आज का यह लेख मेरी छोटी बहन को समर्पित है बल्कि वही प्रेरणा बनी है इस लेख को लिखने की। सप्ताह में नियमित रूप से चार दिन व्रत रखना और बाकी तीन दिन भी एक समय ही भोजन करना उसका नियम है। वह एक कामकाजी महिला है, बैंक में अधिकारी है, एक समर्थ और प्रतिभाशाली पुत्र की गौरवमयी माता है, हिन्दी साहित्य पढ़ने की शौकीन है, मेरी बेटी समान है, लाड़ली है, सुहृदय और समझदार है, लेकिन मैं आज तक उसे नहीं समझा पाया कि जो वो अपने शरीर के साथ कर रही है, वो हानिकारक है। बड़ों की अपनी हदबन्दी होती है, उनकी मर्यादा उसे लांघने की इज़ाज़त नहीं देती। हालांकि मैं इस बारे में भी आशावान नहीं हूँ कि वह इस लेख को पढ़ कर कुछ सोचेगी और अपनी जीवनशैली बदलने का सजग प्रयास करेगी, लेकिन हो सकता है कि वो नहीं तो शायद किसी अन्य की चेतना पर यह लेख दस्तक दे पाये क्योंकि आज हर घर में कोई न कोई व्यक्ति ऐसा है जो अपनी हठधर्मिता का रवैया छोड़ने को तैयार नहीं होता। यह और बात है कि ऐसे व्यक्ति खुद को हठधर्मी नहीं बल्कि धार्मिक और अनुशासित मानते हैं।
जैसे-जैसे मेरी समझ विकसित हुई, मैं यह समझने लगा कि मैं एक आत्मा हूँ जो कि परमात्मा का अंश है और इस देह में निहित है। यह देह नश्वर है और आत्मा अनश्वर है। जैसे परमात्मा दिखायी नहीं देता लेकिन वो है, उसी तरह आत्मा भी दिखायी नहीं देती लेकिन वो है जब तक कि यह देह जीवित है। उसके बाद आत्मा कोई और देह धारण कर लेगी। आत्मा मूल्यवान है लेकिन वो चूँकि मुझे दिखायी नहीं देती इसलिए मुझे अपनी देह का मूल्य समझ में आ गया क्योंकि वो मुझे दिखती है, मैं उसे छू सकता हूँ, उसमें अनुभूति है, संवेदना है, बोध है। मैं जान चुका हूँ कि आत्मा को स्वस्थ रखने के लिए मुझे अपनी देह को स्वस्थ रखना होगा, आत्मा को शांत रखने के लिए देह को शांत रखना होगा। अशांत बसेरे में कोई शांत कैसे रहेगा? इसी विचार ने मुझे अपने शरीर से प्यार करना सिखाया क्योंकि मेरा मानना है कि प्यार शांति का मार्ग प्रशस्त करता है और द्वन्द्व कैसा भी हो, लड़ाई कैसी भी हो, अशांतिदायक होती है।
लेकिन मुझे यह देख कर आश्चर्य और दुख होता है कि राजनीति की तरह धर्म और समाज भी व्यक्ति में बंटवारे की भावना को पोषित करने में लगा हुआ है। मैं अलग-अलग धर्म, अलग-अलग समाज, अलग-अलग परिवार की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं व्यक्ति की बात कर रहा हूँ – व्यक्ति को भी एक विभाजित इकाई बनाने पर जोर है। उसे विभाजित कर दो, उसे एकीकृत मत रहने दो, वो गुलाम बन कर जियेगा। अपने आप में बंटा हुआ कोई भी घर हो, कमजोर होता है। इसलिए मुझे लगता है कि आदमी को कमजोर करने की साजिश के तहत उसे यह सिखाया गया है - अपने शरीर से लड़ो, यही ईश्वर की प्राप्ति में बाधक है, यही तुमको नरक की तरफ ले जाता है, इसकी मत सुनो, जब तक इस पर जीत हासिल नहीं कर लोगे, ईश्वरीय लोक के दरवाज़े तुम्हारे लिये नहीं खुलेंगे।
