शुक्रवार, जुलाई 29, 2011

फुर्सत मिले तो कभी सोचना....

मेरा मानना है कि हर शख्स अपने आप में खास होता है क्योंकि परमात्मा हर शख्स को कुछ न कुछ ऐसा अता करके दुनिया में भेजता है जो दूसरे के पास नहीं होता, फिर चाहे वो बेवकूफी ही क्यूँ न हो। यह अलग बात है कि ज्यादातर लोगों को पूरी ज़िन्दगी यही मालूम नहीं हो पाता कि उनके पास ऐसा क्या है जो दूसरों के पास नहीं है। ऐसा क्यूँ होता है? जो चीज मेरे पास है उसका मुझे क्यूँ पता नहीं चल पाता?

यह सवाल जब मैंने पूरी गम्भीरता के साथ अपने आप से पूछा तो मेरे अंतर्मन से अवाज़ आयी, “तुम अपने अन्दर झाँकते ही कब हो? फुर्सत कहाँ है तुम्हें बाहर देखने से?” मुझे लगा जैसे नंगे आदमी को किसी ने आईना दिखा दिया हो। मेरा अंतर्मन, जिसे मैंने कभी बोलने का मौका ही नहीं दिया था, मौका मिलते ही चुप कहाँ रहने वाला था। मेरे स्वर्गीय पिताजी के विशुद्ध लहज़े में बोला, “कभी देखा है कितनी धूल और कितने जाले लगे हुए हैं मुझ पर? कोई और आयेगा क्या इनको साफ करने के लिए? तुम पैसे देकर बाहरी चीजों की साफ-सफाई की व्यवस्था कर सकते हो, लेकिन मेरी यानि अपने मन की सफाई तुम्हें खुद ही करनी है। मर्ज़ी तुम्हारी है, करना चाहो करो, न करना चाहो मत करो। मैं तो आईना हूँ, सच ही बोलूँगा, मुझ पर जमी हुई ग़र्द में तुम खुद को कैसे देख पाओगे? लेकिन तुम मुझमें खुद को देखना कहाँ चाहते हो? तुम तो दूसरों के चेहरों पर खुद को पढ़ने की कोशिश में मशगूल हो, पढ़ते रहो दूसरों के झूठे पुते हुए चेहरों पर अपनी इबारतें। बनाते रहो उन इबारतों पर अपने बारे में खयाली महल”।

मुझे लगा सब लोग यही तो कर रहे हैं, सब लोग एक दूसरे के चेहरे पर ही तो अपने बारे में पढ़ने में जुटे हुए हैं। इसीलिए तो सब एक जैसे दिख रहे हैं, सब के सब एक दूसरे के जैसे होने में ही लगे पड़े हैं। एक होड़ है, प्रतिस्पर्धा है। लेकिन यह सारी प्रतिस्पर्धा बाहर है। भीड़ बाहर है, अन्दर वीरानी है। वीराने डराते हैं, भीड़ में सुरक्षित महसूस होता है, पहचान जो मिट जाती है, चेतना जो मर जाती है। भीड़ की कोई चेतना नहीं होती। भीड़ मूर्छित होती है। जब सारी मशक्कत अपनी अलग पहचान को मिटाने के लिए, अपनी चेतना को मारने के लिए हो रही है, तो फिर यह कैसे पता चलेगा कि मेरे पास ऐसा क्या है जो दूसरों के पास नहीं है। सच्चाई यह है कि हम यह जानना ही नहीं चाहते हम हर हाल में भीड़ का हिस्सा होना चाहते हैं। उसमें आसानी लगती है। दूसरों से बात करने में मज़ा आता है, खुद से बात करने में जान निकलती है।

लेकिन याद रखना, ज़िन्दगी साँसों के आवागमन का नाम नहीं है। जीते रहना (Living being) और ज़िन्दा बने रहने (Alive Being) में बड़ा फ़र्क है। यह डॉक्टर, अस्पताल, दवायें आपको जीवित रखने में मदद कर सकते हैं, ज़िन्दा आपको खुद रहना होता है। ज़िन्दा रहने के लिए इच्छा शक्ति चाहिये, हौसला चाहिये। ज़िन्दा रहने के लिए खुद से बात करते रहना बहुत ज़रूरी है। जिसका अंतर्मन मर चुका हो, वो जीवित रह कर भी मरा हुआ ही है।

हमें जीवित व्यक्ति (Living Being) रहना है या ज़िन्दा व्यक्ति (Alive Being) बनना है, चुनना हम ही को है। जो हम चुनेंगे वो ही तो बनेंगे। जो हम चुन रहे हैं, वो ही बन रहे हैं।

- राजेन्द्र चौधरी

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