शुक्रवार, अक्टूबर 07, 2011

दो भाइयों की कहानी

सुधा मूर्ति जी की मूल अंग्रेज़ी पुस्तक, ‘The Old Man and His God’ से साभार एवं बिना किसी व्यावसायिक हित के मेरे द्वारा स्वेच्छा से हिन्दी में अनुवादित:

[राम और श्याम एक जैसी शक्ल सूरत वाले दो जुडवाँ भाई थे। वे प्री-यूनिवर्सिटी और ग्रेजुएट कॉलेज में मेरे छात्र थे जहाँ पर वे एमसीए के डिग्री कोर्स के लिए पढाई कर रहे थे, यानि मैंने उन्हें लगभग सात वर्षों तक पढाया था। ज़ाहिर है कि उन वर्षों के दौरान मैं उनके और उनके परिवार के बारे में काफी अच्छी तरह जान गयी थी। मैं देखती थी कि अन्य जुडवाँ भाइयों की तरह राम और श्याम भी एक दूसरे के साथ खुश रहते थे और अपने होमवर्क, लैब व क्लास नोट्स में एक दूसरे की मदद करते हुए वे कॉलेज में हमेशा साथ-साथ दिखाई देते थे। उनकी शक्ल सूरत एक दूसरे से इतनी ज्यादा मिलती थी कि कभी-कभी मैं पहचान नहीं पाती थी कि कौनसा राम है और कौनसा श्याम। मैं उनसे मज़ाक में कहती, “तुम लोगों को कुछ न कुछ ऐसा पहनना चाहिये ताकि मैं तुम्हें पहचान सकूँ। मुझको इतनी दुविधा होती है, तो तुम्हारी शादी हो जाने के बाद क्या होगा? मेरे ख्याल से तुम लोगों को शादी भी एक जैसी शक्ल सूरत वाली जुडवाँ लडकियों से करनी चाहिये। तब जो उलझन और गडबडी पैदा होगी, वह बहुत मज़ेदार होगी”।

एमसीए करने के बाद, वे एक सॉफ्टवेयर कम्पनी में नौकरी करने लगे। उनके पिता एक उद्योगपति थे और माँ एक स्कूल में प्रिंसिपल थीं। इसलिए वे एक सम्पन्न परिवार से थे और उनका घर काफी बडा था तथा एक फॉर्महाउस भी था। एक दिन, वे दोनों लडके मुझे अपनी शादी में आमंत्रित करने के लिये आये। मज़े की बात यह थी कि वे वाकई ऐसी लडकियों से शादी कर रहे थे जो जुडवाँ बहनें थीं!

मैंने फिर मज़ाक में कहा, “ऐसा लगता है तुम्हारी ज़िन्दगी की कहानी किसी फिल्म की कहानी की तरह हो जायेगी! तुम्हें जुडवाँ लडकियां कैसे मिलीं? उनके नाम क्या हैं?”

“मैडम, जब हमने शादी करने का निश्चय किया तो हमने जानबूझ कर जुडवाँ बहनें ढूँढीं, क्योंकि हमने महसूस किया कि जुडवाँ लडकियां ही हमें और हमारी दोस्ती को पूरी तरह से समझ सकती हैं। उनके नाम स्मिता और सविता हैं। आप प्लीज हमारी शादी में ज़रूर आयें। आखिरकार, यह विचार सबसे पहले आपको ही तो सूझा था!”

मैं उनकी शादी में शामिल हुई और मन से दोनों जोडों को आशीर्वाद दिया। मैंने महसूस किया कि इससे दोनों पक्षों के माता-पिता को भी बडी राहत मिली होगी। दो भाई दो बहनों से शादी कर रहे हैं, तो दोनों जोडों के बीच कम से कम कोई प्रतिद्वन्द्विता तो नहीं होगी।

कई महीनों बाद, अचानक एक दिन राम और श्याम की माताजी का मेरे पास फोन आया। उनकी आवाज़ में थकावट लग रही थी। परेशानी सी में उन्होंने कहा, “मैडम, क्या आप आकर बच्चों से बात कर सकती हैं?”

मैं समझ गयी कि कुछ न कुछ परेशानी है, और उसी वीकेंड पर माजरा जानने के लिए मैं उनके घर गयी। थोडी देर तक तो मैं मकान को पहचान ही नहीं पायी, हालांकि मैं उसी के सामने खडी थी। अब एक के बजाय मकान में सामने के दो दरवाजे थे और गार्डन भी दो हिस्सों में बंटा हुआ था। मुझे लगा कि मैं शायद गलत पते पर आ गयी हूँ या वे लोग कहीं और चले गये हैं, लेकिन राम की माताजी ने मुझे देख लिया और अन्दर से ही आवाज़ लगायी।

