गुरुवार, अक्टूबर 06, 2011

गरीबी के दो चेहरे

आज का यह लेख भी सुधा मूर्ति जी पुस्तक, ‘The Old Man and His God’ में शामिल एक प्रसंग का हिन्दी-भाषी पाठकों के हितार्थ मेरे द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद है:

[लीला मेरे दफ्तर में वर्षों से काम कर रही है। वह झाडू, पौंछा और साफ-सफाई का काम करती है। वह अपना काम चुपचाप शांति से करती है और अगर कभी कुछ अतिरिक्त काम भी उसे दे दिया जाता, तो बिना किसी शिकवे-शिकायत के उसे भी पूरा कर देती है। चूँकि वह चुपचाप रहती थी और मैं अक्सर बहुत व्यस्त, इसलिए मैं उसकी निजी ज़िन्दगी के बारे में कुछ ज्यादा नहीं जानती थी, सिवाय इसके कि उसके पति ने उसे छोड दिया था और वह अकेले तीन बेटियों का पालन-पोषण कर रही थी।

एक दिन, वह मेरे चैम्बर में सफाई करने के लिये आई और अपना काम करने के बाद वह मेरे सामने हिचकिचाते हुए खडी हो गयी। चूँकि यह उसके स्वभाव में नहीं था, इसलिए मुझे आश्चर्य हुआ। धीरे से, उसने एक पुरानी पोटली निकाली और मेरे सामने रख दी। फिर उसने धीमी आवाज़ में कहा, “मैडम क्या आप मुझे बीस हजार रुपये उधार दे सकती हैं?” मैं अभी भी उलझन में थी और मैने पूछा, “क्या हुआ लीला? तुम्हें अचानक इतने पैसे क्यों चाहियें?” उसने जवाब दिया, “मेरी सबसे छोटी बेटी कॉलेज में दाखिला लेना चाहती है और उसके लिए मुझे पैसा चाहिये।” जिस समय वह मुझे यह बता रही थी, मैंने कपडे की पोटली खोली और देखा कि उसके अन्दर सोने की दो पुरानी चूडियाँ थीं। मैंने पूछा, “तुम यह मुझे क्यों दे रही हो लीला?”

“मेरे पास बस यही है मैडम, अपनी बेटी को आगे पढाने के लिये मैं कुछ भी करूँगी। वह बहुत होशियार है। वह इंजीनियर बनना चाहती है।”

लडकी के बारे में बताते हुए उसकी आवाज़ में गर्व साफ झलक रहा था। लेकिन किस माँ को अपना बच्चा सबसे अच्छा और होशियार नहीं लगता? इसलिए मैने लीला से कहा, “इन चूडियों को अपने पास रखो। मैं पैसा उधार देने वाली कोई महाजन नहीं हूँ। मैं तुम्हारी बेटी से मिलना चाहती हूँ और उससे खुद बात करना चाहती हूँ। उससे कहो कि वह अपने स्कूल के सर्टिफिकेट्स के साथ मुझसे आकर मिले।”

अगले दिन साधारण से लेकिन साफ कपडों में एक लडकी मेरे दफ्तर में मेरा इंतज़ार कर रही थी। वह चेहरे से बुद्धिमान लग रही थी और जैसे ही मैं अन्दर आयी तो वह नम्रता के साथ खडी हो गयी।
उसने अपना परिचय दिया, “मैडम मैं लीलाअम्मा की बेटी हूँ। मेरा नाम गिरिजा है। मेरी माँ ने कहा था कि आप मुझसे बात करना चाहती हैं।”

फिर उसने अपने सर्टिफिकेट्स मेरे आगे रख दिये। उसके द्वारा लगातार हर साल प्राप्त किये गये अच्छे नम्बरों को देख कर मैं हैरान रह गयी। उसके पास पढाई के अलावा अन्य गतिविधियों के भी बहुत सारे प्रमाणपत्र थे। इसीलिए शायद लीला को उस पर इतना गर्व था और उसके लिये वह अपनी चूडियां भी गिरवी रखने को तैयार थी। मैंने उसकी तरफ दोबारा गौर से देखा। उसका रंग गोरा था और उसका चेहरा ओस की तरह विमल था। मुझे यह अजीब लगा, क्योंकि लीला का कद छोटा और रंग काफी सांवला था। हमने कुछ मिनटों तक और बातचीत की और मुझे गिरिजा के शब्दों में उसकी माँ व बहनों के प्रति उसके स्नेह की स्पष्ट झलक दिखायी दी। मैंने उसे वापस भेज दिया और लीला को बुलाया।

