मुझसे कहा कि जैसा कहा गया है वैसा करो। मैं चुपचाप पीर बाबा की मजार पर वो दूध चढ़ा आया।
फिर पड़ोस में ही एक लड़की की शादी हुई। मैं सुबह जब स्कूल जा रहा था तो मैंने देखा कि वह दुल्हन तांगे से उतर कर पीर बाबा की मजार पर गयी, वहाँ पर उसने मत्था टेका और फिर पर्दा करके तांगे में आकर बैठ गयी। मैंने अपने मन में तय कर लिया कि आज मौका देख कर मैं नानाजी या नानी से इस बारे में ज़रूर पूछूँगा। मैं करीब साढ़े चार बजे स्कूल से वापस लौटा तो नानाजी हनुमान मन्दिर पर ही मिल गये और वो मेरे साथ ही हो लिये। कुछ देर इधर-उधर की बातें करने के बाद मैंने नानाजी के सम्मुख अपनी जिज्ञासा प्रकट कर दी। नानाजी बोले कि अपनी नानी से ही पूछना। मैं समझ गया कि या तो नानाजी बताना नहीं चाह रहे हैं या फिर उन्हें भी इस बारे में ठीक से पता नहीं है। घर पहुँचा तो नानी चारपाई पर बैठी थीं, मुझे देख कर उठीं और मेरे लिए मलाईयुक्त एक गिलास दूध लायीं और साथ ही साथ ही कपड़े से उनके द्वारा तैयार की गयी एक गेंद भी उन्होंने मुझे दी। नानी कपड़े को रंगीन धागे से जींद कर बहुत सुन्दर गेंद बनाती थी। मैंने खुशी में नानी के पैर छुए और उन्होंने मुझे गले से लगा लिया। मुझे मौका सही लगा और मैंने पूछ ही लिया कि आपने उस दिन गाय का पहला दूध हनुमान जी के बजाय पीर बाबा को क्यों भिजवाया और वह दुल्हन हिन्दू होते हुए भी मन्दिर में जाने के बजाय पीर बाबा की मजार पर मत्था झुकाने क्यों गयी?
नानी बोलीं, तू अभी बच्चा है, तू नहीं समझेगा। मैंने कहा कि आप बताओ तो! वो बोलीं कि हनुमान जी हमारे देवता हैं लेकिन वह ब्रह्मचारी हैं, उन्हें मालूम नहीं है कि बच्चा जनने में कितनी पीडा होती है। पीर बाबा गृहस्थ थे, वे गृहस्थी संत थे, उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि गाय ने बछड़े को नौ महीने अपने गर्भ में रख कर कितने कष्टों से जना है। वह पहला दूध गाय और बछड़े की सलामती की दुआ माँगने के लिए चढ़ाया था। उसी तरह से गाँव की हर लड़की शादी होने पर अपनी सुखद गृहस्थी की दुआ माँगने के लिए पीर बाबा को मस्तक नवा कर जाती है। मैंने पूछा कि फिर नानाजी ने मुझे यह सब क्यों नहीं बताया? नानी बोलीं कि तेरे नानाजी को भी स्त्रीत्व की पीड़ा का ज्ञान कैसे होगा! यह तो वो ही जानती है जो बच्चे को अपने पेट में पालती है।
नानी ने कुछ ही मिनटों में मुझे कई न भूलने वाले पाठ पढ़ा दिये थे। तत्कालीन स्वभाव की सरलता और सामाजिक समरसता के अलावा उन्होंने कितनी आसानी से मुझे समझा दिया था कि आराध्य देव होना अलग बात है और विषय विशेष की योग्यता रखना अलग बात है। कोई भी योग्यता धर्म आधारित नहीं होती और योग्य व्यक्ति चाहे किसी भी धर्म का हो, आदरणीय है। और यह भी कि पिता पोषक और मार्गदर्शी अवश्य है लेकिन माँ तो जननी है। जननी स्वयं में एक संस्था होती है।
नानी को गुजरे एक उम्र बीत गयी लेकिन उनकी बातें आज भी मुझे याद हैं।
- राजेन्द्र चौधरी
मैं अपनी ननसाल में रह कर पढ़ाई करने लगा। यहाँ पर यह भी बताना प्रासंगिक होगा कि मेरे पिताजी और ताऊ जी मूर्ति पूजा के विरोधी थे, इसलिए हमारे अपने घर पर मूर्ति पूजा नहीं होती थी, लेकिन मेरी ननसाल में मूर्ति पूजा होती थी, वे लोग सनातन हिन्दू धर्म के अनुयायी थे। मेरे दो मामा थे और दोनों के लड़कियां ही थीं, लड़का नहीं था। यूँ तो ननसाल में हर बच्चे का मन लगता है लेकिन घर में अकेला लड़का होने के कारण मैं सबका लाड़ला था। मेरी ममेरी बहनें भी मुझे बहुत प्यार करती थीं। नाना-नानी की तो पूछो ही मत, बहुत दुलार मिला दोनों का मुझको।
वहाँ पर रहते हुए मैंने देखा कि नानी हर जुमेरात यानि गुरुवार की शाम को गाँव की बाहरी सीमा पर स्थित एक पीर बाबा की मजार पर दिआ जलाने जाती थीं और नाना जी हर मंगलवार को गाँव के मन्दिर में बन्दरों को चने और गुड़ खिलाते थे। मैं तब तक यह जान चुका था कि पीर बाबा की मजार पर मुस्लिम लोग दिआ जलाते हैं। इसलिए एक स्वाभाविक जिज्ञासा तो थी कि नानी हिन्दू होते हुए भी पीर पर दिआ क्यों जलाती हैं, लेकिन मैंने कभी पूछा नहीं। वैसे मुस्लिम समाज के कुछ घर थे वहाँ, और मुस्लिम लोग तेली, धोबी, लुहार का काम करते थे। हमारा नौकर नवाब तेली था और मैं उसे भाई कहता था और उसकी मां को ताई कह कर बुलाता था, कुतुबुद्दीन नाम का धोबी का लड़का मेरा सहपाठी और अच्छा दोस्त था। तब रिश्ते मजहबी नहीं होते थे और अपने से बड़ी उम्र के हर व्यक्ति को नमस्ते करने का प्रचलन था चाहे वो नौकर ही क्यों न हो। मुझे अच्छी तरह याद है कि अनारो नाम की एक भंगन घर पर जानवरों का गोबर वगैरा उठाने के लिए आती थी, उसे मेरे मामाजी भाभी कह कर बुलाते थे। व्यक्ति और व्यक्ति के प्रति भाव महत्वपूर्ण थे, जाति, धर्म या सामाजिक हैसियत नहीं।
खैर, एक दिन घर पर हमारी गाय ने बछड़े को जन्म दिया। नानीजी ने गाय का जब पहला दूध निकाला तो मुझे बुला कर कहा कि मैं वह दूध पीर बाबा की मजार पर चढ़ा आऊँ। नाना-नानी, दादा-दादी से बच्चे अक्सर खुले होते हैं, इसलिए सहज ढंग से मैंने पूछ लिया कि क्यों? हम लोग तो हिन्दू हैं, नाना जी हनुमान मन्दिर जाते हैं, इसलिए हनुमान जी को ही यह दूध क्यों न चढ़ा आऊँ। नानी ने लगभग घूरते हुए मुझसे कहा कि जैसा कहा गया है वैसा करो। मैं चुपचाप पीर बाबा की मजार पर वो दूध चढ़ा आया।
फिर पड़ोस में ही एक लड़की की शादी हुई। मैं सुबह जब स्कूल जा रहा था तो मैंने देखा कि वह दुल्हन तांगे से उतर कर पीर बाबा की मजार पर गयी, वहाँ पर उसने मत्था टेका और फिर पर्दा करके तांगे में आकर बैठ गयी। मैंने अपने मन में तय कर लिया कि आज मौका देख कर मैं नानाजी या नानी से इस बारे में ज़रूर पूछूँगा। मैं करीब साढ़े चार बजे स्कूल से वापस लौटा तो नानाजी हनुमान मन्दिर पर ही मिल गये और वो मेरे साथ ही हो लिये। कुछ देर इधर-उधर की बातें करने के बाद मैंने नानाजी के सम्मुख अपनी जिज्ञासा प्रकट कर दी। नानाजी बोले कि अपनी नानी से ही पूछना। मैं समझ गया कि या तो नानाजी बताना नहीं चाह रहे हैं या फिर उन्हें भी इस बारे में ठीक से पता नहीं है। घर पहुँचा तो नानी चारपाई पर बैठी थीं, मुझे देख कर उठीं और मेरे लिए मलाईयुक्त एक गिलास दूध लायीं और साथ ही साथ ही कपड़े से उनके द्वारा तैयार की गयी एक गेंद भी उन्होंने मुझे दी। नानी कपड़े को रंगीन धागे से जींद कर बहुत सुन्दर गेंद बनाती थी। मैंने खुशी में नानी के पैर छुए और उन्होंने मुझे गले से लगा लिया। मुझे मौका सही लगा और मैंने पूछ ही लिया कि आपने उस दिन गाय का पहला दूध हनुमान जी के बजाय पीर बाबा को क्यों भिजवाया और वह दुल्हन हिन्दू होते हुए भी मन्दिर में जाने के बजाय पीर बाबा की मजार पर मत्था झुकाने क्यों गयी?
नानी बोलीं, तू अभी बच्चा है, तू नहीं समझेगा। मैंने कहा कि आप बताओ तो! वो बोलीं कि हनुमान जी हमारे देवता हैं लेकिन वह ब्रह्मचारी हैं, उन्हें मालूम नहीं है कि बच्चा जनने में कितनी पीडा होती है। पीर बाबा गृहस्थ थे, वे गृहस्थी संत थे, उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि गाय ने बछड़े को नौ महीने अपने गर्भ में रख कर कितने कष्टों से जना है। वह पहला दूध गाय और बछड़े की सलामती की दुआ माँगने के लिए चढ़ाया था। उसी तरह से गाँव की हर लड़की शादी होने पर अपनी सुखद गृहस्थी की दुआ माँगने के लिए पीर बाबा को मस्तक नवा कर जाती है। मैंने पूछा कि फिर नानाजी ने मुझे यह सब क्यों नहीं बताया? नानी बोलीं कि तेरे नानाजी को भी स्त्रीत्व की पीड़ा का ज्ञान कैसे होगा! यह तो वो ही जानती है जो बच्चे को अपने पेट में पालती है।
नानी ने कुछ ही मिनटों में मुझे कई न भूलने वाले पाठ पढ़ा दिये थे। तत्कालीन स्वभाव की सरलता और सामाजिक समरसता के अलावा उन्होंने कितनी आसानी से मुझे समझा दिया था कि आराध्य देव होना अलग बात है और विषय विशेष की योग्यता रखना अलग बात है। कोई भी योग्यता धर्म आधारित नहीं होती और योग्य व्यक्ति चाहे किसी भी धर्म का हो, आदरणीय है। और यह भी कि पिता पोषक और मार्गदर्शी अवश्य है लेकिन माँ तो जननी है। जननी स्वयं में एक संस्था होती है।
नानी को गुजरे एक उम्र बीत गयी लेकिन उनकी बातें आज भी मुझे याद हैं।
- राजेन्द्र चौधरी
गुरुवार, अगस्त 04, 2011
साँस तो फूलेगी
बात आज से करीब बत्तीस वर्ष पहले की है। मैं देश के एक राष्ट्रीयकृत बैंक में सेवारत था और मुझे तब पहली बार उत्तर प्रदेश के तराई इलाके की एक ग्रामीण शाखा के प्रबन्धक के रूप में नियुक्त किया गया था। असल में वह शाखा मुझे ही खोलनी थी। उससे पहले मैं बैंक की पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर शहर में स्थित शाखा में कार्यरत था। मेरे बेटे ने एक साल पहले ही वहाँ के एक प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी माध्यम वाले स्कूल में अपनी पढ़ाई शुरू की थी। मैं इसलिए अपनी इस ग्रामीण शाखा के प्रबन्धक के रूप में नियुक्ति को लेकर थोड़ा परेशान था क्योंकि मैं जानता था कि उस ग्रामीण इलाके में इतने अच्छे स्कूल होने की सम्भावना नगण्य थी और ऐसा ही हुआ भी। मुझे बैंक ने वहाँ पर समीप के एक कस्बे में रहने की अनुमति तो दे दी लेकिन स्कूल की कोई अच्छी सुविधा वहाँ पर भी नहीं थी। मजबूरन गुरुद्वारे के एक स्कूल में बेटे का दाखिला कराना पड़ा। बाद में तहसीलदार महोदय और इलाके के कुछ सम्पन्न लोगों के सहयोग से एक हिन्दी माध्यम का स्कूल खुला।
