यह बात आज से करीब पचास साल पहले की है। उस समय हम लोग उत्तर प्रदेश के हापुड शहर से कोई दस किलोमीटर दूर एक गाँव में रहते थे। पिताजी जब तक नौकरी में रहे, उन्होंने अपना निवास शहर के बाहरी इलाके में या शहर के पास स्थित किसी गाँव में रखा ताकि उनकी सीमित आय के बावजूद हम भाई-बहनों की पढ़ाई ठीक से हो सके। मैं छठी क्लास में आया था। गाँव में पाँचवीं कक्षा तक का प्राइमरी स्कूल था, तो छठी कक्षा में मेरा दाखिला हापुड शहर के तत्कालीन कॉमर्शियल इंटर कॉलेज में कराया गया। उस गाँव से हापुड तक यूँ तो बसें भी जाती थीं, लेकिन सभी लड़के अक्सर ट्रेन से कॉलेज आते-जाते थे। ट्रेन से आना-जाना सस्ता पड़ता था क्योंकि मासिक पास बन जाता था। खैर, नौ-दस साल की उम्र में जिस दिन मैं पहली बार अन्य लड़कों के साथ ट्रेन से अपने स्कूल गया, वो मेरे जीवन की पहली रेल यात्रा थी। मैं बड़ा खुश था ट्रेन में बैठ कर और खिड़की से बाहर का नज़ारा देख रहा था। ट्रेन से सफर करते हुए मुझे बाहर के पेड़ पीछे की ओर भागते हुए दिखायी दिये। मैंने जिज्ञासावश आनन्द नाम के दसवीं कक्षा में पढ़ रहे एक छात्र से इसका कारण जानना चाहा। उसने जवाब दिया कि पेड़ पीछे कि तरफ इसलिए भागते नज़र आ रहे हैं क्योंकि हमारी ट्रेन आगे की ओर जा रही है। बालमन की जिज्ञासा शांत तो नहीं हुई लेकिन उस लड़के से और आगे प्रश्न करने की उस समय हिम्मत नहीं जुटा पाया मैं।
दोपहर बाद जब मैं स्कूल से वापस घर लौटा तो देखा कि मेरे मामाजी घर पर आये हुए थे। मेरे मामाजी मुझे बहुत प्यार करते थे और मैं उनसे काफी खुला हुआ भी था। खाना खाकर मामाजी से बातचीत करते हुए मैंने अपना वही प्रश्न मामाजी के सामने रखा कि पेड़ पीछे की ओर क्यों भागते दिखायी दिये थे। मामाजी ने मुझसे कहा – “पेड़ अपनी जगह खड़े थे, तुम चल रहे थे। पेड़ अपनी ज़मीन नहीं छोड़ते, तुम अपनी ज़मीन छोड़ कर ट्रेन के साथ आगे जा रहे थे। पेड़ स्थिर थे, तुम आगे की दिशा में गतिवान थे। इसलिए तुम्हें ऐसा लगा कि पेड़ पीछे की ओर जा रहे हैं”। बात फिर भी पूरी तरह से समझ में नहीं आयी। बाद में, नौवीं या दसवीं कक्षा में जब भौतिक विज्ञान में सापेक्षता का नियम पढ़ा तो अपने प्रश्न का उत्तर समझ आ गया, लेकिन मामाजी के वे शब्द कि पेड़ अपनी ज़मीन नहीं छोड़ते, पता नहीं क्यों मेरे मन में गहरे उतर गये। मामाजी कब के दुनिया से रुखसत हो गये लेकिन आज पचास साल बाद भी उनके वे शब्द मुझे हूबहू याद हैं और इतनी ज़िन्दगी जी लेने पर अब मैं सोचता हूँ कि पेड़ अपनी ज़मीन नहीं छोड़ते या ज़मीन पेड़ों को नहीं छोड़ती?
दुनिया आज सिमट गयी है। यात्राएं और सिर्फ यात्राएं नियति हो गयी हैं हर किसी के जीवन की। नौकरी या कारोबार के लिए देश में, विदेश में हर कोई जीवन की ट्रेन में सवार है। दूरियां नापने में ज़िन्दगी बीत जाती है लेकिन फासले हैं कि खत्म ही नहीं होते। उम्र बढ़ने के साथ हम सब पेड़ की तरह ही तो हो जाते हैं। ज़िन्दगी की ट्रेन आगे की ओर दौड़ी चली जाती है, पेड़ पीछे की ओर दौड लगा रहे प्रतीत होते हैं। पैरों तले से ज़मीन खिसकती दिखायी देती है। ज़मीन भी अब टिकाऊ कहाँ रही, बिकाऊ हो गयी है। टिकाऊ रह गयी है तो बस ज़मीन से जुड़े रहने की टीस।
यात्रा जीवन की शाश्वत प्रक्रिया है। हम आगे जायेंगे तो कुछ पीछे छूटेगा भी। जो छूटेगा वो अपना ही अंश होगा। अपना अंश छूटेगा तो पीड़ा भी होगी लेकिन चलना तो आगे ही है। विगत एक टीस बन कर रह जाता है, ज़िन्दगी वर्तमान से भविष्य के स्टेशनों के बीच दौड़ी चली जाती है। नज़रें भविष्य पर टिकी रहती हैं, दिमाग सापेक्षता का नियम पढ़ रहा होता है, दिल पीछे छूटते पेड़ों में अटका होता है; एक ही शरीर के अंग भिन्न-भिन्न गतिविधियों में लगे रहते हैं, निर्मोही ज़िन्दगी मुट्ठी से रेत की तरह निकल जाती है।
- राजेन्द्र चौधरी
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