कल सुबह मेरी चचेरी बहन का फोन आया। नमस्कार करने के उपरांत बोली कि भाई शाम को छह बजे घर पर हवन है, आप और भाभी आ जाना। मैंने कहा कि ज़रूर आजायेंगे और लगे हाथ यह भी पूछ लिया कि हवन का आयोजन किस उपलक्ष्य में है क्योंकि हम अब अकारण तो भगवान को भी याद नहीं करते। उसने बताया कि उसके छोटे बेटे का जन्मदिन है। मैंने बधाई देते हुए आने का आश्वासन दिया और फिर उसने फोन रख दिया। मैं सपत्नीक उपहार लेकर उसके फ्लैट पर साढे छह बजे पहुँचा। चूँकि मैं समय की पाबन्दी की अपनी आदत के कारण अक्सर पत्नी के उपहास का केन्द्र बनता रहा हूँ, इसलिए सावधानी बरतते हुए मन मार कर आधा घंटा लेट पहुँचने में ही भलाई समझी। लेकिन दुर्भाग्य से मेरी गिनती फिर भी पहले पहुँचने वाले लोगों में ही रही। खैर, सात बजे तक सभी परिवारजन आ गये और उसके पाँच-सात मिनट के बाद शास्त्री जी भी पधार गये। हवन शुरू हुआ और उसके सम्पन्न हो जाने के बाद परम्परा निभाते हुए शास्त्री जी ने नैतिकता के विषय पर अपना संक्षिप्त प्रवचन दिया। फिर अपनी भेंट-पूजा लेकर वे विदा हो गये। हवन के उपरांत भोजन का प्रबन्ध था, इसलिए हम सभी आमंत्रितजन बैठे आपस में बातचीत में मशगूल हो गये। हम भारतीय लोगों को बातें करना अत्यंत प्रिय है और हमें बातें भी अवसर के इतर विषयों पर ही करने में आनन्द आता है।
मौसम से शुरू होकर राजनीति, भ्रष्ट नेतागण, रोज प्रकाश में आ रहे नये-नये स्कैम, गिरते नैतिक मूल्य, बिखरते परिवार, अपने ही बच्चों से डरते हुए बूढ़े माँ-बाप, बेरोजगारी, बढ़ते हुए अपराध, इंग्लैंड के खिलाफ भारतीय क्रिकेट टीम का लचर प्रदर्शन, केरल के मन्दिर में मिले अकूत खजाने आदि आदि विषयों को समाहित करती हुई बातचीत चल रही थी कि खाना आ गया। खाना खाते हुए भी बातचीत बदस्तूर जारी रही और अंतत: अभिवादन और उस बच्चे को आशीर्वाद देने की औपचारिकताओं के बाद सबने वापस अपने घरों को प्रस्थान किया।
वापसी में कार चलाते हुए भी मेरे दिमाग में कुछ मिनटों पहले हो रही बातचीत की स्मृति ताज़ा बनी रही। पत्नी की बातों पर हूँ - हाँ करता हुआ मैं अपने विचारों में ही खोया रहा। सात बजे हवन होना था तो छह बजे का समय क्यों बताया गया, बचपन से सच बोलने और ईमानदारी के साथ जीने का पाठ पढ़ते रहने के बाद भी झूठ और बेइमानी का ही बोलबाला क्यों है, माँ-बाप अपने ही बच्चों से इतने डरने क्यों लगे हैं, रिश्तों की गरिमा क्यों खोती जा रही है, माया से विरक्त होने का पाठ पढ़ाने वाले मन्दिरों में अकूत सम्पत्ति क्यों एकत्रित होती जा रही है .....? क्या इसका कोई निदान नहीं है? मुझे अपनी अम्मा के द्वारा अक्सर कहे जाने वाले कुछ मुहावरेनुमा वाक्य बरबस याद आने लगे: “बोये पेड़ बबूल के आम कहाँ से होंयें”, “जैसी करनी वैसी भरनी”, “जैसा खाये अन्न वैसा होये मन”, “मुँह में राम बगल में छुरी”, “अधजल गगरी छलकत जाये”, “गये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास”, “पाना खोना गर्दे में, खाना सोना पर्दे में”, “बत्तीस दाँतों से घिरी बिन हड्डी की जीभ, सोच समझ कर बोलना वरना देगी टीस”, “पूत सपूत तो क्यों धन संचय, पूत कपूत तो क्यों धन संचय”, “मन चंगा तो कठौती में गंगा”, “कुलच्छनी बेटी, बदजुबान बेटा, चाहे राजा का या रंक का, बदनामी ही देता”, “बेटे कितने भी बड़े हो जाओ चाहे आप, बेटा बेटा ही भला पगड़ी सोहे बाप”, “बड़ों की हुक्म उदूली छोटों के फरमान, चाहे धन्ना सेठ हो घर होये वीरान”, “पकी फसल जवान बेटी, समय रहते घर भली”, “जो पाँयत सिरहाने पला नहीं, उससे रिश्ता भला नहीं”, “मन मैले होवें नहीं ऐसे करो उपाय, वो कारज किस काम के जो दें नींद उड़ाय”, “अपने कहे से फिरना नहीं, खुद की नज़र में गिरना नहीं”, “चुस्की भली चस्का बुरा”, आदि आदि। इन छोटे-छोटे वाक्यों में पूरा जीवन दर्शन छुपा हुआ था। सचमुच जीवन यज्ञ के मंत्र थे ये वाक्य। कम पढ़ी लिखी होने पर भी कितनी ज्ञानी थीं अम्मा!
