शनिवार, अक्टूबर 08, 2011

मुक्तक नहीं कुछ मुक्त विचार

मुझे मालूम नहीं आज क्या सूझी है कि अपने मन के मुक्त विचारों को थोड़ी तुकबन्दी के साथ पेश करने की कोशिश की जाये। मेरा मन चूँकि मूलत: कविता का बसेरा रहा है, इसलिए आज इसकी मान कर गद्य के साथ थोड़ी छेड़छाड़ कर लेने में मुझे कोई हर्ज नहीं लगा। आपसे अनुरोध है इस कोशिश को भी प्यार से स्वीकार कर लें क्योंकि विचारों ने सिर्फ पहनावा बदला है। अच्छे लगें तो बस गले लगा लीजिये इन्हें इसी पहनावे के साथ:

वो ही सपने हमारी आँखों में अधिक देर तक बसते हैं, जो हमारी पहुँच से दूर होते हैं।
हम चीजों को तभी कस कर पकड़ते हैं, जब हम उन्हें छोड़ने के लिए मजबूर होते हैं।

हम चाहते हैं हमारे अपने हमेशा साथ रहें, हालांकि अपना साया तक साथ छोड़ देता है।
हम चाहते हैं चीजें हमारे मनचाहे ढंग से हों, वक़्त है कि हर चीज का रुख मोड़ देता है।

हम दूसरों को सच्चाई का सबक सिखाते हैं, वही सच्चाई हमारे लिए भी खरी होती है।
हमें तो कोसते रहने की आदत है क्योंकि घास तो दूसरों के लॉन की ही हरी होती है।

हमारा प्यार, हमारा आदर, हमारा हँसना, हमारा रोना, गोया सब कुछ मशीनी होता है। हम तूफान में उन्हीं चीजों को लपक कर थामते हैं जिनका उड़ जाना यकीनी होता है।

डरते होंगे बच्चे कभी माँ-बाप से, आज के दौर में औलाद से माँ-बाप सहमे रहते हैं। हुकूमत पुण्य की रही होगी कभी माना मगर, आज के पुण्य से तो पाप सहमे रहते हैं।

अजब तबियत हमारी है, जो मिला बेकार है, जब तलक जो ना मिला वो आये ना।
अहमियत दिखती नहीं जो पास है उसकी कभी, जब तलक वो हाथ से खो जाये ना।

दुनिया खराब है, कहना आसान है, ख़ुद को ठीक करने को कभी कुछ किया हमने?
परिवार ताकत है, परिवार टूट न जाये, इसे जोड़े रखने को कभी कुछ किया हमने?

छोटे मसलों में दिमाग की सुनो, बड़ों में दिल की; यह बात मालूम थी मानी कभी नहीं।
समझ की अपनी सीमायें हैं मूर्खता की नहीं; यह बात मान तो ली थी जानी कभी नहीं।

जाने देना वो है जो सचमुच तुम्हारा था, तुमने फिर भी बेगरज़ जाने दिया।
छोड़ देना वो है जो कभी भी तुम्हारा नहीं था, तुमने बेलौस बस जाने दिया।

जब दुनिया में आये तो मुट्ठी बंद थी, जाते हैं तो हाथ सबके रीते होते हैं।
क्या हुआ मेहनत की जड़ कड़वी सही, फल तो अक्सर उसके मीठे होते हैं।

छत ने कहा ऊँचा सोच, पंखा बोला ठंडा रह, घड़ी बोली कितना वक़्त सोके बिता दिया।
खिड़की बोली बाहर देख, दरवाज़ा बोला मुझे धकेल, मुझको कमरे ने जीना सिखा दिया।

वो दुश्मन ही सही कोस मत, सताना छोड़, यह काम वक़्त के पास रहने दे।
अभी कच्चे हैं तेरी उम्मीदों के फल, पकने के लिए उन्हें थोड़ी सी धूप सहने दे।

पुरानी बीवी, पुराना कुत्ता, जेब का पैसा, ये ही तेरे अपने हैं, इन पर भरोसा रख।
ठंडे पड़ने पे रिश्ते मुर्दों की तरह अकड़ते हैं, तू अपने रिश्तों का पानी कोसा रख।

- राजेन्द्र चौधरी

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें