रविवार, नवंबर 25, 2012

 पिताजी की स्मृति को समर्पित 


राहुल एक जवान लड़का था जो अपने पिता के साथ रहता था। उसके पिता चाहते थे कि वो पियानो बजाना सीखे क्योंकि उनकी तीव्र लालसा थी कि वह अपने बेटे को पियानो बजाता हुआ सुनें। पिता ने अपने बेटे को पियानो बजाना सीखने के लिए एक म्यूजिक टीचर के यहाँ भेजा। लेकिन राहुल की संगीत के प्रति रुचि नहीं थी, इसलिए उसकी सीखने की गति धीमी थी। टीचर राहुल की इस अरुचि को जान गयी थी, इसलिए उसे राहुल से कोई खास उम्मीद नहीं थी। लेकिन उसके पिता इस बारे में बहुत उत्साही थे और वो उसे हर रविवार टीचर के यहाँ पर पियानो सीखने भेजते थे।

एक दिन राहुल ने पियानो सीखने के लिए जाना बंद कर दिया। टीचर ने सोचा कि उसने पियानो सीखना छोड़ दिया और इस बात को लेकर उसे खुशी भी हुई क्योंकि उसे उम्मीद नहीं थी कि राहुल कभी अच्छा पियानो बजाना सीख सकेगा।

कुछ दिनों बाद पियानो टीचर को शहर में एक पियानो कंसर्ट आयोजित करने का प्रस्ताव मिला। उसने अपने छात्रों और उनके अभिभावकों को तथा पियानो सुनने में रुचि रखने वाले संगीत-प्रेमियों  को उस कंसर्ट में आमंत्रित करने के लिए पत्र और सर्कुलर जारी किये। अचानक उसे एक दिन राहुल का फोन आया और उसने टीचर से उस कंसर्ट में भाग लेने की अनुमति मांगी। टीचर ने राहुल से कहा, “तुम्हें ठीक से पियानो बजाना नहीं आता था और अब तो तुम मेरे छात्र भी नहीं रहे क्योंकि तुमने पियानो की कक्षा में आना बंद कर दिया है”। राहुल ने बहुत अनुनय-विनय की – “मैडम, मुझे बस एक मौका दें और मेरा विश्वास करें कि मेरी वजह से आपको शर्मिन्दा नहीं होना पड़ेगा”। आखिरकार, टीचर मान गयीं और उन्होंने उसका नाम कार्यक्रम की सूची में सबसे अंत में रखा कि शायद आखिरी क्षणों में वह अपना विचार बदल ले।

जब कंसर्ट का दिन आया तो टीचर यह देख कर बेहद खुश हुई कि हॉल श्रोताओं से खचाखच भरा हुआ था। हर बच्चे ने अपनी ओर से अपनी श्रेष्ठ प्रस्तुति दी और हॉल में बराबर तालियों की आवाज़ गूँजती रही। अंत में, राहुल का नम्बर आया और उसका नाम पुकारा गया। वह स्टेज पर आया, तो टीचर उसे देखकर बहुत चिंतित और आशंकित हुई क्योंकि वह उदास दिख रहा था,  उसने ढंग के कपड़े भी नहीं पहने हुए थे, यहाँ तक कि अपने बाल तक ठीक से नहीं संवारे हुए थे। टीचर वास्तव में बेहद चिंतित हो उठी क्योंकि राहुल का प्रदर्शन अब तक के इस अत्यंत शानदार कार्यक्रम को मटियामेट कर सकता था।

जैसे ही राहुल ने पियानो बजाना शुरू किया तो हॉल में सन्नाटा छा गया और सारे उपस्थित श्रोता उस युवा पियानो कलाकार का कौशल देख कर मंत्रमुग्ध हो गये। वास्तव में, राहुल ने उस दिन सर्वश्रेष्ठ पियानो बजाया। दर्शक झूम उठे और पूरा हॉल तालियों की करतल-ध्वनि से काफी देर तक गूँजता रहा। अंत में टीचर ने और समस्त दर्शकों ने खड़े होकर तालियां  बजा कर राहुल को उसके इस प्रदर्शन के लिए शाबाशी दी और उसका अभिवादन किया। दर्शकों की उपस्थित भीड़ ने राहुल से पूछा कि अनुभवी न होने के बावजूद वह इतना शानदार पियानो कैसे बजा पाया। राहुल ने माइक हाथ में लिया और कहा, “मैं पियानो की कक्षाओं में नहीं जा पाता था क्योंकि मेरे पिता को कैंसर था और वो बहुत बीमार थे। आज सुबह ही उनका देहांत हुआ है और मैं चाहता था कि वो मुझे पियानो बजाता हुआ सुनें। आपको मालूम है, आज ही पहली बार वो मुझे पियानो बजाता हुआ सुन पाये हैं क्योंकि जब वो जीवित थे तो बहरे थे, वो सुन नहीं पाते थे। मैं जानता हूँ, अब वो मुझे सुन रहे हैं। इसलिए उनके लिए मुझे अपना सर्वोत्तम प्रदर्शन तो करना ही था!”