अब माँयें बच्चों को ये बातें नहीं बतातीं क्योंकि उनकी माँओं ने भी उनको नहीं बताया और ना ही अब बच्चे ये सब सुनते और समझते हैं। जब अंत:करण बंजर होने लगते हैं तो उनमें बबूल फलने लगते हैं। रेतीली नींव पर महल नहीं बनते। घुनी हुई लकड़ी के शहतीर नहीं बनते। उजाला देने के लिए मोमबत्ती को जल कर अपना अस्तित्व खाक करना पड़ता है। अंत:करण बदलने से आचरण बदलता है, आचरण बदल लेने से अंत:करण नहीं बदलता। हमारी हरकतें गलत होंगी तो परमात्मा बरकतें छीनेगा ही। तय हमको ही करना है। हम खुद को बदलेंगे, तो बच्चे भी बदलेंगे, परिवार बदलेंगे तो समाज भी बदलेगा, देश भी बदलेगा, दुनिया भी बदलेगी वरना हमाम में सब नंगे हैं ही। गूँगे बहरों की बस्ती में कैसे शब्द और कैसे अर्थ?
- राजेन्द्र चौधरी
रविवार, जुलाई 31, 2011
शनिवार, जुलाई 30, 2011
मिटते फ़र्क
रोज की तरह सुबह उठ कर घर के बाहर वाले गेट का ताला खोल कर जब मैं मुड़ा तो अखबार दिखायी नहीं दिया। सोचा रोज तो इस वक्त तक आ जाता था, फिर आज तो बारिश भी नहीं हो रही है, अब तक तो आ जाना चाहिये था। झुक कर पॉर्च में खड़ी हुई कार के नीचे झांका, वहाँ भी नहीं था। श्रीमती जी ने मुझे अवनत अवस्था में देख कर सवाल दागा, “क्या देख रहे हो, कुछ पड़ा है क्या वहाँ पर”? मैंने विनम्रता के साथ उत्तर दिया कि कुछ नहीं, अखबार देख रहा था, कहीं वहाँ पर फेंक दिया हो हॉकर ने। आया नहीं आज? श्रीमती जी को कुछ मामलों में सामान्य ज्ञान प्रचुर मात्रा में प्राप्त है। बोलीं कि आज शिवरात्रि है, गया होगा वह भी कल काँवड़ लेने। मैं बोला, “अच्छा, आज शिवरात्रि है, चलो शुक्र है”। पत्नी की तरफ से सवाल आना यकीनी था, बोलीं “आज शिवरात्रि है, इसमें शुक्र की क्या बात है”? मैंने दबे स्वर में कहा कुछ नहीं, शायद आज से बिजली ठीक तरह आयेगी। पिछले पूरे हफ्ते विद्युत कर्मियों ने बिजली की कटौती के बाबत अपने विवेकाधीन अधिकारों का भरपूर उपयोग किया। हालाँकि किसी नेता जी का बयान आया था कि आगामी शिवरात्रि को देखते हुए कोई लोडशेडिंग नहीं होगी। लेकिन हमारे यहाँ नेतागण और मौसम वैज्ञानिक जो कहें, बेहतर है कि आप उसके विपरीत स्थिति की अपेक्षा रखें। ज्यादा सम्भावना उनके बयानों के उलट स्थिति की रहती है। एक हफ्ते से बाज़ार सुनसान हैं, सड़कें बंद हैं, ट्रैफिक डाइवर्ट कर दिया गया है, स्कूल बंद हैं, बीमारों को देहली वगैरा किसी दूसरे शहर के अस्पतालों तक ले जाना दुरूह कार्य है, जिन लोगों के घरों में कोई छोटे मोटे समारोह हैं वे फोन करके रिश्तेदारों को न आने की सलाह दे रहे हैं, सब्जी व फलों के दाम दोगुने हो गये हैं और कहा जा रहा है कि काँवड़ की वजह से रास्ते बंद हैं इसलिए माल की आवक नहीं हो पा रही है। गोया काँवड़ न हुई कोई तूफान हो गया, कर्फ्यू जैसे हालात बना दिये। हाँ रास्तों पर जगह जगह गेरुए कपड़े पहने हुए काँवड़धारी भोले शंकर के तथाकथित भक्तों के दस्तों की आवाजाही भरपूर है। जगह-जगह सड़कों पर शामियाने लगे हुए हैं, बिजली के खम्भों पर अवैध रूप से तार ड़ाल कर लाउडस्पीकरों पर शिव के भजन बज रहे हैं, चाय, शर्बत, नाश्तों के आयोजन चल रहे हैं। इस दौरान अमूमन रोज ही अखबारों में पढ़ने को मिल जाता है कि फलाँ जगह काँवड़ियों ने रोड़वेज की बस के शीशे तोड़ दिये क्योंकि बस किसी काँवड़ से टकरा गयी थी। महिला सशक्तिकरण के इस दौर में अब तो महिलायें भी काँवड़ लाने के इस पुण्य कार्य में बढ- चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं। विश्वस्त सूत्रों से पता चला कि एहतियात बरतते हुए और सम्भावी दुरुपयोग को रोकने के लिए विद्युत कर्मियों ने बिजली की सप्लाई में कंजूसी बरतना ही उचित समझा। वाह रे मेरे भारत लोकतंत्र! हाँ एक बात कुछ ज़रूर अच्छी होती है इस काँवड़ महोत्सव के समय और उधर रमज़ान के समय भी, चोरी- चकारी जैसे अपराध कुछ कम हो जाते हैं, अब व्यक्ति एक ही समय पर दो जगह तो नहीं हो सकता ना।
