आज का यह लेख मेरा मौलिक लेख नहीं है। यह ‘इंफोसिस’ कम्पनी के कुशाग्र और विख्यात संस्थापक एवं पूर्व अध्यक्ष तथा अपनी सादगी व प्रेरणादायी जीवनशैली के लिए मशहूर श्री नारायणमूर्ति की धर्मपत्नी और परोपकारी कार्यों में सदैव अग्रणी रहने वाली श्रीमती सुधामूर्ति की एक कहानी बल्कि उनके एक प्रसंग का हिन्दी रूपांतर है। उनका यह प्रसंग मैंने कई वर्षों पहले उनकी अंग्रेज़ी भाषा में लिखी पुस्तक ‘The Old Man and His God’ में पढ़ा था और यह सोच कर मैंने उस पुस्तक के कुछ प्रसंगों का हिन्दी अनुवाद किया था कि मैं उनकी उस पूरी पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद करूँ। मैंने नमूने के तौर पर अपने अनुवाद को उनके कार्यालय को भेजा भी, लेकिन पता चला कि उनकी उस पुस्तक का पहले ही हिन्दी में अनुवाद किया जा चुका है और वह हिन्दी संस्करण शीघ्र ही बाज़ार में उपलब्ध होने वाला है। खैर, अपने इस ब्लॉग के माध्यम से मैं अपनी उस कोशिश को आप तक तो पहुँचा ही सकता हूँ।
“एक बार एक सेमिनार में मुझे मातृत्व के विषय पर बोलने के लिए आमंत्रित किया गया। इस सेमिनार में अलग-अलग क्षेत्रों से बडी संख्या में लोग मौजूद थे। कुछ मेडिकल प्रैक्टिश्नर थे, तो कुछ अनाथालयों, गोद लेने वाली संस्थाओं, व गैर-सरकारी संस्थानों से आये थे। धार्मिक नेता, सफल माताएं (आयोजकों के हिसाब से सफल माताओं की परिभाषा यह थी कि जिनके बच्चों ने जीवन में अच्छी प्रगति की है और खूब पैसा कमाया है), युवा माताएं, सभी मौजूद थीं।
वहाँ पर बहुत से स्टॉल लगे हुए थे जिन पर बच्चों के उत्पाद, और मातृत्व, तथा किशोर बच्चों को कैसे संभालें, आदि विषय पर पुस्तकें उपलब्ध थीं। सभी वक्ता अच्छे थे और वे अधिकतर अपने अनुभवों के बारे में दिल से बोले। मीडिया के लोग भारी तादाद में मौजूद थे और वे मशहूर व्यक्तियों के फोटो खींच रहे थे। चूँकि इस सेमिनार का आयोजन सामाजिक कल्याण विभाग द्वारा किया गया था, इसलिए बहुत से सरकारी अधिकारी और बडी संख्या में छात्र भी उपस्थित थे।
जब मेरा नम्बर आया, तो मैंने कई वर्षों पहले हुई एक सच्ची घटना के बारे में बताना शुरू किया।
मेरी एक दोस्त डॉ. आरती के घर पर मंजुला खाना बनाने का काम करती थी। मंजुला का पति निकम्मा और बेकार था। उसके पाँच बच्चे थे और जब वह छठी बार गर्भवती हुई, तो उसने गर्भपात कराने का और साथ ही नसबंदी कराने का निश्चय किया।
लेकिन डॉ. आरती के मन में एक भिन्न विचार आया। उसकी बहन काफी अमीर थी लेकिन उसके कोई संतान नहीं थी और वह किसी नवजात बच्चे को गोद लेना चाहती थी। चूँकि वह काफी दिनों से किसी ऐसे बच्चे की तलाश में थी, इसलिए आरती ने एक सुझाव दिया।
“मंजुला, गर्भपात कराने के बजाय, तुम इस बच्चे को जन्म क्यों नहीं देतीं, और वह चाहे लडका हो या लडकी, मेरी बहन उसे गोद ले लेगी। वह इस शहर में रहती भी नहीं है, इसलिए तुम्हें उस बच्चे के चेहरे को कभी देखने की नौबत भी नहीं आयेगी। वह उस बच्चे को कानूनी तौर पर गोद लेगी और तुम्हारे बाकी बच्चों की पढाई में भी तुम्हारी मदद करेगी। यह बच्चा, जो इस समय अनचाहा है, उसकी परवरिश अच्छे से होगी और उसे बहुत प्यार मिलेगा। मेरे सुझाव पर विचार करो, निर्णय तुम्हारा है और मैं कोई जोर नहीं डालूँगी”।
