शनिवार, अक्टूबर 22, 2011
बुधवार, अक्टूबर 12, 2011
छोटी-छोटी बातें
एक दिन एक आदमी अपनी नयी कार को पॉलिश कर रहा था। आदमी की पत्नी घर पर नहीं थी, तो उसका चार साल का बच्चा बड़े चाव से अपने पिता को कार चमकाते हुए देखने लगा। अचानक बच्चे को पता नहीं क्या सूझा उसने एक नुकीला पत्थर उठाया और कार के पीछे जाकर उस पर कुछ खरोंच दिया। पिता की नज़र पड़ी तो वो गुस्से से आग बबूला हो उठा और उसने गुस्से में उसी पत्थर से बच्चे के हाथ की सारी उँगलियां तोड़ ड़ालीं। बच्चा चिल्लाता रहा पर बाप तो अपना आपा खो चुका था। खैर, बच्चा उठा, घर के अन्दर गया और उसने डिटॉल की शीशी ली और उसे खोल कर अपनी उँगलियों पर उंडेल लिया और पट्टी लपेट ली। थोड़ी देर बात पिता घर के अन्दर आया, उसने बच्चे का हाथ देखा और मन ही मन खुद को कोसने लगा। बच्चे ने अपना हाथ पिता के आगे करते हुए पूछा, “पापा! अब मेरा हाथ कब ठीक होगा?” पिता के पास कोई जवाब नहीं था। उसे खुद पर बहुत गुस्सा आया। वह घर से बाहर निकला और उसने झुँझला कर कार को एक लात मारी। तभी उसकी नज़र बच्चे के द्वारा खींची गयी लाइनों पर गयी। उसने गौर से देखा, बच्चे ने आड़े-टेढ़े अक्षरों में लिखा हुआ था - “आई लव यू पापा!”
आदमी वापस घर में आया, बच्चे से नज़रें बचा कर चुपचाप अपने बेडरूम में गया और पंखे से लटक कर उसने आत्महत्या कर ली।
क्रोध और प्रेम ऐसे प्रबल भाव हैं जो बेकाबू होने पर सब सीमायें लाँघ जाते हैं। हम चीजें अपने और अपने लोगों की खुशी के लिए खरीदते हैं, लेकिन हम चीजों को इस्तेमाल करने और लोगों को सहेजने के बजाय चीजों को सहेजने लगते हैं और लोगों को इस्तेमाल करने लगते हैं। फिर अपने किये का परिणाम भोगने से कतरा कर पलायन का घातक रास्ता ढूँढते हैं। दोनों क्रियाओं में हम अपने प्रियजनों को ही आहत करते हैं। मुझे मैनेजमेंट गुरु स्टीफन आर. कॉवि की पंक्ति याद आ गयी कि हमारी ज़िन्दगी में सिर्फ दस प्रतिशत अप्रत्याशित घटता है, बाकी का नब्बे प्रतिशत उस दस प्रतिशत अप्रत्याशित घटने पर हमारे द्वारा की गयी प्रतिक्रिया द्वारा ही निर्धारित होता है।
हमारे बच्चे हमें इसलिए याद नहीं रखेंगे कि हम उनके लिए कितना पैसा, कितनी जायदाद छोड़ कर गये। वे हमें याद करेंगे तो उन जीवन मूल्यों के लिए जो हमने उन में रोपे। वे याद करेंगे उन स्नेहिल भावनाओं के लिये जो हमने अपने व्यवहार में उनके प्रति ईमानदारी के साथ प्रदर्शित की। ईमानदारी और सच्चाई सिर्फ काम में ही ज़रूरी नहीं होती, रिश्ते में और आचरण में उसकी ज़रूरत कहीं अधिक होती है। कभी सोचना कि एक दूसरे के प्रति इतना अविश्वास कहाँ से आया, आपके अन्दर से जवाब आयेगा अपने और दूसरों के प्रति ईमानदार न रहने से।
एक छोटी बच्ची और एक छोटा बच्चा खेल रहे थे। बच्ची की जेब में टॉफियां भरी हुई थीं और बच्चे की जेब में कंचे। बच्ची को कंचे अच्छे लगे और बच्चे को टॉफी। बच्ची ने बच्चे से कंचे मांगे, बच्चे ने कहा कि पहले मुझे टॉफी दो। बच्ची बोली कि मैं तुम्हें अपनी सारी टॉफियां दे दूँगी, तुम मुझे अपने सारे कंचे दे दो। बच्चा तैयार हो गया। बच्ची ने अपनी सारी टॉफियां जेब से निकाल कर रख दीं। बच्चे ने जेब से सारे कंचे निकाले लेकिन जो सबसे बड़ा और सबसे खूबसूरत कंचा था, उसे अपनी जेब में ही रहने दिया। दोनों बहुत खुश हुए, कुछ देर खेले और फिर अपने घरों को वापस चले गये।
रात में बच्ची तो चैन से सोयी लेकिन बच्चे को नींद नहीं आयी। वह सोचता रहा कि ऐसा हो सकता है उस बच्ची ने भी सबसे अच्छी वाली टॉफी छिपा ली हो? अपनी बेईमानी आपको दूसरे के प्रति सशंकित बना देती है।
मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि कोई भी रिश्ता हो या कोई भी काम हो, अगर आप ईमानदारी के साथ अपना शत प्रतिशत नहीं दे सकते तो बेहतर है आप उससे दूर ही रहें।
ज़िन्दगी में हर कोई कुछ बड़ा करना चाहता है और भूल जाता है कि ज़िन्दगी छोटी-छोटी बातों, छोटी-छोटी चीजों से मिल कर बनी है। इन छोटी-छोटी बातों में चूके तो समझो चुक गये।
- राजेन्द्र चौधरी
आदमी वापस घर में आया, बच्चे से नज़रें बचा कर चुपचाप अपने बेडरूम में गया और पंखे से लटक कर उसने आत्महत्या कर ली।
क्रोध और प्रेम ऐसे प्रबल भाव हैं जो बेकाबू होने पर सब सीमायें लाँघ जाते हैं। हम चीजें अपने और अपने लोगों की खुशी के लिए खरीदते हैं, लेकिन हम चीजों को इस्तेमाल करने और लोगों को सहेजने के बजाय चीजों को सहेजने लगते हैं और लोगों को इस्तेमाल करने लगते हैं। फिर अपने किये का परिणाम भोगने से कतरा कर पलायन का घातक रास्ता ढूँढते हैं। दोनों क्रियाओं में हम अपने प्रियजनों को ही आहत करते हैं। मुझे मैनेजमेंट गुरु स्टीफन आर. कॉवि की पंक्ति याद आ गयी कि हमारी ज़िन्दगी में सिर्फ दस प्रतिशत अप्रत्याशित घटता है, बाकी का नब्बे प्रतिशत उस दस प्रतिशत अप्रत्याशित घटने पर हमारे द्वारा की गयी प्रतिक्रिया द्वारा ही निर्धारित होता है।
हमारे बच्चे हमें इसलिए याद नहीं रखेंगे कि हम उनके लिए कितना पैसा, कितनी जायदाद छोड़ कर गये। वे हमें याद करेंगे तो उन जीवन मूल्यों के लिए जो हमने उन में रोपे। वे याद करेंगे उन स्नेहिल भावनाओं के लिये जो हमने अपने व्यवहार में उनके प्रति ईमानदारी के साथ प्रदर्शित की। ईमानदारी और सच्चाई सिर्फ काम में ही ज़रूरी नहीं होती, रिश्ते में और आचरण में उसकी ज़रूरत कहीं अधिक होती है। कभी सोचना कि एक दूसरे के प्रति इतना अविश्वास कहाँ से आया, आपके अन्दर से जवाब आयेगा अपने और दूसरों के प्रति ईमानदार न रहने से।
एक छोटी बच्ची और एक छोटा बच्चा खेल रहे थे। बच्ची की जेब में टॉफियां भरी हुई थीं और बच्चे की जेब में कंचे। बच्ची को कंचे अच्छे लगे और बच्चे को टॉफी। बच्ची ने बच्चे से कंचे मांगे, बच्चे ने कहा कि पहले मुझे टॉफी दो। बच्ची बोली कि मैं तुम्हें अपनी सारी टॉफियां दे दूँगी, तुम मुझे अपने सारे कंचे दे दो। बच्चा तैयार हो गया। बच्ची ने अपनी सारी टॉफियां जेब से निकाल कर रख दीं। बच्चे ने जेब से सारे कंचे निकाले लेकिन जो सबसे बड़ा और सबसे खूबसूरत कंचा था, उसे अपनी जेब में ही रहने दिया। दोनों बहुत खुश हुए, कुछ देर खेले और फिर अपने घरों को वापस चले गये।
रात में बच्ची तो चैन से सोयी लेकिन बच्चे को नींद नहीं आयी। वह सोचता रहा कि ऐसा हो सकता है उस बच्ची ने भी सबसे अच्छी वाली टॉफी छिपा ली हो? अपनी बेईमानी आपको दूसरे के प्रति सशंकित बना देती है।
मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि कोई भी रिश्ता हो या कोई भी काम हो, अगर आप ईमानदारी के साथ अपना शत प्रतिशत नहीं दे सकते तो बेहतर है आप उससे दूर ही रहें।
ज़िन्दगी में हर कोई कुछ बड़ा करना चाहता है और भूल जाता है कि ज़िन्दगी छोटी-छोटी बातों, छोटी-छोटी चीजों से मिल कर बनी है। इन छोटी-छोटी बातों में चूके तो समझो चुक गये।
- राजेन्द्र चौधरी
सोमवार, अक्टूबर 10, 2011
आत्मा का भोजन
मैंने अपने पहले किसी लेख में लिखा था कि प्रेम आत्मा का भोजन है। ये शब्द मैंने कई वर्ष पहले ओशो के व्याख्यान की एक ऑडियो कैसेट में सुने थे। तब से ये शब्द मेरे अंतरमन में बस गये। मैं अपने जीवन में ऐसे कई लोगों से मिला हूँ जिनके चेहरे से, जिनके व्यवहार से स्पष्ट जाहिर होता है कि वे अतृप्त आत्मा हैं। न उन्होंने किसी को भरपूर प्यार किया, न ही उन्हें भरपूर प्यार मिला। प्रेम के नाम पर थोड़ी बहुत दैहिक क्रियाओं तक ही सीमित रह गया उनका जीवन। कभी इससे आगे सोचा नहीं उन्होंने, कभी इससे आगे बढ़े नहीं वे लोग। आज इसी पर थोड़ी चर्चा कर लेते हैं।
एक अंग्रेज़ी पुस्तक है – “I am OK, You are OK”, उसमें बताया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति में बच्चा, व्यस्क, और बुजुर्ग तीनों व्यक्तित्व होते हैं। उसी तरह जीवन को भी आसानी से समझने के लिए थोड़ी देर के लिए अगर हम भोजन को प्रतीक मान कर उसका वर्गीकरण करें; तो बचपन हुआ नाश्ता, व्यस्क काल हुआ लंच, और प्रौढ़ावस्था और बुढ़ापे का समय हुआ डिनर। अगर आपको किसी दिन आपका नाश्ता न मिला हो, तो आप दोपहर के खाने के समय पर बहुत अधिक बल्कि असामान्य रूप से भूख महसूस करेंगे। यदि दोपहर का भोजन भी छूट गया हो, तो रात के भोजन के समय तो आप भूख से लगभग पगला ही जायेंगे यानि बिलबिला उठेंगे।
प्रेम आत्मा का भोजन है। जब कोई बच्चा पहली बार अपनी मां का स्तनपान करता है, तो वह केवल दूध नहीं बल्कि दो चीजें पा रहा होता है – दूध और प्रेम। दूध उसके शरीर में जा रहा होता है और प्रेम उसकी आत्मा में। दूध दिखता है जैसे कि शरीर दिखता है; प्रेम अदृश्य है, जैसे कि आत्मा अदृश्य है। यदि आपके पास देख सकने वाली आखें हैं, तो आप दोनों चीजों को एक साथ मां के स्तन से बच्चे के अंतरतम में जाता हुआ देख सकते हैं। दूध सिर्फ प्रेम का दिखने वाला भाग है; ममता, स्नेह, करुणा, आशीर्वाद - दूध का अदृश्य भाग है।
यदि बच्चे से उसका नाश्ता छूट गया है, तो जब वह जवान होगा उसे प्रेम की बहुत ज्यादा जरुरत होगी और वह परेशानी पैदा कर सकती है। तब वह प्रेम के लिए बहुत अधीर होगा और वह मुसीबत पैदा कर सकता है। वह प्रेम के लिए बहुत जल्दी में होगा और यह उसकी जल्दी मुश्किल पैदा करती है क्योंकि प्रेम बहुत धीरे-धीरे बढ़ता है, प्रेम धैर्य चाहता है। और जितने ज्यादा आप जल्दी में होंगे, उतनी ही ज्यादा संभावना इस बात की होगी कि आप प्रेम को अपने हाथ से गंवा दे।
आपने देखा होगा जिन्हें प्रेम की बहुत अधिक ज़रुरत होती है वे हमेशा परेशान रहते हैं क्योंकि वे हमेशा महसूस करते हैं कि कोई उनकी ज़रुरतें पूरी नहीं कर रहा है। दरअसल, कोई भी दोबारा उनकी मां बनने नहीं जा रहा है। मां–बच्चे के रिश्ते में, बच्चे से कोई उम्मीद नहीं की जाती थी। एक बच्चा क्या कर सकता है? वह असहाय है। वह कुछ भी वापस नहीं कर सकता, ज्यादा से ज्यादा वह मुस्कुरा सकता है, खुशी की भाव-भंगिमाएं प्रदर्शित कर सकता है, बस। यदि आपने नाश्ते का समय यानि बचपन का प्यार गंवा दिया, तो आप युवावस्था में कोई ऐसी महिला ढूंढ़ रहे होंगे जोकि आपकी मां बन सके। अब, महिला युवावस्था में प्रेमी ढूंढ़ रही होगी, ना कि पुत्र; तो परेशानी तो होनी ही है। अगर संयोगवश या दुर्योगवश, आपको कोई ऐसी महिला भी गयी जो पुत्र ढूंढ़ रही हो, तो दो बीमारियां एक दूसरे मे मिल जाएंगी तथा उस निकटता में और अधिक विकटता पैदा हो जायेगी। वे दोनों कभी परपीड़ित नज़र आयेंगे, तो कभी परपीड़क। विश्वास कीजिये, मेरी रिश्तेदारी में ही एक दम्पति ऐसे हैं, बल्कि वे ही मेरे इस लेख की प्रेरणा बने हैं।
ऐसे लोग भी हैं जो दोपहर के खाने से भी वंचित रह गए। तब बुढ़ापे में वे लोग वैसे ही बन जाते हैं जिन्हें आम बोलचाल में “सनकी बुड्ढा” कहा जाता है। वे बुढ़ापे में लगातार उसी के बारे में सोचते रहते हैं जो उन्हें नहीं मिला या जिसे उन्होंने अपनी मूर्खतावश गंवा दिया। हो सकता है वे इस बारे में सीधे बात करते दिखायी न दें लेकिन उनके अंतरमन में यही सब कुछ चल रहा होता है। इन लोगों से दोपहर का भोजन भी छूट गया है और अब डिनर का समय आ गया है तो वे आपा खो रहे हैं। वे जानते हैं कि अब मौत नजदीक आ रही है। जब मौत करीब आ रही है, और उनके हाथों से समय निकला जा रहा है, तो उनकी विक्षिप्तता स्वाभाविक भी है। ऐसे ही लोगों ने स्वर्ग में सुन्दर अप्सराओं की कहानियां गढ़ रखी हैं। अंतिम भोजन के समय उनकी कल्पना उनसे खेल खेल रही होती है। यह उनकी कल्पना है, भूखी कल्पना, जैसे भूखे व्यक्ति को पूर्णिमा का चाँद भी रोटी जैसा दिखायी देता है।
इसलिए बेहतर है कि समय रहते आत्मा को स्वस्थ और पौष्टिक भोजन देकर तृप्त करें। प्रेम को जीना सीखें, उसे देह के दायरों से बाहर निकालें, वह आत्मा के लिए टॉनिक बन जायेगा। आत्मा सबल और पुष्ट होगी, तो नकारात्मक ऊर्जा का ह्रास होगा। लोग आपसे मिलना, आपसे जुड़ना चाहेंगे। घर में, समाज में, दुनिया में परस्पर सौहार्द विकसित होगा। जीवन के संत्रास काफी हद तक दूर हो जायेंगे।
- राजेन्द्र चौधरी
एक अंग्रेज़ी पुस्तक है – “I am OK, You are OK”, उसमें बताया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति में बच्चा, व्यस्क, और बुजुर्ग तीनों व्यक्तित्व होते हैं। उसी तरह जीवन को भी आसानी से समझने के लिए थोड़ी देर के लिए अगर हम भोजन को प्रतीक मान कर उसका वर्गीकरण करें; तो बचपन हुआ नाश्ता, व्यस्क काल हुआ लंच, और प्रौढ़ावस्था और बुढ़ापे का समय हुआ डिनर। अगर आपको किसी दिन आपका नाश्ता न मिला हो, तो आप दोपहर के खाने के समय पर बहुत अधिक बल्कि असामान्य रूप से भूख महसूस करेंगे। यदि दोपहर का भोजन भी छूट गया हो, तो रात के भोजन के समय तो आप भूख से लगभग पगला ही जायेंगे यानि बिलबिला उठेंगे।
प्रेम आत्मा का भोजन है। जब कोई बच्चा पहली बार अपनी मां का स्तनपान करता है, तो वह केवल दूध नहीं बल्कि दो चीजें पा रहा होता है – दूध और प्रेम। दूध उसके शरीर में जा रहा होता है और प्रेम उसकी आत्मा में। दूध दिखता है जैसे कि शरीर दिखता है; प्रेम अदृश्य है, जैसे कि आत्मा अदृश्य है। यदि आपके पास देख सकने वाली आखें हैं, तो आप दोनों चीजों को एक साथ मां के स्तन से बच्चे के अंतरतम में जाता हुआ देख सकते हैं। दूध सिर्फ प्रेम का दिखने वाला भाग है; ममता, स्नेह, करुणा, आशीर्वाद - दूध का अदृश्य भाग है।
यदि बच्चे से उसका नाश्ता छूट गया है, तो जब वह जवान होगा उसे प्रेम की बहुत ज्यादा जरुरत होगी और वह परेशानी पैदा कर सकती है। तब वह प्रेम के लिए बहुत अधीर होगा और वह मुसीबत पैदा कर सकता है। वह प्रेम के लिए बहुत जल्दी में होगा और यह उसकी जल्दी मुश्किल पैदा करती है क्योंकि प्रेम बहुत धीरे-धीरे बढ़ता है, प्रेम धैर्य चाहता है। और जितने ज्यादा आप जल्दी में होंगे, उतनी ही ज्यादा संभावना इस बात की होगी कि आप प्रेम को अपने हाथ से गंवा दे।
आपने देखा होगा जिन्हें प्रेम की बहुत अधिक ज़रुरत होती है वे हमेशा परेशान रहते हैं क्योंकि वे हमेशा महसूस करते हैं कि कोई उनकी ज़रुरतें पूरी नहीं कर रहा है। दरअसल, कोई भी दोबारा उनकी मां बनने नहीं जा रहा है। मां–बच्चे के रिश्ते में, बच्चे से कोई उम्मीद नहीं की जाती थी। एक बच्चा क्या कर सकता है? वह असहाय है। वह कुछ भी वापस नहीं कर सकता, ज्यादा से ज्यादा वह मुस्कुरा सकता है, खुशी की भाव-भंगिमाएं प्रदर्शित कर सकता है, बस। यदि आपने नाश्ते का समय यानि बचपन का प्यार गंवा दिया, तो आप युवावस्था में कोई ऐसी महिला ढूंढ़ रहे होंगे जोकि आपकी मां बन सके। अब, महिला युवावस्था में प्रेमी ढूंढ़ रही होगी, ना कि पुत्र; तो परेशानी तो होनी ही है। अगर संयोगवश या दुर्योगवश, आपको कोई ऐसी महिला भी गयी जो पुत्र ढूंढ़ रही हो, तो दो बीमारियां एक दूसरे मे मिल जाएंगी तथा उस निकटता में और अधिक विकटता पैदा हो जायेगी। वे दोनों कभी परपीड़ित नज़र आयेंगे, तो कभी परपीड़क। विश्वास कीजिये, मेरी रिश्तेदारी में ही एक दम्पति ऐसे हैं, बल्कि वे ही मेरे इस लेख की प्रेरणा बने हैं।
ऐसे लोग भी हैं जो दोपहर के खाने से भी वंचित रह गए। तब बुढ़ापे में वे लोग वैसे ही बन जाते हैं जिन्हें आम बोलचाल में “सनकी बुड्ढा” कहा जाता है। वे बुढ़ापे में लगातार उसी के बारे में सोचते रहते हैं जो उन्हें नहीं मिला या जिसे उन्होंने अपनी मूर्खतावश गंवा दिया। हो सकता है वे इस बारे में सीधे बात करते दिखायी न दें लेकिन उनके अंतरमन में यही सब कुछ चल रहा होता है। इन लोगों से दोपहर का भोजन भी छूट गया है और अब डिनर का समय आ गया है तो वे आपा खो रहे हैं। वे जानते हैं कि अब मौत नजदीक आ रही है। जब मौत करीब आ रही है, और उनके हाथों से समय निकला जा रहा है, तो उनकी विक्षिप्तता स्वाभाविक भी है। ऐसे ही लोगों ने स्वर्ग में सुन्दर अप्सराओं की कहानियां गढ़ रखी हैं। अंतिम भोजन के समय उनकी कल्पना उनसे खेल खेल रही होती है। यह उनकी कल्पना है, भूखी कल्पना, जैसे भूखे व्यक्ति को पूर्णिमा का चाँद भी रोटी जैसा दिखायी देता है।
इसलिए बेहतर है कि समय रहते आत्मा को स्वस्थ और पौष्टिक भोजन देकर तृप्त करें। प्रेम को जीना सीखें, उसे देह के दायरों से बाहर निकालें, वह आत्मा के लिए टॉनिक बन जायेगा। आत्मा सबल और पुष्ट होगी, तो नकारात्मक ऊर्जा का ह्रास होगा। लोग आपसे मिलना, आपसे जुड़ना चाहेंगे। घर में, समाज में, दुनिया में परस्पर सौहार्द विकसित होगा। जीवन के संत्रास काफी हद तक दूर हो जायेंगे।
- राजेन्द्र चौधरी
रविवार, अक्टूबर 09, 2011
सहानुभूति और परानुभूति (Sympathy and Empathy)
हिन्दी मेरी मातृभाषा है। मैं हिन्दी भाषा से बहुत प्यार करता हूँ क्योंकि मेरे मन में विचार मूलत: हिन्दी भाषा में जन्मते हैं। स्वाभाविक है कि अपने विचारों को हिन्दी में अभिव्यक्त करना मुझे अधिक सहज लगता है, उन्हें स्वाभाविक प्रवाह मिल जाता है। लेकिन मैं क्योंकि अनुवाद के पेशे में हूँ, इसलिए हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेज़ी भाषा पर भी समान रूप से पकड़ होना मेरे पेशे की अनिवार्यता है। मैं अक्सर कहता हूँ कि हिन्दी मेरे दिल की भाषा है, अंग्रेज़ी दिमाग की। किसी व्यक्ति से अगर आप उस भाषा में बात करें जिसे वह समझता हो, तो आपकी बात उसके दिमाग तक पहुँचती है; लेकिन अगर आप उससे उसकी भाषा में बात करें तो आपकी बात उसके दिल तक पहुँचती है।
भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है। इसलिए बिना किसी पूर्वाग्रह के हमें अधिक से अधिक भाषायें सीखनी चाहियें क्योंकि हमें जितनी अधिक भाषायें आयेंगी, उतना ही हम अपने विचारों को समृद्ध कर पायेंगे, उतना ही अधिक हम लोगों को समझ पायेंगे, उतना ही अधिक हम उनसे जुड़ पायेंगे। हर भाषा की अपनी खूबी और अपनी सीमायें होती हैं। मसलन हिन्दी में हम अपने से बड़े के लिए व औपचारिक सम्बोधन के लिए “आप”, हम-उम्र के लिए “तुम” और छोटे के लिए प्यार से “तू” शब्द का प्रयोग करते हैं। बिना उम्र या रिश्ते के उल्लेख के ही आप इस बारे में समझ सकते हैं। अंग्रेज़ी भाषा में यह सुविधा उपलब्ध नहीं है। वहाँ पर हर एक के लिए “You” शब्द का ही प्रयोग होता है। इसी तरह दूसरे की भावनाओं को महसूस कर लेना, अपने मन में दूसरे की भावनाओं की अनुभूति कर लेने के लिए मुझे आज तक हिन्दी में कोई उपयुक्त शब्द नहीं मिला। हम सहानुभूति, संवेदनशीलता आदि शब्दों से काम चलाते हैं लेकिन ये शब्द कामचलाऊ हैं। अंग्रेज़ी भाषा में इसके लिए बहुत सुन्दर शब्द है “Empathy”। सहानुभूति यानि हमदर्दी के लिए अंग्रेज़ी में शब्द है “Sympathy”, संवेदनशीलता कहलाती है “Sensitivity”। मैंने “Empathy” शब्द सबसे पहले मशहूर लेखक और मैनेजमेंट गुरु स्टीफन आर. कॉवि की अंग्रेज़ी भाषा में लिखी प्रसिद्ध पुस्तक “Seven Habits of Highly Effective People” में पढ़ा था। मैं उस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद कर रहा था। तब बहुत सोच-विचार कर मैंने इसके लिए हिन्दी में शब्द चुना था “परानुभूति”।
किसी भी रचनात्मक व्यक्ति के लिए परानुभूति एक बुनियादी आवश्यकता है। यह परानुभूति ही है जो किसी कवि, शायर, लेखक, चित्रकार, शिल्पकार, गायक की कृति को सजीव बना देती है। अदृश्य को मन की आँख से देख लेना और महसूस कर लेना परानुभूति है। परानुभूति, सहानुभूति और प्रेम दोनों से ऊपर होती है। सहानुभूति और प्रेम में अनुग्रह होता है, एक गहरी कृतज्ञता होती है। सहानुभूति और प्रेम दोनों के सम्बन्ध में ही कुछ लेन-देन का भाव छुपा होता है। परानुभूति स्वत: स्फूर्त होती है। आप स्वत: दूसरे की स्थिति और उसके अव्यक्त भावों की अनुभूति कर लेते हैं। आप इसके बदले किसी से कोई लेने की अपेक्षा नहीं रखते, आप केवल बांटते हैं। प्रेम में यदि आप कुछ देते हैं तो गहरे में कहीं अपेक्षा रहती है कि इसका फल मिले। और यदि फल नहीं मिलता तो आपको शिकायत रहती है। आप चाहे ऐसा न भी कहें लेकिन हजारों ढंगों से यह परिणाम निकाला जा सकता है कि आप असंतुष्ट हैं, कि आपको लगता है धोखा दिया गया है। प्रेम एक प्रकार का सूक्ष्म सौदा है। परानुभूति में ऐसा नहीं होता। कोई आपसे नहीं कहता, कोई आपसे अपेक्षा नहीं रखता कि आप उसके अंतस के भावों को अनुभव करें। अपेक्षा नहीं है तो कोई शिकायत भी नहीं होती। आप दूसरे के भावों को खुद में समो कर खुद बरस जाते हैं जैसे बादल बरसता है। भावों से भर जाने पर आप लेखन, कविता, शायरी, चित्रों आदि के माध्यम से भाव बरसायेंगे ही जैसे पानी से भरे बादल को बरसना ही है। और अगली बार जब बादल बरस रहा हो तो चुपचाप देखना कि जब बादल बरस चुका है और धरती ने उसे अपने में समा लिया है, आपको हमेशा लगेगा मानो बादल धरती से कह रहा हो - तुम्हारा धन्यवाद। तुमने मुझको बोझ मुक्त होने में मेरी सहायता की है। यानि प्यासी धरती को पानी पिला कर भी बादल धरती के प्रति ही आभार व्यक्त करता है। यही बात हर रचनात्मक विधा के व्यक्ति पर लागू होती है।
जो व्यक्ति सही अर्थों में कवि, शायर, लेखक, चित्रकार, शिल्पकार, गायक आदि यानि रचनात्मक विधा से सम्पन्न व्यक्ति हैं वे परानुभूति से ओतप्रोत होते हैं। वे लेने में नहीं बांटने में विश्वास रखते हैं। फ़कीर होते हुए भी इसीलिए तो इतने खुद्दार होते हैं ये लोग। जीवन में अत्यधिक पीड़ा तब होती है जब आप अभिव्यक्त नहीं कर सकते, प्रकट नहीं कर सकते, बांट नहीं सकते। सर्वाधिक गरीब व्यक्ति वह है जिसके पास बांटने को कुछ नहीं है, या जिसके पास बांटने को तो है पर उसने बांटने की क्षमता खो दी है, यह कला खो दी है कि कैसे बांटा जाए; तब व्यक्ति गरीब होता है।
परानुभूति सम्पन्न व्यक्ति की कोई परिधि नहीं होती, कोई सीमा नहीं होती। वह बस देता है और अपने रास्ते चला जाता है। वह आपके धन्यवाद की भी प्रतीक्षा नहीं करता। वह बस प्रेम से अपनी उर्जा को बांटता जाता है। आशीर्वाद दीजिये कि मैं भी आपकी अनुभूति से प्राप्त ऊर्जा को यूँ ही चुपचाप बांटता हुआ गुजर जाऊँ।
- राजेन्द्र चौधरी
भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है। इसलिए बिना किसी पूर्वाग्रह के हमें अधिक से अधिक भाषायें सीखनी चाहियें क्योंकि हमें जितनी अधिक भाषायें आयेंगी, उतना ही हम अपने विचारों को समृद्ध कर पायेंगे, उतना ही अधिक हम लोगों को समझ पायेंगे, उतना ही अधिक हम उनसे जुड़ पायेंगे। हर भाषा की अपनी खूबी और अपनी सीमायें होती हैं। मसलन हिन्दी में हम अपने से बड़े के लिए व औपचारिक सम्बोधन के लिए “आप”, हम-उम्र के लिए “तुम” और छोटे के लिए प्यार से “तू” शब्द का प्रयोग करते हैं। बिना उम्र या रिश्ते के उल्लेख के ही आप इस बारे में समझ सकते हैं। अंग्रेज़ी भाषा में यह सुविधा उपलब्ध नहीं है। वहाँ पर हर एक के लिए “You” शब्द का ही प्रयोग होता है। इसी तरह दूसरे की भावनाओं को महसूस कर लेना, अपने मन में दूसरे की भावनाओं की अनुभूति कर लेने के लिए मुझे आज तक हिन्दी में कोई उपयुक्त शब्द नहीं मिला। हम सहानुभूति, संवेदनशीलता आदि शब्दों से काम चलाते हैं लेकिन ये शब्द कामचलाऊ हैं। अंग्रेज़ी भाषा में इसके लिए बहुत सुन्दर शब्द है “Empathy”। सहानुभूति यानि हमदर्दी के लिए अंग्रेज़ी में शब्द है “Sympathy”, संवेदनशीलता कहलाती है “Sensitivity”। मैंने “Empathy” शब्द सबसे पहले मशहूर लेखक और मैनेजमेंट गुरु स्टीफन आर. कॉवि की अंग्रेज़ी भाषा में लिखी प्रसिद्ध पुस्तक “Seven Habits of Highly Effective People” में पढ़ा था। मैं उस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद कर रहा था। तब बहुत सोच-विचार कर मैंने इसके लिए हिन्दी में शब्द चुना था “परानुभूति”।
किसी भी रचनात्मक व्यक्ति के लिए परानुभूति एक बुनियादी आवश्यकता है। यह परानुभूति ही है जो किसी कवि, शायर, लेखक, चित्रकार, शिल्पकार, गायक की कृति को सजीव बना देती है। अदृश्य को मन की आँख से देख लेना और महसूस कर लेना परानुभूति है। परानुभूति, सहानुभूति और प्रेम दोनों से ऊपर होती है। सहानुभूति और प्रेम में अनुग्रह होता है, एक गहरी कृतज्ञता होती है। सहानुभूति और प्रेम दोनों के सम्बन्ध में ही कुछ लेन-देन का भाव छुपा होता है। परानुभूति स्वत: स्फूर्त होती है। आप स्वत: दूसरे की स्थिति और उसके अव्यक्त भावों की अनुभूति कर लेते हैं। आप इसके बदले किसी से कोई लेने की अपेक्षा नहीं रखते, आप केवल बांटते हैं। प्रेम में यदि आप कुछ देते हैं तो गहरे में कहीं अपेक्षा रहती है कि इसका फल मिले। और यदि फल नहीं मिलता तो आपको शिकायत रहती है। आप चाहे ऐसा न भी कहें लेकिन हजारों ढंगों से यह परिणाम निकाला जा सकता है कि आप असंतुष्ट हैं, कि आपको लगता है धोखा दिया गया है। प्रेम एक प्रकार का सूक्ष्म सौदा है। परानुभूति में ऐसा नहीं होता। कोई आपसे नहीं कहता, कोई आपसे अपेक्षा नहीं रखता कि आप उसके अंतस के भावों को अनुभव करें। अपेक्षा नहीं है तो कोई शिकायत भी नहीं होती। आप दूसरे के भावों को खुद में समो कर खुद बरस जाते हैं जैसे बादल बरसता है। भावों से भर जाने पर आप लेखन, कविता, शायरी, चित्रों आदि के माध्यम से भाव बरसायेंगे ही जैसे पानी से भरे बादल को बरसना ही है। और अगली बार जब बादल बरस रहा हो तो चुपचाप देखना कि जब बादल बरस चुका है और धरती ने उसे अपने में समा लिया है, आपको हमेशा लगेगा मानो बादल धरती से कह रहा हो - तुम्हारा धन्यवाद। तुमने मुझको बोझ मुक्त होने में मेरी सहायता की है। यानि प्यासी धरती को पानी पिला कर भी बादल धरती के प्रति ही आभार व्यक्त करता है। यही बात हर रचनात्मक विधा के व्यक्ति पर लागू होती है।
जो व्यक्ति सही अर्थों में कवि, शायर, लेखक, चित्रकार, शिल्पकार, गायक आदि यानि रचनात्मक विधा से सम्पन्न व्यक्ति हैं वे परानुभूति से ओतप्रोत होते हैं। वे लेने में नहीं बांटने में विश्वास रखते हैं। फ़कीर होते हुए भी इसीलिए तो इतने खुद्दार होते हैं ये लोग। जीवन में अत्यधिक पीड़ा तब होती है जब आप अभिव्यक्त नहीं कर सकते, प्रकट नहीं कर सकते, बांट नहीं सकते। सर्वाधिक गरीब व्यक्ति वह है जिसके पास बांटने को कुछ नहीं है, या जिसके पास बांटने को तो है पर उसने बांटने की क्षमता खो दी है, यह कला खो दी है कि कैसे बांटा जाए; तब व्यक्ति गरीब होता है।
परानुभूति सम्पन्न व्यक्ति की कोई परिधि नहीं होती, कोई सीमा नहीं होती। वह बस देता है और अपने रास्ते चला जाता है। वह आपके धन्यवाद की भी प्रतीक्षा नहीं करता। वह बस प्रेम से अपनी उर्जा को बांटता जाता है। आशीर्वाद दीजिये कि मैं भी आपकी अनुभूति से प्राप्त ऊर्जा को यूँ ही चुपचाप बांटता हुआ गुजर जाऊँ।
- राजेन्द्र चौधरी
शनिवार, अक्टूबर 08, 2011
मुक्तक नहीं कुछ मुक्त विचार
मुझे मालूम नहीं आज क्या सूझी है कि अपने मन के मुक्त विचारों को थोड़ी तुकबन्दी के साथ पेश करने की कोशिश की जाये। मेरा मन चूँकि मूलत: कविता का बसेरा रहा है, इसलिए आज इसकी मान कर गद्य के साथ थोड़ी छेड़छाड़ कर लेने में मुझे कोई हर्ज नहीं लगा। आपसे अनुरोध है इस कोशिश को भी प्यार से स्वीकार कर लें क्योंकि विचारों ने सिर्फ पहनावा बदला है। अच्छे लगें तो बस गले लगा लीजिये इन्हें इसी पहनावे के साथ:
वो ही सपने हमारी आँखों में अधिक देर तक बसते हैं, जो हमारी पहुँच से दूर होते हैं।
हम चीजों को तभी कस कर पकड़ते हैं, जब हम उन्हें छोड़ने के लिए मजबूर होते हैं।
हम चाहते हैं हमारे अपने हमेशा साथ रहें, हालांकि अपना साया तक साथ छोड़ देता है।
हम चाहते हैं चीजें हमारे मनचाहे ढंग से हों, वक़्त है कि हर चीज का रुख मोड़ देता है।
हम दूसरों को सच्चाई का सबक सिखाते हैं, वही सच्चाई हमारे लिए भी खरी होती है।
हमें तो कोसते रहने की आदत है क्योंकि घास तो दूसरों के लॉन की ही हरी होती है।
हमारा प्यार, हमारा आदर, हमारा हँसना, हमारा रोना, गोया सब कुछ मशीनी होता है। हम तूफान में उन्हीं चीजों को लपक कर थामते हैं जिनका उड़ जाना यकीनी होता है।
डरते होंगे बच्चे कभी माँ-बाप से, आज के दौर में औलाद से माँ-बाप सहमे रहते हैं। हुकूमत पुण्य की रही होगी कभी माना मगर, आज के पुण्य से तो पाप सहमे रहते हैं।
अजब तबियत हमारी है, जो मिला बेकार है, जब तलक जो ना मिला वो आये ना।
अहमियत दिखती नहीं जो पास है उसकी कभी, जब तलक वो हाथ से खो जाये ना।
दुनिया खराब है, कहना आसान है, ख़ुद को ठीक करने को कभी कुछ किया हमने?
परिवार ताकत है, परिवार टूट न जाये, इसे जोड़े रखने को कभी कुछ किया हमने?
छोटे मसलों में दिमाग की सुनो, बड़ों में दिल की; यह बात मालूम थी मानी कभी नहीं।
समझ की अपनी सीमायें हैं मूर्खता की नहीं; यह बात मान तो ली थी जानी कभी नहीं।
जाने देना वो है जो सचमुच तुम्हारा था, तुमने फिर भी बेगरज़ जाने दिया।
छोड़ देना वो है जो कभी भी तुम्हारा नहीं था, तुमने बेलौस बस जाने दिया।
जब दुनिया में आये तो मुट्ठी बंद थी, जाते हैं तो हाथ सबके रीते होते हैं।
क्या हुआ मेहनत की जड़ कड़वी सही, फल तो अक्सर उसके मीठे होते हैं।
छत ने कहा ऊँचा सोच, पंखा बोला ठंडा रह, घड़ी बोली कितना वक़्त सोके बिता दिया।
खिड़की बोली बाहर देख, दरवाज़ा बोला मुझे धकेल, मुझको कमरे ने जीना सिखा दिया।
वो दुश्मन ही सही कोस मत, सताना छोड़, यह काम वक़्त के पास रहने दे।
अभी कच्चे हैं तेरी उम्मीदों के फल, पकने के लिए उन्हें थोड़ी सी धूप सहने दे।
पुरानी बीवी, पुराना कुत्ता, जेब का पैसा, ये ही तेरे अपने हैं, इन पर भरोसा रख।
ठंडे पड़ने पे रिश्ते मुर्दों की तरह अकड़ते हैं, तू अपने रिश्तों का पानी कोसा रख।
- राजेन्द्र चौधरी
वो ही सपने हमारी आँखों में अधिक देर तक बसते हैं, जो हमारी पहुँच से दूर होते हैं।
हम चीजों को तभी कस कर पकड़ते हैं, जब हम उन्हें छोड़ने के लिए मजबूर होते हैं।
हम चाहते हैं हमारे अपने हमेशा साथ रहें, हालांकि अपना साया तक साथ छोड़ देता है।
हम चाहते हैं चीजें हमारे मनचाहे ढंग से हों, वक़्त है कि हर चीज का रुख मोड़ देता है।
हम दूसरों को सच्चाई का सबक सिखाते हैं, वही सच्चाई हमारे लिए भी खरी होती है।
हमें तो कोसते रहने की आदत है क्योंकि घास तो दूसरों के लॉन की ही हरी होती है।
हमारा प्यार, हमारा आदर, हमारा हँसना, हमारा रोना, गोया सब कुछ मशीनी होता है। हम तूफान में उन्हीं चीजों को लपक कर थामते हैं जिनका उड़ जाना यकीनी होता है।
डरते होंगे बच्चे कभी माँ-बाप से, आज के दौर में औलाद से माँ-बाप सहमे रहते हैं। हुकूमत पुण्य की रही होगी कभी माना मगर, आज के पुण्य से तो पाप सहमे रहते हैं।
अजब तबियत हमारी है, जो मिला बेकार है, जब तलक जो ना मिला वो आये ना।
अहमियत दिखती नहीं जो पास है उसकी कभी, जब तलक वो हाथ से खो जाये ना।
दुनिया खराब है, कहना आसान है, ख़ुद को ठीक करने को कभी कुछ किया हमने?
परिवार ताकत है, परिवार टूट न जाये, इसे जोड़े रखने को कभी कुछ किया हमने?
छोटे मसलों में दिमाग की सुनो, बड़ों में दिल की; यह बात मालूम थी मानी कभी नहीं।
समझ की अपनी सीमायें हैं मूर्खता की नहीं; यह बात मान तो ली थी जानी कभी नहीं।
जाने देना वो है जो सचमुच तुम्हारा था, तुमने फिर भी बेगरज़ जाने दिया।
छोड़ देना वो है जो कभी भी तुम्हारा नहीं था, तुमने बेलौस बस जाने दिया।
जब दुनिया में आये तो मुट्ठी बंद थी, जाते हैं तो हाथ सबके रीते होते हैं।
क्या हुआ मेहनत की जड़ कड़वी सही, फल तो अक्सर उसके मीठे होते हैं।
छत ने कहा ऊँचा सोच, पंखा बोला ठंडा रह, घड़ी बोली कितना वक़्त सोके बिता दिया।
खिड़की बोली बाहर देख, दरवाज़ा बोला मुझे धकेल, मुझको कमरे ने जीना सिखा दिया।
वो दुश्मन ही सही कोस मत, सताना छोड़, यह काम वक़्त के पास रहने दे।
अभी कच्चे हैं तेरी उम्मीदों के फल, पकने के लिए उन्हें थोड़ी सी धूप सहने दे।
पुरानी बीवी, पुराना कुत्ता, जेब का पैसा, ये ही तेरे अपने हैं, इन पर भरोसा रख।
ठंडे पड़ने पे रिश्ते मुर्दों की तरह अकड़ते हैं, तू अपने रिश्तों का पानी कोसा रख।
- राजेन्द्र चौधरी
शुक्रवार, अक्टूबर 07, 2011
दो भाइयों की कहानी
सुधा मूर्ति जी की मूल अंग्रेज़ी पुस्तक, ‘The Old Man and His God’ से साभार एवं बिना किसी व्यावसायिक हित के मेरे द्वारा स्वेच्छा से हिन्दी में अनुवादित:
[राम और श्याम एक जैसी शक्ल सूरत वाले दो जुडवाँ भाई थे। वे प्री-यूनिवर्सिटी और ग्रेजुएट कॉलेज में मेरे छात्र थे जहाँ पर वे एमसीए के डिग्री कोर्स के लिए पढाई कर रहे थे, यानि मैंने उन्हें लगभग सात वर्षों तक पढाया था। ज़ाहिर है कि उन वर्षों के दौरान मैं उनके और उनके परिवार के बारे में काफी अच्छी तरह जान गयी थी। मैं देखती थी कि अन्य जुडवाँ भाइयों की तरह राम और श्याम भी एक दूसरे के साथ खुश रहते थे और अपने होमवर्क, लैब व क्लास नोट्स में एक दूसरे की मदद करते हुए वे कॉलेज में हमेशा साथ-साथ दिखाई देते थे। उनकी शक्ल सूरत एक दूसरे से इतनी ज्यादा मिलती थी कि कभी-कभी मैं पहचान नहीं पाती थी कि कौनसा राम है और कौनसा श्याम। मैं उनसे मज़ाक में कहती, “तुम लोगों को कुछ न कुछ ऐसा पहनना चाहिये ताकि मैं तुम्हें पहचान सकूँ। मुझको इतनी दुविधा होती है, तो तुम्हारी शादी हो जाने के बाद क्या होगा? मेरे ख्याल से तुम लोगों को शादी भी एक जैसी शक्ल सूरत वाली जुडवाँ लडकियों से करनी चाहिये। तब जो उलझन और गडबडी पैदा होगी, वह बहुत मज़ेदार होगी”।
एमसीए करने के बाद, वे एक सॉफ्टवेयर कम्पनी में नौकरी करने लगे। उनके पिता एक उद्योगपति थे और माँ एक स्कूल में प्रिंसिपल थीं। इसलिए वे एक सम्पन्न परिवार से थे और उनका घर काफी बडा था तथा एक फॉर्महाउस भी था। एक दिन, वे दोनों लडके मुझे अपनी शादी में आमंत्रित करने के लिये आये। मज़े की बात यह थी कि वे वाकई ऐसी लडकियों से शादी कर रहे थे जो जुडवाँ बहनें थीं!
मैंने फिर मज़ाक में कहा, “ऐसा लगता है तुम्हारी ज़िन्दगी की कहानी किसी फिल्म की कहानी की तरह हो जायेगी! तुम्हें जुडवाँ लडकियां कैसे मिलीं? उनके नाम क्या हैं?”
“मैडम, जब हमने शादी करने का निश्चय किया तो हमने जानबूझ कर जुडवाँ बहनें ढूँढीं, क्योंकि हमने महसूस किया कि जुडवाँ लडकियां ही हमें और हमारी दोस्ती को पूरी तरह से समझ सकती हैं। उनके नाम स्मिता और सविता हैं। आप प्लीज हमारी शादी में ज़रूर आयें। आखिरकार, यह विचार सबसे पहले आपको ही तो सूझा था!”
मैं उनकी शादी में शामिल हुई और मन से दोनों जोडों को आशीर्वाद दिया। मैंने महसूस किया कि इससे दोनों पक्षों के माता-पिता को भी बडी राहत मिली होगी। दो भाई दो बहनों से शादी कर रहे हैं, तो दोनों जोडों के बीच कम से कम कोई प्रतिद्वन्द्विता तो नहीं होगी।
कई महीनों बाद, अचानक एक दिन राम और श्याम की माताजी का मेरे पास फोन आया। उनकी आवाज़ में थकावट लग रही थी। परेशानी सी में उन्होंने कहा, “मैडम, क्या आप आकर बच्चों से बात कर सकती हैं?”
मैं समझ गयी कि कुछ न कुछ परेशानी है, और उसी वीकेंड पर माजरा जानने के लिए मैं उनके घर गयी। थोडी देर तक तो मैं मकान को पहचान ही नहीं पायी, हालांकि मैं उसी के सामने खडी थी। अब एक के बजाय मकान में सामने के दो दरवाजे थे और गार्डन भी दो हिस्सों में बंटा हुआ था। मुझे लगा कि मैं शायद गलत पते पर आ गयी हूँ या वे लोग कहीं और चले गये हैं, लेकिन राम की माताजी ने मुझे देख लिया और अन्दर से ही आवाज़ लगायी।
मैं अन्दर चली गयी और मैंने फौरन ही भाँप लिया कि माहौल में एक अजीब उदासी है। मकान को बडे बेतुके ढंग से दो हिस्सों में बांटा गया था। ड्रॉइंग रूम अब बहुत छोटा हो गया था, और बेडरूम बहुत बडे और किचिन का आकार अजीब सा था। मकान में हॉल से लेकर किचिन तक ईंटों की एक लम्बी दीवार चिनी हुई थी। घर में एकदम सन्नाटा पसरा हुआ था। मैंने उनकी माताजी से पूछा, “ क्या हुआ? आपने यहाँ पर यह दीवार क्यों लगा दी?” फिर उन्होंने मुझे अपनी दुख भरी कहानी सुनायी।
“राम और श्याम में लडाई हुई और दोनों अलग-अलग हो गये, इसीलिए यह दीवार खडी हो गयी। आपको यह देख कर इतनी हैरानी क्यों हो रही है? बडे होने पर लोग बदल जाते हैं। छुटपन में उनमें दिखने वाली वह मासूमियत खो जाती है”।
मैंने कहा, “भाइयों के बीच अक्सर लडाई उनकी पत्नियों के कारण होती है, लेकिन यहाँ पर तो वे दोनों सगी बहनें हैं, उन्होंने इस सब के लिये क्यों उकसाया?”