बेटे की पढ़ाई के इतर बात करें तो मुझे और मेरे परिवार को और कोई परेशानी नहीं थी। मैं मूलत: एक ग्रामीण किसान परिवार से था, इसलिए उनके परिवेश और उनकी परेशानियों से भली भाँति परिचित था। जवान था, जोश था, और माता-पिता से मिले संस्कार साथ थे। मैंने ठान लिया कि अपने इस कार्यकाल में मैं किसानों की ईमानदारी के साथ विधिसम्मत भरपूर मदद करूँगा। इलाका छोटा था, इसलिए देखते ही देखते मेरी ईमानदारी और सुहृदयता की चर्चा होने लगी। लोग मेरी बहुत इज़्ज़त करते थे और अपने घरों की परेशानियाँ तक मुझे आकर बताते थे कि शायद मैं उनकी कुछ मदद कर सकूँ और मैंने यथासम्भव उनकी मदद की भी। छोटे लोगों की परेशानियाँ तो छोटी होती हैं लेकिन उनका स्वाभिमान बड़ा होता है। मैं उन लोगों के परिवार का हिस्सा जैसा बन गया। फिर बुजुर्गों के आशीर्वाद से प्राप्त मेरी समय की पाबन्दी, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, और व्यवहार कुशलता की आदतों ने भी मेरी प्रसिद्धि को पंख लगा दिये। पुरानी बात है, तब लोगों के तन इतने उजले और मन इतने मैले नहीं होते थे। मेरे सहकर्मियों के सहयोग से बैंक की वह शाखा एक आदर्श बैंक शाखा के रूप में अपनी पहचान बना चुकी थी।
खैर, एक रविवार के दिन बैंक के वकील, कुशल बाबू, जो मेरी ईमानदारी के कायल थे और मेरे घर के पास में ही रहते थे, सुबह के समय मेरे घर पर आये। हम लोग उस समय नाश्ता कर रहे थे। उनसे भी नाश्ता करने का आग्रह किया गया और वो भी साथ में नाश्ता करने लगे। जब मैंने पूछा कि क्या उनके आने का कोई विशेष प्रयोजन था तो वो बोले कि हाँ, मेरे घर पर एक बहुत ही ज्ञानी सन्यासी पधारे हुए हैं। वो चाहते थे कि मैं भी चल कर उनके दर्शन कर लूँ और कोई जिज्ञासा हो तो उनसे पूछूँ। मैं इन सन्यासियों से थोड़ा बच कर रहने में यकीन करता हूँ क्योंकि मेरा मानना है कि संतत्व एक गुण है और गृहस्थी होते हुए संतत्व अपनाना सन्यासी होने से अधिक महत्वपूर्ण है। मैंने विनम्रता के साथ इंकार कर दिया, तो वो बोले कि एक बार कुछ क्षणों के लिए चल कर देखने में क्या हर्ज है, आप चाहो तो कोई बात मत करना और थोड़ी देर बाद आ जाना। मैंने कहा कि तुम इतना इसरार कर रहे हो तो ठीक है, कुछ क्षणों के लिए शाम को आ जाऊँगा।
शाम को मैं कुशल बाबू के निवास पर पहुँचा। उन्होंने गर्मजोशी के साथ मेरा स्वागत किया और मुझे अन्दर कमरे में जहाँ पर वो सन्यासी बाबा एक तख्त पर विराजमान थे लेकर गये। पाँच-सात लोग फर्श पर बिछी हुई दरी पर बैठे थे। मैंने प्रणाम किया और वकील साहब के द्वारा कुर्सी पर बैठने के आग्रह की ओर ध्यान न देते हुए मैं भी दरी पर ही बैठ गया। कुशल बाबू ने महात्मा जी को मेरा परिचय दिया। महात्मा जी मेरी ओर देख कर मुस्कुराये और मुझसे बोले कि कुछ पूछना हो तो पूछो। मैंने कहा कि आपका बहुत बहुत धन्यवाद मुझे कुछ पूछना नहीं है। लेकिन वो बोले कि नहीं कोई तो जिज्ञासा होगी, पूछो। मैंने फिर विनम्रता के साथ कहा कि जी नहीं कोई जिज्ञासा नहीं है। इस पर कुशल बाबू बोले कि मैनेजर साहब कुछ तो पूछो।
मेरे मन में पता नहीं कहाँ से उस समय एक प्रश्न जन्मा और मैंने महात्मा जी से पूछा कि जब ईश्वर चाहता है कि मनुष्य जीवन में सच्चाई और ईमानदारी के साथ जिये तो फिर सच्चे और ईमानदार लोगों को झूठे और बेईमान लोगों की तुलना में अधिक परेशानी क्यों उठानी पड़ती है?
महात्मा जी पल भर को मुस्कुराये और मेरी तरफ देख कर बोले कि मान लो आप किसी बिल्डिंग की सीढ़ियां चढ़ रहे हैं और उन सीढ़ियां की किसी बीच वाली सीढ़ी पर आपका कोई परिचित मिल जाये जो सीढ़ियां उतर रहा हो और आप दोनों उस सीढ़ी पर खड़े खड़े एक दूसरे की तरफ मुँह करके बातें करने लगें, तो क्या दूर से आप दोनों को देख कर यह बताया जा सकता है कि कौन सीढ़ियां चढ़ रहा है और कौन उतर रहा है? मैंने कहा कि नहीं बताया जा सकता। उन्होंने फिर पूछा कि और पास से? मैंने कहा पास से भी बताना मुश्किल होगा। वो बोले कि नहीं, पास जाकर बता पाना सम्भव होगा। जिसकी साँस फूल रही है वह चढ़ रहा है, जिसकी नहीं फूल रही है वो उतर रहा है। सीढ़ियां चढ़ोगे तो साँस तो फूलेगी ही।
महात्मा जी ने बड़े सरल शब्दों में मुझे कभी न भूल पाने वाली सीख दे दी थी।
हम जीवन की सीढ़ियां चढ़ना चाहते हैं या नहीं, यह निर्णय हमें लेना है, लेकिन सीढ़ियां चढ़ेंगे तो साँस तो फूलेगी ही। फिर शिकायत कैसी?