मैं सोचता हूँ सामान्य जीवन की गतिविधियों के पहिये को थाम कर हरिद्वार से लाकर कितना पानी, सॉरी जल चढ़ायेंगे शिव पर? क्या वह जल सारे पाप धो देगा? क्या काँवड़ लाने से सारी मन्नतें पूरी हो जायेंगी? हजार गुनाह करो और बस काँवड़ ले आओ, शिव जी खुश! बाह रे मेरे भोले डमरू वाले बाबा शिव जी, तुसी ग्रेट हों। धर्म के नाम पर क्या व्यावसायिक आयोजन किया है तुम्हारी पी. आर. एजेंसी ने! और वाह रे हिन्दुस्तानी आदमी! शॉर्ट कट निकालने में तेरा कोई सानी नहीं।
आदमी गरीब मंदिर रईस! देश बेहाल और मन्दिरों में अरबों का खजाना! सोचता हूँ परिवार तर जायें, अगर घर में एक आदमी नेता, एक नौकरशाह और एक धार्मिक गुरू बन जाये। कौन समझायेगा और कौन समझेगा कि ईश्वर बाहर नहीं, स्वयं में स्थित है और आज नितांत उपेक्षित है। आत्मा उपेक्षित है तो परमात्मा भी उपेक्षित ही होगा। सब एक ही रंग में रंगे हुए हैं। अच्छे बुरे का फर्क मिटता जा रहा है।
- राजेन्द्र चौधरी
मैं सोचता हूँ सामान्य जीवन की गतिविधियों के पहिये को थाम कर हरिद्वार से लाकर कितना पानी, सॉरी जल चढ़ायेंगे शिव पर? क्या वह जल सारे पाप धो देगा? क्या काँवड़ लाने से सारी मन्नतें पूरी हो जायेंगी? हजार गुनाह करो और बस काँवड़ ले आओ, शिव जी खुश! बाह रे मेरे भोले डमरू वाले बाबा शिव जी, तुसी ग्रेट हों। धर्म के नाम पर क्या व्यावसायिक आयोजन किया है तुम्हारी पी. आर. एजेंसी ने! और वाह रे हिन्दुस्तानी आदमी! शॉर्ट कट निकालने में तेरा कोई सानी नहीं।
आदमी गरीब मंदिर रईस! देश बेहाल और मन्दिरों में अरबों का खजाना! सोचता हूँ परिवार तर जायें, अगर घर में एक आदमी नेता, एक नौकरशाह और एक धार्मिक गुरू बन जाये। कौन समझायेगा और कौन समझेगा कि ईश्वर बाहर नहीं, स्वयं में स्थित है और आज नितांत उपेक्षित है। आत्मा उपेक्षित है तो परमात्मा भी उपेक्षित ही होगा। सब एक ही रंग में रंगे हुए हैं। अच्छे बुरे का फर्क मिटता जा रहा है।
- राजेन्द्र चौधरी
शुक्रवार, जुलाई 29, 2011
चींटी और आदमी
मैं अभी बिस्तर से उठा ही था। अलसाये हुए हाथों से पॉर्च में पड़ा हुआ अखबार उठा कर कमरे में आया। तब तक श्रीमती जी की कृपा से चाय का कप मेज पर आ चुका था, मैंने कुर्सी पर बैठ कर चाय की चुस्की लेते हुए अखबार खोला। अभी हैडलाइन पर नज़र पड़ी ही थी “लोकायुक्त ने कर्नाटक में अवैध माइनिंग की पन्द्रह हजार से अधिक पेजों की जाँच रिपॉर्ट सौंपी – येदुरप्पा पर तलवार लटकी” कि श्रीमती जी बोल पड़ीं “देखो दरवाज़े के पास कितनी चीटियाँ हैं, कुछ मीठा गिर गया था वहाँ पर क्या?” मेरी नज़र अखबार से हट कर दरवाज़े की ओर गयी। मैंने देखा चींटियाँ सिर पर अपना नन्हा सा सफेद अंडा उठाये पंक्तिबद्ध अवस्था में अपने किसी गंतव्य की ओर बढ़ी जा रही थीं। मैंने श्रीमती जी से कहा कि चींटियाँ अपने अंडे लिये जा रही हैं, शायद बारिश आयेगी। “जुलाई का महीना है और इस बार अच्छी बारिश हो रही है, लेकिन आज तो बारिश के आसार नहीं दिखते”, श्रीमती जी ने फरमाया। मैंने दबे स्वर में कहा कि चींटियाँ तो यही बता रही हैं कि बारिश आयेगी। पत्नी के सामने विनीत स्वर में बात करना घर में शांति बनाये रखने के लिए आवश्यक है, यह बात मैं समय रहते समझ गया था। चाय का कप छोड़ कर श्रीमती जी उठीं और रसोई से सरसों के तेल का डिब्बा ले आयीं और चींटियों को भगाने के लिए उन पर तेल के कुछ छींटे मारने लगीं। मैं फिर अपराधों के सूचनापत्र यानि अखबार की ओर मुड़ चुका था।
दोपहर होते होते बादल घिर आये और बूंदाबांदी शुरू हो गयी। मेरे दिमाग में पंक्तिबद्ध अवस्था में चलती हुई चींटियों की स्मृति उभर आयी। सोचने लगा कि बुजुर्गों की बतायी हुई ये बातें आज भी कितनी सामयिक हैं। मोटी-मोटी तनख्वाह पाने वाले ये मौसम वैज्ञानिक आज तक मौसम का सही अनुमान नहीं लगा पाते, बारिश बताते हैं तो धूप खिली रहती है, मौसम साफ रहेगा कहते हैं तो बारिश होने लगती है। लेकिन बुजुर्गों के ये भुलाये जा रहे अनुभव कितने सच्चे हैं! चींटियों के पास ऐसा कौनसा बैरोमीटर होता है जो उनको बारिश का पूर्वाभास करा देता है?
