रविवार, जुलाई 31, 2011

अर्थ खोते शब्द

कल सुबह मेरी चचेरी बहन का फोन आया। नमस्कार करने के उपरांत बोली कि भाई शाम को छह बजे घर पर हवन है, आप और भाभी आ जाना। मैंने कहा कि ज़रूर आजायेंगे और लगे हाथ यह भी पूछ लिया कि हवन का आयोजन किस उपलक्ष्य में है क्योंकि हम अब अकारण तो भगवान को भी याद नहीं करते। उसने बताया कि उसके छोटे बेटे का जन्मदिन है। मैंने बधाई देते हुए आने का आश्वासन दिया और फिर उसने फोन रख दिया। मैं सपत्नीक उपहार लेकर उसके फ्लैट पर साढे छह बजे पहुँचा। चूँकि मैं समय की पाबन्दी की अपनी आदत के कारण अक्सर पत्नी के उपहास का केन्द्र बनता रहा हूँ, इसलिए सावधानी बरतते हुए मन मार कर आधा घंटा लेट पहुँचने में ही भलाई समझी। लेकिन दुर्भाग्य से मेरी गिनती फिर भी पहले पहुँचने वाले लोगों में ही रही। खैर, सात बजे तक सभी परिवारजन आ गये और उसके पाँच-सात मिनट के बाद शास्त्री जी भी पधार गये। हवन शुरू हुआ और उसके सम्पन्न हो जाने के बाद परम्परा निभाते हुए शास्त्री जी ने नैतिकता के विषय पर अपना संक्षिप्त प्रवचन दिया। फिर अपनी भेंट-पूजा लेकर वे विदा हो गये। हवन के उपरांत भोजन का प्रबन्ध था, इसलिए हम सभी आमंत्रितजन बैठे आपस में बातचीत में मशगूल हो गये। हम भारतीय लोगों को बातें करना अत्यंत प्रिय है और हमें बातें भी अवसर के इतर विषयों पर ही करने में आनन्द आता है।
मौसम से शुरू होकर राजनीति, भ्रष्ट नेतागण, रोज प्रकाश में आ रहे नये-नये स्कैम, गिरते नैतिक मूल्य, बिखरते परिवार, अपने ही बच्चों से डरते हुए बूढ़े माँ-बाप, बेरोजगारी, बढ़ते हुए अपराध, इंग्लैंड के खिलाफ भारतीय क्रिकेट टीम का लचर प्रदर्शन, केरल के मन्दिर में मिले अकूत खजाने आदि आदि विषयों को समाहित करती हुई बातचीत चल रही थी कि खाना आ गया। खाना खाते हुए भी बातचीत बदस्तूर जारी रही और अंतत: अभिवादन और उस बच्चे को आशीर्वाद देने की औपचारिकताओं के बाद सबने वापस अपने घरों को प्रस्थान किया।
वापसी में कार चलाते हुए भी मेरे दिमाग में कुछ मिनटों पहले हो रही बातचीत की स्मृति ताज़ा बनी रही। पत्नी की बातों पर हूँ - हाँ करता हुआ मैं अपने विचारों में ही खोया रहा। सात बजे हवन होना था तो छह बजे का समय क्यों बताया गया, बचपन से सच बोलने और ईमानदारी के साथ जीने का पाठ पढ़ते रहने के बाद भी झूठ और बेइमानी का ही बोलबाला क्यों है, माँ-बाप अपने ही बच्चों से इतने डरने क्यों लगे हैं, रिश्तों की गरिमा क्यों खोती जा रही है, माया से विरक्त होने का पाठ पढ़ाने वाले मन्दिरों में अकूत सम्पत्ति क्यों एकत्रित होती जा रही है .....? क्या इसका कोई निदान नहीं है? मुझे अपनी अम्मा के द्वारा अक्सर कहे जाने वाले कुछ मुहावरेनुमा वाक्य बरबस याद आने लगे: “बोये पेड़ बबूल के आम कहाँ से होंयें”, “जैसी करनी वैसी भरनी”, “जैसा खाये अन्न वैसा होये मन”, “मुँह में राम बगल में छुरी”, “अधजल गगरी छलकत जाये”, “गये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास”, “पाना खोना गर्दे में, खाना सोना पर्दे में”, “बत्तीस दाँतों से घिरी बिन हड्डी की जीभ, सोच समझ कर बोलना वरना देगी टीस”, “पूत सपूत तो क्यों धन संचय, पूत कपूत तो क्यों धन संचय”, “मन चंगा तो कठौती में गंगा”, “कुलच्छनी बेटी, बदजुबान बेटा, चाहे राजा का या रंक का, बदनामी ही देता”, “बेटे कितने भी बड़े हो जाओ चाहे आप, बेटा बेटा ही भला पगड़ी सोहे बाप”, “बड़ों की हुक्म उदूली छोटों के फरमान, चाहे धन्ना सेठ हो घर होये वीरान”, “पकी फसल जवान बेटी, समय रहते घर भली”, “जो पाँयत सिरहाने पला नहीं, उससे रिश्ता भला नहीं”, “मन मैले होवें नहीं ऐसे करो उपाय, वो कारज किस काम के जो दें नींद उड़ाय”, “अपने कहे से फिरना नहीं, खुद की नज़र में गिरना नहीं”, “चुस्की भली चस्का बुरा”, आदि आदि। इन छोटे-छोटे वाक्यों में पूरा जीवन दर्शन छुपा हुआ था। सचमुच जीवन यज्ञ के मंत्र थे ये वाक्य। कम पढ़ी लिखी होने पर भी कितनी ज्ञानी थीं अम्मा!
अब माँयें बच्चों को ये बातें नहीं बतातीं क्योंकि उनकी माँओं ने भी उनको नहीं बताया और ना ही अब बच्चे ये सब सुनते और समझते हैं। जब अंत:करण बंजर होने लगते हैं तो उनमें बबूल फलने लगते हैं। रेतीली नींव पर महल नहीं बनते। घुनी हुई लकड़ी के शहतीर नहीं बनते। उजाला देने के लिए मोमबत्ती को जल कर अपना अस्तित्व खाक करना पड़ता है। अंत:करण बदलने से आचरण बदलता है, आचरण बदल लेने से अंत:करण नहीं बदलता। हमारी हरकतें गलत होंगी तो परमात्मा बरकतें छीनेगा ही। तय हमको ही करना है। हम खुद को बदलेंगे, तो बच्चे भी बदलेंगे, परिवार बदलेंगे तो समाज भी बदलेगा, देश भी बदलेगा, दुनिया भी बदलेगी वरना हमाम में सब नंगे हैं ही। गूँगे बहरों की बस्ती में कैसे शब्द और कैसे अर्थ?
- राजेन्द्र चौधरी

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