- राजेन्द्र चौधरी
बेटे की पढ़ाई के इतर बात करें तो मुझे और मेरे परिवार को और कोई परेशानी नहीं थी। मैं मूलत: एक ग्रामीण किसान परिवार से था, इसलिए उनके परिवेश और उनकी परेशानियों से भली भाँति परिचित था। जवान था, जोश था, और माता-पिता से मिले संस्कार साथ थे। मैंने ठान लिया कि अपने इस कार्यकाल में मैं किसानों की ईमानदारी के साथ विधिसम्मत भरपूर मदद करूँगा। इलाका छोटा था, इसलिए देखते ही देखते मेरी ईमानदारी और सुहृदयता की चर्चा होने लगी। लोग मेरी बहुत इज़्ज़त करते थे और अपने घरों की परेशानियाँ तक मुझे आकर बताते थे कि शायद मैं उनकी कुछ मदद कर सकूँ और मैंने यथासम्भव उनकी मदद की भी। छोटे लोगों की परेशानियाँ तो छोटी होती हैं लेकिन उनका स्वाभिमान बड़ा होता है। मैं उन लोगों के परिवार का हिस्सा जैसा बन गया। फिर बुजुर्गों के आशीर्वाद से प्राप्त मेरी समय की पाबन्दी, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, और व्यवहार कुशलता की आदतों ने भी मेरी प्रसिद्धि को पंख लगा दिये। पुरानी बात है, तब लोगों के तन इतने उजले और मन इतने मैले नहीं होते थे। मेरे सहकर्मियों के सहयोग से बैंक की वह शाखा एक आदर्श बैंक शाखा के रूप में अपनी पहचान बना चुकी थी।
खैर, एक रविवार के दिन बैंक के वकील, कुशल बाबू, जो मेरी ईमानदारी के कायल थे और मेरे घर के पास में ही रहते थे, सुबह के समय मेरे घर पर आये। हम लोग उस समय नाश्ता कर रहे थे। उनसे भी नाश्ता करने का आग्रह किया गया और वो भी साथ में नाश्ता करने लगे। जब मैंने पूछा कि क्या उनके आने का कोई विशेष प्रयोजन था तो वो बोले कि हाँ, मेरे घर पर एक बहुत ही ज्ञानी सन्यासी पधारे हुए हैं। वो चाहते थे कि मैं भी चल कर उनके दर्शन कर लूँ और कोई जिज्ञासा हो तो उनसे पूछूँ। मैं इन सन्यासियों से थोड़ा बच कर रहने में यकीन करता हूँ क्योंकि मेरा मानना है कि संतत्व एक गुण है और गृहस्थी होते हुए संतत्व अपनाना सन्यासी होने से अधिक महत्वपूर्ण है। मैंने विनम्रता के साथ इंकार कर दिया, तो वो बोले कि एक बार कुछ क्षणों के लिए चल कर देखने में क्या हर्ज है, आप चाहो तो कोई बात मत करना और थोड़ी देर बाद आ जाना। मैंने कहा कि तुम इतना इसरार कर रहे हो तो ठीक है, कुछ क्षणों के लिए शाम को आ जाऊँगा।
शाम को मैं कुशल बाबू के निवास पर पहुँचा। उन्होंने गर्मजोशी के साथ मेरा स्वागत किया और मुझे अन्दर कमरे में जहाँ पर वो सन्यासी बाबा एक तख्त पर विराजमान थे लेकर गये। पाँच-सात लोग फर्श पर बिछी हुई दरी पर बैठे थे। मैंने प्रणाम किया और वकील साहब के द्वारा कुर्सी पर बैठने के आग्रह की ओर ध्यान न देते हुए मैं भी दरी पर ही बैठ गया। कुशल बाबू ने महात्मा जी को मेरा परिचय दिया। महात्मा जी मेरी ओर देख कर मुस्कुराये और मुझसे बोले कि कुछ पूछना हो तो पूछो। मैंने कहा कि आपका बहुत बहुत धन्यवाद मुझे कुछ पूछना नहीं है। लेकिन वो बोले कि नहीं कोई तो जिज्ञासा होगी, पूछो। मैंने फिर विनम्रता के साथ कहा कि जी नहीं कोई जिज्ञासा नहीं है। इस पर कुशल बाबू बोले कि मैनेजर साहब कुछ तो पूछो।
मेरे मन में पता नहीं कहाँ से उस समय एक प्रश्न जन्मा और मैंने महात्मा जी से पूछा कि जब ईश्वर चाहता है कि मनुष्य जीवन में सच्चाई और ईमानदारी के साथ जिये तो फिर सच्चे और ईमानदार लोगों को झूठे और बेईमान लोगों की तुलना में अधिक परेशानी क्यों उठानी पड़ती है?
महात्मा जी पल भर को मुस्कुराये और मेरी तरफ देख कर बोले कि मान लो आप किसी बिल्डिंग की सीढ़ियां चढ़ रहे हैं और उन सीढ़ियां की किसी बीच वाली सीढ़ी पर आपका कोई परिचित मिल जाये जो सीढ़ियां उतर रहा हो और आप दोनों उस सीढ़ी पर खड़े खड़े एक दूसरे की तरफ मुँह करके बातें करने लगें, तो क्या दूर से आप दोनों को देख कर यह बताया जा सकता है कि कौन सीढ़ियां चढ़ रहा है और कौन उतर रहा है? मैंने कहा कि नहीं बताया जा सकता। उन्होंने फिर पूछा कि और पास से? मैंने कहा पास से भी बताना मुश्किल होगा। वो बोले कि नहीं, पास जाकर बता पाना सम्भव होगा। जिसकी साँस फूल रही है वह चढ़ रहा है, जिसकी नहीं फूल रही है वो उतर रहा है। सीढ़ियां चढ़ोगे तो साँस तो फूलेगी ही।
महात्मा जी ने बड़े सरल शब्दों में मुझे कभी न भूल पाने वाली सीख दे दी थी।
हम जीवन की सीढ़ियां चढ़ना चाहते हैं या नहीं, यह निर्णय हमें लेना है, लेकिन सीढ़ियां चढ़ेंगे तो साँस तो फूलेगी ही। फिर शिकायत कैसी?
- राजेन्द्र चौधरी
बुधवार, अगस्त 03, 2011
किससे कहूँ....