शायद चीटियाँ आज भी प्रकृति के साथ अपना सहज सम्बन्ध बनाये हुए हैं, हम लोग तो कसम खाये बैठे हैं कि जो भी करेंगे प्रकृति के विरुद्ध ही करेंगे। प्रकृति के विरुद्ध आचरण हमारा स्टेटस सिम्बल बन चुका है। जिसका आचरण प्रकृति के जितना विरुद्ध है, उतना ही वह समृद्ध है। यह अचूक आधुनिक पैमाना है सम्पन्नता को नापने का। इसमें गलत नतीजे मिलने की गुंजाइश ही नहीं है। हम अगर सम्पन्न हैं तो गर्मियों में ए.सी. में रहेंगे, सर्दियों में हीटर लगा कर रहेंगे और बरसात में क्या मजाल बूँद हमारे ज़िस्म को छू जाये, हम बाहर ही नहीं निकलेंगे या कार में निकलेंगे। आज के बच्चों को उनके माँ-बाप बारिश से ऐसे बचा कर रखते हैं जैसे मादा शतुरमुर्ग अपने बच्चों को रखती है। शरीर को मौसम की अनुभूति न हो जाये। हमें याद है कि जव बरसात के मौसम की पहली बौछार पड़ती थी, तो हमें कहा जाता था कि मिट्टी की सौंधी गंध सूँघो। वह गंध आज भी नथुनों में बसी हुई है। लेकिन वो तो अविकसित भारत के माँ-बाप थे, अब प्रगतिशील बल्कि विकसित होने की दिशा में तीव्रता से अग्रसर इंडिया के पैरेंट्स हैं।
मैंने अनुभव किया है कि अभाव अन्दर की सृजनशीलता बनाये रखते हैं। अतीव भौतिकता मन की रचनात्मकता को बंजर बना देती है। सहज अनुभूति की सामर्थ्य को हर लेती है। शीशे और पत्थरों के मकानों में मिट्टी की सौंधी गंध कहाँ से आयेगी? अंडे ले जाती चीटियों को देख कर बरसात का अनुमान कैसे लगेगा? मौसम वैज्ञानिक भी तो एयरकंडीशंड दफ्तरों में ही बैठे हैं। बेहतर है हम अपने मन में थोड़ी बहुत कच्ची मिट्टी सहेज कर रखें।
- राजेन्द्र चौधरी
दोपहर होते होते बादल घिर आये और बूंदाबांदी शुरू हो गयी। मेरे दिमाग में पंक्तिबद्ध अवस्था में चलती हुई चींटियों की स्मृति उभर आयी। सोचने लगा कि बुजुर्गों की बतायी हुई ये बातें आज भी कितनी सामयिक हैं। मोटी-मोटी तनख्वाह पाने वाले ये मौसम वैज्ञानिक आज तक मौसम का सही अनुमान नहीं लगा पाते, बारिश बताते हैं तो धूप खिली रहती है, मौसम साफ रहेगा कहते हैं तो बारिश होने लगती है। लेकिन बुजुर्गों के ये भुलाये जा रहे अनुभव कितने सच्चे हैं! चींटियों के पास ऐसा कौनसा बैरोमीटर होता है जो उनको बारिश का पूर्वाभास करा देता है?
शायद चीटियाँ आज भी प्रकृति के साथ अपना सहज सम्बन्ध बनाये हुए हैं, हम लोग तो कसम खाये बैठे हैं कि जो भी करेंगे प्रकृति के विरुद्ध ही करेंगे। प्रकृति के विरुद्ध आचरण हमारा स्टेटस सिम्बल बन चुका है। जिसका आचरण प्रकृति के जितना विरुद्ध है, उतना ही वह समृद्ध है। यह अचूक आधुनिक पैमाना है सम्पन्नता को नापने का। इसमें गलत नतीजे मिलने की गुंजाइश ही नहीं है। हम अगर सम्पन्न हैं तो गर्मियों में ए.सी. में रहेंगे, सर्दियों में हीटर लगा कर रहेंगे और बरसात में क्या मजाल बूँद हमारे ज़िस्म को छू जाये, हम बाहर ही नहीं निकलेंगे या कार में निकलेंगे। आज के बच्चों को उनके माँ-बाप बारिश से ऐसे बचा कर रखते हैं जैसे मादा शतुरमुर्ग अपने बच्चों को रखती है। शरीर को मौसम की अनुभूति न हो जाये। हमें याद है कि जव बरसात के मौसम की पहली बौछार पड़ती थी, तो हमें कहा जाता था कि मिट्टी की सौंधी गंध सूँघो। वह गंध आज भी नथुनों में बसी हुई है। लेकिन वो तो अविकसित भारत के माँ-बाप थे, अब प्रगतिशील बल्कि विकसित होने की दिशा में तीव्रता से अग्रसर इंडिया के पैरेंट्स हैं।
मैंने अनुभव किया है कि अभाव अन्दर की सृजनशीलता बनाये रखते हैं। अतीव भौतिकता मन की रचनात्मकता को बंजर बना देती है। सहज अनुभूति की सामर्थ्य को हर लेती है। शीशे और पत्थरों के मकानों में मिट्टी की सौंधी गंध कहाँ से आयेगी? अंडे ले जाती चीटियों को देख कर बरसात का अनुमान कैसे लगेगा? मौसम वैज्ञानिक भी तो एयरकंडीशंड दफ्तरों में ही बैठे हैं। बेहतर है हम अपने मन में थोड़ी बहुत कच्ची मिट्टी सहेज कर रखें।
- राजेन्द्र चौधरी
फुर्सत मिले तो कभी सोचना....