“जब हमने उनकी शादी की, तब हम भी यही सोचते थे। कुछ दिनों तक ठीक ठाक चला। जब मेरे पति रिटायर हो गये, तो हमने सम्पत्ति का बंटवारा करके दोनों भाइयों को बराबर हिस्सा देने की सोची। बस वहीं पर परेशानी शुरू हो गयी। उन दोनों को वही मकान और वही फॉर्महाउस चाहिये था। इस समस्या को हम कैसे हल करते? वे दोनों अपनी ज़िद पर अडे थे, इसलिए दोनों की गृहस्थियों को अलग करने के लिए यह दीवार खडी करनी पडी”।
वह पुरानी कहावत आज भी कितनी सच्ची है, पैसा ऐसी चीज है जो लोगों को जोडता कम है, अलग ज्यादा करता है! झगडा सम्पत्ति को लेकर था।
उनकी माताजी चाहती थीं कि मैं उनसे बात करूँ और उनकी टीचर के रूप में उन्हें समझाऊँ। लेकिन मैं जानती थी कि पैसों के मामले में उनकी इस कॉलेज टीचर के शब्द उनकी सोच को नहीं बदल पायेंगे। फिर भी मैंने कोशिश की। मैंने कहा, “जब से तुम अपनी माँ के पेट में आये थे, तब से तुम मिलजुल कर एक ही जगह पर रहते आये हो। तुम अपनी माँ की कोख में साथ-साथ रहे, तुम अपने सुख-दुख बांट कर साथ-साथ इस घर में बडे हुए। तुमने जुडवाँ लडकियों से शादी की ताकि वे तुम्हारी दोस्ती को बेहतर ढंग से समझ सकें। तुम लोगों को समझना चाहिये कि ज़िन्दगी में कभी-कभी समझौता करना और अपने प्रियजनों के साथ शांति से रहना कितना महत्वपूर्ण होता है”।
उनके पास मेरी बातों का कोई जवाब नहीं था और मैं जानती थी कि उनके कानों पर जूँ नहीं रेंगेगी। मैं नाकामयाब वापस लौट आयी। जब तक मैं घर पहुँची, मैं अपने एक दोस्त के साथ डिनर अपॉइंटमेंट के लिए लेट हो चुकी थी। वह मेरा साथी था और मैं बहुत वर्षों से उसे जानती थी। मुझे देरी से आते हुए देख कर उसने कहा, “समय की पाबन्दी अच्छी टीचर की पहचान है - लेकिन सिर्फ क्लास में ही नहीं बल्कि दूसरी जगहों पर भी”।
मैंने उसकी बात पर सहमति जतायी और क्षमा माँगी।
“मुझे अफसोस है। लेकिन हम अब किस रेस्त्रां में चल रहे हैं?”
उसकी पत्नी ने मुस्कुराते हुए कहा, “हम तीस किलोमीटर दूर एक गाँव के लिए चल रहे हैं”।
“ओह, किसी फॉर्महाउस में है?”
“नहीं, हमारा कोई फॉर्महाउस नहीं है। डिनर एक फार्मर के हाउस पर है”।
वे किस बारे में बात कर रहे थे, मेरी समझ में नहीं आया। इसलिए मैं चुपचाप गाडी में बैठ गयी। मेरा दोस्त पहले हमें लेकर नज़दीक के एक मार्केट में गया। वहाँ से उसने कुछ मिठाई और फल खरीदे तथा उसकी पत्नी ने कुछ कपडे। मैंने फिर उत्सुकतावश पूछा, “हम जा कहाँ रहे हैं?”
उसने बडी शांति के साथ जवाब दिया, “मेरे भाई के घर। वह हमें बहुत दिनों से अपने यहाँ बुला रहा है। मुझे यकीन है तुम्हें वहाँ पर अच्छा लगेगा”। जहाँ तक मुझे मालूम था उसके कोई भाई या बहन नहीं थे। वह अपने माता-पिता की अकेली संतान था।
“यह भाई कहाँ से आ गया? कोई कजिन है? या कोई घनिष्ठ मित्र जो भाई की तरह है? या हिन्दी फिल्मों की तरह तुम्हें अचानक पता चला है कि तुम्हारा एक भाई है जो तुमसे बहुत पहले बिछुड गया था?”
मेरी बात सुन कर वह बस रहस्यमयी ढंग से मुस्कुराया और गाडी चलाता रहा। कुछ ही देर में हम बैंगलोर से बाहर निकल आये और गाडी हाईवे पर तेज़ी से दौडने लगी। उसकी खामोशी मुझे बेचैन कर रही थी और मैं सोचने लगी कि कहीं मैंने उससे बहुत अधिक सवाल तो नहीं पूछ लिये या उसकी निजी ज़िन्दगी में झांकने की बलात कोशिश तो नहीं की। अगर हम अमेरिका में होते और मैंने इतनी बातें की होतीं, तो वह मुझे अब तक चुप रहने और अपने काम से काम रखने के लिए कह चुका होता। लेकिन यहाँ हिन्दुस्तान में हम लोगों से उनकी निजी ज़िन्दगी के बारे में सवाल पूछने से खुद को नहीं रोक पाते, चाहे उसमें हमारी दिलचस्पी हो या नहीं।
अचानक मेरे दोस्त ने बोलना शुरू किया।
“पछपन साल पहले, मैं उस गाँव में पैदा हुआ था जहाँ पर हम जा रहे हैं। जब मैं सिर्फ दस दिन का था तो मेरी माँ चल बसी थी। मेरे पिताजी उनसे बेहद प्यार करते थे और माँ की अचानक मौत से उनका दिल टूट गया था लेकिन उन्हें मेरी परवरिश भी करनी थी। मुझे गाय का दूध हजम नहीं होता था और माँ के चले जाने से मैं और कोई दूध पी ही नहीं पाता था। मैं पूरे पूरे दिन भूखा बिलखता रहता था। उन दिनों बच्चों के लिए कोई इन्फैंट फोर्मुला या पाउडर वाला दूध नहीं होता था। मैं कमजोर होता चला गया और मेरे ज़िन्दा बचे रहने की उम्मीद कम होती चली गयी। मेरे पिताजी मुझे लेकर बहुत चिंतित थे लेकिन उन्हें कुछ सूझ नहीं पा रहा था कि क्या करें। उन्हें मदद मिली सीताक्का से। वह हमारे नौकर की बीवी थी और मेरे पैदा होने से कुछ दिन पहले ही उसने एक बेटे को जन्म दिया था। जब उससे मेरी दयनीय हालत नहीं देखी गयी तो उसने मेरे पिताजी से कहा, “अन्ना, अगर आपको बुरा ना लगे, तो मैं इस बच्चे को अपने बेटे के साथ अपना दूध पिलाना चाहती हूँ”। मेरे पिताजी ने कुछ देर सोचा, और हालांकि बहुत से रिश्तेदारों ने इसका विरोध किया, लेकिन उन्होंने इसके लिये अपनी सहमति दे दी और सीताक्का ने अपना दूध पिला कर मेरी ज़िन्दगी बचा ली। वह मुझे तब तक अपना दूध पिलाती रही जब तक मुझे गाय का दूध और दूसरा खाना हजम होना शुरू नहीं हो गया। मैं पाँच सालों तक इस गाँव में रहा, लेकिन मुझे सीताक्का हमेशा याद रहती है और मैं उसे एक महान महिला मानता हूँ। असल में, मैं उसके बेटे हनुमा को अपना भाई मानता हूँ। मैंने उसे अपनी जायदाद में से भी कुछ हिस्सा दिया, हालांकि मेरे रिश्तेदारों ने पहले की तरह इसका भी बहुत विरोध किया। उनके लिए सीताक्का महज़ एक नौकरानी थी, लेकिन मेरे लिए वह एक विशाल हृदय वाली, सरल औरत थी, जिसका प्यार कोई पाबंदियां नहीं जानता था।
“अब मैं बैंगलोर में अपने काम में व्यस्त रहता हूँ, लेकिन मैं उसके बेटे, यानि अपने भाई से मिलने साल में कम से कम एक बार ज़रूर जाता हूँ। आखिरकार सीताक्का ने बिना कोई अपेक्षा किये अपना प्यार हम दोनों पर बराबर मात्रा में उंडेला था। हम एक ही माँ के प्यार के भागीदार रहे, इसलिए हम दोनों भाई ही तो हुए”।
जब तक उसकी कहानी खत्म हुई, हम गाँव में पहुँच चुके थे और मेरे दोस्त ने हनुमा की ओर इशारा किया जो हमें अपने घर ले जाने के लिए सडक के किनारे खडा हुआ था। पूरे डिनर के दौरान, उन दोनों के बीच प्यार देख कर, मुझे राम और श्याम के परिवारों के बीच की वह दीवार याद आती रही और मैं नियति की इस विडम्बना पर चकित होती रही, जिसने भाइयों को अजनबी बना दिया था और मालिक और नौकर के बेटों को भाई।]
प्रस्तुति: राजेन्द्र चौधरी
[राम और श्याम एक जैसी शक्ल सूरत वाले दो जुडवाँ भाई थे। वे प्री-यूनिवर्सिटी और ग्रेजुएट कॉलेज में मेरे छात्र थे जहाँ पर वे एमसीए के डिग्री कोर्स के लिए पढाई कर रहे थे, यानि मैंने उन्हें लगभग सात वर्षों तक पढाया था। ज़ाहिर है कि उन वर्षों के दौरान मैं उनके और उनके परिवार के बारे में काफी अच्छी तरह जान गयी थी। मैं देखती थी कि अन्य जुडवाँ भाइयों की तरह राम और श्याम भी एक दूसरे के साथ खुश रहते थे और अपने होमवर्क, लैब व क्लास नोट्स में एक दूसरे की मदद करते हुए वे कॉलेज में हमेशा साथ-साथ दिखाई देते थे। उनकी शक्ल सूरत एक दूसरे से इतनी ज्यादा मिलती थी कि कभी-कभी मैं पहचान नहीं पाती थी कि कौनसा राम है और कौनसा श्याम। मैं उनसे मज़ाक में कहती, “तुम लोगों को कुछ न कुछ ऐसा पहनना चाहिये ताकि मैं तुम्हें पहचान सकूँ। मुझको इतनी दुविधा होती है, तो तुम्हारी शादी हो जाने के बाद क्या होगा? मेरे ख्याल से तुम लोगों को शादी भी एक जैसी शक्ल सूरत वाली जुडवाँ लडकियों से करनी चाहिये। तब जो उलझन और गडबडी पैदा होगी, वह बहुत मज़ेदार होगी”।
एमसीए करने के बाद, वे एक सॉफ्टवेयर कम्पनी में नौकरी करने लगे। उनके पिता एक उद्योगपति थे और माँ एक स्कूल में प्रिंसिपल थीं। इसलिए वे एक सम्पन्न परिवार से थे और उनका घर काफी बडा था तथा एक फॉर्महाउस भी था। एक दिन, वे दोनों लडके मुझे अपनी शादी में आमंत्रित करने के लिये आये। मज़े की बात यह थी कि वे वाकई ऐसी लडकियों से शादी कर रहे थे जो जुडवाँ बहनें थीं!
मैंने फिर मज़ाक में कहा, “ऐसा लगता है तुम्हारी ज़िन्दगी की कहानी किसी फिल्म की कहानी की तरह हो जायेगी! तुम्हें जुडवाँ लडकियां कैसे मिलीं? उनके नाम क्या हैं?”
“मैडम, जब हमने शादी करने का निश्चय किया तो हमने जानबूझ कर जुडवाँ बहनें ढूँढीं, क्योंकि हमने महसूस किया कि जुडवाँ लडकियां ही हमें और हमारी दोस्ती को पूरी तरह से समझ सकती हैं। उनके नाम स्मिता और सविता हैं। आप प्लीज हमारी शादी में ज़रूर आयें। आखिरकार, यह विचार सबसे पहले आपको ही तो सूझा था!”
मैं उनकी शादी में शामिल हुई और मन से दोनों जोडों को आशीर्वाद दिया। मैंने महसूस किया कि इससे दोनों पक्षों के माता-पिता को भी बडी राहत मिली होगी। दो भाई दो बहनों से शादी कर रहे हैं, तो दोनों जोडों के बीच कम से कम कोई प्रतिद्वन्द्विता तो नहीं होगी।
कई महीनों बाद, अचानक एक दिन राम और श्याम की माताजी का मेरे पास फोन आया। उनकी आवाज़ में थकावट लग रही थी। परेशानी सी में उन्होंने कहा, “मैडम, क्या आप आकर बच्चों से बात कर सकती हैं?”
मैं समझ गयी कि कुछ न कुछ परेशानी है, और उसी वीकेंड पर माजरा जानने के लिए मैं उनके घर गयी। थोडी देर तक तो मैं मकान को पहचान ही नहीं पायी, हालांकि मैं उसी के सामने खडी थी। अब एक के बजाय मकान में सामने के दो दरवाजे थे और गार्डन भी दो हिस्सों में बंटा हुआ था। मुझे लगा कि मैं शायद गलत पते पर आ गयी हूँ या वे लोग कहीं और चले गये हैं, लेकिन राम की माताजी ने मुझे देख लिया और अन्दर से ही आवाज़ लगायी।
मैं अन्दर चली गयी और मैंने फौरन ही भाँप लिया कि माहौल में एक अजीब उदासी है। मकान को बडे बेतुके ढंग से दो हिस्सों में बांटा गया था। ड्रॉइंग रूम अब बहुत छोटा हो गया था, और बेडरूम बहुत बडे और किचिन का आकार अजीब सा था। मकान में हॉल से लेकर किचिन तक ईंटों की एक लम्बी दीवार चिनी हुई थी। घर में एकदम सन्नाटा पसरा हुआ था। मैंने उनकी माताजी से पूछा, “ क्या हुआ? आपने यहाँ पर यह दीवार क्यों लगा दी?” फिर उन्होंने मुझे अपनी दुख भरी कहानी सुनायी।
“राम और श्याम में लडाई हुई और दोनों अलग-अलग हो गये, इसीलिए यह दीवार खडी हो गयी। आपको यह देख कर इतनी हैरानी क्यों हो रही है? बडे होने पर लोग बदल जाते हैं। छुटपन में उनमें दिखने वाली वह मासूमियत खो जाती है”।
मैंने कहा, “भाइयों के बीच अक्सर लडाई उनकी पत्नियों के कारण होती है, लेकिन यहाँ पर तो वे दोनों सगी बहनें हैं, उन्होंने इस सब के लिये क्यों उकसाया?”
“जब हमने उनकी शादी की, तब हम भी यही सोचते थे। कुछ दिनों तक ठीक ठाक चला। जब मेरे पति रिटायर हो गये, तो हमने सम्पत्ति का बंटवारा करके दोनों भाइयों को बराबर हिस्सा देने की सोची। बस वहीं पर परेशानी शुरू हो गयी। उन दोनों को वही मकान और वही फॉर्महाउस चाहिये था। इस समस्या को हम कैसे हल करते? वे दोनों अपनी ज़िद पर अडे थे, इसलिए दोनों की गृहस्थियों को अलग करने के लिए यह दीवार खडी करनी पडी”।
वह पुरानी कहावत आज भी कितनी सच्ची है, पैसा ऐसी चीज है जो लोगों को जोडता कम है, अलग ज्यादा करता है! झगडा सम्पत्ति को लेकर था।
उनकी माताजी चाहती थीं कि मैं उनसे बात करूँ और उनकी टीचर के रूप में उन्हें समझाऊँ। लेकिन मैं जानती थी कि पैसों के मामले में उनकी इस कॉलेज टीचर के शब्द उनकी सोच को नहीं बदल पायेंगे। फिर भी मैंने कोशिश की। मैंने कहा, “जब से तुम अपनी माँ के पेट में आये थे, तब से तुम मिलजुल कर एक ही जगह पर रहते आये हो। तुम अपनी माँ की कोख में साथ-साथ रहे, तुम अपने सुख-दुख बांट कर साथ-साथ इस घर में बडे हुए। तुमने जुडवाँ लडकियों से शादी की ताकि वे तुम्हारी दोस्ती को बेहतर ढंग से समझ सकें। तुम लोगों को समझना चाहिये कि ज़िन्दगी में कभी-कभी समझौता करना और अपने प्रियजनों के साथ शांति से रहना कितना महत्वपूर्ण होता है”।
उनके पास मेरी बातों का कोई जवाब नहीं था और मैं जानती थी कि उनके कानों पर जूँ नहीं रेंगेगी। मैं नाकामयाब वापस लौट आयी। जब तक मैं घर पहुँची, मैं अपने एक दोस्त के साथ डिनर अपॉइंटमेंट के लिए लेट हो चुकी थी। वह मेरा साथी था और मैं बहुत वर्षों से उसे जानती थी। मुझे देरी से आते हुए देख कर उसने कहा, “समय की पाबन्दी अच्छी टीचर की पहचान है - लेकिन सिर्फ क्लास में ही नहीं बल्कि दूसरी जगहों पर भी”।
मैंने उसकी बात पर सहमति जतायी और क्षमा माँगी।
“मुझे अफसोस है। लेकिन हम अब किस रेस्त्रां में चल रहे हैं?”
उसकी पत्नी ने मुस्कुराते हुए कहा, “हम तीस किलोमीटर दूर एक गाँव के लिए चल रहे हैं”।
“ओह, किसी फॉर्महाउस में है?”
“नहीं, हमारा कोई फॉर्महाउस नहीं है। डिनर एक फार्मर के हाउस पर है”।
वे किस बारे में बात कर रहे थे, मेरी समझ में नहीं आया। इसलिए मैं चुपचाप गाडी में बैठ गयी। मेरा दोस्त पहले हमें लेकर नज़दीक के एक मार्केट में गया। वहाँ से उसने कुछ मिठाई और फल खरीदे तथा उसकी पत्नी ने कुछ कपडे। मैंने फिर उत्सुकतावश पूछा, “हम जा कहाँ रहे हैं?”
उसने बडी शांति के साथ जवाब दिया, “मेरे भाई के घर। वह हमें बहुत दिनों से अपने यहाँ बुला रहा है। मुझे यकीन है तुम्हें वहाँ पर अच्छा लगेगा”। जहाँ तक मुझे मालूम था उसके कोई भाई या बहन नहीं थे। वह अपने माता-पिता की अकेली संतान था।
“यह भाई कहाँ से आ गया? कोई कजिन है? या कोई घनिष्ठ मित्र जो भाई की तरह है? या हिन्दी फिल्मों की तरह तुम्हें अचानक पता चला है कि तुम्हारा एक भाई है जो तुमसे बहुत पहले बिछुड गया था?”
मेरी बात सुन कर वह बस रहस्यमयी ढंग से मुस्कुराया और गाडी चलाता रहा। कुछ ही देर में हम बैंगलोर से बाहर निकल आये और गाडी हाईवे पर तेज़ी से दौडने लगी। उसकी खामोशी मुझे बेचैन कर रही थी और मैं सोचने लगी कि कहीं मैंने उससे बहुत अधिक सवाल तो नहीं पूछ लिये या उसकी निजी ज़िन्दगी में झांकने की बलात कोशिश तो नहीं की। अगर हम अमेरिका में होते और मैंने इतनी बातें की होतीं, तो वह मुझे अब तक चुप रहने और अपने काम से काम रखने के लिए कह चुका होता। लेकिन यहाँ हिन्दुस्तान में हम लोगों से उनकी निजी ज़िन्दगी के बारे में सवाल पूछने से खुद को नहीं रोक पाते, चाहे उसमें हमारी दिलचस्पी हो या नहीं।
अचानक मेरे दोस्त ने बोलना शुरू किया।
“पछपन साल पहले, मैं उस गाँव में पैदा हुआ था जहाँ पर हम जा रहे हैं। जब मैं सिर्फ दस दिन का था तो मेरी माँ चल बसी थी। मेरे पिताजी उनसे बेहद प्यार करते थे और माँ की अचानक मौत से उनका दिल टूट गया था लेकिन उन्हें मेरी परवरिश भी करनी थी। मुझे गाय का दूध हजम नहीं होता था और माँ के चले जाने से मैं और कोई दूध पी ही नहीं पाता था। मैं पूरे पूरे दिन भूखा बिलखता रहता था। उन दिनों बच्चों के लिए कोई इन्फैंट फोर्मुला या पाउडर वाला दूध नहीं होता था। मैं कमजोर होता चला गया और मेरे ज़िन्दा बचे रहने की उम्मीद कम होती चली गयी। मेरे पिताजी मुझे लेकर बहुत चिंतित थे लेकिन उन्हें कुछ सूझ नहीं पा रहा था कि क्या करें। उन्हें मदद मिली सीताक्का से। वह हमारे नौकर की बीवी थी और मेरे पैदा होने से कुछ दिन पहले ही उसने एक बेटे को जन्म दिया था। जब उससे मेरी दयनीय हालत नहीं देखी गयी तो उसने मेरे पिताजी से कहा, “अन्ना, अगर आपको बुरा ना लगे, तो मैं इस बच्चे को अपने बेटे के साथ अपना दूध पिलाना चाहती हूँ”। मेरे पिताजी ने कुछ देर सोचा, और हालांकि बहुत से रिश्तेदारों ने इसका विरोध किया, लेकिन उन्होंने इसके लिये अपनी सहमति दे दी और सीताक्का ने अपना दूध पिला कर मेरी ज़िन्दगी बचा ली। वह मुझे तब तक अपना दूध पिलाती रही जब तक मुझे गाय का दूध और दूसरा खाना हजम होना शुरू नहीं हो गया। मैं पाँच सालों तक इस गाँव में रहा, लेकिन मुझे सीताक्का हमेशा याद रहती है और मैं उसे एक महान महिला मानता हूँ। असल में, मैं उसके बेटे हनुमा को अपना भाई मानता हूँ। मैंने उसे अपनी जायदाद में से भी कुछ हिस्सा दिया, हालांकि मेरे रिश्तेदारों ने पहले की तरह इसका भी बहुत विरोध किया। उनके लिए सीताक्का महज़ एक नौकरानी थी, लेकिन मेरे लिए वह एक विशाल हृदय वाली, सरल औरत थी, जिसका प्यार कोई पाबंदियां नहीं जानता था।
“अब मैं बैंगलोर में अपने काम में व्यस्त रहता हूँ, लेकिन मैं उसके बेटे, यानि अपने भाई से मिलने साल में कम से कम एक बार ज़रूर जाता हूँ। आखिरकार सीताक्का ने बिना कोई अपेक्षा किये अपना प्यार हम दोनों पर बराबर मात्रा में उंडेला था। हम एक ही माँ के प्यार के भागीदार रहे, इसलिए हम दोनों भाई ही तो हुए”।
जब तक उसकी कहानी खत्म हुई, हम गाँव में पहुँच चुके थे और मेरे दोस्त ने हनुमा की ओर इशारा किया जो हमें अपने घर ले जाने के लिए सडक के किनारे खडा हुआ था। पूरे डिनर के दौरान, उन दोनों के बीच प्यार देख कर, मुझे राम और श्याम के परिवारों के बीच की वह दीवार याद आती रही और मैं नियति की इस विडम्बना पर चकित होती रही, जिसने भाइयों को अजनबी बना दिया था और मालिक और नौकर के बेटों को भाई।]
प्रस्तुति: राजेन्द्र चौधरी
गुरुवार, अक्टूबर 06, 2011
गरीबी के दो चेहरे
आज का यह लेख भी सुधा मूर्ति जी पुस्तक, ‘The Old Man and His God’ में शामिल एक प्रसंग का हिन्दी-भाषी पाठकों के हितार्थ मेरे द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद है:
[लीला मेरे दफ्तर में वर्षों से काम कर रही है। वह झाडू, पौंछा और साफ-सफाई का काम करती है। वह अपना काम चुपचाप शांति से करती है और अगर कभी कुछ अतिरिक्त काम भी उसे दे दिया जाता, तो बिना किसी शिकवे-शिकायत के उसे भी पूरा कर देती है। चूँकि वह चुपचाप रहती थी और मैं अक्सर बहुत व्यस्त, इसलिए मैं उसकी निजी ज़िन्दगी के बारे में कुछ ज्यादा नहीं जानती थी, सिवाय इसके कि उसके पति ने उसे छोड दिया था और वह अकेले तीन बेटियों का पालन-पोषण कर रही थी।
एक दिन, वह मेरे चैम्बर में सफाई करने के लिये आई और अपना काम करने के बाद वह मेरे सामने हिचकिचाते हुए खडी हो गयी। चूँकि यह उसके स्वभाव में नहीं था, इसलिए मुझे आश्चर्य हुआ। धीरे से, उसने एक पुरानी पोटली निकाली और मेरे सामने रख दी। फिर उसने धीमी आवाज़ में कहा, “मैडम क्या आप मुझे बीस हजार रुपये उधार दे सकती हैं?” मैं अभी भी उलझन में थी और मैने पूछा, “क्या हुआ लीला? तुम्हें अचानक इतने पैसे क्यों चाहियें?” उसने जवाब दिया, “मेरी सबसे छोटी बेटी कॉलेज में दाखिला लेना चाहती है और उसके लिए मुझे पैसा चाहिये।” जिस समय वह मुझे यह बता रही थी, मैंने कपडे की पोटली खोली और देखा कि उसके अन्दर सोने की दो पुरानी चूडियाँ थीं। मैंने पूछा, “तुम यह मुझे क्यों दे रही हो लीला?”