गरीब और अमीर शब्द सिर्फ व्यक्ति की आर्थिक हैसियत बताने के लिए ही प्रयोग नहीं किये जाते। कोई आदमी गरीब होते हुए भी दिल का अमीर हो सकता है और उसी तरह से कोई अमीर आदमी दिल से गरीब हो सकता है। यानि किसी व्यक्ति को सन्दर्भ विशेष में गरीब या अमीर कहा जा सकता है। इसी तरह से योग्य और अयोग्य शब्द हैं। कोई व्यक्ति किसी कार्य या पद विशेष के सन्दर्भ में योग्य या अयोग्य हो सकता है। या यूँ कहें कि कुछ निश्चित मापदंड या निर्धारित सीमायें हैं जिनको पूरा करने पर व्यक्ति को योग्य माना जाता है, अन्यथा अयोग्य। इसमें अपवाद शामिल नहीं हैं।
लेकिन कुछ शब्द ऐसे भी हैं जिन्हें लेकर मैं बहुत परेशान होता हूँ क्योंकि मुझे उनके लिए निश्चित किये गये मापदंड या निर्धारित की गयीं सीमायें आज तक पता नहीं चल सकीं। बहुत से लोगों से पूछा भी और किताबों में भी ढूँढा, पर उन सीमाओं के बारे में मैं आज भी अनजान हूँ। मसलन सज्जनता और कायरता। मैं इन दोनों शब्दों के अर्थ भली भाँति जानता हूँ, और यह भी जानता हूँ कि सज्जनता गुण है और कायरता दोष, लेकिन सज्जनता किस निर्धारित सीमा तक सज्जनता रहती है और फिर कायरता कहलाने लगती है?
सज्जनता की तरह ही सहनशीलता शब्द भी है, सहनशीलता गुण है लेकिन एक सीमा के बाद उसमें भी कायरता की गंध आने लगती है। वह सीमा कौनसी है? और क्या वह सीमा सब के लिए एक ही होती है या अलग-अलग?
क्षोभ और क्रोध शब्दों का अंतर भी बहुत बारीक है। कुछ विद्वान लोगों ने मुझे बताया कि क्षोभ एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है, क्रोध अवगुण है। यानि किसी गलत कार्य को होते हुए देख कर आपमें क्षोभ आना स्वाभाविक है, लेकिन क्रोध वर्जित है। ठीक से समझ तो नहीं आया लेकिन चलो फिलहाल मान लेते हैं, पर जो स्वाभाविक गुण है वह व्यक्त भी होगा। उसे व्यक्त करने का क्या ढंग होना चाहिये?
एक आम भारतीय नागरिक होने के नाते देश की वर्तमान स्थिति के बारे में मुझमें भी कुछ बातों को लेकर क्षोभ है, उसे कैसे व्यक्त करूँ? आज दबंगई सज्जनता और सहनशीलता के मुँह पर थूक रही है; झूठ पूजा जा रहा है, सच्चाई भिखारिन बनी द्वार-द्वार भटक रही है; आम आदमी असुरक्षित है; मँहगाई से, भ्रष्टाचार से, बेरोजगारी से त्रस्त है; बीमार होने पर इलाज करा पाना मुहाल है; नैतिक पतन चरम सीमा पर है; मानवता तार-तार है; संवेदनशीलता को कमजोरी और संवेदनहीनता को पेशेवर सोच का आवश्यक हिस्सा मान लिया गया है; दाँवपेंच को होशियारी और शराफत को भौंदूपन कहा जाने लगा है; हिन्दुस्तान में अंग्रेज़ी बोलना संभ्रांत कहे जाने के लिये व्यावहारिक रूप से अनिवार्य बन गया है; ठीक से हिन्दी नहीं बोल पाना या लिख पाना आम बात हो गयी है, बच्चे के हिन्दी विषय में कम नम्बर हों तो माता-पिता के माथे पर बल नहीं पड़ते पर अंग्रेज़ी में कम नम्बर बर्दाश्त नहीं; कानून का पालन करना किसी की जिम्मेदारी नहीं रह गयी है; कर्तव्यबोध तिरोहित हो गया है, अधिकारबोध सबको है; सामर्थ्य पूजित और सिद्धांत हेय हो गये हैं; नेता सर्वेसर्वा, प्रजा उपेक्षित; नेताओं को हर सुविधा मुफ्त या प्राथमिकता के आधार पर उपलब्ध, जनसामान्य को दो जून की रोटी मुहाल; नेताओं का खून खून, जनसामान्य का खून पानी; कोई नेता गुजरे तो ट्रैफिक रोक कर सड़क साफ, पब्लिक के लिए जानलेवा जाम; सीमा पर दुश्मन से लोहा लेते समय कभी किसी नेता का बेटा शहीद हुआ हो ऐसा कभी सुनने में क्यों नहीं आता; चुनाव मतपेटी लूटने पर गोली मार देने का प्रावधान है और देश की अस्मत लूटने वाले सरकारी मेहमान बने हुए हैं - निचली अदालत से उच्च अदालत, फिर सर्वोच्च अदालत, और उसके बाद राष्ट्रपति के पास दया याचिका के हकदार हैं। वर्षों से उनकी मेहमाननवाजी की जा रही है। मेहमाननवाजी भी कोई ऐसी वैसी नहीं, करोड़ों रुपये खर्च किये जा चुके हैं उनके लिए किये गये विशेष प्रबन्धों पर।
मेरी राजनीति में कोई रुचि नहीं है, आज के राजनेताओं के आचरण देख कर मुझे उबकाई आती है। मुझे ये हंसों के परिधान में गिद्ध दिखायी देते हैं।
मैं अपनी छटपटाहट किससे कहूँ, कैसे कहूँ, कौन सुनेगा? शायद मैं नहीं जानता, लेकिन मैं इतना ज़रूर जानता हूँ कि जिस पेड़ पर गिद्धों का वास हो जाता है, वह पेड़ सूखने लगता है।
- राजेन्द्र चौधरी
लेकिन कुछ शब्द ऐसे भी हैं जिन्हें लेकर मैं बहुत परेशान होता हूँ क्योंकि मुझे उनके लिए निश्चित किये गये मापदंड या निर्धारित की गयीं सीमायें आज तक पता नहीं चल सकीं। बहुत से लोगों से पूछा भी और किताबों में भी ढूँढा, पर उन सीमाओं के बारे में मैं आज भी अनजान हूँ। मसलन सज्जनता और कायरता। मैं इन दोनों शब्दों के अर्थ भली भाँति जानता हूँ, और यह भी जानता हूँ कि सज्जनता गुण है और कायरता दोष, लेकिन सज्जनता किस निर्धारित सीमा तक सज्जनता रहती है और फिर कायरता कहलाने लगती है?