मेरा मानना है कि हर शख्स अपने आप में खास होता है क्योंकि परमात्मा हर शख्स को कुछ न कुछ ऐसा अता करके दुनिया में भेजता है जो दूसरे के पास नहीं होता, फिर चाहे वो बेवकूफी ही क्यूँ न हो। यह अलग बात है कि ज्यादातर लोगों को पूरी ज़िन्दगी यही मालूम नहीं हो पाता कि उनके पास ऐसा क्या है जो दूसरों के पास नहीं है। ऐसा क्यूँ होता है? जो चीज मेरे पास है उसका मुझे क्यूँ पता नहीं चल पाता?
यह सवाल जब मैंने पूरी गम्भीरता के साथ अपने आप से पूछा तो मेरे अंतर्मन से अवाज़ आयी, “तुम अपने अन्दर झाँकते ही कब हो? फुर्सत कहाँ है तुम्हें बाहर देखने से?” मुझे लगा जैसे नंगे आदमी को किसी ने आईना दिखा दिया हो। मेरा अंतर्मन, जिसे मैंने कभी बोलने का मौका ही नहीं दिया था, मौका मिलते ही चुप कहाँ रहने वाला था। मेरे स्वर्गीय पिताजी के विशुद्ध लहज़े में बोला, “कभी देखा है कितनी धूल और कितने जाले लगे हुए हैं मुझ पर? कोई और आयेगा क्या इनको साफ करने के लिए? तुम पैसे देकर बाहरी चीजों की साफ-सफाई की व्यवस्था कर सकते हो, लेकिन मेरी यानि अपने मन की सफाई तुम्हें खुद ही करनी है। मर्ज़ी तुम्हारी है, करना चाहो करो, न करना चाहो मत करो। मैं तो आईना हूँ, सच ही बोलूँगा, मुझ पर जमी हुई ग़र्द में तुम खुद को कैसे देख पाओगे? लेकिन तुम मुझमें खुद को देखना कहाँ चाहते हो? तुम तो दूसरों के चेहरों पर खुद को पढ़ने की कोशिश में मशगूल हो, पढ़ते रहो दूसरों के झूठे पुते हुए चेहरों पर अपनी इबारतें। बनाते रहो उन इबारतों पर अपने बारे में खयाली महल”।
मुझे लगा सब लोग यही तो कर रहे हैं, सब लोग एक दूसरे के चेहरे पर ही तो अपने बारे में पढ़ने में जुटे हुए हैं। इसीलिए तो सब एक जैसे दिख रहे हैं, सब के सब एक दूसरे के जैसे होने में ही लगे पड़े हैं। एक होड़ है, प्रतिस्पर्धा है। लेकिन यह सारी प्रतिस्पर्धा बाहर है। भीड़ बाहर है, अन्दर वीरानी है। वीराने डराते हैं, भीड़ में सुरक्षित महसूस होता है, पहचान जो मिट जाती है, चेतना जो मर जाती है। भीड़ की कोई चेतना नहीं होती। भीड़ मूर्छित होती है। जब सारी मशक्कत अपनी अलग पहचान को मिटाने के लिए, अपनी चेतना को मारने के लिए हो रही है, तो फिर यह कैसे पता चलेगा कि मेरे पास ऐसा क्या है जो दूसरों के पास नहीं है। सच्चाई यह है कि हम यह जानना ही नहीं चाहते हम हर हाल में भीड़ का हिस्सा होना चाहते हैं। उसमें आसानी लगती है। दूसरों से बात करने में मज़ा आता है, खुद से बात करने में जान निकलती है।
लेकिन याद रखना, ज़िन्दगी साँसों के आवागमन का नाम नहीं है। जीते रहना (Living being) और ज़िन्दा बने रहने (Alive Being) में बड़ा फ़र्क है। यह डॉक्टर, अस्पताल, दवायें आपको जीवित रखने में मदद कर सकते हैं, ज़िन्दा आपको खुद रहना होता है। ज़िन्दा रहने के लिए इच्छा शक्ति चाहिये, हौसला चाहिये। ज़िन्दा रहने के लिए खुद से बात करते रहना बहुत ज़रूरी है। जिसका अंतर्मन मर चुका हो, वो जीवित रह कर भी मरा हुआ ही है।
हमें जीवित व्यक्ति (Living Being) रहना है या ज़िन्दा व्यक्ति (Alive Being) बनना है, चुनना हम ही को है। जो हम चुनेंगे वो ही तो बनेंगे। जो हम चुन रहे हैं, वो ही बन रहे हैं।
- राजेन्द्र चौधरी