“मेरे पास बस यही है मैडम, अपनी बेटी को आगे पढाने के लिये मैं कुछ भी करूँगी। वह बहुत होशियार है। वह इंजीनियर बनना चाहती है।”
लडकी के बारे में बताते हुए उसकी आवाज़ में गर्व साफ झलक रहा था। लेकिन किस माँ को अपना बच्चा सबसे अच्छा और होशियार नहीं लगता? इसलिए मैने लीला से कहा, “इन चूडियों को अपने पास रखो। मैं पैसा उधार देने वाली कोई महाजन नहीं हूँ। मैं तुम्हारी बेटी से मिलना चाहती हूँ और उससे खुद बात करना चाहती हूँ। उससे कहो कि वह अपने स्कूल के सर्टिफिकेट्स के साथ मुझसे आकर मिले।”
अगले दिन साधारण से लेकिन साफ कपडों में एक लडकी मेरे दफ्तर में मेरा इंतज़ार कर रही थी। वह चेहरे से बुद्धिमान लग रही थी और जैसे ही मैं अन्दर आयी तो वह नम्रता के साथ खडी हो गयी।
उसने अपना परिचय दिया, “मैडम मैं लीलाअम्मा की बेटी हूँ। मेरा नाम गिरिजा है। मेरी माँ ने कहा था कि आप मुझसे बात करना चाहती हैं।”
फिर उसने अपने सर्टिफिकेट्स मेरे आगे रख दिये। उसके द्वारा लगातार हर साल प्राप्त किये गये अच्छे नम्बरों को देख कर मैं हैरान रह गयी। उसके पास पढाई के अलावा अन्य गतिविधियों के भी बहुत सारे प्रमाणपत्र थे। इसीलिए शायद लीला को उस पर इतना गर्व था और उसके लिये वह अपनी चूडियां भी गिरवी रखने को तैयार थी। मैंने उसकी तरफ दोबारा गौर से देखा। उसका रंग गोरा था और उसका चेहरा ओस की तरह विमल था। मुझे यह अजीब लगा, क्योंकि लीला का कद छोटा और रंग काफी सांवला था। हमने कुछ मिनटों तक और बातचीत की और मुझे गिरिजा के शब्दों में उसकी माँ व बहनों के प्रति उसके स्नेह की स्पष्ट झलक दिखायी दी। मैंने उसे वापस भेज दिया और लीला को बुलाया।
“लीला, मैं तुम्हारी दूसरी दो बेटियों से मिल चुकी हूँ जब वे एक बार दफ्तर आयीं थीं, लेकिन मैं गिरिजा से मिलकर बहुत प्रभावित हुई। उसमें कुछ बात है जो उसे भिन्नता प्रदान करती है। तुम ठीक कहती थीं, वह बहुत होशियार है। उसकी पढाई की फीस के बाबत मैं तुम्हारी मदद करूँगी। अगर वह अच्छे नम्बर लाती रही, तो मैं उसके पूरे कोर्स की फीस दे दूँगी। अगर वह मेहनत करती रही, तो उस लडकी में अपना भविष्य बदल देने की क्षमता है . . .।” मैं बात करती जा रही थी और अपनी मेज की चीजों को व्यवस्थित भी करती जा रही थी। काफी बोल चुकने के बाद मुझे अहसास हुआ कि लीला बिना कुछ कहे चुपचाप खडी हुई थी। आखिरकार उसने अपनी चुप्पी तोडते हुए कहा, “इससे पहले कि आप मेरी मदद करें, मैं आपको कुछ बताना चाहती हूँ। गिरिजा मेरी अपनी बच्ची नहीं है। मैंने उसे गोद लिया है।” मैं हैरान रह गयी। मैंने पूछा, “कब? क्यों?”
उसने गहरी साँस लेते हुए कहा, “यह एक लम्बी कहानी है। बहुत वर्षों पहले मैं एक जवान लडकी के यहाँ काम करती थी। वह अकेली रहती थी। उसके माता-पिता यू.एस. में थे और उसे अपनी पढाई खत्म करके उनके पास जाना था। मैं उसके यहाँ खाना बनाती थी। वह लडकी देखने में सुन्दर और मिलनसार थी। उसके यहाँ अक्सर बहुत से लडके व लडकियां आते रहते थे और उसके यहाँ हंसी, मज़ाक, गाने, बजाने व दावत का माहौल रहता था।
“एक दिन वह लडकी मुझे बहुत परेशान और दुखी दिखायी दी। वह मुझसे अक्सर बातचीत करती रहती थी, इसलिए मैंने उससे पूछा कि क्या बात है। उसने बताया कि वह गर्भवती है और जो लडका इस सब के लिये जिम्मेदार था वह इस खबर को सुनते ही विदेश चला गया और उसे इस मुसीबत में अकेला छोड गया। वह अपने माता-पिता को इस बारे में बताने की हिम्मत नहीं कर पायी और गर्भपात कराने के लिये अब बहुत देर हो चुकी थी।
“यह सब सुनने के बाद मैं क्या कर करती? मैंने उसकी गर्भावस्था के दौरान पूरी देखभाल की, उसके खाने पीने का अच्छा ख्याल रखा। उसने इसी शहर के एक नर्सिंग होम में एक बच्ची को जन्म दिया। उस दौरान सिर्फ मैं ही उसकी स्थिति के बारे में जानती थी। बच्ची के पैदा होते ही उसने मुझसे कहा कि इसे ले जाकर किसी अनाथालय में डाल आओ। मैंने कोशिश भी की, लेकिन नन्ही सी बच्ची को अपनी गोद में लेने के बाद मैं ऐसा करने की हिम्मत नहीं कर सकी और मैंने तय किया कि मैं ही इस बच्ची को पालूँगी। मेरे पहले से ही दो बेटियां थीं और मेरे पति ने मुझे छोड दिया था, लेकिन मैं जानती थी कि मैं हमेशा इतना ज़रूर कमा लूंगी जिससे इस बच्ची का भी गुज़ारा हो सके। गिरिजा वही बच्ची है।”
लीला की कहानी और उसकी हिम्मत व उदारता सुन कर मैं हक्की-बक्की रह गयी। उसकी ज़िन्दगी की कुचल देने वाली गरीबी भी उसके अन्दर की मानवीयता को कम नहीं कर पायी थी।
फिर भी सब बच्चे इतने भाग्यशाली नहीं होते कि उनकी देखभाल के लिये कोई लीला मिल ही जाये। ऐसे बच्चे भी हैं जिनकी निर्दयता और उपेक्षा से भरी कहनियां बडे से बडे दोष-दर्शी लोगों को हैरत में डाल सकती हैं। ऐसा ही एक अभागा बच्चा सोमनाथ था।
आमतौर पर मैं कोशिश करती हूँ कि किसी बच्चे के माता-पिता को पैसा न दिया जाये। इसके बजाय, हम यह पैसा उस अस्पताल को देते हैं जहाँ पर वे अपने ज़रूरतमंद बच्चे का कम से कम पैसों में इलाज कराते हैं। एक बार मैंने इसका अपवाद किया और तब से मुझे इसका बहुत खेद है। यह तब शुरू हुआ जब एक दिन रामप्पा मुझसे मिलने आया। वह रिसेप्शन पर खडा हुआ मेरी सेक्रेटरी से बहस कर रहा था जो उसे बिना अपॉइंटमेंट लिये मुझसे मिलने देना नहीं चाहती थी। चूँकि वह वहाँ पर आ ही चुका था, इसलिए उसे वापस भेजने की कोई तुक न देखते हुए मैंने उसे अन्दर बुलाया। उसने कहा कि उसके बेटे को कैंसर है और उसकी जल्दी से जल्दी सर्जरी करानी है। वह एक क्लर्क है और किसी भी तरह से इसके लिये ज़रूरी दो लाख रुपये का इंतजाम नहीं कर सकता है। वह अपने साथ जो कागज़ और मेडिकल सर्टिफिकट्स लिये हुए था, मैंने उन पर नज़र डाली। फिर मैंने उससे कहा कि कुछ और कागज़ लेकर आओ – अस्पताल में भर्ती होने का सबूत, पैथोलोजी की रिपोर्टें, ऑपरेशन के खर्चे का अनुमान, अस्पताल में उसका आईडी, वगैरा। मुझे डॉक्टर का नाम भी बताओ ताकि मैं उससे बात कर सकूँ।
रामप्पा ने थोडी देर सोचा और कहा, “ठीक है, मैं कल कागज़ ले आऊँगा।” लेकिन अगले दिन, रामप्पा एक बच्चे का हाथ थामे हुए मेरे दफ्तर में आया। वह बच्चा साफतौर पर बहुत बीमार लग रहा था और उसकी दशा बहुत शोचनीय थी। ऐसी स्थिति में बच्चे को लेकर आने पर मैं उस पर बहुत नाराज़ हुई। मैंने उससे कहा, “आप इसे लेकर क्यों आये? मुझे तो सिर्फ कुछ कागज़ देखने थे।”
रामप्पा अपने जवाब के साथ तैयार था। “आपने जो कागज़ मांगे थे उन्हें लाने में मुझे कुछ दिन लग जाते, इसलिए मैं सबूत के तौर पर बच्चे को ही ले आया।”
मुझे सोमनाथ को देख कर दुख हुआ और मैंने 25000 रुपये का चैक लिख कर दे दिया। रामप्पा ने कहा, “क्या आप मुझे एक पत्र दे सकती हैं कि आपने मुझे ये पैसे दिये हैं? उस पत्र को मैं अन्य लोगों को दिखा सकता हूँ। आपका नाम देख कर वे भी मेरी सहायता करने के लिये तैयार हो जायेंगे।“ मुझे ऐसा पत्र लिख कर देने में कुछ गलत नहीं लगा और मैंने वह दे दिया। रामप्पा ने मुझे बहुत धन्यवाद दिया और यह वादा करके वह चला गया कि ऑपरेशन कैसा रहा इस बारे में वह मुझे बतायेगा। लेकिन उसकी तरफ से कोई खबर नहीं आयी और एक साल बीत गया। हम भी रामप्पा के बारे में भूल गये थे। जब ऑडिटर अपना काम कर रहे थे, तो मुझे अहसास हुआ कि रामप्पा ने न तो फोन किया और नाहीं दूसरे कागज़ात या ऑपरेशन की रसीदें भेजीं। उसने जो नाम बताया था उस अस्पताल में मैंने यह जानने के लिये फोन किया कि क्या उस साल में उन्होंने किसी सोमनाथ नाम के बच्चे का ऑपरेशन किया था। मुझे यह सुन कर दुख हुआ कि उन्होंने ऐसा कोई ऑपरेशन नहीं किया था। शायद रामप्पा पूरे पैसों का इंतज़ाम नहीं कर पाया हो, यह सोच कर मैंने अपने मन में खुद को भला-बुरा कहा कि मैंने उसकी और मदद क्यों नहीं की या इस मामले का फोलो-अप क्यों नहीं किया।
मैंने तय किया कि मैं उससे जाकर मिलूँ। उसका दिया हुआ पता अभी भी मेरे पास था। मैंने जब वह जगह ढूँढी, तो वहाँ पर ताला लगा हुआ था। यह आधुनिक तरीके से बना हुआ टाइलों और ग्रेनाइट से युक्त एक तीन मंजिला और उस इलाके का सबसे शानदार मकान था। इतनी दूर आने पर मैं सोमनाथ के बारे में और अधिक जाने बिना वापस नहीं लौटना चाहती थी, इसलिए मैंने उसके बराबर वाले मकान का दरवाजा खटखटाया। एक बुजुर्ग महिला निकल कर आयी और उसे एक अजनबी महिला द्वारा सवाल पूछे जाने पर कोई ताज्जुब नहीं हुआ। उसने मुझसे खुल कर बात की।
मैंने पूछा, “रामप्पा और सोमनाथ कहाँ हैं?”
“सोमनाथ की छह महीनें पहले मौत हो चुकी है।”
मुझे सुन कर दुख हुआ, लेकिन आश्चर्य नहीं।
इस दौरान वह बुजुर्ग महिला बोलती रही। “सोमनाथ की बीमारी रामप्पा के लिये वरदान बन कर आयी थी। उसे किसी मशहूर औरत से एक खत मिल गया जिसने उसे ऑपरेशन के लिये 25000 रुपये दिये थे। उस खत को लेकर वह जगह जगह दूसरे लोगों से मिला और उसने 8 लाख रुपये इकट्ठा कर लिये। उसी पैसे से उसने यह नया घर बनाया और ऑटो का बिजनेस भी शुरू कर दिया। अब उसकी ज़िन्दगी बहुत बढिया गुज़र रही है।”
“लेकिन क्या उसने सोमनाथ का ऑपरेशन नहीं कराया?”
“रामप्पा कोई बेवकूफ नहीं था जो उसका ऑपरेशन कराता। बेटे की बीमारी को लेकर वह बिल्कुल परेशान नहीं था। आखिर के दिनों में, जब वह पैसा इकट्ठा करने जाता तो उसे अपने साथ ले जाता था। बेचारे सोमनाथ ने बहुत तकलीफ सही और वह घर पर ही मर गया।”
मैं यह सुन कर हतप्रभ रह गयी। तभी अन्दर से एक आदमी बाहर निकला और उसने उस बुजुर्ग महिला को बात करने के लिये मना किया। लेकिन उस महिला ने गुस्से में जवाब दिया, “मैं बात क्यों न करूँ? मैंने सोमनाथ को तबसे देखा था जबसे वह पैदा हुआ था। मैंने उसे तकलीफ से तडपते हुए देखा था। रामप्पा ने अपने ही बेटे के साथ जो किया उसके लिये भगवान उसे कभी भी माफ नहीं करेगा।”
मुझे अब तक काफी कुछ पता चल चुका था, इसलिए मैंने उस महिला से इज़ाज़त ली। कार तक पहुँचते हुए मेरी आँखें भर आयीं। मैंने बस मन ही मन भगवान का धन्यवाद दिया कि इस दुनिया में अभी भी लीला जैसे लोग मौजूद हैं। वे दुर्भाग्यवश बहुतायत में पाये जाने वाले रामप्पा जैसे लोगों के द्वारा दिये जाने वाले दर्द को कम कर देते हैं।]
- प्रस्तुति: राजेन्द्र चौधरी
[लीला मेरे दफ्तर में वर्षों से काम कर रही है। वह झाडू, पौंछा और साफ-सफाई का काम करती है। वह अपना काम चुपचाप शांति से करती है और अगर कभी कुछ अतिरिक्त काम भी उसे दे दिया जाता, तो बिना किसी शिकवे-शिकायत के उसे भी पूरा कर देती है। चूँकि वह चुपचाप रहती थी और मैं अक्सर बहुत व्यस्त, इसलिए मैं उसकी निजी ज़िन्दगी के बारे में कुछ ज्यादा नहीं जानती थी, सिवाय इसके कि उसके पति ने उसे छोड दिया था और वह अकेले तीन बेटियों का पालन-पोषण कर रही थी।
एक दिन, वह मेरे चैम्बर में सफाई करने के लिये आई और अपना काम करने के बाद वह मेरे सामने हिचकिचाते हुए खडी हो गयी। चूँकि यह उसके स्वभाव में नहीं था, इसलिए मुझे आश्चर्य हुआ। धीरे से, उसने एक पुरानी पोटली निकाली और मेरे सामने रख दी। फिर उसने धीमी आवाज़ में कहा, “मैडम क्या आप मुझे बीस हजार रुपये उधार दे सकती हैं?” मैं अभी भी उलझन में थी और मैने पूछा, “क्या हुआ लीला? तुम्हें अचानक इतने पैसे क्यों चाहियें?” उसने जवाब दिया, “मेरी सबसे छोटी बेटी कॉलेज में दाखिला लेना चाहती है और उसके लिए मुझे पैसा चाहिये।” जिस समय वह मुझे यह बता रही थी, मैंने कपडे की पोटली खोली और देखा कि उसके अन्दर सोने की दो पुरानी चूडियाँ थीं। मैंने पूछा, “तुम यह मुझे क्यों दे रही हो लीला?”
“मेरे पास बस यही है मैडम, अपनी बेटी को आगे पढाने के लिये मैं कुछ भी करूँगी। वह बहुत होशियार है। वह इंजीनियर बनना चाहती है।”
लडकी के बारे में बताते हुए उसकी आवाज़ में गर्व साफ झलक रहा था। लेकिन किस माँ को अपना बच्चा सबसे अच्छा और होशियार नहीं लगता? इसलिए मैने लीला से कहा, “इन चूडियों को अपने पास रखो। मैं पैसा उधार देने वाली कोई महाजन नहीं हूँ। मैं तुम्हारी बेटी से मिलना चाहती हूँ और उससे खुद बात करना चाहती हूँ। उससे कहो कि वह अपने स्कूल के सर्टिफिकेट्स के साथ मुझसे आकर मिले।”
अगले दिन साधारण से लेकिन साफ कपडों में एक लडकी मेरे दफ्तर में मेरा इंतज़ार कर रही थी। वह चेहरे से बुद्धिमान लग रही थी और जैसे ही मैं अन्दर आयी तो वह नम्रता के साथ खडी हो गयी।
उसने अपना परिचय दिया, “मैडम मैं लीलाअम्मा की बेटी हूँ। मेरा नाम गिरिजा है। मेरी माँ ने कहा था कि आप मुझसे बात करना चाहती हैं।”
फिर उसने अपने सर्टिफिकेट्स मेरे आगे रख दिये। उसके द्वारा लगातार हर साल प्राप्त किये गये अच्छे नम्बरों को देख कर मैं हैरान रह गयी। उसके पास पढाई के अलावा अन्य गतिविधियों के भी बहुत सारे प्रमाणपत्र थे। इसीलिए शायद लीला को उस पर इतना गर्व था और उसके लिये वह अपनी चूडियां भी गिरवी रखने को तैयार थी। मैंने उसकी तरफ दोबारा गौर से देखा। उसका रंग गोरा था और उसका चेहरा ओस की तरह विमल था। मुझे यह अजीब लगा, क्योंकि लीला का कद छोटा और रंग काफी सांवला था। हमने कुछ मिनटों तक और बातचीत की और मुझे गिरिजा के शब्दों में उसकी माँ व बहनों के प्रति उसके स्नेह की स्पष्ट झलक दिखायी दी। मैंने उसे वापस भेज दिया और लीला को बुलाया।
“लीला, मैं तुम्हारी दूसरी दो बेटियों से मिल चुकी हूँ जब वे एक बार दफ्तर आयीं थीं, लेकिन मैं गिरिजा से मिलकर बहुत प्रभावित हुई। उसमें कुछ बात है जो उसे भिन्नता प्रदान करती है। तुम ठीक कहती थीं, वह बहुत होशियार है। उसकी पढाई की फीस के बाबत मैं तुम्हारी मदद करूँगी। अगर वह अच्छे नम्बर लाती रही, तो मैं उसके पूरे कोर्स की फीस दे दूँगी। अगर वह मेहनत करती रही, तो उस लडकी में अपना भविष्य बदल देने की क्षमता है . . .।” मैं बात करती जा रही थी और अपनी मेज की चीजों को व्यवस्थित भी करती जा रही थी। काफी बोल चुकने के बाद मुझे अहसास हुआ कि लीला बिना कुछ कहे चुपचाप खडी हुई थी। आखिरकार उसने अपनी चुप्पी तोडते हुए कहा, “इससे पहले कि आप मेरी मदद करें, मैं आपको कुछ बताना चाहती हूँ। गिरिजा मेरी अपनी बच्ची नहीं है। मैंने उसे गोद लिया है।” मैं हैरान रह गयी। मैंने पूछा, “कब? क्यों?”