“लीला, मैं तुम्हारी दूसरी दो बेटियों से मिल चुकी हूँ जब वे एक बार दफ्तर आयीं थीं, लेकिन मैं गिरिजा से मिलकर बहुत प्रभावित हुई। उसमें कुछ बात है जो उसे भिन्नता प्रदान करती है। तुम ठीक कहती थीं, वह बहुत होशियार है। उसकी पढाई की फीस के बाबत मैं तुम्हारी मदद करूँगी। अगर वह अच्छे नम्बर लाती रही, तो मैं उसके पूरे कोर्स की फीस दे दूँगी। अगर वह मेहनत करती रही, तो उस लडकी में अपना भविष्य बदल देने की क्षमता है . . .।” मैं बात करती जा रही थी और अपनी मेज की चीजों को व्यवस्थित भी करती जा रही थी। काफी बोल चुकने के बाद मुझे अहसास हुआ कि लीला बिना कुछ कहे चुपचाप खडी हुई थी। आखिरकार उसने अपनी चुप्पी तोडते हुए कहा, “इससे पहले कि आप मेरी मदद करें, मैं आपको कुछ बताना चाहती हूँ। गिरिजा मेरी अपनी बच्ची नहीं है। मैंने उसे गोद लिया है।” मैं हैरान रह गयी। मैंने पूछा, “कब? क्यों?”

उसने गहरी साँस लेते हुए कहा, “यह एक लम्बी कहानी है। बहुत वर्षों पहले मैं एक जवान लडकी के यहाँ काम करती थी। वह अकेली रहती थी। उसके माता-पिता यू.एस. में थे और उसे अपनी पढाई खत्म करके उनके पास जाना था। मैं उसके यहाँ खाना बनाती थी। वह लडकी देखने में सुन्दर और मिलनसार थी। उसके यहाँ अक्सर बहुत से लडके व लडकियां आते रहते थे और उसके यहाँ हंसी, मज़ाक, गाने, बजाने व दावत का माहौल रहता था।

“एक दिन वह लडकी मुझे बहुत परेशान और दुखी दिखायी दी। वह मुझसे अक्सर बातचीत करती रहती थी, इसलिए मैंने उससे पूछा कि क्या बात है। उसने बताया कि वह गर्भवती है और जो लडका इस सब के लिये जिम्मेदार था वह इस खबर को सुनते ही विदेश चला गया और उसे इस मुसीबत में अकेला छोड गया। वह अपने माता-पिता को इस बारे में बताने की हिम्मत नहीं कर पायी और गर्भपात कराने के लिये अब बहुत देर हो चुकी थी।

“यह सब सुनने के बाद मैं क्या कर करती? मैंने उसकी गर्भावस्था के दौरान पूरी देखभाल की, उसके खाने पीने का अच्छा ख्याल रखा। उसने इसी शहर के एक नर्सिंग होम में एक बच्ची को जन्म दिया। उस दौरान सिर्फ मैं ही उसकी स्थिति के बारे में जानती थी। बच्ची के पैदा होते ही उसने मुझसे कहा कि इसे ले जाकर किसी अनाथालय में डाल आओ। मैंने कोशिश भी की, लेकिन नन्ही सी बच्ची को अपनी गोद में लेने के बाद मैं ऐसा करने की हिम्मत नहीं कर सकी और मैंने तय किया कि मैं ही इस बच्ची को पालूँगी। मेरे पहले से ही दो बेटियां थीं और मेरे पति ने मुझे छोड दिया था, लेकिन मैं जानती थी कि मैं हमेशा इतना ज़रूर कमा लूंगी जिससे इस बच्ची का भी गुज़ारा हो सके। गिरिजा वही बच्ची है।”

लीला की कहानी और उसकी हिम्मत व उदारता सुन कर मैं हक्की-बक्की रह गयी। उसकी ज़िन्दगी की कुचल देने वाली गरीबी भी उसके अन्दर की मानवीयता को कम नहीं कर पायी थी।

फिर भी सब बच्चे इतने भाग्यशाली नहीं होते कि उनकी देखभाल के लिये कोई लीला मिल ही जाये। ऐसे बच्चे भी हैं जिनकी निर्दयता और उपेक्षा से भरी कहनियां बडे से बडे दोष-दर्शी लोगों को हैरत में डाल सकती हैं। ऐसा ही एक अभागा बच्चा सोमनाथ था।