यह सवाल जब मैंने पूरी गम्भीरता के साथ अपने आप से पूछा तो मेरे अंतर्मन से अवाज़ आयी, “तुम अपने अन्दर झाँकते ही कब हो? फुर्सत कहाँ है तुम्हें बाहर देखने से?” मुझे लगा जैसे नंगे आदमी को किसी ने आईना दिखा दिया हो। मेरा अंतर्मन, जिसे मैंने कभी बोलने का मौका ही नहीं दिया था, मौका मिलते ही चुप कहाँ रहने वाला था। मेरे स्वर्गीय पिताजी के विशुद्ध लहज़े में बोला, “कभी देखा है कितनी धूल और कितने जाले लगे हुए हैं मुझ पर? कोई और आयेगा क्या इनको साफ करने के लिए? तुम पैसे देकर बाहरी चीजों की साफ-सफाई की व्यवस्था कर सकते हो, लेकिन मेरी यानि अपने मन की सफाई तुम्हें खुद ही करनी है। मर्ज़ी तुम्हारी है, करना चाहो करो, न करना चाहो मत करो। मैं तो आईना हूँ, सच ही बोलूँगा, मुझ पर जमी हुई ग़र्द में तुम खुद को कैसे देख पाओगे? लेकिन तुम मुझमें खुद को देखना कहाँ चाहते हो? तुम तो दूसरों के चेहरों पर खुद को पढ़ने की कोशिश में मशगूल हो, पढ़ते रहो दूसरों के झूठे पुते हुए चेहरों पर अपनी इबारतें। बनाते रहो उन इबारतों पर अपने बारे में खयाली महल”।
मुझे लगा सब लोग यही तो कर रहे हैं, सब लोग एक दूसरे के चेहरे पर ही तो अपने बारे में पढ़ने में जुटे हुए हैं। इसीलिए तो सब एक जैसे दिख रहे हैं, सब के सब एक दूसरे के जैसे होने में ही लगे पड़े हैं। एक होड़ है, प्रतिस्पर्धा है। लेकिन यह सारी प्रतिस्पर्धा बाहर है। भीड़ बाहर है, अन्दर वीरानी है। वीराने डराते हैं, भीड़ में सुरक्षित महसूस होता है, पहचान जो मिट जाती है, चेतना जो मर जाती है। भीड़ की कोई चेतना नहीं होती। भीड़ मूर्छित होती है। जब सारी मशक्कत अपनी अलग पहचान को मिटाने के लिए, अपनी चेतना को मारने के लिए हो रही है, तो फिर यह कैसे पता चलेगा कि मेरे पास ऐसा क्या है जो दूसरों के पास नहीं है। सच्चाई यह है कि हम यह जानना ही नहीं चाहते हम हर हाल में भीड़ का हिस्सा होना चाहते हैं। उसमें आसानी लगती है। दूसरों से बात करने में मज़ा आता है, खुद से बात करने में जान निकलती है।
लेकिन याद रखना, ज़िन्दगी साँसों के आवागमन का नाम नहीं है। जीते रहना (Living being) और ज़िन्दा बने रहने (Alive Being) में बड़ा फ़र्क है। यह डॉक्टर, अस्पताल, दवायें आपको जीवित रखने में मदद कर सकते हैं, ज़िन्दा आपको खुद रहना होता है। ज़िन्दा रहने के लिए इच्छा शक्ति चाहिये, हौसला चाहिये। ज़िन्दा रहने के लिए खुद से बात करते रहना बहुत ज़रूरी है। जिसका अंतर्मन मर चुका हो, वो जीवित रह कर भी मरा हुआ ही है।
हमें जीवित व्यक्ति (Living Being) रहना है या ज़िन्दा व्यक्ति (Alive Being) बनना है, चुनना हम ही को है। जो हम चुनेंगे वो ही तो बनेंगे। जो हम चुन रहे हैं, वो ही बन रहे हैं।
- राजेन्द्र चौधरी
पत्ता और चिड़िया
मेरा निवास स्थान मेरठ में विक्टोरिया पार्क इलाके में है। मैं अमूमन रोज शाम को विक्टोरिया पार्क मैदान में घूमने के लिए जाता हूँ। आमतौर पर अन्य सभी तथाकथित व्यस्त भारतीय लोगों की तरह मैं भी अपने सिर के बाल उड़ जाने तक सेहत सम्बन्धी उबाऊ अनुशासन से बचने के लिए व्यस्तता और समय की कमी का बहाना बना कर चलता रहा। साथ ही ‘यह खाओ और यह न खाओ’ की नियमावली में मेरी कभी भी दिलचस्पी नहीं रही। मेरा मानना रहा है कि जो सहज रूप से मन को रुचे और ऊर्जा दे, वह ग्रहण करने योग्य है। वैसे भी वर्जनायें कैसी भी हों, कष्टदायी ही होती हैं। पर शरीर तो शरीर ही ठहरा, हर मशीन की तरह कब तक मिसहैंडलिंग बर्दाश्त करता। आखिर हाथ खड़े कर गया, और डॉक्टर की शरण लेनी पड़ी। डॉक्टर कुशल होने के साथ-साथ हमारे पारिवारिक मित्र भी हैं, इसलिए मेरे स्वभाव से भली भाँति परिचित हैं। पूरी जाँच-पड़ताल करने के बाद, आदेशात्मक लहज़े में नियमित रूप से जाँच कराते रहने के निर्देश के साथ आजीवन सेवन की जाने वाली दवाइयां थमा दीं। मित्रता के रिश्ते को दरकिनार करते हुए पेशेवर सलाह देते हुए फरमाया कि बेहतर होगा कि मैं दिल के बजाय दिमाग से काम लूँ – उनके द्वारा निर्धारित किये गये खाद्य पदार्थों (जो कि स्वाभाविक रूप से मुझे कभी भी रुचिकर नहीं लगे) का ही सेवन करूँ और नियमित रूप से रोज आधा घंटा तेज़ कदमों के साथ पैदल चलूँ। मरता क्या ना करता, आज्ञाकारी बच्चे की तरह रोज शाम को आधा घंटा घूमने को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाना पड़ा क्योंकि मेरी नज़र में अगर विकल्प की सुविधा उपलब्ध हो, तो मौत के बजाय ज़िन्दगी एक बेहतर विकल्प है, और हर स्थिति कुछ न कुछ नया सिखाती है।