उसने गहरी साँस लेते हुए कहा, “यह एक लम्बी कहानी है। बहुत वर्षों पहले मैं एक जवान लडकी के यहाँ काम करती थी। वह अकेली रहती थी। उसके माता-पिता यू.एस. में थे और उसे अपनी पढाई खत्म करके उनके पास जाना था। मैं उसके यहाँ खाना बनाती थी। वह लडकी देखने में सुन्दर और मिलनसार थी। उसके यहाँ अक्सर बहुत से लडके व लडकियां आते रहते थे और उसके यहाँ हंसी, मज़ाक, गाने, बजाने व दावत का माहौल रहता था।
“एक दिन वह लडकी मुझे बहुत परेशान और दुखी दिखायी दी। वह मुझसे अक्सर बातचीत करती रहती थी, इसलिए मैंने उससे पूछा कि क्या बात है। उसने बताया कि वह गर्भवती है और जो लडका इस सब के लिये जिम्मेदार था वह इस खबर को सुनते ही विदेश चला गया और उसे इस मुसीबत में अकेला छोड गया। वह अपने माता-पिता को इस बारे में बताने की हिम्मत नहीं कर पायी और गर्भपात कराने के लिये अब बहुत देर हो चुकी थी।
“यह सब सुनने के बाद मैं क्या कर करती? मैंने उसकी गर्भावस्था के दौरान पूरी देखभाल की, उसके खाने पीने का अच्छा ख्याल रखा। उसने इसी शहर के एक नर्सिंग होम में एक बच्ची को जन्म दिया। उस दौरान सिर्फ मैं ही उसकी स्थिति के बारे में जानती थी। बच्ची के पैदा होते ही उसने मुझसे कहा कि इसे ले जाकर किसी अनाथालय में डाल आओ। मैंने कोशिश भी की, लेकिन नन्ही सी बच्ची को अपनी गोद में लेने के बाद मैं ऐसा करने की हिम्मत नहीं कर सकी और मैंने तय किया कि मैं ही इस बच्ची को पालूँगी। मेरे पहले से ही दो बेटियां थीं और मेरे पति ने मुझे छोड दिया था, लेकिन मैं जानती थी कि मैं हमेशा इतना ज़रूर कमा लूंगी जिससे इस बच्ची का भी गुज़ारा हो सके। गिरिजा वही बच्ची है।”
लीला की कहानी और उसकी हिम्मत व उदारता सुन कर मैं हक्की-बक्की रह गयी। उसकी ज़िन्दगी की कुचल देने वाली गरीबी भी उसके अन्दर की मानवीयता को कम नहीं कर पायी थी।
फिर भी सब बच्चे इतने भाग्यशाली नहीं होते कि उनकी देखभाल के लिये कोई लीला मिल ही जाये। ऐसे बच्चे भी हैं जिनकी निर्दयता और उपेक्षा से भरी कहनियां बडे से बडे दोष-दर्शी लोगों को हैरत में डाल सकती हैं। ऐसा ही एक अभागा बच्चा सोमनाथ था।
आमतौर पर मैं कोशिश करती हूँ कि किसी बच्चे के माता-पिता को पैसा न दिया जाये। इसके बजाय, हम यह पैसा उस अस्पताल को देते हैं जहाँ पर वे अपने ज़रूरतमंद बच्चे का कम से कम पैसों में इलाज कराते हैं। एक बार मैंने इसका अपवाद किया और तब से मुझे इसका बहुत खेद है। यह तब शुरू हुआ जब एक दिन रामप्पा मुझसे मिलने आया। वह रिसेप्शन पर खडा हुआ मेरी सेक्रेटरी से बहस कर रहा था जो उसे बिना अपॉइंटमेंट लिये मुझसे मिलने देना नहीं चाहती थी। चूँकि वह वहाँ पर आ ही चुका था, इसलिए उसे वापस भेजने की कोई तुक न देखते हुए मैंने उसे अन्दर बुलाया। उसने कहा कि उसके बेटे को कैंसर है और उसकी जल्दी से जल्दी सर्जरी करानी है। वह एक क्लर्क है और किसी भी तरह से इसके लिये ज़रूरी दो लाख रुपये का इंतजाम नहीं कर सकता है। वह अपने साथ जो कागज़ और मेडिकल सर्टिफिकट्स लिये हुए था, मैंने उन पर नज़र डाली। फिर मैंने उससे कहा कि कुछ और कागज़ लेकर आओ – अस्पताल में भर्ती होने का सबूत, पैथोलोजी की रिपोर्टें, ऑपरेशन के खर्चे का अनुमान, अस्पताल में उसका आईडी, वगैरा। मुझे डॉक्टर का नाम भी बताओ ताकि मैं उससे बात कर सकूँ।
रामप्पा ने थोडी देर सोचा और कहा, “ठीक है, मैं कल कागज़ ले आऊँगा।” लेकिन अगले दिन, रामप्पा एक बच्चे का हाथ थामे हुए मेरे दफ्तर में आया। वह बच्चा साफतौर पर बहुत बीमार लग रहा था और उसकी दशा बहुत शोचनीय थी। ऐसी स्थिति में बच्चे को लेकर आने पर मैं उस पर बहुत नाराज़ हुई। मैंने उससे कहा, “आप इसे लेकर क्यों आये? मुझे तो सिर्फ कुछ कागज़ देखने थे।”
रामप्पा अपने जवाब के साथ तैयार था। “आपने जो कागज़ मांगे थे उन्हें लाने में मुझे कुछ दिन लग जाते, इसलिए मैं सबूत के तौर पर बच्चे को ही ले आया।”
मुझे सोमनाथ को देख कर दुख हुआ और मैंने 25000 रुपये का चैक लिख कर दे दिया। रामप्पा ने कहा, “क्या आप मुझे एक पत्र दे सकती हैं कि आपने मुझे ये पैसे दिये हैं? उस पत्र को मैं अन्य लोगों को दिखा सकता हूँ। आपका नाम देख कर वे भी मेरी सहायता करने के लिये तैयार हो जायेंगे।“ मुझे ऐसा पत्र लिख कर देने में कुछ गलत नहीं लगा और मैंने वह दे दिया। रामप्पा ने मुझे बहुत धन्यवाद दिया और यह वादा करके वह चला गया कि ऑपरेशन कैसा रहा इस बारे में वह मुझे बतायेगा। लेकिन उसकी तरफ से कोई खबर नहीं आयी और एक साल बीत गया। हम भी रामप्पा के बारे में भूल गये थे। जब ऑडिटर अपना काम कर रहे थे, तो मुझे अहसास हुआ कि रामप्पा ने न तो फोन किया और नाहीं दूसरे कागज़ात या ऑपरेशन की रसीदें भेजीं। उसने जो नाम बताया था उस अस्पताल में मैंने यह जानने के लिये फोन किया कि क्या उस साल में उन्होंने किसी सोमनाथ नाम के बच्चे का ऑपरेशन किया था। मुझे यह सुन कर दुख हुआ कि उन्होंने ऐसा कोई ऑपरेशन नहीं किया था। शायद रामप्पा पूरे पैसों का इंतज़ाम नहीं कर पाया हो, यह सोच कर मैंने अपने मन में खुद को भला-बुरा कहा कि मैंने उसकी और मदद क्यों नहीं की या इस मामले का फोलो-अप क्यों नहीं किया।
मैंने तय किया कि मैं उससे जाकर मिलूँ। उसका दिया हुआ पता अभी भी मेरे पास था। मैंने जब वह जगह ढूँढी, तो वहाँ पर ताला लगा हुआ था। यह आधुनिक तरीके से बना हुआ टाइलों और ग्रेनाइट से युक्त एक तीन मंजिला और उस इलाके का सबसे शानदार मकान था। इतनी दूर आने पर मैं सोमनाथ के बारे में और अधिक जाने बिना वापस नहीं लौटना चाहती थी, इसलिए मैंने उसके बराबर वाले मकान का दरवाजा खटखटाया। एक बुजुर्ग महिला निकल कर आयी और उसे एक अजनबी महिला द्वारा सवाल पूछे जाने पर कोई ताज्जुब नहीं हुआ। उसने मुझसे खुल कर बात की।
मैंने पूछा, “रामप्पा और सोमनाथ कहाँ हैं?”
“सोमनाथ की छह महीनें पहले मौत हो चुकी है।”
मुझे सुन कर दुख हुआ, लेकिन आश्चर्य नहीं।
इस दौरान वह बुजुर्ग महिला बोलती रही। “सोमनाथ की बीमारी रामप्पा के लिये वरदान बन कर आयी थी। उसे किसी मशहूर औरत से एक खत मिल गया जिसने उसे ऑपरेशन के लिये 25000 रुपये दिये थे। उस खत को लेकर वह जगह जगह दूसरे लोगों से मिला और उसने 8 लाख रुपये इकट्ठा कर लिये। उसी पैसे से उसने यह नया घर बनाया और ऑटो का बिजनेस भी शुरू कर दिया। अब उसकी ज़िन्दगी बहुत बढिया गुज़र रही है।”
“लेकिन क्या उसने सोमनाथ का ऑपरेशन नहीं कराया?”
“रामप्पा कोई बेवकूफ नहीं था जो उसका ऑपरेशन कराता। बेटे की बीमारी को लेकर वह बिल्कुल परेशान नहीं था। आखिर के दिनों में, जब वह पैसा इकट्ठा करने जाता तो उसे अपने साथ ले जाता था। बेचारे सोमनाथ ने बहुत तकलीफ सही और वह घर पर ही मर गया।”
मैं यह सुन कर हतप्रभ रह गयी। तभी अन्दर से एक आदमी बाहर निकला और उसने उस बुजुर्ग महिला को बात करने के लिये मना किया। लेकिन उस महिला ने गुस्से में जवाब दिया, “मैं बात क्यों न करूँ? मैंने सोमनाथ को तबसे देखा था जबसे वह पैदा हुआ था। मैंने उसे तकलीफ से तडपते हुए देखा था। रामप्पा ने अपने ही बेटे के साथ जो किया उसके लिये भगवान उसे कभी भी माफ नहीं करेगा।”
मुझे अब तक काफी कुछ पता चल चुका था, इसलिए मैंने उस महिला से इज़ाज़त ली। कार तक पहुँचते हुए मेरी आँखें भर आयीं। मैंने बस मन ही मन भगवान का धन्यवाद दिया कि इस दुनिया में अभी भी लीला जैसे लोग मौजूद हैं। वे दुर्भाग्यवश बहुतायत में पाये जाने वाले रामप्पा जैसे लोगों के द्वारा दिये जाने वाले दर्द को कम कर देते हैं।]
- प्रस्तुति: राजेन्द्र चौधरी
बुधवार, अक्टूबर 05, 2011
माँ की ममता
आज का यह लेख मेरा मौलिक लेख नहीं है। यह ‘इंफोसिस’ कम्पनी के कुशाग्र और विख्यात संस्थापक एवं पूर्व अध्यक्ष तथा अपनी सादगी व प्रेरणादायी जीवनशैली के लिए मशहूर श्री नारायणमूर्ति की धर्मपत्नी और परोपकारी कार्यों में सदैव अग्रणी रहने वाली श्रीमती सुधामूर्ति की एक कहानी बल्कि उनके एक प्रसंग का हिन्दी रूपांतर है। उनका यह प्रसंग मैंने कई वर्षों पहले उनकी अंग्रेज़ी भाषा में लिखी पुस्तक ‘The Old Man and His God’ में पढ़ा था और यह सोच कर मैंने उस पुस्तक के कुछ प्रसंगों का हिन्दी अनुवाद किया था कि मैं उनकी उस पूरी पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद करूँ। मैंने नमूने के तौर पर अपने अनुवाद को उनके कार्यालय को भेजा भी, लेकिन पता चला कि उनकी उस पुस्तक का पहले ही हिन्दी में अनुवाद किया जा चुका है और वह हिन्दी संस्करण शीघ्र ही बाज़ार में उपलब्ध होने वाला है। खैर, अपने इस ब्लॉग के माध्यम से मैं अपनी उस कोशिश को आप तक तो पहुँचा ही सकता हूँ।
“एक बार एक सेमिनार में मुझे मातृत्व के विषय पर बोलने के लिए आमंत्रित किया गया। इस सेमिनार में अलग-अलग क्षेत्रों से बडी संख्या में लोग मौजूद थे। कुछ मेडिकल प्रैक्टिश्नर थे, तो कुछ अनाथालयों, गोद लेने वाली संस्थाओं, व गैर-सरकारी संस्थानों से आये थे। धार्मिक नेता, सफल माताएं (आयोजकों के हिसाब से सफल माताओं की परिभाषा यह थी कि जिनके बच्चों ने जीवन में अच्छी प्रगति की है और खूब पैसा कमाया है), युवा माताएं, सभी मौजूद थीं।
वहाँ पर बहुत से स्टॉल लगे हुए थे जिन पर बच्चों के उत्पाद, और मातृत्व, तथा किशोर बच्चों को कैसे संभालें, आदि विषय पर पुस्तकें उपलब्ध थीं। सभी वक्ता अच्छे थे और वे अधिकतर अपने अनुभवों के बारे में दिल से बोले। मीडिया के लोग भारी तादाद में मौजूद थे और वे मशहूर व्यक्तियों के फोटो खींच रहे थे। चूँकि इस सेमिनार का आयोजन सामाजिक कल्याण विभाग द्वारा किया गया था, इसलिए बहुत से सरकारी अधिकारी और बडी संख्या में छात्र भी उपस्थित थे।
जब मेरा नम्बर आया, तो मैंने कई वर्षों पहले हुई एक सच्ची घटना के बारे में बताना शुरू किया।
मेरी एक दोस्त डॉ. आरती के घर पर मंजुला खाना बनाने का काम करती थी। मंजुला का पति निकम्मा और बेकार था। उसके पाँच बच्चे थे और जब वह छठी बार गर्भवती हुई, तो उसने गर्भपात कराने का और साथ ही नसबंदी कराने का निश्चय किया।
लेकिन डॉ. आरती के मन में एक भिन्न विचार आया। उसकी बहन काफी अमीर थी लेकिन उसके कोई संतान नहीं थी और वह किसी नवजात बच्चे को गोद लेना चाहती थी। चूँकि वह काफी दिनों से किसी ऐसे बच्चे की तलाश में थी, इसलिए आरती ने एक सुझाव दिया।
“मंजुला, गर्भपात कराने के बजाय, तुम इस बच्चे को जन्म क्यों नहीं देतीं, और वह चाहे लडका हो या लडकी, मेरी बहन उसे गोद ले लेगी। वह इस शहर में रहती भी नहीं है, इसलिए तुम्हें उस बच्चे के चेहरे को कभी देखने की नौबत भी नहीं आयेगी। वह उस बच्चे को कानूनी तौर पर गोद लेगी और तुम्हारे बाकी बच्चों की पढाई में भी तुम्हारी मदद करेगी। यह बच्चा, जो इस समय अनचाहा है, उसकी परवरिश अच्छे से होगी और उसे बहुत प्यार मिलेगा। मेरे सुझाव पर विचार करो, निर्णय तुम्हारा है और मैं कोई जोर नहीं डालूँगी”।
मंजुला ने कुछ दिन सोचा और आखिरकार वह इस प्रस्ताव पर सहमत हो गयी। कुछ महीनों बाद उसने एक बच्ची को जन्म दिया। डॉ. आरती की बहन भी सभी औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद उसी दिन आ गयी। यह तय हो चुका था कि वह बच्चे को उसके जन्म के एक दिन बाद ले जायेगी। लेकिन जब बच्चे को सौंपने का वक्त आया, तो मंजुला ने उसे देने को मना कर दिया। उसकी छाती में अब दूध उतर आया था और बच्ची ने दूध पीना शुरू कर दिया था। उसने बच्ची को अपने कमजोर शरीर से चिपटा लिया और रोना शुरू कर दिया, “मैं मानती हूँ कि मैं बहुत गरीब हूँ। अगर मेरे पास एक कटोरी भात भी होगा, तो मैं उसे इस बच्ची के साथ बांट कर खा लूँगी। लेकिन मैं इसे अलग नहीं कर सकती। यह इतनी छोटी है और पूरी तरह से मेरे पर आश्रित है। मैं वादा तोड रही हूँ लेकिन मैं अपनी बच्ची के बिना नहीं रह सकती। मेहरबानी करके मुझे माफ़ कर दीजिये”।
आरती और उसकी बहन का परेशान होना स्वाभाविक था। वे उस बच्ची का अपने परिवार में स्वागत करने के लिए खुद को तैयार कर चुकी थीं। लेकिन मंजुला को रोते हुए देख कर, वे समझ गयीं कि मातृत्व को हमेशा समझौतों के तर्क पर नहीं कसा जा सकता है।
मैंने यह कहते हुए अपना भाषण समाप्त किया कि मैंने बहुत बार देखा है कि माँ अपने बच्चों के लिये कुछ भी बलिदान करने के लिए तैयार रहती है। मातृत्व एक प्राकृतिक प्रवृत्ति है। हमारी संस्कृति इसे महिमामंडित करती है और माता को अन्य किसी की तुलना में अत्यधिक सम्मान दिया जाता है। जोरदार तालियों के साथ मेरी प्रशंसा की गयी। मैं भी अपने भाषण से संतुष्ट थी।
मैं स्टेज से नीचे उतरी और देखा कि पास में ही मीरा खडी हुई थी। वह अंधी थी और नेत्रहीनों के स्कूल में अनाथ बच्चों को पढाती थी। वह सेमिनार में अपने स्कूल का प्रतिनिधित्व कर रही थी। मैं उसे काफी अच्छी तरह से जानती थी क्योंकि मैं उसके स्कूल में अक्सर जाती रहती थी। मैं उसके पास गयी और उससे कहा, “मीरा कैसी हो तुम?” वह एक मिनट तक चुप रही, फिर बोली, “मैं ठीक हूँ, मैडम। क्या आप मेरी एक सहायता कर सकती हैं?”
“हाँ, बताओ ना, क्या बात है?” ”मुझे यहाँ से ले जाने और स्कूल में छोडने के लिये अहमद इस्माइल को आना था। लेकिन उसने अभी मेरे सेलफोन पर कॉल करके कहा है कि वह ट्रैफिक जाम में फंसा हुआ है और उसे अभी और समय लगेगा। क्या आप मुझे मेरे स्कूल तक छोड सकती हैं?” अहमद इस्माइल नेत्रहीनों के स्कूल का ट्रस्टी था।
मीरा का स्कूल मेरे ऑफिस के रास्ते में ही पडता था, इसलिए मैं फौरन तैयार हो गयी। कार में, मैंने देखा कि वह बहुत खामोश थी और इसलिए मैंने बातचीत का सिलसिला शुरू किया।
“मीरा, आज का सेमिनार कैसा रहा? क्या तुम्हें मेरा भाषण पसंद आया?” मैं उम्मीद कर रही थी कि आमतौर पर दिया जाने वाला विनम्र उत्तर मिलेगा कि अच्छा था। लेकिन मीरा ने जवाब दिया, “मुझे आपका भाषण पसंद नहीं आया। इस तरह मुँहफट होने के लिये माफ़ी चाहती हूँ, लेकिन ज़िन्दगी हमेशा वैसी नहीं होती”।
मैं आश्चर्यचकित रह गयी। मैं जानना चाहती थी कि इसके पीछे क्या कारण था, इसलिए मैंने उससे पूछा, “मुझे बताओ मीरा। तुमने ऐसा क्यों कहा? जो कुछ मैंने वहाँ कहा वह कोई कहानी नहीं थी, बल्कि सच्ची घटना थी। कभी-कभी सच्चाई कहानी से भी अधिक बेगानी हो जाती है”।
मीरा ने गहरी साँस ली, “हाँ, कभी-कभी सच्चाई कहानी से भी अधिक बेगानी हो जाती है। असल में, मैं आपको यही कहना चाहती थी। मैं आपको एक दूसरी कहानी सुनाती हूँ। एक पाँच साल की लडकी थी जिसे आँखों से बहुत कम दिखाई देता था। उसके माता-पिता दोनों मजदूरी करते थे। वह लडकी अक्सर उनसे शिकायत करती थी कि उसे ठीक से दिखाई नहीं देता, लेकिन वे कह देते कि ऐसा इसलिए है क्योंकि वह ठीक से खाती पीती नहीं है और जब कुछ पैसों का इंतजाम हो जायेगा तो वे उसे डॉक्टर को दिखा देंगे। आखिरकार एक दिन, वे उसे डॉक्टर के पास लेकर गये। उसने उन्हें बताया कि लडकी को ऑपरेशन की ज़रूरत है जिसमें काफी पैसा लगेगा, वर्ना वह धीरे-धीरे बिल्कुल अंधी हो जायेगी। लडकी के माता-पिता ने आपस में कुछ बातचीत की और वे उसे लेकर एक बस-स्टैंड पर आ गये। उन्होंने उसे एक बिस्किट का पैकेट दिया और कहा, “बेटा, तुम ये बिस्किट खाओ और हम अभी पाँच मिनट में आते हैं”।
“बच्ची को ज़िन्दगी में पहली बार बिस्किट का एक पूरा पैकेट मिला था। वह बेहद खुश हुई और उनका आनन्द लेने के लिए वहाँ पर बैठ गयी। अपनी आधी अन्धी आँखों से वह बस अपनी माँ की फटी हुई लाल साडी के पल्लू को भीड में गुम होते देख पायी। दिन ढलने लगा, हवा में ठंडक शुरू हो गयी और वह समझ गयी कि अंधेरा हो चला है। बिस्किट का पैकेट कभी का खत्म हो चुका था। वह अकेली, बेसहारा और डरी हुई थी। वह अपने माता-पिता के लिए चिल्लाने लगी और फटे हुए लाल पल्लू को पहचानने की कोशिश करती हुई वह बेकार में उन्हें तलाश करती रही”।
“उसके बाद क्या हुआ?”
“जहाँ पर भी सोने की जगह मिली, वहीं पर भूखी प्यासी सो कर उस बच्ची ने अपने माता-पिता को ढूँढना जारी रखा। एक दिन, एक दयालु आदमी ने उसकी दयनीय दशा देखी और वह उसे अंधे व्यक्तियों के स्कूल में ले गया। वह बच्ची कोई नाम या पता नहीं बता पायी जिससे उसके माता-पिता को ढूँढा जा सके। उस आदमी ने मैट्रन से अनुरोध किया कि अगर कोई माता या पिता उस बच्ची को लेने के लिये आयें, तो वे उनकी जाँच-पडताल करने के बाद उसे उनको सौंप सकते हैं। लेकिन उसे ढूँढता हुआ कोई नहीं आया। बच्ची ने अपनी माँ का कई सालों तक इंतजार किया, और अंत में एक दिन उसने उम्मीद छोड दी”।
मैंने मुड कर मीरा की तरफ देखा, वह रो रही थी और मुझे अहसास हुआ कि मेरी भी आँखें भरी हुई थीं। हालांकि मैं अपने दिल में जानती थी, लेकिन फिर भी मैंने उससे पूछा, “मीरा, तुम उस बच्ची के बारे में यह सब कैसे जानती हो?”
रोते हुए, उसने जवाब दिया, “क्योंकि वह आधी अन्धी आँखों वाली बच्ची मैं ही थी। अब, मुझे बताइये, मेरी माँ मुझे उस तरह छोड कर कैसे चली गयी? वह मुझे बिस्किट के पैकेट से बहका कर चली गयी। उस मातृत्व का क्या हुआ जिसके बारे में आप इतने पुरजोर ढँग से बोल रहीं थीं? क्या गरीबी मातृत्व से भी अधिक ताकतवर होती है?”
