शनिवार, सितंबर 03, 2011

धार्मिक-अधार्मिकता

मेरे मन में कई बार यह विचार आता है कि मैं आखिर क्या हूँ। मैं जानता हूँ कि मैं एक मनुष्य हूँ, लेकिन प्रश्न यह नहीं है – प्रश्न है कि मैं अच्छा-बुरा, सच्चा-झूठा, समझदार-मूर्ख, गलत-सही, ईमानदार-बेइमान जो भी हूँ, ऐसा क्यों हूँ? मैं भी अपने जन्म के समय कोरे कागज़ जैसा मन लेकर पैदा हुआ होउँगा। फिर ये गुण-अवगुण मैंने कहाँ से और कैसे सीखे? स्वाभाविक है कि ये सब मैंने यहीं से, इस दुनिया से ही सीखे। अपने माँ-बाप से, अपने गुरुओं से, अपने स्कूल-कॉलेज से, अपने साथियों से, पुस्तकों से, अपने समाज से, परिवेश से सीखे। आप लोगों ने भी ऐसे ही सीखे होंगे। सभी लोग कोरे कागज़ जैसा मन लेकर पैदा होते हैं और सीखने-सिखाने की एक ही प्रक्रिया है, तो फिर हम सब लोगों के विचार अलग-अलग क्यों हैं? सभी माँ-बाप, सभी गुरुजन, सारे समाज और देश बताते हैं कि क्या अच्छा है और क्या बुरा, फिर भी हम लोग अलग-अलग गुणधर्म अपना लेते हैं। क्या हम लोगों की ग्राह्यता या हम लोगों के अन्दर लगे फिल्टर अलग-अलग होते हैं? सच्चाई यह है कि हम लोग सिर्फ वो ही नहीं सीखते जो बताया जाता है, बल्कि वो कहीं अधिक सीख लेते हैं जो हमें दिखता है। हमें बताया कुछ और जाता है, दिखता कुछ और है। हमें सिखायी जाती है धार्मिकता, दिखती चारों ओर अधार्मिकता है, तो हम धार्मिक-अधार्मिकता सीख लेते हैं। पाखंड सीख जाते हैं और फिर आजीवन पाखंड ही अपनाये रहते हैं, मुक्ति सम्भव नहीं हो पाती इससे।

इस पाखंड से मुक्ति होगी भी कैसे? हम सब जानते हैं कि ईर्ष्या व अभिमान अवगुण हैं, पतन के कारण हैं ये। सभी हमें बताते हैं कि इन अवगुणों से दूर रहना चाहिये, पर दूर कहाँ कर पाते हैं इन्हें हम जीवन भर। जन्म से हमें प्रतिस्पर्धा सिखायी जाती है। प्रतिस्पर्धा क्या है – किसी से आगे निकलने की होड़ ही तो है। कक्षा में दूसरों से अधिक अंक आने चाहियें, दूसरों से ऊँचे पद पर होना चाहिये, दूसरों से अधिक धन होना चाहिये, दूसरों से अधिक सुन्दर पत्नी होनी चाहिये, दूसरों से अधिक गुणवान बच्चे होने चाहियें – यही सब तो सिखाया जाता है हमें। आपके पास दूसरे से कम होगा तो आपको ईर्ष्या होगी, दूसरे से अधिक होगा तो अभिमान होगा – यह स्वाभाविक है। फिर ईर्ष्या या अभिमान से दूर रहना सिखाना पाखंड नहीं तो और क्या है?

जीवन कोई सरल रेखा नहीं है, जीवन एक वृत्त है। इसीलिए जीवनवृत्त (Life-cycle) शब्द का प्रयोग किया जाता है। एक वृत्त की परिधि पर घूम रहे हैं हम सब। कोई हम से आगे है, तो कोई हमसे पीछे, लेकिन सब चल रहे होते हैं वृत्त की परिधि पर ही। पहुँचते कहीं नहीं, सिर्फ परिधि पर ही घूमते रहते हैं। जो हमसे आगे है, हम उससे आगे निकलना चाहते हैं क्योंकि जलन होती है उसे अपने से आगे देख कर। जो हमसे पीछे है उसे देख कर अभिमान का भाव पैदा होता है। लेकिन कभी सोचा है कि इस वृत्त की परिधि पर चलने की बाध्यता क्यों है आखिर, हम कूद कर अलग क्यों नहीं हो जाते इस वृत्त की परिधि से? नहीं, चाह कर भी नहीं कूदने देता है हमें यह समाज, यह दुनिया जीवन वृत्त की इस परिधि से। हमारा छिटक कर अलग हो जाना इसे बर्दाश्त नहीं है, यह इसके स्थापित मूल्यों के विपरीत है। इसकी नज़र में यह अधर्म है। आँखें मूँद कर चक्कर लगाते रहना धार्मिकता है, जाग कर इस लीक से अलग हट जाना अधार्मिकता है! जो जाग गया है, जो चेतन अवस्था को प्राप्त हो गया, वो इसके लिए खतरा है। फिर कोशिश की जाती है उसकी आवाज़ बंद कर देने की। आवाज़ बंद हो गयी तो ठीक, वर्ना फिर उसे पत्थर बना कर पूजा जाने लगता है – देवता बना दिया जाता है उसे। किसी भी सूरत में जागृत मनुष्य को मनुष्य रहने देना बर्दाश्त नहीं होता दुनिया को।

मेरी एक कविता की कुछ पंक्तियां हैं:

“कितना सुगम, कितना सरल है आज के परिवेश में,
खुद को पत्थर का बना लेना और पुजते रहना।
बजाय इसके....
कि ज़िन्दगी के थपेड़ों से तार-तार होती चादर को,
संस्कारों का पैबन्द लगाकर,
अपने पैरों के बराबर करने के लिए जूझते रहना।
और इस जूझने और इस खींचातानी के बावज़ूद,
तुम्हें लगातार नंगे होने का अहसास सालता रहे।
और तुम्हारा ही रक्त पीकर जीने वाला कोई क्षणभंगुर परजीवी,
तुम्हारी इस शिकस्त, इस हार पर, व्यंग्यात्मक दृष्टि ड़ालता रहे।
सिर्फ जबड़े कस कर, मुट्ठियां भींच कर,
कोई अपने अन्दर उफनते आक्रोश को भला कब तक पी सकता है?
और इन दोमुँही मान्यताओं, चिंघाड़ती विवशताओं,
दम तोड़ती नैतिकताओं और इंसानियत की जलती चिताओं के बीच,
इंसान बन कर कोई कब तक जी सकता है”?

जो अचेतन है, मूर्छित है, वो जीवित होने पर भी जीवित कहाँ है? उसे लाख दुनिया धार्मिक कहे, मेरी नज़र में वह मरा हुआ है। मरे हुए का कोई धर्म नहीं होता। जीवित वो है जिसकी देह में आत्मा जीवित है। जो अपनी आत्मा की सुनता है, वो ज़िन्दा है। मैं सिर्फ देह नहीं, एक आत्मा हूँ। मैं जीवित आत्मा का वाहक बन कर जीना चाहता हूँ – दुनिया के पैमाने पर मैं धार्मिक हूँ या अधार्मिक, मुझे उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं अपनी देह और आत्मा में सामंजस्य रखना चाहता हूँ। आपकी नज़र में अगर यह ज़िद है, तो ज़िद ही सही। मुझे कृपया अपनी ज़िद के साथ रहने दें। आप अपनी मान्यताओं के साथ जियें, मुझे कोई आपत्ति नहीं है।
- राजेन्द्र चौधरी

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