मेरा अनुभव है कि बुढ़ापे के मुहाने पर पहुँच कर भारतीय आदमी अधिकांशतया जवानी में लुभाने वाली चीजों के बजाय अत्यंत उपेक्षित रही मामूली चीजों की ओर गौर फरमाने लगता है। मैं भी इसका अपवाद नहीं हूँ। एक दिन शाम को घूमते हुए मेरी नज़र एक जँगली पौधे के पत्ते पर पड़ी, वह उस पौधे के अन्य पत्तों की अपेक्षा आकार में बहुत अधिक बड़ा, आकर्षक और चिकना था। मैं रुका, उस पौधे के पास गया, और उस पत्ते को मैंने ऐसे छुआ मानो जवानी में किसी अद्वितीय सुन्दर नवयौवना का स्पर्श पाकर मन धन्य हो उठा हो। बला की कोमलता और स्निग्धता थी उस पत्ते में। फिर मैंने उसी पौधे के दूसरे पत्तों का बारीकी से अवलोकन किया, वे खुरदुरे, मुड़े हुए, और अब गिरे कि तब गिरे की अवस्था को प्राप्त थे। वह पत्ता अचानक मुझे ज़िन्दगी का आईना दिखा गया। जिजीविषा हो, तो प्रतिकूल माहौल में भी अद्वितीय उपलब्धि हासिल की जा सकती है, अनुवांशिक हीनताओं को ठेंगा दिखाया जा सकता है, तमाम झंझावात के बावजूद अपनी कोमलता बनायी रखी जा सकती है, अपने अकेले दम पर हेय और उपेक्षित समझे गये अपने वंश को गौरव हासिल कराया जा सकता है, और बिना बोले दुनिया को ज़िन्दा बन कर जीवित रहने की परिभाषा समझायी जा सकती है। वह पत्ता देखते ही देखते मेरे लिए ऊर्जा का टॉनिक बन गया।
जैसा मैंने बताया कि उम्र के इस पड़ाव पर पहुँच कर वे चीजें ध्यान आकर्षित करने लगती हैं जिनकी तरफ कभी पहले देखा ही नहीं था या कभी गौर से नहीं देखा था। एक दिन टहलते हुए मेरी नज़र एक सूखे हुए पेड़ पर पड़ी। उस पेड़ पर एक भी पत्ता नहीं था, कोई सूखा हुआ पत्ता तक भी नहीं था। शायद जड़ में कुछ जान बाकी रही होगी, इसलिए ठुंठ बन जाने बाद भी खडा था। उस पेड़ पर एक चिड़िया बैठी थी, सबसे ऊपर वाली टहनी पर। बच्चे मैदान में क्रिकेट खेल रहे थे, एक बच्चे ने उस दिशा में शॉट मारा, चिड़िया सावधानी बरतते हुए उड़ गयी। थोड़ी देर बाद मैंने देखा वह चिड़िया फिर से उसी पेड़ पर आकर बैठ गयी और फिर से सबसे ऊपर वाली टहनी को ही उसने अपने बैठने के लिए उपयुक्त माना। उसकी यह सामान्य सी गतिविधि मेरे लिए असामान्य बन गयी। मैंने सोचा इस पेड़ पर और भी तो शाखें है, इस चिड़िया को सबसे ऊपर वाली शाखा पर ही बैठना क्यों पसन्द है। मैं कुछ इसी उधेड़बुन में था, और फिर मैंने इधर-उधर नज़र दौड़ाई। मुझे देख कर हैरत हुई कि मैदान के जितने पेड़ों पर भी चिड़िया बैठी थीं, सभी उन पेड़ों की सबसे ऊपर वाली शाखाओं पर बैठी थीं। समझते देर नहीं लगी कि हर प्राणी सर्वोच्च स्थान ही ग्रहण करना चाहता है, फिर चाहे वो स्थान सूखी टहनियों वाले, पात-विहीन पेड़ पर ही क्यों न हो। शायद यही प्रकृति का नियम है, या प्राणियों का प्रकृति प्रदत्त स्वभाव। फिर हम मनुष्य सर्वोत्तम प्राणी होने के बावजूद निम्न स्तर के समझौतों के लिए क्यों सहमत हो जाते हैं और प्रयास छोड़ कर उन समझौतों पर क्यों संतुष्ट हो जाते हैं? देखा जाये तो हम समझौतों के आदी हो चुके हैं, और समझौतों में ही बुद्धिमानी समझते हैं। शायद चिड़िया समझौतों की आदी नहीं होती। उसके पास सामर्थ्य सीमित है लेकिन उसे अपनी सामर्थ्य पर भरोसा है, अपने हौसले पर यकीन है, और उड़ान परों से नहीं हौसले से होती है। हौसला समझौता नहीं करता, हासिल करके दिखाता है। चिड़िया ने अपने वल पर पेड़ पर सर्वोच्च स्थान पर आसीन होने की पात्रता विकसित की है, इसलिए वह वहाँ बैठी है।