मेरे पास उसकी बातों का कोई जवाब नहीं था। मैं बस उसके हाथ को अपने हाथ में थामे बैठी रही। मैं समझ गयी थी कि इस पृथ्वी पर जितनी तरह के लोग हैं उतनी ही तरह की माँएं भी हैं, और गरीबी व्यक्ति से बडे बडे दुस्साहसी काम करा देती है।
आज भी, अगर सडक पर कोई औरत मुझे लाल साडी पहने हुए दिख जाती है, तो मैं मीरा और मातृत्व के उसके अनुभव के बारे में बरबस सोचने लगती हूँ”।
- प्रस्तुति: राजेन्द्र चौधरी
“एक बार एक सेमिनार में मुझे मातृत्व के विषय पर बोलने के लिए आमंत्रित किया गया। इस सेमिनार में अलग-अलग क्षेत्रों से बडी संख्या में लोग मौजूद थे। कुछ मेडिकल प्रैक्टिश्नर थे, तो कुछ अनाथालयों, गोद लेने वाली संस्थाओं, व गैर-सरकारी संस्थानों से आये थे। धार्मिक नेता, सफल माताएं (आयोजकों के हिसाब से सफल माताओं की परिभाषा यह थी कि जिनके बच्चों ने जीवन में अच्छी प्रगति की है और खूब पैसा कमाया है), युवा माताएं, सभी मौजूद थीं।
वहाँ पर बहुत से स्टॉल लगे हुए थे जिन पर बच्चों के उत्पाद, और मातृत्व, तथा किशोर बच्चों को कैसे संभालें, आदि विषय पर पुस्तकें उपलब्ध थीं। सभी वक्ता अच्छे थे और वे अधिकतर अपने अनुभवों के बारे में दिल से बोले। मीडिया के लोग भारी तादाद में मौजूद थे और वे मशहूर व्यक्तियों के फोटो खींच रहे थे। चूँकि इस सेमिनार का आयोजन सामाजिक कल्याण विभाग द्वारा किया गया था, इसलिए बहुत से सरकारी अधिकारी और बडी संख्या में छात्र भी उपस्थित थे।
जब मेरा नम्बर आया, तो मैंने कई वर्षों पहले हुई एक सच्ची घटना के बारे में बताना शुरू किया।
मेरी एक दोस्त डॉ. आरती के घर पर मंजुला खाना बनाने का काम करती थी। मंजुला का पति निकम्मा और बेकार था। उसके पाँच बच्चे थे और जब वह छठी बार गर्भवती हुई, तो उसने गर्भपात कराने का और साथ ही नसबंदी कराने का निश्चय किया।
लेकिन डॉ. आरती के मन में एक भिन्न विचार आया। उसकी बहन काफी अमीर थी लेकिन उसके कोई संतान नहीं थी और वह किसी नवजात बच्चे को गोद लेना चाहती थी। चूँकि वह काफी दिनों से किसी ऐसे बच्चे की तलाश में थी, इसलिए आरती ने एक सुझाव दिया।
“मंजुला, गर्भपात कराने के बजाय, तुम इस बच्चे को जन्म क्यों नहीं देतीं, और वह चाहे लडका हो या लडकी, मेरी बहन उसे गोद ले लेगी। वह इस शहर में रहती भी नहीं है, इसलिए तुम्हें उस बच्चे के चेहरे को कभी देखने की नौबत भी नहीं आयेगी। वह उस बच्चे को कानूनी तौर पर गोद लेगी और तुम्हारे बाकी बच्चों की पढाई में भी तुम्हारी मदद करेगी। यह बच्चा, जो इस समय अनचाहा है, उसकी परवरिश अच्छे से होगी और उसे बहुत प्यार मिलेगा। मेरे सुझाव पर विचार करो, निर्णय तुम्हारा है और मैं कोई जोर नहीं डालूँगी”।
मंजुला ने कुछ दिन सोचा और आखिरकार वह इस प्रस्ताव पर सहमत हो गयी। कुछ महीनों बाद उसने एक बच्ची को जन्म दिया। डॉ. आरती की बहन भी सभी औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद उसी दिन आ गयी। यह तय हो चुका था कि वह बच्चे को उसके जन्म के एक दिन बाद ले जायेगी। लेकिन जब बच्चे को सौंपने का वक्त आया, तो मंजुला ने उसे देने को मना कर दिया। उसकी छाती में अब दूध उतर आया था और बच्ची ने दूध पीना शुरू कर दिया था। उसने बच्ची को अपने कमजोर शरीर से चिपटा लिया और रोना शुरू कर दिया, “मैं मानती हूँ कि मैं बहुत गरीब हूँ। अगर मेरे पास एक कटोरी भात भी होगा, तो मैं उसे इस बच्ची के साथ बांट कर खा लूँगी। लेकिन मैं इसे अलग नहीं कर सकती। यह इतनी छोटी है और पूरी तरह से मेरे पर आश्रित है। मैं वादा तोड रही हूँ लेकिन मैं अपनी बच्ची के बिना नहीं रह सकती। मेहरबानी करके मुझे माफ़ कर दीजिये”।
आरती और उसकी बहन का परेशान होना स्वाभाविक था। वे उस बच्ची का अपने परिवार में स्वागत करने के लिए खुद को तैयार कर चुकी थीं। लेकिन मंजुला को रोते हुए देख कर, वे समझ गयीं कि मातृत्व को हमेशा समझौतों के तर्क पर नहीं कसा जा सकता है।
मैंने यह कहते हुए अपना भाषण समाप्त किया कि मैंने बहुत बार देखा है कि माँ अपने बच्चों के लिये कुछ भी बलिदान करने के लिए तैयार रहती है। मातृत्व एक प्राकृतिक प्रवृत्ति है। हमारी संस्कृति इसे महिमामंडित करती है और माता को अन्य किसी की तुलना में अत्यधिक सम्मान दिया जाता है। जोरदार तालियों के साथ मेरी प्रशंसा की गयी। मैं भी अपने भाषण से संतुष्ट थी।
मैं स्टेज से नीचे उतरी और देखा कि पास में ही मीरा खडी हुई थी। वह अंधी थी और नेत्रहीनों के स्कूल में अनाथ बच्चों को पढाती थी। वह सेमिनार में अपने स्कूल का प्रतिनिधित्व कर रही थी। मैं उसे काफी अच्छी तरह से जानती थी क्योंकि मैं उसके स्कूल में अक्सर जाती रहती थी। मैं उसके पास गयी और उससे कहा, “मीरा कैसी हो तुम?” वह एक मिनट तक चुप रही, फिर बोली, “मैं ठीक हूँ, मैडम। क्या आप मेरी एक सहायता कर सकती हैं?”
“हाँ, बताओ ना, क्या बात है?” ”मुझे यहाँ से ले जाने और स्कूल में छोडने के लिये अहमद इस्माइल को आना था। लेकिन उसने अभी मेरे सेलफोन पर कॉल करके कहा है कि वह ट्रैफिक जाम में फंसा हुआ है और उसे अभी और समय लगेगा। क्या आप मुझे मेरे स्कूल तक छोड सकती हैं?” अहमद इस्माइल नेत्रहीनों के स्कूल का ट्रस्टी था।
मीरा का स्कूल मेरे ऑफिस के रास्ते में ही पडता था, इसलिए मैं फौरन तैयार हो गयी। कार में, मैंने देखा कि वह बहुत खामोश थी और इसलिए मैंने बातचीत का सिलसिला शुरू किया।
“मीरा, आज का सेमिनार कैसा रहा? क्या तुम्हें मेरा भाषण पसंद आया?” मैं उम्मीद कर रही थी कि आमतौर पर दिया जाने वाला विनम्र उत्तर मिलेगा कि अच्छा था। लेकिन मीरा ने जवाब दिया, “मुझे आपका भाषण पसंद नहीं आया। इस तरह मुँहफट होने के लिये माफ़ी चाहती हूँ, लेकिन ज़िन्दगी हमेशा वैसी नहीं होती”।
मैं आश्चर्यचकित रह गयी। मैं जानना चाहती थी कि इसके पीछे क्या कारण था, इसलिए मैंने उससे पूछा, “मुझे बताओ मीरा। तुमने ऐसा क्यों कहा? जो कुछ मैंने वहाँ कहा वह कोई कहानी नहीं थी, बल्कि सच्ची घटना थी। कभी-कभी सच्चाई कहानी से भी अधिक बेगानी हो जाती है”।
मीरा ने गहरी साँस ली, “हाँ, कभी-कभी सच्चाई कहानी से भी अधिक बेगानी हो जाती है। असल में, मैं आपको यही कहना चाहती थी। मैं आपको एक दूसरी कहानी सुनाती हूँ। एक पाँच साल की लडकी थी जिसे आँखों से बहुत कम दिखाई देता था। उसके माता-पिता दोनों मजदूरी करते थे। वह लडकी अक्सर उनसे शिकायत करती थी कि उसे ठीक से दिखाई नहीं देता, लेकिन वे कह देते कि ऐसा इसलिए है क्योंकि वह ठीक से खाती पीती नहीं है और जब कुछ पैसों का इंतजाम हो जायेगा तो वे उसे डॉक्टर को दिखा देंगे। आखिरकार एक दिन, वे उसे डॉक्टर के पास लेकर गये। उसने उन्हें बताया कि लडकी को ऑपरेशन की ज़रूरत है जिसमें काफी पैसा लगेगा, वर्ना वह धीरे-धीरे बिल्कुल अंधी हो जायेगी। लडकी के माता-पिता ने आपस में कुछ बातचीत की और वे उसे लेकर एक बस-स्टैंड पर आ गये। उन्होंने उसे एक बिस्किट का पैकेट दिया और कहा, “बेटा, तुम ये बिस्किट खाओ और हम अभी पाँच मिनट में आते हैं”।
“बच्ची को ज़िन्दगी में पहली बार बिस्किट का एक पूरा पैकेट मिला था। वह बेहद खुश हुई और उनका आनन्द लेने के लिए वहाँ पर बैठ गयी। अपनी आधी अन्धी आँखों से वह बस अपनी माँ की फटी हुई लाल साडी के पल्लू को भीड में गुम होते देख पायी। दिन ढलने लगा, हवा में ठंडक शुरू हो गयी और वह समझ गयी कि अंधेरा हो चला है। बिस्किट का पैकेट कभी का खत्म हो चुका था। वह अकेली, बेसहारा और डरी हुई थी। वह अपने माता-पिता के लिए चिल्लाने लगी और फटे हुए लाल पल्लू को पहचानने की कोशिश करती हुई वह बेकार में उन्हें तलाश करती रही”।
“उसके बाद क्या हुआ?”
“जहाँ पर भी सोने की जगह मिली, वहीं पर भूखी प्यासी सो कर उस बच्ची ने अपने माता-पिता को ढूँढना जारी रखा। एक दिन, एक दयालु आदमी ने उसकी दयनीय दशा देखी और वह उसे अंधे व्यक्तियों के स्कूल में ले गया। वह बच्ची कोई नाम या पता नहीं बता पायी जिससे उसके माता-पिता को ढूँढा जा सके। उस आदमी ने मैट्रन से अनुरोध किया कि अगर कोई माता या पिता उस बच्ची को लेने के लिये आयें, तो वे उनकी जाँच-पडताल करने के बाद उसे उनको सौंप सकते हैं। लेकिन उसे ढूँढता हुआ कोई नहीं आया। बच्ची ने अपनी माँ का कई सालों तक इंतजार किया, और अंत में एक दिन उसने उम्मीद छोड दी”।
मैंने मुड कर मीरा की तरफ देखा, वह रो रही थी और मुझे अहसास हुआ कि मेरी भी आँखें भरी हुई थीं। हालांकि मैं अपने दिल में जानती थी, लेकिन फिर भी मैंने उससे पूछा, “मीरा, तुम उस बच्ची के बारे में यह सब कैसे जानती हो?”
रोते हुए, उसने जवाब दिया, “क्योंकि वह आधी अन्धी आँखों वाली बच्ची मैं ही थी। अब, मुझे बताइये, मेरी माँ मुझे उस तरह छोड कर कैसे चली गयी? वह मुझे बिस्किट के पैकेट से बहका कर चली गयी। उस मातृत्व का क्या हुआ जिसके बारे में आप इतने पुरजोर ढँग से बोल रहीं थीं? क्या गरीबी मातृत्व से भी अधिक ताकतवर होती है?”
मेरे पास उसकी बातों का कोई जवाब नहीं था। मैं बस उसके हाथ को अपने हाथ में थामे बैठी रही। मैं समझ गयी थी कि इस पृथ्वी पर जितनी तरह के लोग हैं उतनी ही तरह की माँएं भी हैं, और गरीबी व्यक्ति से बडे बडे दुस्साहसी काम करा देती है।
आज भी, अगर सडक पर कोई औरत मुझे लाल साडी पहने हुए दिख जाती है, तो मैं मीरा और मातृत्व के उसके अनुभव के बारे में बरबस सोचने लगती हूँ”।
- प्रस्तुति: राजेन्द्र चौधरी
मंगलवार, अक्टूबर 04, 2011
आसान और मुश्किल
आसान है किसी व्यक्ति के पते लिखने की डायरी में जगह पा लेना।
मुश्किल होता है किसी के दिल में जगह बना पाना।
आसान है किसी दूसरे की गल्तियां गिना देना।
मुश्किल होता है अपनी गल्तियां पहचानना और उन्हें कुबूल करना।
आसान है बिना सोचे कुछ भी बोल देना।
मुश्किल होता है अपनी जुबान पर काबू रखना।
आसान है परवाह करने वाले व्यक्ति की भावनाओं को आहत कर देना।
मुश्किल होता है किसी के जख़्मों को भरना।
आसान है दूसरों को माफ़ कर देना।
मुश्किल होता है किसी से माफ़ी माँगना।
आसान है नियम बना देना।
मुश्किल होता है उनका पालन करना।
आसान है हर रात सपने देखना।
मुश्किल होता है किसी सपने के लिए लड़ना।
आसान है जीत देखना।
मुश्किल होता है गरिमा के साथ हार स्वीकार करना।
आसान है पूर्णिमा के चाँद की तारीफ करना।
मुश्किल होता है उसका दूसरा पक्ष देखना।
आसान है किसी पत्थर से ठोकर खाकर गिर जाना।
मुश्किल होता है फिर से खड़ा हो जाना और उस पत्थर को रास्ते से हटा देना।
आसान है हर रोज ज़िन्दगी के मज़े लेना।
मुश्किल होता है ज़िन्दगी को उसके असली मायने देना।
आसान है अपने अन्दर भीड़ जमा कर लेना।
मुश्किल होता है भीड़ में भी तन्हाई बचाये रखना।
आसान है यह कह देना कि हम प्यार करते हैं।
मुश्किल होता है अपने व्यवहार में उस प्यार को रोजाना दर्शाना।
आसान है दूसरों की आलोचना करना।
मुश्किल होता है ख़ुद में सुधार कर पाना।
आसान है गल्तियां करना और बाद में पछताना।
मुश्किल होता है उनसे सीखना और पश्चाताप करना।
आसान है खोये हुए प्यार के लिए आँसू बहाना।
मुश्किल होता है एहतियात बरतना कि प्यार न खोये।
आसान है सुधार के बारे में सोचना।
मुश्किल होता है सोचना छोड़ कर उसे अमल में लाना।
आसान है दूसरों को बुरा कह देना।
मुश्किल होता है उन्हें सन्देह का लाभ दे देना।
आसान है देवता बन जाना।
मुश्किल होता है ख़ुद को इंसान बनाये रखना।
आसान है लफ़्जों में दोस्ती निभाना।
मुश्किल होता है उसे सही मायने में निभाना।
आसान है किसी से हमदर्दी दिखाना।
मुश्किल होता है मदद के लिए हाथ बढ़ाना।
आसान है बच्चों से उनका बचपन छीन लेना।
मुश्किल होता है अपने अन्दर के बच्चे को जीवित रख पाना।
आसान है जो मन में आया कह देना।
मुश्किल होता है कुछ बातों को अनकहा छोड़ देना।
- राजेन्द्र चौधरी
मुश्किल होता है किसी के दिल में जगह बना पाना।
आसान है किसी दूसरे की गल्तियां गिना देना।
मुश्किल होता है अपनी गल्तियां पहचानना और उन्हें कुबूल करना।
आसान है बिना सोचे कुछ भी बोल देना।
मुश्किल होता है अपनी जुबान पर काबू रखना।
आसान है परवाह करने वाले व्यक्ति की भावनाओं को आहत कर देना।
मुश्किल होता है किसी के जख़्मों को भरना।
आसान है दूसरों को माफ़ कर देना।
मुश्किल होता है किसी से माफ़ी माँगना।
आसान है नियम बना देना।
मुश्किल होता है उनका पालन करना।
आसान है हर रात सपने देखना।
मुश्किल होता है किसी सपने के लिए लड़ना।
आसान है जीत देखना।
मुश्किल होता है गरिमा के साथ हार स्वीकार करना।
आसान है पूर्णिमा के चाँद की तारीफ करना।
मुश्किल होता है उसका दूसरा पक्ष देखना।
आसान है किसी पत्थर से ठोकर खाकर गिर जाना।
मुश्किल होता है फिर से खड़ा हो जाना और उस पत्थर को रास्ते से हटा देना।
आसान है हर रोज ज़िन्दगी के मज़े लेना।
मुश्किल होता है ज़िन्दगी को उसके असली मायने देना।
आसान है अपने अन्दर भीड़ जमा कर लेना।
मुश्किल होता है भीड़ में भी तन्हाई बचाये रखना।
आसान है यह कह देना कि हम प्यार करते हैं।
मुश्किल होता है अपने व्यवहार में उस प्यार को रोजाना दर्शाना।
आसान है दूसरों की आलोचना करना।
मुश्किल होता है ख़ुद में सुधार कर पाना।
आसान है गल्तियां करना और बाद में पछताना।
मुश्किल होता है उनसे सीखना और पश्चाताप करना।
आसान है खोये हुए प्यार के लिए आँसू बहाना।
मुश्किल होता है एहतियात बरतना कि प्यार न खोये।
आसान है सुधार के बारे में सोचना।
मुश्किल होता है सोचना छोड़ कर उसे अमल में लाना।
आसान है दूसरों को बुरा कह देना।
मुश्किल होता है उन्हें सन्देह का लाभ दे देना।
आसान है देवता बन जाना।
मुश्किल होता है ख़ुद को इंसान बनाये रखना।
आसान है लफ़्जों में दोस्ती निभाना।
मुश्किल होता है उसे सही मायने में निभाना।
आसान है किसी से हमदर्दी दिखाना।
मुश्किल होता है मदद के लिए हाथ बढ़ाना।
आसान है बच्चों से उनका बचपन छीन लेना।
मुश्किल होता है अपने अन्दर के बच्चे को जीवित रख पाना।
आसान है जो मन में आया कह देना।
मुश्किल होता है कुछ बातों को अनकहा छोड़ देना।
- राजेन्द्र चौधरी
सोमवार, अक्टूबर 03, 2011
मैं जान चुका हूँ....
आज का यह लेख किसी विषय विशेष पर लिखा हुआ कोई लेख नहीं है। यह मेरे अपने विचारों का एक संकलन मात्र है। अपने मन के विचारों को, ईमानदारी के साथ बिना किसी निर्धारित क्रम के, बस लिख दिया है । इन विचारों की ड़ोर का सिरा कहीं आपके विचारों से भी जा मिला हो, तो अपने अशीष से नवाज़ दीजिये मुझे!
मैं जान चुका हूँ कि हो सकता है आपकी हैसियत के लिए आपके हालात जिम्मेदार रहे हों, लेकिन आपकी शख्सियत के लिए आप खुद जिम्मेदार हैं।
मैं जान चुका हूँ कि कभी-कभी ज़िन्दगी में कुछ ऐसा घटता है जिसके लिए आप जिम्मेदार नहीं होते; उससे लड़ा नहीं जा सकता, उसे स्वीकार करना पड़ता है।
मैं जान चुका हूँ कि कभी-कभी ज़िन्दगी में कुछ लोगों को उनके कामों की वजह से नहीं बल्कि उनके नामों की वजह से इज़्ज़त देनी पड़ती है।
मैं जान चुका हूँ कि सिर्फ इसलिए क्योंकि कोई दो लोग अक्सर आपस में बहस करते रहते हैं, इसका मतलब यह नहीं होता कि वे एक दूसरे को प्यार नहीं करते और क्योंकि उनमें कभी भी आपस में बहस नहीं होती, इसका मतलब यह नहीं हो जाता कि उनमें बहुत प्यार है।
मैं जान चुका हूँ कि हमें अपने दोस्तों को बदलने की ज़रूरत नहीं है अगर हम यह समझ जायें कि वक्त के साथ दोस्त भी बदलते हैं।
मैं जान चुका हूँ कि दो लोगों के द्वारा एक ही चीज को देखे जाने के बावजूद हो सकता है उन्हें जो दिखायी दिया हो वो एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न हो।
मैं जान चुका हूँ कि हमारे बच्चे हमारे सिखाने से उतना नहीं सीखते जितना वे हमें देख कर सीखते हैं।
मैं जान चुका हूँ कि हम अपने बच्चों की हिफ़ाजत करने की चाहे कितनी भी कोशिश करें, वे चोट खायेंगे ही और इस प्रक्रिया में हम भी आहत होंगे ही।
मैं जान चुका हूँ कि चाहे नतीजा कुछ भी निकले, लेकिन जो लोग खुद के प्रति ईमानदार होते हैं, वे ज़िन्दगी में बहुत आगे जाते हैं।
मैं जान चुका हूँ कि चाहे आपके कितने भी प्रियजन और दोस्त हों, लेकिन अगर आप उनके आधार स्तम्भ हैं तो ज़िन्दगी में जब कभी आपको उनकी सबसे अधिक ज़रूरत होगी, आप खुद को अकेला पायेंगे।
मैं जान चुका हूँ कि हमारी ज़िन्दगी को कोई ऐसा व्यक्ति कुछ ही घंटों में बदल सकता है जिसे हम ठीक से जानते भी नहीं।
मैं जान चुका हूँ कि उन हालात में भी जब भले ही हम ऐसा सोचते हों कि अब हमारे पास किसी को कुछ देने की सामर्थ्य नहीं है, अगर हमारा कोई प्रिय व्यक्ति तकलीफ में हमसे मदद की गुहार करता है तो हममें उसकी मदद करने की ताकत आ ही जाती है।
मैं जान चुका हूँ कि ईमानदारी के साथ लिखने और बोलने से भावात्मक पीड़ायें कम हो सकती हैं।
मैं जान चुका हूँ कि जिस परिदृश्य में हम रहते हैं, वो परिदृश्य ईश्वर ने हमें नहीं दिया था, हमने खुद उसे निर्मित किया है।
मैं जान चुका हूँ कि किसी भी व्यक्ति की दीवार पर टंगे हुए प्रमाण-पत्र इस बात का प्रमाण नहीं होते कि वो एक अच्छा इंसान है।
मैं जान चुका हूँ कि चाहे कोई लाख इंकार करे लेकिन हर व्यक्ति चाहता है कि कोई उससे प्यार करे, उसकी प्रशंसा करे।
मैं जान चुका हूँ कि “प्यार” शब्द के बहुत से अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं, लेकिन ज़रूरत से ज्यादा इस्तेमाल किये जाने पर वह अपना मूल्य खो देता है।
मैं जान चुका हूँ कि कभी-कभी अच्छा होने और लोगों की भावनाओं को आहत नहीं करने के बीच अंतर-रेखा खींच पाना मुश्किल होता है, और उससे भी मुश्किल होता है उन जीवन मूल्यों के समर्थन में खड़ा रहना जिनमें आप विश्वास रखते हैं।
मैं जान चुका हूँ कि सच्चाईयों की अनदेखी करने से सच्चाईयां नहीं बदलतीं।
मैं जान चुका हूँ कि कभी-कभी जब आप किसी व्यक्ति से अपने सम्बन्ध सुधारने की कोशिश करते हैं, तो आप अनचाहे ही उसे आपको आहत करते रहने का अधिकार दे देते हैं।
मैं जान चुका हूँ कि सही होने के मुकाबले, सुहृदय और क्षमाशील होना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
मैं जान चुका हूँ कि हर कोई पहाड़ की चोटी पर रहना चाहता है, लेकिन सारी खुशी और सारा विकास तो पहाड़ पर चढ़ने में ही है।
मैं जान चुका हूँ कि दृढ़ होने के लिए ताकत चाहिये, लेकिन सज्जन होने के लिए हौसला चाहिये।
मैं जान चुका हूँ कि जीतने के लिए ताकत चाहिये, लेकिन समर्पण के लिए हौसला चाहिये।
मैं जान चुका हूँ कि जीवित बचे रहने के लिए ताकत चाहिये, लेकिन जिन्दा रहने के लिए हौसला चाहिये।
मैं जान चुका हूँ कि कुछ ऋण ऐसे हैं जिन्हें मैं लाख कोशिश करूँ तो भी इस जीवन में चुकता नहीं कर सकता।
मैं जान चुका हूँ कि काश मैंने अपने माता-पिता के गुजरने से पहले उनसे एक बार और कहा होता कि मैं उन्हें बहुत प्यार करता हूँ।
मैं जान चुका हूँ कि अभी बहुत कुछ है जो मुझे जानना है, सीखना है और बहुत कुछ है जो मुझे भूलना है।
- राजेन्द्र चौधरी
मैं जान चुका हूँ कि हो सकता है आपकी हैसियत के लिए आपके हालात जिम्मेदार रहे हों, लेकिन आपकी शख्सियत के लिए आप खुद जिम्मेदार हैं।
मैं जान चुका हूँ कि कभी-कभी ज़िन्दगी में कुछ ऐसा घटता है जिसके लिए आप जिम्मेदार नहीं होते; उससे लड़ा नहीं जा सकता, उसे स्वीकार करना पड़ता है।
मैं जान चुका हूँ कि कभी-कभी ज़िन्दगी में कुछ लोगों को उनके कामों की वजह से नहीं बल्कि उनके नामों की वजह से इज़्ज़त देनी पड़ती है।
मैं जान चुका हूँ कि सिर्फ इसलिए क्योंकि कोई दो लोग अक्सर आपस में बहस करते रहते हैं, इसका मतलब यह नहीं होता कि वे एक दूसरे को प्यार नहीं करते और क्योंकि उनमें कभी भी आपस में बहस नहीं होती, इसका मतलब यह नहीं हो जाता कि उनमें बहुत प्यार है।
मैं जान चुका हूँ कि हमें अपने दोस्तों को बदलने की ज़रूरत नहीं है अगर हम यह समझ जायें कि वक्त के साथ दोस्त भी बदलते हैं।
मैं जान चुका हूँ कि दो लोगों के द्वारा एक ही चीज को देखे जाने के बावजूद हो सकता है उन्हें जो दिखायी दिया हो वो एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न हो।
मैं जान चुका हूँ कि हमारे बच्चे हमारे सिखाने से उतना नहीं सीखते जितना वे हमें देख कर सीखते हैं।
मैं जान चुका हूँ कि हम अपने बच्चों की हिफ़ाजत करने की चाहे कितनी भी कोशिश करें, वे चोट खायेंगे ही और इस प्रक्रिया में हम भी आहत होंगे ही।
मैं जान चुका हूँ कि चाहे नतीजा कुछ भी निकले, लेकिन जो लोग खुद के प्रति ईमानदार होते हैं, वे ज़िन्दगी में बहुत आगे जाते हैं।
मैं जान चुका हूँ कि चाहे आपके कितने भी प्रियजन और दोस्त हों, लेकिन अगर आप उनके आधार स्तम्भ हैं तो ज़िन्दगी में जब कभी आपको उनकी सबसे अधिक ज़रूरत होगी, आप खुद को अकेला पायेंगे।
मैं जान चुका हूँ कि हमारी ज़िन्दगी को कोई ऐसा व्यक्ति कुछ ही घंटों में बदल सकता है जिसे हम ठीक से जानते भी नहीं।
मैं जान चुका हूँ कि उन हालात में भी जब भले ही हम ऐसा सोचते हों कि अब हमारे पास किसी को कुछ देने की सामर्थ्य नहीं है, अगर हमारा कोई प्रिय व्यक्ति तकलीफ में हमसे मदद की गुहार करता है तो हममें उसकी मदद करने की ताकत आ ही जाती है।
मैं जान चुका हूँ कि ईमानदारी के साथ लिखने और बोलने से भावात्मक पीड़ायें कम हो सकती हैं।
मैं जान चुका हूँ कि जिस परिदृश्य में हम रहते हैं, वो परिदृश्य ईश्वर ने हमें नहीं दिया था, हमने खुद उसे निर्मित किया है।
मैं जान चुका हूँ कि किसी भी व्यक्ति की दीवार पर टंगे हुए प्रमाण-पत्र इस बात का प्रमाण नहीं होते कि वो एक अच्छा इंसान है।
मैं जान चुका हूँ कि चाहे कोई लाख इंकार करे लेकिन हर व्यक्ति चाहता है कि कोई उससे प्यार करे, उसकी प्रशंसा करे।
मैं जान चुका हूँ कि “प्यार” शब्द के बहुत से अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं, लेकिन ज़रूरत से ज्यादा इस्तेमाल किये जाने पर वह अपना मूल्य खो देता है।
मैं जान चुका हूँ कि कभी-कभी अच्छा होने और लोगों की भावनाओं को आहत नहीं करने के बीच अंतर-रेखा खींच पाना मुश्किल होता है, और उससे भी मुश्किल होता है उन जीवन मूल्यों के समर्थन में खड़ा रहना जिनमें आप विश्वास रखते हैं।
मैं जान चुका हूँ कि सच्चाईयों की अनदेखी करने से सच्चाईयां नहीं बदलतीं।
मैं जान चुका हूँ कि कभी-कभी जब आप किसी व्यक्ति से अपने सम्बन्ध सुधारने की कोशिश करते हैं, तो आप अनचाहे ही उसे आपको आहत करते रहने का अधिकार दे देते हैं।
मैं जान चुका हूँ कि सही होने के मुकाबले, सुहृदय और क्षमाशील होना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
मैं जान चुका हूँ कि हर कोई पहाड़ की चोटी पर रहना चाहता है, लेकिन सारी खुशी और सारा विकास तो पहाड़ पर चढ़ने में ही है।
मैं जान चुका हूँ कि दृढ़ होने के लिए ताकत चाहिये, लेकिन सज्जन होने के लिए हौसला चाहिये।
मैं जान चुका हूँ कि जीतने के लिए ताकत चाहिये, लेकिन समर्पण के लिए हौसला चाहिये।
मैं जान चुका हूँ कि जीवित बचे रहने के लिए ताकत चाहिये, लेकिन जिन्दा रहने के लिए हौसला चाहिये।
मैं जान चुका हूँ कि कुछ ऋण ऐसे हैं जिन्हें मैं लाख कोशिश करूँ तो भी इस जीवन में चुकता नहीं कर सकता।
मैं जान चुका हूँ कि काश मैंने अपने माता-पिता के गुजरने से पहले उनसे एक बार और कहा होता कि मैं उन्हें बहुत प्यार करता हूँ।
मैं जान चुका हूँ कि अभी बहुत कुछ है जो मुझे जानना है, सीखना है और बहुत कुछ है जो मुझे भूलना है।
- राजेन्द्र चौधरी
शनिवार, अक्टूबर 01, 2011
एक अविस्मरणीय दीक्षांत भाषण
आज का यह लेख स्टीव जॉब्स के अंग्रेज़ी भाषा में दिये गये मूल भाषण का मेरे द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद है।
वह क्या विशेषता है जो स्टीव जॉब्स को इतनी प्रेरणादायक हस्ती बनाती है? इसके उत्तर में हम, ऐपल कम्प्यूटर के इस प्रसिद्ध संस्थापक और सीईओ का वह भाषण आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहे हैं जो उन्होंने स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के छात्रों के दीक्षांत समारोह के अवसर पर दिया था। अत्यंत प्रेरणादायक और हृदयस्पर्शी उनका यह भाषण एक दुर्लभ और बहुमूल्य उद्बोधन है। यह व्यक्ति सिर्फ कम्प्यूटर, ऐनिमेशन कम्पनियों, फोन और आईपोड का अद्वितीय निर्माता ही नहीं है बल्कि उनका यह भाषण इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि वह भावों और शब्दों का जादू बुनने की कला में भी अद्वितीय रूप से कुशल और पारंगत हैं।
“धन्यवाद!