सज्जनता की तरह ही सहनशीलता शब्द भी है, सहनशीलता गुण है लेकिन एक सीमा के बाद उसमें भी कायरता की गंध आने लगती है। वह सीमा कौनसी है? और क्या वह सीमा सब के लिए एक ही होती है या अलग-अलग?
क्षोभ और क्रोध शब्दों का अंतर भी बहुत बारीक है। कुछ विद्वान लोगों ने मुझे बताया कि क्षोभ एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है, क्रोध अवगुण है। यानि किसी गलत कार्य को होते हुए देख कर आपमें क्षोभ आना स्वाभाविक है, लेकिन क्रोध वर्जित है। ठीक से समझ तो नहीं आया लेकिन चलो फिलहाल मान लेते हैं, पर जो स्वाभाविक गुण है वह व्यक्त भी होगा। उसे व्यक्त करने का क्या ढंग होना चाहिये?
एक आम भारतीय नागरिक होने के नाते देश की वर्तमान स्थिति के बारे में मुझमें भी कुछ बातों को लेकर क्षोभ है, उसे कैसे व्यक्त करूँ? आज दबंगई सज्जनता और सहनशीलता के मुँह पर थूक रही है; झूठ पूजा जा रहा है, सच्चाई भिखारिन बनी द्वार-द्वार भटक रही है; आम आदमी असुरक्षित है; मँहगाई से, भ्रष्टाचार से, बेरोजगारी से त्रस्त है; बीमार होने पर इलाज करा पाना मुहाल है; नैतिक पतन चरम सीमा पर है; मानवता तार-तार है; संवेदनशीलता को कमजोरी और संवेदनहीनता को पेशेवर सोच का आवश्यक हिस्सा मान लिया गया है; दाँवपेंच को होशियारी और शराफत को भौंदूपन कहा जाने लगा है; हिन्दुस्तान में अंग्रेज़ी बोलना संभ्रांत कहे जाने के लिये व्यावहारिक रूप से अनिवार्य बन गया है; ठीक से हिन्दी नहीं बोल पाना या लिख पाना आम बात हो गयी है, बच्चे के हिन्दी विषय में कम नम्बर हों तो माता-पिता के माथे पर बल नहीं पड़ते पर अंग्रेज़ी में कम नम्बर बर्दाश्त नहीं; कानून का पालन करना किसी की जिम्मेदारी नहीं रह गयी है; कर्तव्यबोध तिरोहित हो गया है, अधिकारबोध सबको है; सामर्थ्य पूजित और सिद्धांत हेय हो गये हैं; नेता सर्वेसर्वा, प्रजा उपेक्षित; नेताओं को हर सुविधा मुफ्त या प्राथमिकता के आधार पर उपलब्ध, जनसामान्य को दो जून की रोटी मुहाल; नेताओं का खून खून, जनसामान्य का खून पानी; कोई नेता गुजरे तो ट्रैफिक रोक कर सड़क साफ, पब्लिक के लिए जानलेवा जाम; सीमा पर दुश्मन से लोहा लेते समय कभी किसी नेता का बेटा शहीद हुआ हो ऐसा कभी सुनने में क्यों नहीं आता; चुनाव मतपेटी लूटने पर गोली मार देने का प्रावधान है और देश की अस्मत लूटने वाले सरकारी मेहमान बने हुए हैं - निचली अदालत से उच्च अदालत, फिर सर्वोच्च अदालत, और उसके बाद राष्ट्रपति के पास दया याचिका के हकदार हैं। वर्षों से उनकी मेहमाननवाजी की जा रही है। मेहमाननवाजी भी कोई ऐसी वैसी नहीं, करोड़ों रुपये खर्च किये जा चुके हैं उनके लिए किये गये विशेष प्रबन्धों पर।
मेरी राजनीति में कोई रुचि नहीं है, आज के राजनेताओं के आचरण देख कर मुझे उबकाई आती है। मुझे ये हंसों के परिधान में गिद्ध दिखायी देते हैं।
मैं अपनी छटपटाहट किससे कहूँ, कैसे कहूँ, कौन सुनेगा? शायद मैं नहीं जानता, लेकिन मैं इतना ज़रूर जानता हूँ कि जिस पेड़ पर गिद्धों का वास हो जाता है, वह पेड़ सूखने लगता है।
- राजेन्द्र चौधरी
मंगलवार, अगस्त 02, 2011
एक था राजा
कल रात को टीवी के एक प्रमुख समाचार चैनल पर एक परिचर्चा आ रही थी। परिर्चर्चा में पिछले दिनों प्रकाश में आये घोटालों के विषय में कुछ सम्पादकगण और बुद्धिजीवी बातचीत कर रहे थे और ऐसा क्यों हुआ, कौन जिम्मेदार है, क्या क्या नज़रअन्दाज किया गया, यकायक बाढ़ सी आ गयी है घपलों-घोटालों की, आम आदमी की कोई सुनने वाला नहीं है, नेताओं और अफसरों को लूटने से फुरसत नहीं है, आदि आदि विषयों पर बहस चल रही थी। पर वो लोग एक बात पर अमूमन एकमत थे कि प्रधानमंत्री व्यक्तिगत तौर पर एक ईमानदार व्यक्ति हैं।
मुझे एक कहानी याद आ गयी जो मैंने बहुत पहले कहीं पर पढ़ी या सुनी थी: “एक राजा था जो बहुत ईमानदार और सज्जन था। सब लोग उसकी ईमानदारी और सज्जनता की तारीफ करते थे। लेकिन उसके राज में अपराध बढ़ने लगे, रोज नये नये अपराध सामने आने लगे। प्रजा त्रस्त होने लगी, पर अपराध थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। राजा ने अपने मंत्रियों को बुलाया और उन्हें अपनी चिंता से अवगत कराया तथा अपराधों पर शीघ्र काबू पाने के आदेश दिये। लेकिन उसके बाद भी अपराध कम नहीं हुए। राजा ने स्वयं पुलिस के उच्चाधिकारियों की बैठक आहूत की और उन्हें इस बाबत सख्त निर्देश दिये, पर अपराध जस के तस। राजा ने फिर समाज के बुद्धिजीवियों को बुलाया और उनसे विचार-विमर्श किया कि अपराधों पर कैसे काबू पाया जाये। सबने अपनी-अपनी राय दी और जो बातें प्रमुख रूप से उभर कर सामने आयीं उनके क्रियान्वयन के लिए एक उच्चस्तरीय समिति गठित कर दी गयी। समिति की क्रियान्वयन के लिए फोलो-अप बैठकें होने लगीं, लेकिन अपराध नहीं रुके। अंत में दुखी होकर राजा ने राज्य में घोषणा करा दी कि जो भी व्यक्ति राज्य में अपराधों पर लगाम लगा देगा उसे उचित पुरस्कार दिया जायेगा और राजा के दरबार में विशेष मंत्री का दर्जा प्राप्त होगा।
