शुक्रवार, जुलाई 29, 2011

पत्ता और चिड़िया

मेरा निवास स्थान मेरठ में विक्टोरिया पार्क इलाके में है। मैं अमूमन रोज शाम को विक्टोरिया पार्क मैदान में घूमने के लिए जाता हूँ। आमतौर पर अन्य सभी तथाकथित व्यस्त भारतीय लोगों की तरह मैं भी अपने सिर के बाल उड़ जाने तक सेहत सम्बन्धी उबाऊ अनुशासन से बचने के लिए व्यस्तता और समय की कमी का बहाना बना कर चलता रहा। साथ ही ‘यह खाओ और यह न खाओ’ की नियमावली में मेरी कभी भी दिलचस्पी नहीं रही। मेरा मानना रहा है कि जो सहज रूप से मन को रुचे और ऊर्जा दे, वह ग्रहण करने योग्य है। वैसे भी वर्जनायें कैसी भी हों, कष्टदायी ही होती हैं। पर शरीर तो शरीर ही ठहरा, हर मशीन की तरह कब तक मिसहैंडलिंग बर्दाश्त करता। आखिर हाथ खड़े कर गया, और डॉक्टर की शरण लेनी पड़ी। डॉक्टर कुशल होने के साथ-साथ हमारे पारिवारिक मित्र भी हैं, इसलिए मेरे स्वभाव से भली भाँति परिचित हैं। पूरी जाँच-पड़ताल करने के बाद, आदेशात्मक लहज़े में नियमित रूप से जाँच कराते रहने के निर्देश के साथ आजीवन सेवन की जाने वाली दवाइयां थमा दीं। मित्रता के रिश्ते को दरकिनार करते हुए पेशेवर सलाह देते हुए फरमाया कि बेहतर होगा कि मैं दिल के बजाय दिमाग से काम लूँ – उनके द्वारा निर्धारित किये गये खाद्य पदार्थों (जो कि स्वाभाविक रूप से मुझे कभी भी रुचिकर नहीं लगे) का ही सेवन करूँ और नियमित रूप से रोज आधा घंटा तेज़ कदमों के साथ पैदल चलूँ। मरता क्या ना करता, आज्ञाकारी बच्चे की तरह रोज शाम को आधा घंटा घूमने को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाना पड़ा क्योंकि मेरी नज़र में अगर विकल्प की सुविधा उपलब्ध हो, तो मौत के बजाय ज़िन्दगी एक बेहतर विकल्प है, और हर स्थिति कुछ न कुछ नया सिखाती है।

मेरा अनुभव है कि बुढ़ापे के मुहाने पर पहुँच कर भारतीय आदमी अधिकांशतया जवानी में लुभाने वाली चीजों के बजाय अत्यंत उपेक्षित रही मामूली चीजों की ओर गौर फरमाने लगता है। मैं भी इसका अपवाद नहीं हूँ। एक दिन शाम को घूमते हुए मेरी नज़र एक जँगली पौधे के पत्ते पर पड़ी, वह उस पौधे के अन्य पत्तों की अपेक्षा आकार में बहुत अधिक बड़ा, आकर्षक और चिकना था। मैं रुका, उस पौधे के पास गया, और उस पत्ते को मैंने ऐसे छुआ मानो जवानी में किसी अद्वितीय सुन्दर नवयौवना का स्पर्श पाकर मन धन्य हो उठा हो। बला की कोमलता और स्निग्धता थी उस पत्ते में। फिर मैंने उसी पौधे के दूसरे पत्तों का बारीकी से अवलोकन किया, वे खुरदुरे, मुड़े हुए, और अब गिरे कि तब गिरे की अवस्था को प्राप्त थे। वह पत्ता अचानक मुझे ज़िन्दगी का आईना दिखा गया। जिजीविषा हो, तो प्रतिकूल माहौल में भी अद्वितीय उपलब्धि हासिल की जा सकती है, अनुवांशिक हीनताओं को ठेंगा दिखाया जा सकता है, तमाम झंझावात के बावजूद अपनी कोमलता बनायी रखी जा सकती है, अपने अकेले दम पर हेय और उपेक्षित समझे गये अपने वंश को गौरव हासिल कराया जा सकता है, और बिना बोले दुनिया को ज़िन्दा बन कर जीवित रहने की परिभाषा समझायी जा सकती है। वह पत्ता देखते ही देखते मेरे लिए ऊर्जा का टॉनिक बन गया।

जैसा मैंने बताया कि उम्र के इस पड़ाव पर पहुँच कर वे चीजें ध्यान आकर्षित करने लगती हैं जिनकी तरफ कभी पहले देखा ही नहीं था या कभी गौर से नहीं देखा था। एक दिन टहलते हुए मेरी नज़र एक सूखे हुए पेड़ पर पड़ी। उस पेड़ पर एक भी पत्ता नहीं था, कोई सूखा हुआ पत्ता तक भी नहीं था। शायद जड़ में कुछ जान बाकी रही होगी, इसलिए ठुंठ बन जाने बाद भी खडा था। उस पेड़ पर एक चिड़िया बैठी थी, सबसे ऊपर वाली टहनी पर। बच्चे मैदान में क्रिकेट खेल रहे थे, एक बच्चे ने उस दिशा में शॉट मारा, चिड़िया सावधानी बरतते हुए उड़ गयी। थोड़ी देर बाद मैंने देखा वह चिड़िया फिर से उसी पेड़ पर आकर बैठ गयी और फिर से सबसे ऊपर वाली टहनी को ही उसने अपने बैठने के लिए उपयुक्त माना। उसकी यह सामान्य सी गतिविधि मेरे लिए असामान्य बन गयी। मैंने सोचा इस पेड़ पर और भी तो शाखें है, इस चिड़िया को सबसे ऊपर वाली शाखा पर ही बैठना क्यों पसन्द है। मैं कुछ इसी उधेड़बुन में था, और फिर मैंने इधर-उधर नज़र दौड़ाई। मुझे देख कर हैरत हुई कि मैदान के जितने पेड़ों पर भी चिड़िया बैठी थीं, सभी उन पेड़ों की सबसे ऊपर वाली शाखाओं पर बैठी थीं। समझते देर नहीं लगी कि हर प्राणी सर्वोच्च स्थान ही ग्रहण करना चाहता है, फिर चाहे वो स्थान सूखी टहनियों वाले, पात-विहीन पेड़ पर ही क्यों न हो। शायद यही प्रकृति का नियम है, या प्राणियों का प्रकृति प्रदत्त स्वभाव। फिर हम मनुष्य सर्वोत्तम प्राणी होने के बावजूद निम्न स्तर के समझौतों के लिए क्यों सहमत हो जाते हैं और प्रयास छोड़ कर उन समझौतों पर क्यों संतुष्ट हो जाते हैं? देखा जाये तो हम समझौतों के आदी हो चुके हैं, और समझौतों में ही बुद्धिमानी समझते हैं। शायद चिड़िया समझौतों की आदी नहीं होती। उसके पास सामर्थ्य सीमित है लेकिन उसे अपनी सामर्थ्य पर भरोसा है, अपने हौसले पर यकीन है, और उड़ान परों से नहीं हौसले से होती है। हौसला समझौता नहीं करता, हासिल करके दिखाता है। चिड़िया ने अपने वल पर पेड़ पर सर्वोच्च स्थान पर आसीन होने की पात्रता विकसित की है, इसलिए वह वहाँ बैठी है।
- राजेन्द्र चौधरी

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