जैसा कि मैं पहले बता चुका हूँ कि मेरे छोटे भाई की पत्नी को आठ माह पहले बाथरूम में नहाते समय ब्रेन हैमरेज हो गया था। अपने पारिवारिक चिकित्सक के सहयोग से समय रहते, कुशल न्यूरोलोजिस्ट को दिखाने और उनके द्वारा इलाज के लिए गुडगाँव के मेदांता मेडिसिटी अस्पताल में सम्बन्धित न्यूरोलोजी सर्जन से बात करके हमें वहाँ पर भेजने के उनके सुविचारित लाभकारी प्रयास की बदौलत मौत के मुहाने पर पहुँच चुकी मेरे भाई की अचेत पत्नी की जान बच गयी। हम लोग तब पन्द्रह दिन अस्पताल में रहे थे और वो बिना किसी शारीरिक या मानसिक क्षति के सकुशल घर लौट आयी। स्थानीय न्यूरोलोजिस्ट की देखरेख में वो अब बिल्कुल स्वस्थ थी और घर के काम भी सामान्य रूप से करने लगी थी।
अस्पताल के डॉक्टरों के कहे अनुसार पिछले महीने की सोलह तारीख को मेरा छोटा भाई अपनी पत्नी को लेकर गुडगाँव अस्पताल में इसलिए गया ताकि इस बात की पुष्टि हो सके कि आठ माह पूर्व की गयी सर्जरी पूरी तरह से ठीक हो गयी है और उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार की आशंका से मुक्त हुआ जा सके। डॉक्टरों ने एंजियोग्राम किया जो पूरी तरह से ठीक आया और जब डॉक्टर भाई को वो एंजियोग्राम दिखा रहे थे तथा अब भविष्य में चलने वाली दवाओं के बारे में बता रहे थे, तभी मरीज के शरीर के पूरे दांयें हिस्से ने काम करना बंद कर दिया। स्वाभाविक है कि डॉक्टरों के और मेरे भाई के पैरों तले की ज़मीन खिसक गयी। डॉक्टरों ने जो भी वे कर सकते थे किया लेकिन कोई सफलता नहीं मिली। फिर और जटिलतायें पैदा हो गयीं। खैर, अब स्थिति यह है कि उसकी जान तो बच गयी, उसे आईसीयू से रूम में शिफ्ट कर दिया गया है और दवाओं के साथ-साथ फ़िजियोथेरैपी वगैरा चल रही है। शायद दो-तीन दिन बाद उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी जायेगी और फिर स्थानीय डॉक्टर की देखरेख में इलाज की शायद हमारे धैर्य की परीक्षा लेने वाली एक लम्बी कष्टदायी यात्रा शुरू होगी। इसमें कितनी सफलता मिल पायेगी इस बारे में मेडिकल साइंस खामोश है।
भाई और उसका बेटा गुडगाँव अस्पताल में ही हैं और हम बाकी परिजन आवश्यक व्यवस्थायें करने के साथ-साथ हर दो-तीन दिन में अस्पताल जाते रहते हैं। फोन से तो दिन में पाँच-सात बार रोज बात होती ही है। इस कठिन वक्त में हमारे जो भी परिचित या रिश्तेदार हैं, वे लोग भी हमारे दुख में साझीदार हैं। लेकिन इस दौरान मैंने महसूस किया कि हर कोई मिल जाने पर मुझसे छोटे भाई की पत्नी की हालत के बारे में पूछ कर मानो अपना फर्ज़ अदा कर रहा है। मानो मरीज के बारे में पूछना एक यज्ञ है और वे उसमें अपनी आहुति डालने को आतुर हैं। इस बीच कुछ ऐसे भी लोग घर पर आये जो न सिर्फ पूछने आये बल्कि अपने साथ अवांछित सुझावों और परामर्श का पिटारा भी साथ लाये। कुछ की जिज्ञासा इस बारे में अधिक लगी कि अब तक कितना खर्च हो चुका है और कैसे व्यवस्था की हमने पैसों की। उनका प्रयास हमें हौसला देने का कम, हमारे परिवार की बैलैंसशीट ऑडिट करने का अधिक था। कुछ ने मेरे सब्र और शालीनता का पूरा इम्तिहान ही ले डाला। मैं मन ही मन झुंझलाता, खीजता, पर व्यवहार में शालीनता बनाये रखनी पड़ती। एक साहब बोले – “क्या ज़रूरत थी अस्पताल जाने की, जब वो ठीक हो गयी थी? लुटेरे बैठे हैं अस्पतालों में सब, पर आपको तो अक्ल से काम लेना चाहिये था”। एक