सर्दियों के दिन थे। एक गाँव में कुछ लोग आग जला कर ताप रहे थे और राजा की घोषणा के बारे में चर्चा कर रहे थे, कि तभी एक फकीर भी उनके पास आग तापने के उद्देश्य से आ खड़ा हुआ। फकीर ने उन लोगों की बातें सुनी और कहा कि मैं एक हफ्ते के अन्दर अपराध खत्म कर सकता हूँ। लोग उसका मुँह ताकने लगे और तरीका पूछने लगे। उसने कहा कि तरीका तो मैं राजा को ही बताऊँगा।
यह खबर राजा तक पहुँचनी ही थी, सो पहुँच गयी। राजा ने उस फकीर को बुलवाया और उससे पूछा कि क्या उसने ऐसा कहा था। फकीर बोला कि जी हाँ कहा था और सच कहा था, मैं एक हफ्ते के अन्दर अपराध खत्म कर सकता हूँ और इसके एवज में मुझे आपका कोई भी पुरस्कार या मंत्री पद नहीं चाहिये। दरबार में खुसर-पुसर शुरू हो गयी, मंत्रीगण उसकी बातों को झूठा दंभ करार देने लगे। राजा ने फकीर से कहा कि ठीक है मैं तुम्हें मौका देता हूँ लेकिन अगर अपराध कम नहीं हुए तो तुम्हें दंड दिया जायेगा। फकीर बोला कि मैं दंड भुगतने के लिए तैयार हूँ लेकिन आपको एक वचन देना होगा। राजा के पूछने पर उसने कहा कि आपको वचन देना होगा कि मैं इस बाबत जो भी आपसे करने के लिए कहूँ, अपको वो करना होगा। राजा ने थोड़ा सोचा और फिर हामी भर दी।
फकीर बोला कि अपने राजमहल के गेट के दोनों तरफ झिर्री कटे ढक्कन वाले कुछ बड़े-बड़े पात्र रखवा दें और राज्य में घोषणा करा दें कि जिस किसी के साथ भी कोई अपराध हुआ हो उसकी लिखित सूचना उन पात्रों के अन्दर पाँच दिनों के अन्दर ड़ाल दें, पाँच दिन के बाद किसी को भी उसके साथ हुए अपराध की सूचना देने का अधिकार नहीं होगा। राजा ने ऐसा ही किया। फिर फकीर राजा को प्रणाम करके छठे दिन आने का आश्वासन देकर चला गया। छठे दिन फकीर दरबार में पहुँचा और उसने राजा से उन शिकायत-पात्रों को मंगवाने का अनुरोध किया। शिकायत पात्र खोले गये, सब लोग हजारों की संख्या में प्राप्त हुए शिकायत-पत्र देख कर हैरान रह गये। फकीर मौन बना रहा। उसने राजा से कहा कि इन शिकायत-पत्रों को आपस में मिलवा दें और फिर कोई भी एक शिकायत-पत्र उस ढ़ेर में से उठा लें। राजा ने ऐसा ही किया और उठाया गया शिकायत-पत्र फकीर की ओर बढ़ा दिया। फकीर ने उस पत्र को एक मंत्री को दिया और कहा कि इसे जोर से पढ़ कर सुनायें। मंत्री के हाथ काँपने लगे, लेकिन राजा के आदेश पर उसने उस पत्र को जोर से पढ़ना शुरू किया। वह पत्र राज्य के किसी गरीब किसान की बेटी का था जिसमें कहा गया था कि राजा के बेटे ने उसके साथ जोर जबरदस्ती की और उसकी इज़्ज़त लूटी। दरबार में सन्नाटा छा गया। फकीर बोला कि राजा साहब अपने बेटे को आप इसी वक्त सरेआम फाँसी पर लटका दीजिये। राजा ने फकीर से उदास स्वर में कहा कि मेरा तो एक ही बेटा है, ऐसा न करें। फकीर ने कहा कि आपने वचन दिया था, अब अपने वचन से न फिरें। मन मार कर राजा को फकीर की बात माननी पड़ी और राजा के बेटे को सरेआम फाँसी दे दी गयी। फकीर बोला अब बाकी शिकायत-पत्रों को जलवा दिया जाये, इनकी अब कोई ज़रूरत नहीं है”। यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि उस दिन के बाद से उस राज्य में एक भी अपराध की घटना सुनने में नहीं आयी।
ये कहानियाँ प्रतीकात्मक होती हैं लेकिन इनमें गूढ़ अर्थ छिपे होते हैं। ये कहानियां व्यावहारिक ज़िन्दगी पर गढ़ी होती हैं। जब किताबी ज्ञान काम न आये, तो ऐसी कहानियों में समस्याओं के हल खोजने में कोई हेठी नहीं होती बल्कि समझदारी होती है। सहजबुद्धि बेशकीमती होती है, वह बड़ों बड़ों को असहज कर देती है। उसी तरह से सहज ज्ञान हर किताबी ज्ञान से बड़ा होता है।
- राजेन्द्र चौधरी