जब आपमें किसी काम को करने का ज़ुनून हो, और आपके पास उसे करने का प्रबल कारण भी हो, तो विश्वास कीजिये, दुनिया की कोई भी ताकत आपको अपना सर्वश्रेष्ठ देने से नहीं रोक पायेगी। भले ही आपके पास प्रतिभा न हो, लेकिन अगर आपके पास किसी काम को करने का पर्याप्त कारण है तो ईश्वर आपको उस काम को करने की क्षमता प्रदान कर देता है।

यह कहानी मैंने वर्षों पहले किसी अंग्रेज़ी पुस्तक में पढ़ी थी और तब से मेरे अवचेतन मन में यह कहीं जीवित थी। इस कहानी के पात्र भले ही काल्पनिक हों लेकिन यह कहानी जीवंत है, तभी तो मुझे आज तक विस्मृत नहीं हुई। आप यकीन करें या न करें, मेरे अन्दर भी एक राहुल ज़िन्दा है जो पिताजी का हाथ सर पर न रहने के बाद अब उनकी स्मृति और उनके विश्वास के प्रति स्वयं को कहीं अधिक उत्तरदायी महसूस करता है। वो जीवित होते तो मैं अपनी किसी गल्ती के लिए उनसे माफ़ी भी मांग सकता था, अब तो माफ़ी की गुंजाइश भी नहीं रही, उनकी स्मृतियों और विश्वास को मैं शर्मसार कैसे कर सकता हूँ?

राहुल की तरह मैं भी जानता हूँ कि भौतिक रूप से विदा हो जाने के बाद भी पिताजी मुझे देख रहे हैं, सुन रहे हैं। इसलिए एक बात जो मैं उनके जीते जी तो उनसे कभी नहीं कह पाया, आज इस लेख के माध्यम से जी भर कर उनसे कहना चाहता हूँ कि मैं उन्हें बहुत प्यार करता था, करता हूँ और आजीवन करता रहूँगा और वो मेरी ऊर्जा के केन्द्र के रूप में हमेशा मुझमें जीवित रहेंगे।

- राजेन्द्र चौधरी

शुक्रवार, अप्रैल 13, 2012

कभी-कभी

एक अंतराल के बाद आज फिर आप लोगों से मुखातिब हूँ। कभी-कभी व्यस्ताओं में हम स्वयं की ही सबसे ज्यादा अनदेखी करते हैं। ज़िन्दगी भी अजीब है:

कभी-कभी हमें यह सोचने के लिए मजबूर कर देती है कि ऐसा क्यूँ हुआ, कैसे हुआ, और कभी-कभी क्या हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ, अब क्या होगा, कैसे होगा, न सोच कर यह सोचने के लिए मजबूर कर देती है कि जो हुआ...हुआ...जो होना है...होगा।

कभी-कभी लोग महसूस कुछ करते हैं, कहते कुछ और हैं, और उनका मतलब कुछ और होता है; और कभी-कभी लोग बिना कहे ही सब कुछ कह देते हैं।

कभी-कभी एक तस्वीर हज़ारों शब्द बोल जाती है; और कभी-कभी एक शब्द दिमाग में हज़ारों तस्वीरें उभार देता है।

कभी-कभी हम उन्हीं लोगों से दूर होना चाहते हैं जिन्हें हम प्यार करते हैं, इसलिए नहीं कि वे हमारी अहमियत जान सकें बल्कि इसलिए कि हम अपनी अहमियत जान सकें।

कभी-कभी हम औरों को प्राथमिकतायें निर्धारित करना सिखाते हैं; और कभी-कभी अपनी प्राथमिकतायें सीधी रखने के लिए हमें अपने ही बनाये हुए नियमों को झुकाना पड़ता है।

कभी-कभी उन चीजों को भूल जाना आसान होता है जिन्हें हम याद रखना चाहते हैं, और जिन चीजों को हम भूलना नहीं चाहते उन्हें कभी-कभी याद रख पाना मुश्किल हो जाता है।

कभी-कभी हँसी दिल का दर्द भुला देती है; और कभी-कभी किसी की हँसी ही दिल तोड़ देती है।

कभी-कभी दुनिया की रफ्तार अपनी रफ्तार के मुकाबले बहुत तेज़ लगती है; और कभी-कभी तेज़ चल रही दुनिया भी धीमी महसूस होती है।

कभी-कभी ज़िन्दगी एक सपना लगती है; और कभी-कभी सपने भी सपने जैसे नहीं लगते।

कभी-कभी दिमाग़ में सिर्फ घर जाने की सूझती है; और कभी-कभी ज़िन्दगी में घर ही हाथ नहीं आता।

