शुक्रवार, जुलाई 29, 2011

चींटी और आदमी

मैं अभी बिस्तर से उठा ही था। अलसाये हुए हाथों से पॉर्च में पड़ा हुआ अखबार उठा कर कमरे में आया। तब तक श्रीमती जी की कृपा से चाय का कप मेज पर आ चुका था, मैंने कुर्सी पर बैठ कर चाय की चुस्की लेते हुए अखबार खोला। अभी हैडलाइन पर नज़र पड़ी ही थी “लोकायुक्त ने कर्नाटक में अवैध माइनिंग की पन्द्रह हजार से अधिक पेजों की जाँच रिपॉर्ट सौंपी – येदुरप्पा पर तलवार लटकी” कि श्रीमती जी बोल पड़ीं “देखो दरवाज़े के पास कितनी चीटियाँ हैं, कुछ मीठा गिर गया था वहाँ पर क्या?” मेरी नज़र अखबार से हट कर दरवाज़े की ओर गयी। मैंने देखा चींटियाँ सिर पर अपना नन्हा सा सफेद अंडा उठाये पंक्तिबद्ध अवस्था में अपने किसी गंतव्य की ओर बढ़ी जा रही थीं। मैंने श्रीमती जी से कहा कि चींटियाँ अपने अंडे लिये जा रही हैं, शायद बारिश आयेगी। “जुलाई का महीना है और इस बार अच्छी बारिश हो रही है, लेकिन आज तो बारिश के आसार नहीं दिखते”, श्रीमती जी ने फरमाया। मैंने दबे स्वर में कहा कि चींटियाँ तो यही बता रही हैं कि बारिश आयेगी। पत्नी के सामने विनीत स्वर में बात करना घर में शांति बनाये रखने के लिए आवश्यक है, यह बात मैं समय रहते समझ गया था। चाय का कप छोड़ कर श्रीमती जी उठीं और रसोई से सरसों के तेल का डिब्बा ले आयीं और चींटियों को भगाने के लिए उन पर तेल के कुछ छींटे मारने लगीं। मैं फिर अपराधों के सूचनापत्र यानि अखबार की ओर मुड़ चुका था।
दोपहर होते होते बादल घिर आये और बूंदाबांदी शुरू हो गयी। मेरे दिमाग में पंक्तिबद्ध अवस्था में चलती हुई चींटियों की स्मृति उभर आयी। सोचने लगा कि बुजुर्गों की बतायी हुई ये बातें आज भी कितनी सामयिक हैं। मोटी-मोटी तनख्वाह पाने वाले ये मौसम वैज्ञानिक आज तक मौसम का सही अनुमान नहीं लगा पाते, बारिश बताते हैं तो धूप खिली रहती है, मौसम साफ रहेगा कहते हैं तो बारिश होने लगती है। लेकिन बुजुर्गों के ये भुलाये जा रहे अनुभव कितने सच्चे हैं! चींटियों के पास ऐसा कौनसा बैरोमीटर होता है जो उनको बारिश का पूर्वाभास करा देता है?
शायद चीटियाँ आज भी प्रकृति के साथ अपना सहज सम्बन्ध बनाये हुए हैं, हम लोग तो कसम खाये बैठे हैं कि जो भी करेंगे प्रकृति के विरुद्ध ही करेंगे। प्रकृति के विरुद्ध आचरण हमारा स्टेटस सिम्बल बन चुका है। जिसका आचरण प्रकृति के जितना विरुद्ध है, उतना ही वह समृद्ध है। यह अचूक आधुनिक पैमाना है सम्पन्नता को नापने का। इसमें गलत नतीजे मिलने की गुंजाइश ही नहीं है। हम अगर सम्पन्न हैं तो गर्मियों में ए.सी. में रहेंगे, सर्दियों में हीटर लगा कर रहेंगे और बरसात में क्या मजाल बूँद हमारे ज़िस्म को छू जाये, हम बाहर ही नहीं निकलेंगे या कार में निकलेंगे। आज के बच्चों को उनके माँ-बाप बारिश से ऐसे बचा कर रखते हैं जैसे मादा शतुरमुर्ग अपने बच्चों को रखती है। शरीर को मौसम की अनुभूति न हो जाये। हमें याद है कि जव बरसात के मौसम की पहली बौछार पड़ती थी, तो हमें कहा जाता था कि मिट्टी की सौंधी गंध सूँघो। वह गंध आज भी नथुनों में बसी हुई है। लेकिन वो तो अविकसित भारत के माँ-बाप थे, अब प्रगतिशील बल्कि विकसित होने की दिशा में तीव्रता से अग्रसर इंडिया के पैरेंट्स हैं।

मैंने अनुभव किया है कि अभाव अन्दर की सृजनशीलता बनाये रखते हैं। अतीव भौतिकता मन की रचनात्मकता को बंजर बना देती है। सहज अनुभूति की सामर्थ्य को हर लेती है। शीशे और पत्थरों के मकानों में मिट्टी की सौंधी गंध कहाँ से आयेगी? अंडे ले जाती चीटियों को देख कर बरसात का अनुमान कैसे लगेगा? मौसम वैज्ञानिक भी तो एयरकंडीशंड दफ्तरों में ही बैठे हैं। बेहतर है हम अपने मन में थोड़ी बहुत कच्ची मिट्टी सहेज कर रखें।
- राजेन्द्र चौधरी

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