मंजुला ने कुछ दिन सोचा और आखिरकार वह इस प्रस्ताव पर सहमत हो गयी। कुछ महीनों बाद उसने एक बच्ची को जन्म दिया। डॉ. आरती की बहन भी सभी औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद उसी दिन आ गयी। यह तय हो चुका था कि वह बच्चे को उसके जन्म के एक दिन बाद ले जायेगी। लेकिन जब बच्चे को सौंपने का वक्त आया, तो मंजुला ने उसे देने को मना कर दिया। उसकी छाती में अब दूध उतर आया था और बच्ची ने दूध पीना शुरू कर दिया था। उसने बच्ची को अपने कमजोर शरीर से चिपटा लिया और रोना शुरू कर दिया, “मैं मानती हूँ कि मैं बहुत गरीब हूँ। अगर मेरे पास एक कटोरी भात भी होगा, तो मैं उसे इस बच्ची के साथ बांट कर खा लूँगी। लेकिन मैं इसे अलग नहीं कर सकती। यह इतनी छोटी है और पूरी तरह से मेरे पर आश्रित है। मैं वादा तोड रही हूँ लेकिन मैं अपनी बच्ची के बिना नहीं रह सकती। मेहरबानी करके मुझे माफ़ कर दीजिये”।
आरती और उसकी बहन का परेशान होना स्वाभाविक था। वे उस बच्ची का अपने परिवार में स्वागत करने के लिए खुद को तैयार कर चुकी थीं। लेकिन मंजुला को रोते हुए देख कर, वे समझ गयीं कि मातृत्व को हमेशा समझौतों के तर्क पर नहीं कसा जा सकता है।
मैंने यह कहते हुए अपना भाषण समाप्त किया कि मैंने बहुत बार देखा है कि माँ अपने बच्चों के लिये कुछ भी बलिदान करने के लिए तैयार रहती है। मातृत्व एक प्राकृतिक प्रवृत्ति है। हमारी संस्कृति इसे महिमामंडित करती है और माता को अन्य किसी की तुलना में अत्यधिक सम्मान दिया जाता है। जोरदार तालियों के साथ मेरी प्रशंसा की गयी। मैं भी अपने भाषण से संतुष्ट थी।
मैं स्टेज से नीचे उतरी और देखा कि पास में ही मीरा खडी हुई थी। वह अंधी थी और नेत्रहीनों के स्कूल में अनाथ बच्चों को पढाती थी। वह सेमिनार में अपने स्कूल का प्रतिनिधित्व कर रही थी। मैं उसे काफी अच्छी तरह से जानती थी क्योंकि मैं उसके स्कूल में अक्सर जाती रहती थी। मैं उसके पास गयी और उससे कहा, “मीरा कैसी हो तुम?” वह एक मिनट तक चुप रही, फिर बोली, “मैं ठीक हूँ, मैडम। क्या आप मेरी एक सहायता कर सकती हैं?”
“हाँ, बताओ ना, क्या बात है?” ”मुझे यहाँ से ले जाने और स्कूल में छोडने के लिये अहमद इस्माइल को आना था। लेकिन उसने अभी मेरे सेलफोन पर कॉल करके कहा है कि वह ट्रैफिक जाम में फंसा हुआ है और उसे अभी और समय लगेगा। क्या आप मुझे मेरे स्कूल तक छोड सकती हैं?” अहमद इस्माइल नेत्रहीनों के स्कूल का ट्रस्टी था।
मीरा का स्कूल मेरे ऑफिस के रास्ते में ही पडता था, इसलिए मैं फौरन तैयार हो गयी। कार में, मैंने देखा कि वह बहुत खामोश थी और इसलिए मैंने बातचीत का सिलसिला शुरू किया।
“मीरा, आज का सेमिनार कैसा रहा? क्या तुम्हें मेरा भाषण पसंद आया?” मैं उम्मीद कर रही थी कि आमतौर पर दिया जाने वाला विनम्र उत्तर मिलेगा कि अच्छा था। लेकिन मीरा ने जवाब दिया, “मुझे आपका भाषण पसंद नहीं आया। इस तरह मुँहफट होने के लिये माफ़ी चाहती हूँ, लेकिन ज़िन्दगी हमेशा वैसी नहीं होती”।
मैं आश्चर्यचकित रह गयी। मैं जानना चाहती थी कि इसके पीछे क्या कारण था, इसलिए मैंने उससे पूछा, “मुझे बताओ मीरा। तुमने ऐसा क्यों कहा? जो कुछ मैंने वहाँ कहा वह कोई कहानी नहीं थी, बल्कि सच्ची घटना थी। कभी-कभी सच्चाई कहानी से भी अधिक बेगानी हो जाती है”।