सदियों से यही सिखाया जा रहा है। नतीजतन हर व्यक्ति एक विभाजित इकाई बन गया है, वो अपने शरीर के विरुद्ध आचरण करने लगा है। आप अपने शरीर से लड़ेंगे तो आप परेशान होंगे ही क्योंकि आप और आपका शरीर एक ही ऊर्जा हैं। शरीर आत्मा का दिखायी देने वाला रूप है, और आत्मा अदृश्य शरीर है। शरीर और आत्मा विभाजित नहीं हैं, वे एक दूसरे के अंग हैं, वे एक पूर्ण इकाई का हिस्सा हैं। आपको अपने शरीर को स्वीकार करना होगा, उसे प्रेम करना होगा, उसका सम्मान करना होगा, उसके प्रति उत्तरदायी आचरण करना होगा, उसके प्रति कृतज्ञ होना होगा, तभी तो जाकर एकीकृत भाव पैदा होगा देह और आत्मा में।
मेरा कहने का मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि आप शरीर पर काबू नहीं पा सकते, मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि आप उससे लड़ कर, उसकी अनसुनी करके, उसके प्रति लापरवाह होकर, उसे भूखा मार कर उस पर काबू नहीं पा सकते। नियंत्रित करने के लिए देखभाल, प्यार और आदर का मार्ग अपनाना होगा। हमारा मस्तिष्क हमारे शरीर का चालक है। चालक अपने वाहन की देखभाल, उसका रखरखाव और उससे प्यार नहीं करेगा तो वाहन उसके आदेश के अनुरूप कैसे चलेगा? शरीर ईश्वर की अत्यंत जटिल लेकिन अत्यंत मनोहारी रचना है। दुनिया भर के वैज्ञानिक आज तक अकेले मस्तिष्क जैसी कोई मशीन, कोई कम्प्यूटर नहीं बना सके, तो वे मानव शरीर जैसी रचना कहाँ से कर पायेंगे। हमारा शरीर पूरे अस्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है – मिट्टी, पानी, आग, हवा और आकाश। इन पाँच तत्वों के समंवय और एकीकरण से क्या अदभुत रचना की है परमात्मा ने! मिट्टी को देखो और अपने शरीर को देखो, यकीन नहीं होगा कि हम इसी से बने हैं। इसलिए स्वीकार कीजिये कि हमारा शरीर अदभुत है, ईश्वरीय रचना है यह। इसके प्रति निंदात्मक व्यवहार, इसकी अनदेखी, इसकी अवहेलना, इसका अनादर ईश्वर का अनादर है, पाप है।
इसलिए इन झूठे दायरों से निकलो, विभाजित होकर मत जियो, एकाकार होकर जियो। आत्मा और शरीर के दो अलग-अलग मोर्चे मत खोलो, ऐसा करेंगे तो दोनों मोर्चों पर मात ही खायेंगे हम, और दुनिया कुछ भी कहे लेकिन अगला जन्म तो किसी ने देखा नहीं पर ऐसा करने से इस जन्म को ज़रूर नरक बना लेंगे हम। शरीर की न सुनना, उसका अनादर करना आत्महत्या है। आत्महत्या सिर्फ अपराध ही नहीं पाप है। जो पाप है उसमें पुण्य का फल कैसे मिलेगा? यह पाखंड़ है, व्यापारी साजिश है। हम सरलता, सच्चाई, ईमानदारी के साथ जियें, शरीर के प्रति भी सरलता, सच्चाई और ईमानदारी बरतें, जीवन बहुमूल्य है। यह ईश्वरीय देन है, हमारा कर्तव्य है कि हम इसके प्रति निर्मम नहीं कृतज्ञ बनें।
- राजेन्द्र चौधरी
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