आमतौर पर मैं कोशिश करती हूँ कि किसी बच्चे के माता-पिता को पैसा न दिया जाये। इसके बजाय, हम यह पैसा उस अस्पताल को देते हैं जहाँ पर वे अपने ज़रूरतमंद बच्चे का कम से कम पैसों में इलाज कराते हैं। एक बार मैंने इसका अपवाद किया और तब से मुझे इसका बहुत खेद है। यह तब शुरू हुआ जब एक दिन रामप्पा मुझसे मिलने आया। वह रिसेप्शन पर खडा हुआ मेरी सेक्रेटरी से बहस कर रहा था जो उसे बिना अपॉइंटमेंट लिये मुझसे मिलने देना नहीं चाहती थी। चूँकि वह वहाँ पर आ ही चुका था, इसलिए उसे वापस भेजने की कोई तुक न देखते हुए मैंने उसे अन्दर बुलाया। उसने कहा कि उसके बेटे को कैंसर है और उसकी जल्दी से जल्दी सर्जरी करानी है। वह एक क्लर्क है और किसी भी तरह से इसके लिये ज़रूरी दो लाख रुपये का इंतजाम नहीं कर सकता है। वह अपने साथ जो कागज़ और मेडिकल सर्टिफिकट्स लिये हुए था, मैंने उन पर नज़र डाली। फिर मैंने उससे कहा कि कुछ और कागज़ लेकर आओ – अस्पताल में भर्ती होने का सबूत, पैथोलोजी की रिपोर्टें, ऑपरेशन के खर्चे का अनुमान, अस्पताल में उसका आईडी, वगैरा। मुझे डॉक्टर का नाम भी बताओ ताकि मैं उससे बात कर सकूँ।

रामप्पा ने थोडी देर सोचा और कहा, “ठीक है, मैं कल कागज़ ले आऊँगा।” लेकिन अगले दिन, रामप्पा एक बच्चे का हाथ थामे हुए मेरे दफ्तर में आया। वह बच्चा साफतौर पर बहुत बीमार लग रहा था और उसकी दशा बहुत शोचनीय थी। ऐसी स्थिति में बच्चे को लेकर आने पर मैं उस पर बहुत नाराज़ हुई। मैंने उससे कहा, “आप इसे लेकर क्यों आये? मुझे तो सिर्फ कुछ कागज़ देखने थे।”

रामप्पा अपने जवाब के साथ तैयार था। “आपने जो कागज़ मांगे थे उन्हें लाने में मुझे कुछ दिन लग जाते, इसलिए मैं सबूत के तौर पर बच्चे को ही ले आया।”

मुझे सोमनाथ को देख कर दुख हुआ और मैंने 25000 रुपये का चैक लिख कर दे दिया। रामप्पा ने कहा, “क्या आप मुझे एक पत्र दे सकती हैं कि आपने मुझे ये पैसे दिये हैं? उस पत्र को मैं अन्य लोगों को दिखा सकता हूँ। आपका नाम देख कर वे भी मेरी सहायता करने के लिये तैयार हो जायेंगे।“ मुझे ऐसा पत्र लिख कर देने में कुछ गलत नहीं लगा और मैंने वह दे दिया। रामप्पा ने मुझे बहुत धन्यवाद दिया और यह वादा करके वह चला गया कि ऑपरेशन कैसा रहा इस बारे में वह मुझे बतायेगा। लेकिन उसकी तरफ से कोई खबर नहीं आयी और एक साल बीत गया। हम भी रामप्पा के बारे में भूल गये थे। जब ऑडिटर अपना काम कर रहे थे, तो मुझे अहसास हुआ कि रामप्पा ने न तो फोन किया और नाहीं दूसरे कागज़ात या ऑपरेशन की रसीदें भेजीं। उसने जो नाम बताया था उस अस्पताल में मैंने यह जानने के लिये फोन किया कि क्या उस साल में उन्होंने किसी सोमनाथ नाम के बच्चे का ऑपरेशन किया था। मुझे यह सुन कर दुख हुआ कि उन्होंने ऐसा कोई ऑपरेशन नहीं किया था। शायद रामप्पा पूरे पैसों का इंतज़ाम नहीं कर पाया हो, यह सोच कर मैंने अपने मन में खुद को भला-बुरा कहा कि मैंने उसकी और मदद क्यों नहीं की या इस मामले का फोलो-अप क्यों नहीं किया।

मैंने तय किया कि मैं उससे जाकर मिलूँ। उसका दिया हुआ पता अभी भी मेरे पास था। मैंने जब वह जगह ढूँढी, तो वहाँ पर ताला लगा हुआ था। यह आधुनिक तरीके से बना हुआ टाइलों और ग्रेनाइट से युक्त एक तीन मंजिला और उस इलाके का सबसे शानदार मकान था। इतनी दूर आने पर मैं सोमनाथ के बारे में और अधिक जाने बिना वापस नहीं लौटना चाहती थी, इसलिए मैंने उसके बराबर वाले मकान का दरवाजा खटखटाया। एक बुजुर्ग महिला निकल कर आयी और उसे एक अजनबी महिला द्वारा सवाल पूछे जाने पर कोई ताज्जुब नहीं हुआ। उसने मुझसे खुल कर बात की।