मीरा ने गहरी साँस ली, “हाँ, कभी-कभी सच्चाई कहानी से भी अधिक बेगानी हो जाती है। असल में, मैं आपको यही कहना चाहती थी। मैं आपको एक दूसरी कहानी सुनाती हूँ। एक पाँच साल की लडकी थी जिसे आँखों से बहुत कम दिखाई देता था। उसके माता-पिता दोनों मजदूरी करते थे। वह लडकी अक्सर उनसे शिकायत करती थी कि उसे ठीक से दिखाई नहीं देता, लेकिन वे कह देते कि ऐसा इसलिए है क्योंकि वह ठीक से खाती पीती नहीं है और जब कुछ पैसों का इंतजाम हो जायेगा तो वे उसे डॉक्टर को दिखा देंगे। आखिरकार एक दिन, वे उसे डॉक्टर के पास लेकर गये। उसने उन्हें बताया कि लडकी को ऑपरेशन की ज़रूरत है जिसमें काफी पैसा लगेगा, वर्ना वह धीरे-धीरे बिल्कुल अंधी हो जायेगी। लडकी के माता-पिता ने आपस में कुछ बातचीत की और वे उसे लेकर एक बस-स्टैंड पर आ गये। उन्होंने उसे एक बिस्किट का पैकेट दिया और कहा, “बेटा, तुम ये बिस्किट खाओ और हम अभी पाँच मिनट में आते हैं”।
“बच्ची को ज़िन्दगी में पहली बार बिस्किट का एक पूरा पैकेट मिला था। वह बेहद खुश हुई और उनका आनन्द लेने के लिए वहाँ पर बैठ गयी। अपनी आधी अन्धी आँखों से वह बस अपनी माँ की फटी हुई लाल साडी के पल्लू को भीड में गुम होते देख पायी। दिन ढलने लगा, हवा में ठंडक शुरू हो गयी और वह समझ गयी कि अंधेरा हो चला है। बिस्किट का पैकेट कभी का खत्म हो चुका था। वह अकेली, बेसहारा और डरी हुई थी। वह अपने माता-पिता के लिए चिल्लाने लगी और फटे हुए लाल पल्लू को पहचानने की कोशिश करती हुई वह बेकार में उन्हें तलाश करती रही”।
“उसके बाद क्या हुआ?”
“जहाँ पर भी सोने की जगह मिली, वहीं पर भूखी प्यासी सो कर उस बच्ची ने अपने माता-पिता को ढूँढना जारी रखा। एक दिन, एक दयालु आदमी ने उसकी दयनीय दशा देखी और वह उसे अंधे व्यक्तियों के स्कूल में ले गया। वह बच्ची कोई नाम या पता नहीं बता पायी जिससे उसके माता-पिता को ढूँढा जा सके। उस आदमी ने मैट्रन से अनुरोध किया कि अगर कोई माता या पिता उस बच्ची को लेने के लिये आयें, तो वे उनकी जाँच-पडताल करने के बाद उसे उनको सौंप सकते हैं। लेकिन उसे ढूँढता हुआ कोई नहीं आया। बच्ची ने अपनी माँ का कई सालों तक इंतजार किया, और अंत में एक दिन उसने उम्मीद छोड दी”।
मैंने मुड कर मीरा की तरफ देखा, वह रो रही थी और मुझे अहसास हुआ कि मेरी भी आँखें भरी हुई थीं। हालांकि मैं अपने दिल में जानती थी, लेकिन फिर भी मैंने उससे पूछा, “मीरा, तुम उस बच्ची के बारे में यह सब कैसे जानती हो?”
रोते हुए, उसने जवाब दिया, “क्योंकि वह आधी अन्धी आँखों वाली बच्ची मैं ही थी। अब, मुझे बताइये, मेरी माँ मुझे उस तरह छोड कर कैसे चली गयी? वह मुझे बिस्किट के पैकेट से बहका कर चली गयी। उस मातृत्व का क्या हुआ जिसके बारे में आप इतने पुरजोर ढँग से बोल रहीं थीं? क्या गरीबी मातृत्व से भी अधिक ताकतवर होती है?”
मेरे पास उसकी बातों का कोई जवाब नहीं था। मैं बस उसके हाथ को अपने हाथ में थामे बैठी रही। मैं समझ गयी थी कि इस पृथ्वी पर जितनी तरह के लोग हैं उतनी ही तरह की माँएं भी हैं, और गरीबी व्यक्ति से बडे बडे दुस्साहसी काम करा देती है।
आज भी, अगर सडक पर कोई औरत मुझे लाल साडी पहने हुए दिख जाती है, तो मैं मीरा और मातृत्व के उसके अनुभव के बारे में बरबस सोचने लगती हूँ”।
- प्रस्तुति: राजेन्द्र चौधरी
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