मुझे एक कहानी याद आ गयी जो मैंने बहुत पहले कहीं पर पढ़ी या सुनी थी: “एक राजा था जो बहुत ईमानदार और सज्जन था। सब लोग उसकी ईमानदारी और सज्जनता की तारीफ करते थे। लेकिन उसके राज में अपराध बढ़ने लगे, रोज नये नये अपराध सामने आने लगे। प्रजा त्रस्त होने लगी, पर अपराध थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। राजा ने अपने मंत्रियों को बुलाया और उन्हें अपनी चिंता से अवगत कराया तथा अपराधों पर शीघ्र काबू पाने के आदेश दिये। लेकिन उसके बाद भी अपराध कम नहीं हुए। राजा ने स्वयं पुलिस के उच्चाधिकारियों की बैठक आहूत की और उन्हें इस बाबत सख्त निर्देश दिये, पर अपराध जस के तस। राजा ने फिर समाज के बुद्धिजीवियों को बुलाया और उनसे विचार-विमर्श किया कि अपराधों पर कैसे काबू पाया जाये। सबने अपनी-अपनी राय दी और जो बातें प्रमुख रूप से उभर कर सामने आयीं उनके क्रियान्वयन के लिए एक उच्चस्तरीय समिति गठित कर दी गयी। समिति की क्रियान्वयन के लिए फोलो-अप बैठकें होने लगीं, लेकिन अपराध नहीं रुके। अंत में दुखी होकर राजा ने राज्य में घोषणा करा दी कि जो भी व्यक्ति राज्य में अपराधों पर लगाम लगा देगा उसे उचित पुरस्कार दिया जायेगा और राजा के दरबार में विशेष मंत्री का दर्जा प्राप्त होगा।
सर्दियों के दिन थे। एक गाँव में कुछ लोग आग जला कर ताप रहे थे और राजा की घोषणा के बारे में चर्चा कर रहे थे, कि तभी एक फकीर भी उनके पास आग तापने के उद्देश्य से आ खड़ा हुआ। फकीर ने उन लोगों की बातें सुनी और कहा कि मैं एक हफ्ते के अन्दर अपराध खत्म कर सकता हूँ। लोग उसका मुँह ताकने लगे और तरीका पूछने लगे। उसने कहा कि तरीका तो मैं राजा को ही बताऊँगा।
यह खबर राजा तक पहुँचनी ही थी, सो पहुँच गयी। राजा ने उस फकीर को बुलवाया और उससे पूछा कि क्या उसने ऐसा कहा था। फकीर बोला कि जी हाँ कहा था और सच कहा था, मैं एक हफ्ते के अन्दर अपराध खत्म कर सकता हूँ और इसके एवज में मुझे आपका कोई भी पुरस्कार या मंत्री पद नहीं चाहिये। दरबार में खुसर-पुसर शुरू हो गयी, मंत्रीगण उसकी बातों को झूठा दंभ करार देने लगे। राजा ने फकीर से कहा कि ठीक है मैं तुम्हें मौका देता हूँ लेकिन अगर अपराध कम नहीं हुए तो तुम्हें दंड दिया जायेगा। फकीर बोला कि मैं दंड भुगतने के लिए तैयार हूँ लेकिन आपको एक वचन देना होगा। राजा के पूछने पर उसने कहा कि आपको वचन देना होगा कि मैं इस बाबत जो भी आपसे करने के लिए कहूँ, अपको वो करना होगा। राजा ने थोड़ा सोचा और फिर हामी भर दी।
फकीर बोला कि अपने राजमहल के गेट के दोनों तरफ झिर्री कटे ढक्कन वाले कुछ बड़े-बड़े पात्र रखवा दें और राज्य में घोषणा करा दें कि जिस किसी के साथ भी कोई अपराध हुआ हो उसकी लिखित सूचना उन पात्रों के अन्दर पाँच दिनों के अन्दर ड़ाल दें, पाँच दिन के बाद किसी को भी उसके साथ हुए अपराध की सूचना देने का अधिकार नहीं होगा। राजा ने ऐसा ही किया। फिर फकीर राजा को प्रणाम करके छठे दिन आने का आश्वासन देकर चला गया। छठे दिन फकीर दरबार में पहुँचा और उसने राजा से उन शिकायत-पात्रों को मंगवाने का अनुरोध किया। शिकायत पात्र खोले गये, सब लोग हजारों की संख्या में प्राप्त हुए शिकायत-पत्र देख कर हैरान रह गये। फकीर मौन बना रहा। उसने राजा से कहा कि इन शिकायत-पत्रों को आपस में मिलवा दें और फिर कोई भी एक शिकायत-पत्र उस ढ़ेर में से उठा लें। राजा ने ऐसा ही किया और उठाया गया शिकायत-पत्र फकीर की ओर बढ़ा दिया। फकीर ने उस पत्र को एक मंत्री को दिया और कहा कि इसे जोर से पढ़ कर सुनायें। मंत्री के हाथ काँपने लगे, लेकिन राजा के आदेश पर उसने उस पत्र को जोर से पढ़ना शुरू किया। वह पत्र राज्य के किसी गरीब किसान की बेटी का था जिसमें कहा गया था कि राजा के बेटे ने उसके साथ जोर जबरदस्ती की और उसकी इज़्ज़त लूटी। दरबार में सन्नाटा छा गया। फकीर बोला कि राजा साहब अपने बेटे को आप इसी वक्त सरेआम फाँसी पर लटका दीजिये। राजा ने फकीर से उदास स्वर में कहा कि मेरा तो एक ही बेटा है, ऐसा न करें। फकीर ने कहा कि आपने वचन दिया था, अब अपने वचन से न फिरें। मन मार कर राजा को फकीर की बात माननी पड़ी और राजा के बेटे को सरेआम फाँसी दे दी गयी। फकीर बोला अब बाकी शिकायत-पत्रों को जलवा दिया जाये, इनकी अब कोई ज़रूरत नहीं है”। यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि उस दिन के बाद से उस राज्य में एक भी अपराध की घटना सुनने में नहीं आयी।
ये कहानियाँ प्रतीकात्मक होती हैं लेकिन इनमें गूढ़ अर्थ छिपे होते हैं। ये कहानियां व्यावहारिक ज़िन्दगी पर गढ़ी होती हैं। जब किताबी ज्ञान काम न आये, तो ऐसी कहानियों में समस्याओं के हल खोजने में कोई हेठी नहीं होती बल्कि समझदारी होती है। सहजबुद्धि बेशकीमती होती है, वह बड़ों बड़ों को असहज कर देती है। उसी तरह से सहज ज्ञान हर किताबी ज्ञान से बड़ा होता है।
- राजेन्द्र चौधरी
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