विश्व के सर्वोत्तम विश्वविद्यालयों में गिने जाने वाले इस विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में आप लोगों के साथ उपस्थित होकर मैं स्वयं को सम्मानित अनुभव कर रहा हूँ। सच कहूँ, मैं कभी भी किसी कॉलेज से ग्रेजुएशन नहीं कर पाया और मेरे जीवन में यह पहला ऐसा ग्रेजुएशन समारोह है जिसमें मैं उपस्थित हुआ हूँ।
आज मैं आपको अपनी ज़िन्दगी से ली गयीं तीन कहानियां सुनाना चाहता हूँ, बस। कोई बड़ी-बड़ी बातें नहीं। सिर्फ तीन कहानियां।
पहली कहानी बिन्दुओं को जोड़ने के बारे में है।
मैं रीड कॉलेज में पढ़ता था और मैंने पहले छह महीनों के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी थी, लेकिन वास्तव में पढ़ाई छोड़ने से पहले मैं अगले लगभग अठारह महींनो तक वहाँ पर आता-जाता रहा। तो फिर मैंने पढ़ाई क्यों छोड़ी?
इसकी शुरुआत मेरे पैदा होने से पहले ही हो गयी थी।
मैं जिस माँ की कोख से पैदा हुआ, वह एक जवान, अनब्याही, ग्रेजुएट छात्रा थी और उसने तय किया कि वह मुझे किसी को गोद दे देगी। वह प्रबल रूप से ऐसा महसूस करती थी कि कोई ग्रेजुएट व्यक्ति ही मुझे अपनाये यानि गोद ले, इसलिए मेरे लिए हर चीज पहले से ही तय थी कि मेरे पैदा होने पर एक वकील और उसकी पत्नी मुझे गोद ले लेंगे। लेकिन जब मैं पैदा हुआ, तो उन्होंने आखिरी क्षणों में तय किया कि दरअसल वे एक बच्ची चाहते थे।
इसलिए मेरे माता-पिता जिन्हें प्रतीक्षा सूची में रखा गया था, उन्हें आधी रात को फोन करके पूछा गया, ‘हमारे पास एक अप्रत्याशित बच्चा है। क्या आप उसे गोद लेना चाहेंगे?’ उन्होंने कहा, ‘बेशक’।
मेरी जन्मदात्री माँ को बाद में पता चला कि मेरी माँ ने कभी भी ग्रेजुएशन नहीं किया था और मेरे पिता हाईस्कूल भी पास नहीं कर पाये थे। मुझे जन्म देने वाली माँ ने गोद लेने के कागज़ात पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया। कुछ दिन बाद जब मेरे माता-पिता ने उनसे यह वादा किया कि वे मुझे कॉलेज ज़रूर भेजेंगे, तब जाकर ही उनका रुख नर्म पड़ा और उन्होंने अपनी मंजूरी दे दी।
यह मेरी ज़िन्दगी की शुरुआत थी।
और सत्रह वर्ष के बाद, मैं निश्चय ही कॉलेज गया, लेकिन मैंने नौसिखियेपन में ऐसा कॉलेज चुना जो स्टैनफोर्ड जितना ही मंहगा था, और मेरे नौकरीपेशा माता-पिता की सारी बचत मेरे कॉलेज के ट्यूशन पर खर्च हो जाती थी।
छह महीने के बाद मुझे यह उपयोगी नहीं लगा।
मुझे कुछ मालूम नहीं था कि मैं ज़िन्दगी में क्या करना चाहता हूँ, और कॉलेज इस बारे में मेरी कैसे मदद कर पायेगा यह बात भी मेरी समझ से बाहर थी, और इधर मैं अपने माता-पिता की ज़िन्दगी की सारी कमाई खर्च किये दे रहा था।
इसलिए मैंने पढ़ाई छोड़ने का मन बना लिया और यकीन कर लिया कि सब ठीक हो जायेगा।
उस समय यह निर्णय काफी डरावना था, लेकिन अब पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो लगता है कि यह मेरे द्वारा लिये गये सबसे अच्छे निर्णयों में से एक था।
पढ़ाई छोड़ने का निर्णय ले लेने पर उन कक्षाओं में, जिनमें मेरी रुचि नहीं थी, जाना मेरे लिए ज़रूरी नहीं रहा था और मैंने उन कक्षाओं में जाना शुरू कर दिया जो मुझे कहीं अधिक रोचक लगती थीं।
यह सब उतना रोमांटिक नहीं था।
मेरे पास छात्रावास का कमरा नहीं था, तो मैं दोस्तों के कमरे में फर्श पर सोया।
मैं कोक की बोतलें वापस करके पाँच सेंट जमा करता था ताकि मैं खाने के लिए भोजन खरीद सकूँ और मैं सात मील पैदल चल कर हर रविवार की शाम को हरे कृष्णा मन्दिर जाता था ताकि मैं हफ्ते में एक बार तो ठीक-ठाक भोजन कर सकूँ।
मुझे ऐसा करना अच्छा लगता था।
और मैंने अपनी जिज्ञासा और सहज बुद्धि का कहा मान कर जो भूल की थी वह बाद में बहुमूल्य साबित हुई।
मैं आपको इसका एक उदाहरण देता हूँ।
रीड कॉलेज उस समय कैलिग्राफी (सुलेख) की शिक्षा के लिए शायद देश में सबसे अच्छा माना जाता था।
पूरे कैम्पस में हर पोस्टर और हर अलमारी व दराज पर लगा हर लैबल हाथ से खूबसूरत लिखावट में लिखा होता था।
चूँकि मैंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी और मुझे अपनी सामान्य नियमित कक्षाओं में नहीं जाना होता था, इसलिए मैंने कैलिग्राफी की कक्षा में जाने का निश्चय किया ताकि मैं जान सकूँ कि किस तरह इतना सुन्दर लिखा जाता है। मैंने सेरिफ और सैंस सेरिफ (अक्षरों के अंत की लघु रेखा और लघु रेखा रहित) टाइपफेस के बारे में, अलग-अलग अक्षरों को जोड़ने में बीच की जगह में बदलाव करने के बारे में, और उन सब चीजों के बारे में सीखा जिनकी वजह से कोई अच्छा लेखन अच्छा बन पाता है।
यह खूबसूरत, ऐतिहासिक, और कलात्मक तौर पर ऐसी बारीक चतुराई थी जो विज्ञान की पकड़ से बाहर थी, और मुझे यह आकर्षक लगी।
इनमें से किसी भी चीज के मेरे जीवन में व्यावहारिक रूप से उपयोगी होने की कोई उम्मीद तक नहीं थी। लेकिन दस साल बाद जब हम पहला मैकिंटोश कम्प्यूटर डिजाइन कर रहे थे, तो मुझे इन सब चीजों का ख्याल आया, और हमने इन सबको मैकिंटोश में डिजाइन किया।
सुन्दर टाइपोग्राफी वाला यह पहला कम्प्यूटर था।
अगर मैं कॉलेज में कैलिग्राफी की उस अकेली कक्षा में नहीं गया होता, तो मैकिंटोश में कभी भी इतने अलग-अलग टाइपफेस, या अनुपातिक तौर पर दो अक्षरों के बीच में जगह वाले फोंट नहीं होते, और क्योंकि माइक्रोसॉफ्ट ने केवल मैकिंटोश की नकल की, इसलिए सम्भव है कि किसी भी कम्प्यूटर में वे नहीं होते।
अगर मैं कभी भी पढ़ाई नहीं छोड़ता, तो मैं कभी भी कैलिग्राफी की कक्षा में नहीं जाता, और पर्सनल कम्प्यूटरों में कभी भी वो लाजवाब टाइपोग्राफी नहीं होती जो आज है।
जब मैं कॉलेज में था, तो भविष्य की ओर देखते हुए बिन्दुओं को जोड़ना निश्चय ही असम्भव था, लेकिन दस वर्ष बाद पीछे देखने पर यह सब कितना स्पष्ट दिखता था।
आप आगे देखते हुए बिन्दुओं को नहीं जोड़ सकते। आप उन्हें सिर्फ पीछे की ओर देख कर ही जोड़ सकते हैं। इसलिए आपको यह यकीन करना होता है कि बिन्दु किसी न किसी तरह आपके भविष्य में जुड़ जायेंगे।
आपको किसी न किसी चीज में विश्वास या भरोसा करना होता है, अपनी हिम्मत पर, किस्मत पर, कर्म पर, या जिस किसी पर भी – क्योंकि यह भरोसा कि ये बिन्दु आपको आपकी ज़िन्दगी के रास्ते से जोड़ देगें, आपमें अपने दिल की बात मानने का विश्वास पैदा करेगा, भले ही वह रास्ता ऐसा क्यों न हो जिस पर लोगों की आवाजाही नहीं होती हो, बस वह ही सारा फर्क पैदा कर देगा।
मेरी दूसरी कहानी प्यार और नुकसान के बारे में है।
मैं भाग्यशाली था। मुझे क्या करना अच्छा लगता है इसका पता मुझे अपनी ज़िन्दगी में ज़ल्दी ही चल गया था।
जब मैं बीस साल का था तो वॉज़ ने और मैंने मिल कर अपने माता-पिता के गैरेज में ऐपल कम्प्यूटर की शुरुआत की।
हमने कड़ी मेहनत की और दस साल के अन्दर, गैरेज में हम दो लोगों से शुरू हुआ ऐपल 4000 से भी अधिक कर्मचारियों वाली 2 बिलियन डॉलर की कम्पनी बन गया। अपनी उच्च श्रेणी के शानदार मैकिंटोश को बाजार में उतारे हुए अभी एक साल ही हुआ था और मैं अभी तीस वर्ष का ही हुआ था कि मुझे नौकरी से निकाल दिया गया।
आप सोचेंगे कि जो कम्पनी आपने खुद शुरू की हो, उससे आपको कैसे निकाला जा सकता है? तो हुआ यूँ कि जब ऐपल बड़ी कम्पनी बन गयी, तो हमने एक ऐसे व्यक्ति को नौकरी पर रख लिया जो मेरे साथ कम्पनी को चलाने के लिए मेरे विचार से बहुत प्रतिभाशाली था। पहले साल सब कुछ ठीक चला। लेकिन हमारे भविष्य के दृष्टिकोणों में मतभेद शुरू हो गये, और अंतत: हम अलग हो गये।
जब ऐसा हुआ, तो हमारे निदेशक मंडल यानि बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स ने उसका पक्ष लिया, और इस तरह तीस वर्ष की उम्र में मुझे बाहर कर दिया गया, और खुले आम बाहर कर दिया गया। जो चीज मेरी पूरी युवावस्था का फोकस रही थी वही चली गयी, और यह सब मेरे लिए एक तबाही जैसा था।
कुछ महीनों तक वास्तव में मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था कि क्या किया जाये।
मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मैंने उद्यमी लोगों की पहली पीढ़ी को शर्मसार कर दिया हो, मानो उनके द्वारा मुझे बैटन सौंपे जाने के समय ही वह मेरे हाथ से गिर गयी हो।
मैं डैविड पैकर्ड और बॉब नॉयस से मिला और इतनी बुरी तरह से पंगा लेने के लिए मैंने उनसे माफी मांगने की कोशिश की।
मैं एक बहुत बड़ी सार्वजनिक विफलता का किस्सा बन गया था, यहाँ तक कि मेरे मन में सिलिकॉन वैली से भाग जाने का विचार भी आया।
लेकिन धीरे-धीरे मुझे कुछ समझ आने लगा। मैंने जो कुछ किया उससे मुझे अभी भी लगाव था।
ऐपल की इन घटनाओं के इतने बदलाव पर भी मेरे उस लगाव में कोई बदलाव नहीं आया। मुझे नकार दिया गया था, पर मुझे अभी भी उस सब से प्यार था। इसलिए मैंने फिर से शुरुआत करने की ठानी।
उस समय मुझे यह दिखायी नहीं दिया, लेकिन बाद में मुझे लगा कि ऐपल से निकाला जाना मेरे लिए सबसे ज्यादा फायदेमन्द रहा।
कामयाब शख्स होने के भारीपन की जगह मैं फिर से नौसिखिया होने का, हर चीज के बारे में कम निश्चित होने का हल्कापन महसूस करने लगा था। इसने मुझे अपने जीवन की सर्वाधिक रचनात्मक अवधियों में गिने जाने वाले काल में प्रवेश करने की स्वतंत्रता दी।
अगले पाँच वर्षों के दौरान मैंने नेक्स्ट नाम की एक कम्पनी शुरू की, और फिर पिक्सर नाम की एक दूसरी कम्पनी और मुझे एक असाधारण महिला से प्यार हो गया जो मेरी पत्नी बनने वाली थी।
पिक्सर ने दुनिया की पहली कम्प्यूटर-ऐनिमेटेड फीचर फिल्म टॉय स्टोरी बनाने का काम जारी रखा, और अब यह दुनिया का सबसे कामयाब ऐनिमेशन स्टुडियो है।
घटनाओं ने एक असाधारण मोड़ लिया, ऐपल ने नेक्स्ट कम्पनी को खरीद लिया। मैं ऐपल में फिर से वापस आ गया और जो टेक्नोलोजी हमने नेक्स्ट में विकसित की थी अब ऐपल की वर्तमान नवचेतना के केन्द्र में वही है, और लॉरेन के साथ मैं एक खूबसूरत गृहस्थ जीवन जी रहा हूँ।
मैं निश्चित रूप से जानता हूँ कि अगर मुझे ऐपल से नहीं निकाला जाता, तो यह सब कुछ हासिल नहीं होता। यह एक बेहद कड़वी दवाई थी लेकिन शायद मरीज को इसकी ज़रूरत थी।
कभी-कभी ज़िन्दगी आपके सिर पर ईंट से प्रहार करती है। बस अपने विश्वास को मत डगमगाने दो।
मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि मैं इस सबसे सिर्फ इसलिए उबर पाया क्योंकि जो कुछ मैंने किया, मैं उससे प्यार करता था।
जिसे आप प्यार करते हैं उसे आपको खुद ढूँढना होगा, और यही बात काम के विषय में लागू होती है।
आपकी ज़िन्दगी का एक बड़ा हिस्सा काम करने में गुजरता है, और सच में संतुष्ट महसूस करने का एकमात्र तरीका है वह काम करना जिसे आप शानदार काम मानते हों, और शानदार काम करने का एकमात्र तरीका है आप जो भी करें उसे प्यार करें।
अगर आप उसे अभी तक नहीं ढूँढ पाये हैं, तो ढूँढते रहिये, और जब तक वह मिल न जाये, तब तक चैन से मत बैठिये।
जैसा कि दिल के सभी मामलों में होता है, जब वह मिलेगा तो आपको खुद पता चल जायेगा, और किसी भी अच्छे रिश्ते की तरह यह वक्त गुजरने के साथ और बेहतर होता जाता है। इसलिए ढूँढते रहिये, और जब तक वह मिल न जाये, तब तक चैन से मत बैठिये।
मेरी तीसरी कहानी मौत के बारे में है।
जब मैं सत्रह साल का था, तो मैंने कहीं एक कहावत पढ़ी थी जो कुछ इस तरह से थी, ‘अगर आप हर दिन को इस तरह से जीते हैं जैसे वह आपका आखिरी दिन हो, तो एक न एक दिन आप निश्चित रूप से पायेंगे कि आपका सोचना सही था’।
इस कहावत ने मुझ पर बहुत असर ड़ाला, और तभी से, पिछले 33 सालों से, मैं रोजाना सुबह आईने में देखता हूँ और खुद से पूछता हूँ, ‘अगर आज मेरी ज़िन्दगी का आखिरी दिन होता, तो क्या मैं वह करना चाहता जो मैं आज करने जा रहा हूँ’? और जब कभी भी लगातार कई दिनों तक मेरा दिल ‘नहीं’ में जवाब देता है, तो मैं जान जाता हूँ कि मुझे इसमें कुछ न कुछ बदलना चाहिये।
बड़े निर्णय लेने में मदद करने के लिए मुझे यह याद रखना सबसे महत्वपूर्ण लगा कि जल्दी ही मेरी मृत्यु हो जायेगी, क्योंकि लगभग सभी चीजें – सभी बाहरी अपेक्षायें, सारे अभिमान, विफलता या शर्मिन्दगी के सारे डर – मौत के सामने ये सब छिटक जाते हैं, बस वही बचा रहता है जो सचमुच महत्वपूर्ण है।
यह याद रखना कि आप मरने वाले हैं, मेरे विचार से इस जाल से बचने का भी सबसे अच्छा तरीका है कि आप कुछ गंवा देंगे, खो बैठेंगे। आप पहले ही नंगे हो चुके हैं, अब क्या खोयेंगे। इसलिए आपके पास अपने दिल की बात नहीं मानने का कोई कारण नहीं है।
लगभग एक साल पहले, पता चला कि मुझे कैंसर है।
सुबह 7:30 बजे मैंने स्कैन कराया तो उसमें स्पष्ट रूप से मेरी पाचक ग्रंथि (पैनक्रियाज़) में ट्यूमर दिखायी दिया। मुझे यह भी मालूम नहीं था कि पैनक्रियाज़ क्या होती है।
डॉक्टरों ने मुझे बताया कि यह निश्चित रूप कैंसर की एक ऐसी किस्म है जो लाइलाज है, और मुझे तीन से छह महीनों से ज्यादा जीने की उम्मीद नहीं रखनी चाहिये। मेरे डॉक्टर ने कहा कि मैं घर जाकर अपनी चीजों को व्यवस्थित करलूँ। शायद वह शालीन भाषा में कह रहा था कि मैं मरने की तैयारी करलूँ।
इसका मतलब था कि आप इन कुछ ही महीनों अपने बच्चों को वह सब बताने की कोशिश करो जो आपको उन्हें अगले दस-पन्द्रह सालों में बताना था। इसका मतलब था कि आपका परिवार आपको खोने के लिए तैयार हो जाये। इसका मतलब था कि आपका हमेशा के लिए अलविदा कहने का समय आ गया है।
मैं पूरे दिन डॉक्टरों के उस निर्णय के साथ जिया।
शाम को मेरी बायोप्सी हुई, जिसमें उन्होंने मेरे गले से पेट तक एंडोस्कोप डाला और मेरी पैनक्रियाज़ के उस ट्यूमर से एक सुंई के ज़रिये कुछ कोशिकायें निकालीं।
मुझे बेहोश कर दिया गया था लेकिन मेरी पत्नी ने, जो उस समय बहाँ पर मौजूद थी, मुझे बताया कि जब डॉक्टर ने उन कोशिकाओं को माइक्रोस्कोप से देखा तो वह चिल्लाने लगा, क्योंकि उसने पाया कि वह पैनक्रियाज़ एक ऐसा दुर्लभ कैंसर था जिसका सर्जरी से इलाज सम्भव था।
मेरी सर्जरी की गयी, और ईश्वर की कृपा से मैं अब भला चंगा हूँ।
उस वक्त मैंने मौत को बहुत करीब से देखा था, और मैं आशा करता हूँ कि आने वाले कुछ दशकों तक मेरा वह मौत से निकटतम साक्षात्कार रहेगा।
पहले मृत्यु के बारे में मेरी विशुद्ध बौद्धिक अवधारणा थी, लेकिन इस सब से गुजरने के बाद मैं अब आपको इसके बारे में अधिक निश्चितता के साथ कह सकता हूँ।
कोई भी मरना नहीं चाहता, यहाँ तक कि जिन्हें स्वर्ग की चाह है वे भी स्वर्ग पाने के लिए मरना नहीं चाहते, और फिर भी मृत्यु हम सब के लिए एक ऐसा गंतव्य है जिससे कभी कोई नहीं भाग सका।
और ऐसा होना भी चाहिये, क्योंकि मृत्यु सम्भवतया जीवन का एकमात्र सर्वोत्तम आविष्कार है।
यह जीवन का परिवर्तन एजेंट है; मृत्यु पुराने को हटा कर नये के लिए रास्ता बनाती है।
इस समय आप नये हैं। लेकिन वह दिन बहुत दूर नहीं है जब आप धीरे-धीरे किसी दिन पुराने हो जायेंगे और आपको भी हटा दिया जायेगा। इतना नाटकीय होने के लिए मुझे खेद है, लेकिन सच्चाई यही है।
आपका समय सीमित है, इसलिए किसी और की ज़िन्दगी जीने में इसे बर्बाद मत कीजिये।
उस हठधर्मिता के जाल में मत फंसिये, जो दूसरे लोगों की सोच के नतीजों के साथ जी रही है।
अपने अन्दर की, अपने दिल की, और अपनी सहज बुद्धि की आवाज़ को दूसरों के विचारों के शोर में डूबने मत दीजिये। उन लोगों को पता नहीं कैसे पहले से ही मालूम होता है कि आप सचमुच क्या बनना चाहते हैं।
बस यही बात मुख्य है, बाकी सबकुछ गौण है”।
- राजेन्द्र चौधरी द्वारा अनुवादित
वह क्या विशेषता है जो स्टीव जॉब्स को इतनी प्रेरणादायक हस्ती बनाती है? इसके उत्तर में हम, ऐपल कम्प्यूटर के इस प्रसिद्ध संस्थापक और सीईओ का वह भाषण आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहे हैं जो उन्होंने स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के छात्रों के दीक्षांत समारोह के अवसर पर दिया था। अत्यंत प्रेरणादायक और हृदयस्पर्शी उनका यह भाषण एक दुर्लभ और बहुमूल्य उद्बोधन है। यह व्यक्ति सिर्फ कम्प्यूटर, ऐनिमेशन कम्पनियों, फोन और आईपोड का अद्वितीय निर्माता ही नहीं है बल्कि उनका यह भाषण इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि वह भावों और शब्दों का जादू बुनने की कला में भी अद्वितीय रूप से कुशल और पारंगत हैं।
“धन्यवाद!