मैंने पूछा, “रामप्पा और सोमनाथ कहाँ हैं?”
“सोमनाथ की छह महीनें पहले मौत हो चुकी है।”
मुझे सुन कर दुख हुआ, लेकिन आश्चर्य नहीं।

इस दौरान वह बुजुर्ग महिला बोलती रही। “सोमनाथ की बीमारी रामप्पा के लिये वरदान बन कर आयी थी। उसे किसी मशहूर औरत से एक खत मिल गया जिसने उसे ऑपरेशन के लिये 25000 रुपये दिये थे। उस खत को लेकर वह जगह जगह दूसरे लोगों से मिला और उसने 8 लाख रुपये इकट्ठा कर लिये। उसी पैसे से उसने यह नया घर बनाया और ऑटो का बिजनेस भी शुरू कर दिया। अब उसकी ज़िन्दगी बहुत बढिया गुज़र रही है।”

“लेकिन क्या उसने सोमनाथ का ऑपरेशन नहीं कराया?”
“रामप्पा कोई बेवकूफ नहीं था जो उसका ऑपरेशन कराता। बेटे की बीमारी को लेकर वह बिल्कुल परेशान नहीं था। आखिर के दिनों में, जब वह पैसा इकट्ठा करने जाता तो उसे अपने साथ ले जाता था। बेचारे सोमनाथ ने बहुत तकलीफ सही और वह घर पर ही मर गया।”

मैं यह सुन कर हतप्रभ रह गयी। तभी अन्दर से एक आदमी बाहर निकला और उसने उस बुजुर्ग महिला को बात करने के लिये मना किया। लेकिन उस महिला ने गुस्से में जवाब दिया, “मैं बात क्यों न करूँ? मैंने सोमनाथ को तबसे देखा था जबसे वह पैदा हुआ था। मैंने उसे तकलीफ से तडपते हुए देखा था। रामप्पा ने अपने ही बेटे के साथ जो किया उसके लिये भगवान उसे कभी भी माफ नहीं करेगा।”

मुझे अब तक काफी कुछ पता चल चुका था, इसलिए मैंने उस महिला से इज़ाज़त ली। कार तक पहुँचते हुए मेरी आँखें भर आयीं। मैंने बस मन ही मन भगवान का धन्यवाद दिया कि इस दुनिया में अभी भी लीला जैसे लोग मौजूद हैं। वे दुर्भाग्यवश बहुतायत में पाये जाने वाले रामप्पा जैसे लोगों के द्वारा दिये जाने वाले दर्द को कम कर देते हैं।]

- प्रस्तुति: राजेन्द्र चौधरी

2 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय भाई साहेब,
    क्या कहूं इन लेखों के विषय में। आपका सम्पूर्ण ब्लॉग ही अनमोल है। आपका अध्धयन, चिंतन और लेखन सब औरो से हटकर है। अभी कुछ दिन पहले आपके द्वारा अनुवादित स्टीव जोब्स के दिक्षIत भाषण के अंश अमूल्य थे। अब सुधा मूर्ति जी की पुस्तक के ये अनुवादित अंश। मेरे पास टिपण्णी करने के लिए शब्द नहीं है। बधाई स्वीकारे । कुछ ऐसा करे की ब्लॉग के लिए पाठक भी तैयार हो सकें। इसका एक अच्छा उपाय ये है की आप दूसरो के ब्लोग्स पर टिपण्णी करे और उन ब्लोग्स पर खुद को जाहिर करे। मेरा विश्वास है एक बार पढने वाले आपके ब्लॉग से जुड़ गए तो ये ब्लॉग सबसे सफल ब्लोग्स में शामिल होगा। शुभकामनाओं सहित ...

    कुमार अनिल

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  2. प्रिय अनिल,
    ईश्वर लम्बी और स्वस्थ उम्र दे सुधा मूर्ति जी को! अभी कुछ दिन पहले स्टीव जॉब्स के दीक्षांत भाषण का हिन्दी अनुवाद मैंने अपने ब्लॉग पर प्रकाशित किया, कल वो दुनिया से सिधार गये। उनके भाषण का मेरे द्वारा किया गया अनुवाद ही उस दिवंगत उद्यमी आत्मा के प्रति मेरी श्रद्धांजली है।
    तुम्हारे स्नेहिल और उत्साहवर्धक शब्दों के लिए हृदय से आभार और आशीष। जहाँ तक ब्लॉग को लोकप्रिय बनाने और इसके लिए पाठक तैयार करने की बात है, तो इस तरफ कभी सोचा नहीं अनिल। हमेशा स्वांत: सुखाय लिखा। खुद को बेचने का हुनर कहाँ आ पाया हम लोगों को?
    सस्नेह,
    राजेन्द्र चौधरी

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