ने कहा – “यह तो सब उन डॉक्टरों का करा धरा है, मुकदमा करना उन पर, छोड़ना नहीं उन्हें”। एक ने खुद को परम हितैषी दर्शाते हुए कहा – “आप वहाँ पर गये ही गलत, शुरू में ही एम्स (ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस) लेकर जाना था”। जब मैंने कहा कि उसी अस्पताल से वो मरी हुई अवस्था से एकदम ठीक होकर आयी थी, अब इस बात से क्या लेना-देना कि एम्स में क्यों नहीं ले गये, वैसे भी एम्स में मरीज को कहाँ दाखिला मिल पाता है आसानी से, तो भी वो साहब चुप नहीं हुए और बोले – “आप लोगों के साथ यही परेशानी है, एक पैसे की जगह दस रुपये खर्च करेंगे। कोशिश करते तो कोई न कोई पोलिटिकल लिंक निकल ही आता। भगवान ने पैसे दिये हैं तो क्या बरबाद करने को दिये हैं”? मन मार कर चुप होना पड़ा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह साहब यहाँ पर क्या करने आये हैं।
मुझे एक किस्सा याद आ गया जो आप लोगों ने भी शायद सुना होगा ऐसे हठी अवांछित शुभचिंतकों के बारे में:
एक साहब ने मिठाई की एक दुकान खोली। एक शुभचिंतक दुकान पर आये और उन साहब को दुकान खोलने पर बधाई देने के साथ-साथ सुझाव भी दे दिया कि दुकान पर बोर्ड तो लगाओ कि यहाँ पर ताज़ा मिठाई मिलती है। दुकानदार ने उनके सुझाव के अनुसार बोर्ड लगवा दिया। कुछ दिन बाद एक और शुभचिंतक आये और बोले – “यहाँ पर ताज़ा मिठाई मिलती है” लिखने की क्या ज़रूरत थी? जब दुकान यहाँ है तो यहीं पर तो मिठाई मिलेगी, बोर्ड से “यहाँ पर” शब्द हटवाओ। दुकानदार ने ऐसा ही किया अब बोर्ड पर लिखा था – “ताज़ा मिठाई मिलती है”। कुछ दिन बाद एक और शुभचिंतक पधारे और बोर्ड की ओर देख कर बोले- “ताज़ा” शब्द सन्देह पैदा करता है कि कुछ दाल में काला है, इस शब्द को हटवाओ। दुकानदार ने उनकी सलाह मान कर “ताज़ा” शब्द बोर्ड से हटवा दिया, अब बोर्ड पर लिखा था – “मिठाई मिलती है”। अगले दिन एक और साहब आये और बोले – यार मिठाई की दुकान पर मिठाई नहीं मिलेगी तो क्या व्हिस्की मिलेगी? “मिठाई” शब्द अनावश्यक है, इसे हटवाओ। दुकानदार ने “मिठाई” शब्द भी हटवा दिया। अब बोर्ड पर लिखा रह गया – “मिलती है”। कुछ दिन बाद एक अन्य शुभचिंतक पधारे और बोले – शोकेस में दिख रही है कि मिठाई है, मिठाई है तो मिलेगी भी, बोर्ड पर लिखने की क्या ज़रूरत है कि मिलती है, इसे मिटवाओ। शुभचिंतकों की बदौलत दुकान पर खाली बोर्ड टंगा रह गया। इतने पर ही बीत जाती तो खैर थी, अगले दिन एक और शुभचिंतक पधारे और बोले – लाला अच्छी खासी दुकान चल रही है और बोर्ड खाली टंगा हुआ है। इस पर लिखवाओ कि यहाँ पर ताज़ा मिठाई मिलती है।
हम क्यों आतुर रहते हैं, बिना मांगे अपनी सलाह देने के लिए? दूसरा किस परिस्थिति से गुजर रहा है, इससे हमें कोई लेना-देना नहीं है, बस बहाना चाहिये अपना ज्ञान झाड़ने के लिये और दूसरे को अज्ञानी बताने के लिए हमें। ऐसी ही शुभचिंतकों के आचरण की बदौलत लोग एकाकी होने लगे हैं। बचने लगे हैं अपना दर्द बांटने से, क्योंकि दर्द तो नहीं बंटेगा, उल्टे अनचाहे टीस और मिल जायेगी। सुहृदयता सदगुण है, लेकिन ऐसी सुहृदयता किस काम की जो दूसरे की पीड़ा बढ़ा दे। अगर आपका रुमाल साफ नहीं है तो उससे किसी के आँसू पोंछने के बजाय बेहतर है कि आप उसे अपनी जेब में ही रखे रहें।
- राजेन्द्र चौधरी
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