- राजेन्द्र चौधरी
मेरा अनुभव है कि बुढ़ापे के मुहाने पर पहुँच कर भारतीय आदमी अधिकांशतया जवानी में लुभाने वाली चीजों के बजाय अत्यंत उपेक्षित रही मामूली चीजों की ओर गौर फरमाने लगता है। मैं भी इसका अपवाद नहीं हूँ। एक दिन शाम को घूमते हुए मेरी नज़र एक जँगली पौधे के पत्ते पर पड़ी, वह उस पौधे के अन्य पत्तों की अपेक्षा आकार में बहुत अधिक बड़ा, आकर्षक और चिकना था। मैं रुका, उस पौधे के पास गया, और उस पत्ते को मैंने ऐसे छुआ मानो जवानी में किसी अद्वितीय सुन्दर नवयौवना का स्पर्श पाकर मन धन्य हो उठा हो। बला की कोमलता और स्निग्धता थी उस पत्ते में। फिर मैंने उसी पौधे के दूसरे पत्तों का बारीकी से अवलोकन किया, वे खुरदुरे, मुड़े हुए, और अब गिरे कि तब गिरे की अवस्था को प्राप्त थे। वह पत्ता अचानक मुझे ज़िन्दगी का आईना दिखा गया। जिजीविषा हो, तो प्रतिकूल माहौल में भी अद्वितीय उपलब्धि हासिल की जा सकती है, अनुवांशिक हीनताओं को ठेंगा दिखाया जा सकता है, तमाम झंझावात के बावजूद अपनी कोमलता बनायी रखी जा सकती है, अपने अकेले दम पर हेय और उपेक्षित समझे गये अपने वंश को गौरव हासिल कराया जा सकता है, और बिना बोले दुनिया को ज़िन्दा बन कर जीवित रहने की परिभाषा समझायी जा सकती है। वह पत्ता देखते ही देखते मेरे लिए ऊर्जा का टॉनिक बन गया।
जैसा मैंने बताया कि उम्र के इस पड़ाव पर पहुँच कर वे चीजें ध्यान आकर्षित करने लगती हैं जिनकी तरफ कभी पहले देखा ही नहीं था या कभी गौर से नहीं देखा था। एक दिन टहलते हुए मेरी नज़र एक सूखे हुए पेड़ पर पड़ी। उस पेड़ पर एक भी पत्ता नहीं था, कोई सूखा हुआ पत्ता तक भी नहीं था। शायद जड़ में कुछ जान बाकी रही होगी, इसलिए ठुंठ बन जाने बाद भी खडा था। उस पेड़ पर एक चिड़िया बैठी थी, सबसे ऊपर वाली टहनी पर। बच्चे मैदान में क्रिकेट खेल रहे थे, एक बच्चे ने उस दिशा में शॉट मारा, चिड़िया सावधानी बरतते हुए उड़ गयी। थोड़ी देर बाद मैंने देखा वह चिड़िया फिर से उसी पेड़ पर आकर बैठ गयी और फिर से सबसे ऊपर वाली टहनी को ही उसने अपने बैठने के लिए उपयुक्त माना। उसकी यह सामान्य सी गतिविधि मेरे लिए असामान्य बन गयी। मैंने सोचा इस पेड़ पर और भी तो शाखें है, इस चिड़िया को सबसे ऊपर वाली शाखा पर ही बैठना क्यों पसन्द है। मैं कुछ इसी उधेड़बुन में था, और फिर मैंने इधर-उधर नज़र दौड़ाई। मुझे देख कर हैरत हुई कि मैदान के जितने पेड़ों पर भी चिड़िया बैठी थीं, सभी उन पेड़ों की सबसे ऊपर वाली शाखाओं पर बैठी थीं। समझते देर नहीं लगी कि हर प्राणी सर्वोच्च स्थान ही ग्रहण करना चाहता है, फिर चाहे वो स्थान सूखी टहनियों वाले, पात-विहीन पेड़ पर ही क्यों न हो। शायद यही प्रकृति का नियम है, या प्राणियों का प्रकृति प्रदत्त स्वभाव। फिर हम मनुष्य सर्वोत्तम प्राणी होने के बावजूद निम्न स्तर के समझौतों के लिए क्यों सहमत हो जाते हैं और प्रयास छोड़ कर उन समझौतों पर क्यों संतुष्ट हो जाते हैं? देखा जाये तो हम समझौतों के आदी हो चुके हैं, और समझौतों में ही बुद्धिमानी समझते हैं। शायद चिड़िया समझौतों की आदी नहीं होती। उसके पास सामर्थ्य सीमित है लेकिन उसे अपनी सामर्थ्य पर भरोसा है, अपने हौसले पर यकीन है, और उड़ान परों से नहीं हौसले से होती है। हौसला समझौता नहीं करता, हासिल करके दिखाता है। चिड़िया ने अपने वल पर पेड़ पर सर्वोच्च स्थान पर आसीन होने की पात्रता विकसित की है, इसलिए वह वहाँ बैठी है।
- राजेन्द्र चौधरी
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