विश्व के सर्वोत्तम विश्वविद्यालयों में गिने जाने वाले इस विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में आप लोगों के साथ उपस्थित होकर मैं स्वयं को सम्मानित अनुभव कर रहा हूँ। सच कहूँ, मैं कभी भी किसी कॉलेज से ग्रेजुएशन नहीं कर पाया और मेरे जीवन में यह पहला ऐसा ग्रेजुएशन समारोह है जिसमें मैं उपस्थित हुआ हूँ।
आज मैं आपको अपनी ज़िन्दगी से ली गयीं तीन कहानियां सुनाना चाहता हूँ, बस। कोई बड़ी-बड़ी बातें नहीं। सिर्फ तीन कहानियां।
पहली कहानी बिन्दुओं को जोड़ने के बारे में है।
मैं रीड कॉलेज में पढ़ता था और मैंने पहले छह महीनों के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी थी, लेकिन वास्तव में पढ़ाई छोड़ने से पहले मैं अगले लगभग अठारह महींनो तक वहाँ पर आता-जाता रहा। तो फिर मैंने पढ़ाई क्यों छोड़ी?
इसकी शुरुआत मेरे पैदा होने से पहले ही हो गयी थी।
मैं जिस माँ की कोख से पैदा हुआ, वह एक जवान, अनब्याही, ग्रेजुएट छात्रा थी और उसने तय किया कि वह मुझे किसी को गोद दे देगी। वह प्रबल रूप से ऐसा महसूस करती थी कि कोई ग्रेजुएट व्यक्ति ही मुझे अपनाये यानि गोद ले, इसलिए मेरे लिए हर चीज पहले से ही तय थी कि मेरे पैदा होने पर एक वकील और उसकी पत्नी मुझे गोद ले लेंगे। लेकिन जब मैं पैदा हुआ, तो उन्होंने आखिरी क्षणों में तय किया कि दरअसल वे एक बच्ची चाहते थे।
इसलिए मेरे माता-पिता जिन्हें प्रतीक्षा सूची में रखा गया था, उन्हें आधी रात को फोन करके पूछा गया, ‘हमारे पास एक अप्रत्याशित बच्चा है। क्या आप उसे गोद लेना चाहेंगे?’ उन्होंने कहा, ‘बेशक’।
मेरी जन्मदात्री माँ को बाद में पता चला कि मेरी माँ ने कभी भी ग्रेजुएशन नहीं किया था और मेरे पिता हाईस्कूल भी पास नहीं कर पाये थे। मुझे जन्म देने वाली माँ ने गोद लेने के कागज़ात पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया। कुछ दिन बाद जब मेरे माता-पिता ने उनसे यह वादा किया कि वे मुझे कॉलेज ज़रूर भेजेंगे, तब जाकर ही उनका रुख नर्म पड़ा और उन्होंने अपनी मंजूरी दे दी।
यह मेरी ज़िन्दगी की शुरुआत थी।
और सत्रह वर्ष के बाद, मैं निश्चय ही कॉलेज गया, लेकिन मैंने नौसिखियेपन में ऐसा कॉलेज चुना जो स्टैनफोर्ड जितना ही मंहगा था, और मेरे नौकरीपेशा माता-पिता की सारी बचत मेरे कॉलेज के ट्यूशन पर खर्च हो जाती थी।
छह महीने के बाद मुझे यह उपयोगी नहीं लगा।
मुझे कुछ मालूम नहीं था कि मैं ज़िन्दगी में क्या करना चाहता हूँ, और कॉलेज इस बारे में मेरी कैसे मदद कर पायेगा यह बात भी मेरी समझ से बाहर थी, और इधर मैं अपने माता-पिता की ज़िन्दगी की सारी कमाई खर्च किये दे रहा था।
इसलिए मैंने पढ़ाई छोड़ने का मन बना लिया और यकीन कर लिया कि सब ठीक हो जायेगा।
उस समय यह निर्णय काफी डरावना था, लेकिन अब पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो लगता है कि यह मेरे द्वारा लिये गये सबसे अच्छे निर्णयों में से एक था।
पढ़ाई छोड़ने का निर्णय ले लेने पर उन कक्षाओं में, जिनमें मेरी रुचि नहीं थी, जाना मेरे लिए ज़रूरी नहीं रहा था और मैंने उन कक्षाओं में जाना शुरू कर दिया जो मुझे कहीं अधिक रोचक लगती थीं।
यह सब उतना रोमांटिक नहीं था।
मेरे पास छात्रावास का कमरा नहीं था, तो मैं दोस्तों के कमरे में फर्श पर सोया।
मैं कोक की बोतलें वापस करके पाँच सेंट जमा करता था ताकि मैं खाने के लिए भोजन खरीद सकूँ और मैं सात मील पैदल चल कर हर रविवार की शाम को हरे कृष्णा मन्दिर जाता था ताकि मैं हफ्ते में एक बार तो ठीक-ठाक भोजन कर सकूँ।
मुझे ऐसा करना अच्छा लगता था।
और मैंने अपनी जिज्ञासा और सहज बुद्धि का कहा मान कर जो भूल की थी वह बाद में बहुमूल्य साबित हुई।
मैं आपको इसका एक उदाहरण देता हूँ।
रीड कॉलेज उस समय कैलिग्राफी (सुलेख) की शिक्षा के लिए शायद देश में सबसे अच्छा माना जाता था।
पूरे कैम्पस में हर पोस्टर और हर अलमारी व दराज पर लगा हर लैबल हाथ से खूबसूरत लिखावट में लिखा होता था।
चूँकि मैंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी और मुझे अपनी सामान्य नियमित कक्षाओं में नहीं जाना होता था, इसलिए मैंने कैलिग्राफी की कक्षा में जाने का निश्चय किया ताकि मैं जान सकूँ कि किस तरह इतना सुन्दर लिखा जाता है। मैंने सेरिफ और सैंस सेरिफ (अक्षरों के अंत की लघु रेखा और लघु रेखा रहित) टाइपफेस के बारे में, अलग-अलग अक्षरों को जोड़ने में बीच की जगह में बदलाव करने के बारे में, और उन सब चीजों के बारे में सीखा जिनकी वजह से कोई अच्छा लेखन अच्छा बन पाता है।
यह खूबसूरत, ऐतिहासिक, और कलात्मक तौर पर ऐसी बारीक चतुराई थी जो विज्ञान की पकड़ से बाहर थी, और मुझे यह आकर्षक लगी।
इनमें से किसी भी चीज के मेरे जीवन में व्यावहारिक रूप से उपयोगी होने की कोई उम्मीद तक नहीं थी। लेकिन दस साल बाद जब हम पहला मैकिंटोश कम्प्यूटर डिजाइन कर रहे थे, तो मुझे इन सब चीजों का ख्याल आया, और हमने इन सबको मैकिंटोश में डिजाइन किया।
सुन्दर टाइपोग्राफी वाला यह पहला कम्प्यूटर था।
अगर मैं कॉलेज में कैलिग्राफी की उस अकेली कक्षा में नहीं गया होता, तो मैकिंटोश में कभी भी इतने अलग-अलग टाइपफेस, या अनुपातिक तौर पर दो अक्षरों के बीच में जगह वाले फोंट नहीं होते, और क्योंकि माइक्रोसॉफ्ट ने केवल मैकिंटोश की नकल की, इसलिए सम्भव है कि किसी भी कम्प्यूटर में वे नहीं होते।
अगर मैं कभी भी पढ़ाई नहीं छोड़ता, तो मैं कभी भी कैलिग्राफी की कक्षा में नहीं जाता, और पर्सनल कम्प्यूटरों में कभी भी वो लाजवाब टाइपोग्राफी नहीं होती जो आज है।
जब मैं कॉलेज में था, तो भविष्य की ओर देखते हुए बिन्दुओं को जोड़ना निश्चय ही असम्भव था, लेकिन दस वर्ष बाद पीछे देखने पर यह सब कितना स्पष्ट दिखता था।
आप आगे देखते हुए बिन्दुओं को नहीं जोड़ सकते। आप उन्हें सिर्फ पीछे की ओर देख कर ही जोड़ सकते हैं। इसलिए आपको यह यकीन करना होता है कि बिन्दु किसी न किसी तरह आपके भविष्य में जुड़ जायेंगे।
आपको किसी न किसी चीज में विश्वास या भरोसा करना होता है, अपनी हिम्मत पर, किस्मत पर, कर्म पर, या जिस किसी पर भी – क्योंकि यह भरोसा कि ये बिन्दु आपको आपकी ज़िन्दगी के रास्ते से जोड़ देगें, आपमें अपने दिल की बात मानने का विश्वास पैदा करेगा, भले ही वह रास्ता ऐसा क्यों न हो जिस पर लोगों की आवाजाही नहीं होती हो, बस वह ही सारा फर्क पैदा कर देगा।
मेरी दूसरी कहानी प्यार और नुकसान के बारे में है।
मैं भाग्यशाली था। मुझे क्या करना अच्छा लगता है इसका पता मुझे अपनी ज़िन्दगी में ज़ल्दी ही चल गया था।
जब मैं बीस साल का था तो वॉज़ ने और मैंने मिल कर अपने माता-पिता के गैरेज में ऐपल कम्प्यूटर की शुरुआत की।
हमने कड़ी मेहनत की और दस साल के अन्दर, गैरेज में हम दो लोगों से शुरू हुआ ऐपल 4000 से भी अधिक कर्मचारियों वाली 2 बिलियन डॉलर की कम्पनी बन गया। अपनी उच्च श्रेणी के शानदार मैकिंटोश को बाजार में उतारे हुए अभी एक साल ही हुआ था और मैं अभी तीस वर्ष का ही हुआ था कि मुझे नौकरी से निकाल दिया गया।
आप सोचेंगे कि जो कम्पनी आपने खुद शुरू की हो, उससे आपको कैसे निकाला जा सकता है? तो हुआ यूँ कि जब ऐपल बड़ी कम्पनी बन गयी, तो हमने एक ऐसे व्यक्ति को नौकरी पर रख लिया जो मेरे साथ कम्पनी को चलाने के लिए मेरे विचार से बहुत प्रतिभाशाली था। पहले साल सब कुछ ठीक चला। लेकिन हमारे भविष्य के दृष्टिकोणों में मतभेद शुरू हो गये, और अंतत: हम अलग हो गये।
जब ऐसा हुआ, तो हमारे निदेशक मंडल यानि बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स ने उसका पक्ष लिया, और इस तरह तीस वर्ष की उम्र में मुझे बाहर कर दिया गया, और खुले आम बाहर कर दिया गया। जो चीज मेरी पूरी युवावस्था का फोकस रही थी वही चली गयी, और यह सब मेरे लिए एक तबाही जैसा था।
कुछ महीनों तक वास्तव में मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था कि क्या किया जाये।
मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मैंने उद्यमी लोगों की पहली पीढ़ी को शर्मसार कर दिया हो, मानो उनके द्वारा मुझे बैटन सौंपे जाने के समय ही वह मेरे हाथ से गिर गयी हो।
मैं डैविड पैकर्ड और बॉब नॉयस से मिला और इतनी बुरी तरह से पंगा लेने के लिए मैंने उनसे माफी मांगने की कोशिश की।
मैं एक बहुत बड़ी सार्वजनिक विफलता का किस्सा बन गया था, यहाँ तक कि मेरे मन में सिलिकॉन वैली से भाग जाने का विचार भी आया।
लेकिन धीरे-धीरे मुझे कुछ समझ आने लगा। मैंने जो कुछ किया उससे मुझे अभी भी लगाव था।
ऐपल की इन घटनाओं के इतने बदलाव पर भी मेरे उस लगाव में कोई बदलाव नहीं आया। मुझे नकार दिया गया था, पर मुझे अभी भी उस सब से प्यार था। इसलिए मैंने फिर से शुरुआत करने की ठानी।
उस समय मुझे यह दिखायी नहीं दिया, लेकिन बाद में मुझे लगा कि ऐपल से निकाला जाना मेरे लिए सबसे ज्यादा फायदेमन्द रहा।
कामयाब शख्स होने के भारीपन की जगह मैं फिर से नौसिखिया होने का, हर चीज के बारे में कम निश्चित होने का हल्कापन महसूस करने लगा था। इसने मुझे अपने जीवन की सर्वाधिक रचनात्मक अवधियों में गिने जाने वाले काल में प्रवेश करने की स्वतंत्रता दी।
अगले पाँच वर्षों के दौरान मैंने नेक्स्ट नाम की एक कम्पनी शुरू की, और फिर पिक्सर नाम की एक दूसरी कम्पनी और मुझे एक असाधारण महिला से प्यार हो गया जो मेरी पत्नी बनने वाली थी।
पिक्सर ने दुनिया की पहली कम्प्यूटर-ऐनिमेटेड फीचर फिल्म टॉय स्टोरी बनाने का काम जारी रखा, और अब यह दुनिया का सबसे कामयाब ऐनिमेशन स्टुडियो है।
घटनाओं ने एक असाधारण मोड़ लिया, ऐपल ने नेक्स्ट कम्पनी को खरीद लिया। मैं ऐपल में फिर से वापस आ गया और जो टेक्नोलोजी हमने नेक्स्ट में विकसित की थी अब ऐपल की वर्तमान नवचेतना के केन्द्र में वही है, और लॉरेन के साथ मैं एक खूबसूरत गृहस्थ जीवन जी रहा हूँ।
मैं निश्चित रूप से जानता हूँ कि अगर मुझे ऐपल से नहीं निकाला जाता, तो यह सब कुछ हासिल नहीं होता। यह एक बेहद कड़वी दवाई थी लेकिन शायद मरीज को इसकी ज़रूरत थी।
कभी-कभी ज़िन्दगी आपके सिर पर ईंट से प्रहार करती है। बस अपने विश्वास को मत डगमगाने दो।
मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि मैं इस सबसे सिर्फ इसलिए उबर पाया क्योंकि जो कुछ मैंने किया, मैं उससे प्यार करता था।
जिसे आप प्यार करते हैं उसे आपको खुद ढूँढना होगा, और यही बात काम के विषय में लागू होती है।
आपकी ज़िन्दगी का एक बड़ा हिस्सा काम करने में गुजरता है, और सच में संतुष्ट महसूस करने का एकमात्र तरीका है वह काम करना जिसे आप शानदार काम मानते हों, और शानदार काम करने का एकमात्र तरीका है आप जो भी करें उसे प्यार करें।
अगर आप उसे अभी तक नहीं ढूँढ पाये हैं, तो ढूँढते रहिये, और जब तक वह मिल न जाये, तब तक चैन से मत बैठिये।
जैसा कि दिल के सभी मामलों में होता है, जब वह मिलेगा तो आपको खुद पता चल जायेगा, और किसी भी अच्छे रिश्ते की तरह यह वक्त गुजरने के साथ और बेहतर होता जाता है। इसलिए ढूँढते रहिये, और जब तक वह मिल न जाये, तब तक चैन से मत बैठिये।
मेरी तीसरी कहानी मौत के बारे में है।
जब मैं सत्रह साल का था, तो मैंने कहीं एक कहावत पढ़ी थी जो कुछ इस तरह से थी, ‘अगर आप हर दिन को इस तरह से जीते हैं जैसे वह आपका आखिरी दिन हो, तो एक न एक दिन आप निश्चित रूप से पायेंगे कि आपका सोचना सही था’।
इस कहावत ने मुझ पर बहुत असर ड़ाला, और तभी से, पिछले 33 सालों से, मैं रोजाना सुबह आईने में देखता हूँ और खुद से पूछता हूँ, ‘अगर आज मेरी ज़िन्दगी का आखिरी दिन होता, तो क्या मैं वह करना चाहता जो मैं आज करने जा रहा हूँ’? और जब कभी भी लगातार कई दिनों तक मेरा दिल ‘नहीं’ में जवाब देता है, तो मैं जान जाता हूँ कि मुझे इसमें कुछ न कुछ बदलना चाहिये।
बड़े निर्णय लेने में मदद करने के लिए मुझे यह याद रखना सबसे महत्वपूर्ण लगा कि जल्दी ही मेरी मृत्यु हो जायेगी, क्योंकि लगभग सभी चीजें – सभी बाहरी अपेक्षायें, सारे अभिमान, विफलता या शर्मिन्दगी के सारे डर – मौत के सामने ये सब छिटक जाते हैं, बस वही बचा रहता है जो सचमुच महत्वपूर्ण है।
यह याद रखना कि आप मरने वाले हैं, मेरे विचार से इस जाल से बचने का भी सबसे अच्छा तरीका है कि आप कुछ गंवा देंगे, खो बैठेंगे। आप पहले ही नंगे हो चुके हैं, अब क्या खोयेंगे। इसलिए आपके पास अपने दिल की बात नहीं मानने का कोई कारण नहीं है।
लगभग एक साल पहले, पता चला कि मुझे कैंसर है।
सुबह 7:30 बजे मैंने स्कैन कराया तो उसमें स्पष्ट रूप से मेरी पाचक ग्रंथि (पैनक्रियाज़) में ट्यूमर दिखायी दिया। मुझे यह भी मालूम नहीं था कि पैनक्रियाज़ क्या होती है।
डॉक्टरों ने मुझे बताया कि यह निश्चित रूप कैंसर की एक ऐसी किस्म है जो लाइलाज है, और मुझे तीन से छह महीनों से ज्यादा जीने की उम्मीद नहीं रखनी चाहिये। मेरे डॉक्टर ने कहा कि मैं घर जाकर अपनी चीजों को व्यवस्थित करलूँ। शायद वह शालीन भाषा में कह रहा था कि मैं मरने की तैयारी करलूँ।
इसका मतलब था कि आप इन कुछ ही महीनों अपने बच्चों को वह सब बताने की कोशिश करो जो आपको उन्हें अगले दस-पन्द्रह सालों में बताना था। इसका मतलब था कि आपका परिवार आपको खोने के लिए तैयार हो जाये। इसका मतलब था कि आपका हमेशा के लिए अलविदा कहने का समय आ गया है।
मैं पूरे दिन डॉक्टरों के उस निर्णय के साथ जिया।
शाम को मेरी बायोप्सी हुई, जिसमें उन्होंने मेरे गले से पेट तक एंडोस्कोप डाला और मेरी पैनक्रियाज़ के उस ट्यूमर से एक सुंई के ज़रिये कुछ कोशिकायें निकालीं।
मुझे बेहोश कर दिया गया था लेकिन मेरी पत्नी ने, जो उस समय बहाँ पर मौजूद थी, मुझे बताया कि जब डॉक्टर ने उन कोशिकाओं को माइक्रोस्कोप से देखा तो वह चिल्लाने लगा, क्योंकि उसने पाया कि वह पैनक्रियाज़ एक ऐसा दुर्लभ कैंसर था जिसका सर्जरी से इलाज सम्भव था।
मेरी सर्जरी की गयी, और ईश्वर की कृपा से मैं अब भला चंगा हूँ।
उस वक्त मैंने मौत को बहुत करीब से देखा था, और मैं आशा करता हूँ कि आने वाले कुछ दशकों तक मेरा वह मौत से निकटतम साक्षात्कार रहेगा।
पहले मृत्यु के बारे में मेरी विशुद्ध बौद्धिक अवधारणा थी, लेकिन इस सब से गुजरने के बाद मैं अब आपको इसके बारे में अधिक निश्चितता के साथ कह सकता हूँ।
कोई भी मरना नहीं चाहता, यहाँ तक कि जिन्हें स्वर्ग की चाह है वे भी स्वर्ग पाने के लिए मरना नहीं चाहते, और फिर भी मृत्यु हम सब के लिए एक ऐसा गंतव्य है जिससे कभी कोई नहीं भाग सका।
और ऐसा होना भी चाहिये, क्योंकि मृत्यु सम्भवतया जीवन का एकमात्र सर्वोत्तम आविष्कार है।
यह जीवन का परिवर्तन एजेंट है; मृत्यु पुराने को हटा कर नये के लिए रास्ता बनाती है।
इस समय आप नये हैं। लेकिन वह दिन बहुत दूर नहीं है जब आप धीरे-धीरे किसी दिन पुराने हो जायेंगे और आपको भी हटा दिया जायेगा। इतना नाटकीय होने के लिए मुझे खेद है, लेकिन सच्चाई यही है।
आपका समय सीमित है, इसलिए किसी और की ज़िन्दगी जीने में इसे बर्बाद मत कीजिये।
उस हठधर्मिता के जाल में मत फंसिये, जो दूसरे लोगों की सोच के नतीजों के साथ जी रही है।
अपने अन्दर की, अपने दिल की, और अपनी सहज बुद्धि की आवाज़ को दूसरों के विचारों के शोर में डूबने मत दीजिये। उन लोगों को पता नहीं कैसे पहले से ही मालूम होता है कि आप सचमुच क्या बनना चाहते हैं।
बस यही बात मुख्य है, बाकी सबकुछ गौण है”।
- राजेन्द्र चौधरी द्वारा अनुवादित
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