मैं अन्दर चली गयी और मैंने फौरन ही भाँप लिया कि माहौल में एक अजीब उदासी है। मकान को बडे बेतुके ढंग से दो हिस्सों में बांटा गया था। ड्रॉइंग रूम अब बहुत छोटा हो गया था, और बेडरूम बहुत बडे और किचिन का आकार अजीब सा था। मकान में हॉल से लेकर किचिन तक ईंटों की एक लम्बी दीवार चिनी हुई थी। घर में एकदम सन्नाटा पसरा हुआ था। मैंने उनकी माताजी से पूछा, “ क्या हुआ? आपने यहाँ पर यह दीवार क्यों लगा दी?” फिर उन्होंने मुझे अपनी दुख भरी कहानी सुनायी।

“राम और श्याम में लडाई हुई और दोनों अलग-अलग हो गये, इसीलिए यह दीवार खडी हो गयी। आपको यह देख कर इतनी हैरानी क्यों हो रही है? बडे होने पर लोग बदल जाते हैं। छुटपन में उनमें दिखने वाली वह मासूमियत खो जाती है”।

मैंने कहा, “भाइयों के बीच अक्सर लडाई उनकी पत्नियों के कारण होती है, लेकिन यहाँ पर तो वे दोनों सगी बहनें हैं, उन्होंने इस सब के लिये क्यों उकसाया?”

“जब हमने उनकी शादी की, तब हम भी यही सोचते थे। कुछ दिनों तक ठीक ठाक चला। जब मेरे पति रिटायर हो गये, तो हमने सम्पत्ति का बंटवारा करके दोनों भाइयों को बराबर हिस्सा देने की सोची। बस वहीं पर परेशानी शुरू हो गयी। उन दोनों को वही मकान और वही फॉर्महाउस चाहिये था। इस समस्या को हम कैसे हल करते? वे दोनों अपनी ज़िद पर अडे थे, इसलिए दोनों की गृहस्थियों को अलग करने के लिए यह दीवार खडी करनी पडी”।

वह पुरानी कहावत आज भी कितनी सच्ची है, पैसा ऐसी चीज है जो लोगों को जोडता कम है, अलग ज्यादा करता है! झगडा सम्पत्ति को लेकर था।

उनकी माताजी चाहती थीं कि मैं उनसे बात करूँ और उनकी टीचर के रूप में उन्हें समझाऊँ। लेकिन मैं जानती थी कि पैसों के मामले में उनकी इस कॉलेज टीचर के शब्द उनकी सोच को नहीं बदल पायेंगे। फिर भी मैंने कोशिश की। मैंने कहा, “जब से तुम अपनी माँ के पेट में आये थे, तब से तुम मिलजुल कर एक ही जगह पर रहते आये हो। तुम अपनी माँ की कोख में साथ-साथ रहे, तुम अपने सुख-दुख बांट कर साथ-साथ इस घर में बडे हुए। तुमने जुडवाँ लडकियों से शादी की ताकि वे तुम्हारी दोस्ती को बेहतर ढंग से समझ सकें। तुम लोगों को समझना चाहिये कि ज़िन्दगी में कभी-कभी समझौता करना और अपने प्रियजनों के साथ शांति से रहना कितना महत्वपूर्ण होता है”।

उनके पास मेरी बातों का कोई जवाब नहीं था और मैं जानती थी कि उनके कानों पर जूँ नहीं रेंगेगी। मैं नाकामयाब वापस लौट आयी। जब तक मैं घर पहुँची, मैं अपने एक दोस्त के साथ डिनर अपॉइंटमेंट के लिए लेट हो चुकी थी। वह मेरा साथी था और मैं बहुत वर्षों से उसे जानती थी। मुझे देरी से आते हुए देख कर उसने कहा, “समय की पाबन्दी अच्छी टीचर की पहचान है - लेकिन सिर्फ क्लास में ही नहीं बल्कि दूसरी जगहों पर भी”।

मैंने उसकी बात पर सहमति जतायी और क्षमा माँगी।

“मुझे अफसोस है। लेकिन हम अब किस रेस्त्रां में चल रहे हैं?”

उसकी पत्नी ने मुस्कुराते हुए कहा, “हम तीस किलोमीटर दूर एक गाँव के लिए चल रहे हैं”।

“ओह, किसी फॉर्महाउस में है?”

“नहीं, हमारा कोई फॉर्महाउस नहीं है। डिनर एक फार्मर के हाउस पर है”।

वे किस बारे में बात कर रहे थे, मेरी समझ में नहीं आया। इसलिए मैं चुपचाप गाडी में बैठ गयी। मेरा दोस्त पहले हमें लेकर नज़दीक के एक मार्केट में गया। वहाँ से उसने कुछ मिठाई और फल खरीदे तथा उसकी पत्नी ने कुछ कपडे। मैंने फिर उत्सुकतावश पूछा, “हम जा कहाँ रहे हैं?”

उसने बडी शांति के साथ जवाब दिया, “मेरे भाई के घर। वह हमें बहुत दिनों से अपने यहाँ बुला रहा है। मुझे यकीन है तुम्हें वहाँ पर अच्छा लगेगा”। जहाँ तक मुझे मालूम था उसके कोई भाई या बहन नहीं थे। वह अपने माता-पिता की अकेली संतान था।

“यह भाई कहाँ से आ गया? कोई कजिन है? या कोई घनिष्ठ मित्र जो भाई की तरह है? या हिन्दी फिल्मों की तरह तुम्हें अचानक पता चला है कि तुम्हारा एक भाई है जो तुमसे बहुत पहले बिछुड गया था?”

मेरी बात सुन कर वह बस रहस्यमयी ढंग से मुस्कुराया और गाडी चलाता रहा। कुछ ही देर में हम बैंगलोर से बाहर निकल आये और गाडी हाईवे पर तेज़ी से दौडने लगी। उसकी खामोशी मुझे बेचैन कर रही थी और मैं सोचने लगी कि कहीं मैंने उससे बहुत अधिक सवाल तो नहीं पूछ लिये या उसकी निजी ज़िन्दगी में झांकने की बलात कोशिश तो नहीं की। अगर हम अमेरिका में होते और मैंने इतनी बातें की होतीं, तो वह मुझे अब तक चुप रहने और अपने काम से काम रखने के लिए कह चुका होता। लेकिन यहाँ हिन्दुस्तान में हम लोगों से उनकी निजी ज़िन्दगी के बारे में सवाल पूछने से खुद को नहीं रोक पाते, चाहे उसमें हमारी दिलचस्पी हो या नहीं।

अचानक मेरे दोस्त ने बोलना शुरू किया।

“पछपन साल पहले, मैं उस गाँव में पैदा हुआ था जहाँ पर हम जा रहे हैं। जब मैं सिर्फ दस दिन का था तो मेरी माँ चल बसी थी। मेरे पिताजी उनसे बेहद प्यार करते थे और माँ की अचानक मौत से उनका दिल टूट गया था लेकिन उन्हें मेरी परवरिश भी करनी थी। मुझे गाय का दूध हजम नहीं होता था और माँ के चले जाने से मैं और कोई दूध पी ही नहीं पाता था। मैं पूरे पूरे दिन भूखा बिलखता रहता था। उन दिनों बच्चों के लिए कोई इन्फैंट फोर्मुला या पाउडर वाला दूध नहीं होता था। मैं कमजोर होता चला गया और मेरे ज़िन्दा बचे रहने की उम्मीद कम होती चली गयी। मेरे पिताजी मुझे लेकर बहुत चिंतित थे लेकिन उन्हें कुछ सूझ नहीं पा रहा था कि क्या करें। उन्हें मदद मिली सीताक्का से। वह हमारे नौकर की बीवी थी और मेरे पैदा होने से कुछ दिन पहले ही उसने एक बेटे को जन्म दिया था। जब उससे मेरी दयनीय हालत नहीं देखी गयी तो उसने मेरे पिताजी से कहा, “अन्ना, अगर आपको बुरा ना लगे, तो मैं इस बच्चे को अपने बेटे के साथ अपना दूध पिलाना चाहती हूँ”। मेरे पिताजी ने कुछ देर सोचा, और हालांकि बहुत से रिश्तेदारों ने इसका विरोध किया, लेकिन उन्होंने इसके लिये अपनी सहमति दे दी और सीताक्का ने अपना दूध पिला कर मेरी ज़िन्दगी बचा ली। वह मुझे तब तक अपना दूध पिलाती रही जब तक मुझे गाय का दूध और दूसरा खाना हजम होना शुरू नहीं हो गया। मैं पाँच सालों तक इस गाँव में रहा, लेकिन मुझे सीताक्का हमेशा याद रहती है और मैं उसे एक महान महिला मानता हूँ। असल में, मैं उसके बेटे हनुमा को अपना भाई मानता हूँ। मैंने उसे अपनी जायदाद में से भी कुछ हिस्सा दिया, हालांकि मेरे रिश्तेदारों ने पहले की तरह इसका भी बहुत विरोध किया। उनके लिए सीताक्का महज़ एक नौकरानी थी, लेकिन मेरे लिए वह एक विशाल हृदय वाली, सरल औरत थी, जिसका प्यार कोई पाबंदियां नहीं जानता था।

“अब मैं बैंगलोर में अपने काम में व्यस्त रहता हूँ, लेकिन मैं उसके बेटे, यानि अपने भाई से मिलने साल में कम से कम एक बार ज़रूर जाता हूँ। आखिरकार सीताक्का ने बिना कोई अपेक्षा किये अपना प्यार हम दोनों पर बराबर मात्रा में उंडेला था। हम एक ही माँ के प्यार के भागीदार रहे, इसलिए हम दोनों भाई ही तो हुए”।

जब तक उसकी कहानी खत्म हुई, हम गाँव में पहुँच चुके थे और मेरे दोस्त ने हनुमा की ओर इशारा किया जो हमें अपने घर ले जाने के लिए सडक के किनारे खडा हुआ था। पूरे डिनर के दौरान, उन दोनों के बीच प्यार देख कर, मुझे राम और श्याम के परिवारों के बीच की वह दीवार याद आती रही और मैं नियति की इस विडम्बना पर चकित होती रही, जिसने भाइयों को अजनबी बना दिया था और मालिक और नौकर के बेटों को भाई।]

प्रस्तुति: राजेन्द्र चौधरी

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