कभी-कभी मन करता है कि कुछ देर के लिए अकेले हो जायें; और कभी-कभी कुछ देर का अकेलापन ही झेलना मुश्किल हो जाता है।

कभी-कभी मुस्कान के मुकाबले आँसू खास हो जाते हैं क्योंकि मुस्कान किसी को भी दी जा सकती है, आँसू उन लोगों के लिए होते हैं जिन्हें हम खोना नहीं चाहते; और कभी-कभी ज़िन्दगी एक मुस्कान को तरस जाती है।

कभी-कभी लगता है बरसों बरस से सब कुछ वैसा ही है, कुछ नहीं बदला; और कभी-कभी पीछे मुड़ कर देखने पर लगता है सब कुछ बदल गया, कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा।

कभी-कभी किसी से बहुत कुछ कहने को मन करता है; और कभी-कभी वह व्यक्ति जब मिलता है तो शब्द खो जाते हैं, कुछ कहने को नहीं रहता।

ज़िन्दगी वैसे तो “हेलो” और “गुडवाई” के बीच का ही अंतराल है, लेकिन कभी-कभी “गुडबाई” कह कर जाने वाला वापस “हेलो” कहने के लिए नहीं आ पाता। इसलिए बेहतर यही है कि हम “हेलो” और “गुडवाई” के बीच के क्षणों को जी भर कर जी लें।
- राजेन्द्र चौधरी

शनिवार, जनवरी 21, 2012

प्लीज कहो न!

जब हम पहली बार मिले थे, तुम 18 वर्ष की थीं। मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुम्हारा चेहरा शर्म से लाल हो गया था...तुमने सिर झुका लिया था और तुम मुस्कुरा दीं थीं...

जब हमारी शादी हुई थी, तुम 21 वर्ष की थीं। मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने मेरे कँधे पर अपना सिर रख दिया था और मेरा हाथ थाम लिया था...मानो तुम्हें डर था कि मैं कहीं गायब न हो जाऊँ...

जब तुम 24 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने नाश्ता बनाया और मुझे नाश्ता देते समय मेरा माथा चूमते हुए कहा, “ज़ल्दी नाश्ता करो, तुम्हें देर हो रही है...”

जब तुम 27 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने कहा, “अगर तुम वाकई मुझे प्यार करते हो, तो काम खत्म करके ऑफिस से ज़ल्दी आना...”

जब तुम 30 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने डाइनिंग टेबल साफ करते हुए कहा, “ठीक है, लेकिन इस वक़्त बेटे को मैथ्स का रिविजन कराओ प्लीज...”

जब तुम 33 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुम स्वेटर बुन रही थीं और मेरी तरफ देख कर हँस पड़ी थीं...

जब तुम 36 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुम सुन कर बस धीरे से मुस्कुरा दी थीं...

जब तुम 40 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने कहा, “हमारा बेटा शनिवार को घर आ रहा है; चलो बाज़ार से उसके लिए कुछ खरीद कर लाते हैं...”

जब तुम 46 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने कहा, “हमारे बेटे की अगले महीने शादी है, तुम्हें बहुत तैयारियां करनी हैं...”

जब तुम 50 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने कहा, “एक अच्छी खबर है! ईश्वर ने चाहा तो हम ज़ल्दी ही दादा-दादी बनने वाले हैं...”

जब तुम 55 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने मुस्कुरा कर कहा, “अब हम दादा-दादी बन चुके हैं और अगले ही महीने घर में एक और पोता या पोती के आने की उम्मीद है...”

आज जब तुम 59 वर्ष की हो, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने कहा, “बहुत सर्दी है, जरा मुझे गर्म पानी की बोतल भर कर देना प्लीज...”

मैं अभी भी इंतज़ार में हूँ कि तुम कहो “आई लव यू...”
मुझे यह भी नहीं पता कि उस क्षण मेरी क्या प्रतिक्रिया होगी, हाँ इतना ज़रूर जानता हूँ कि तुम्हारा ऐसा कहना मेरी आँखें नम कर जायेगा...

इससे पहले कि बहुत देर हो जाये, प्लीज कहो न “आई लव यू...”

यह मेरी कहानी थी। मैं नहीं चाहता कि आपमें से कोई भी इसे दोहराये। हम बाहरी दुनिया से कितनी शिष्टता और शालीनता से पेश आते हैं, फिर अपनों के साथ अपनेपन के शब्द क्यों नहीं बोलते। आपसे “आई लव यू” सुनने के वे सच्चे अधिकारी हैं। आपके रहने या न रहने से वे ही सबसे अधिक प्रभावित होंगे। देरी मत कीजिये, हो सकता है कल आप कहें और सुनने वाला न रहे।
- राजेन्द्र चौधरी

शनिवार, जनवरी 14, 2012

यह जो घर है...

यह जो घर है...
हाँ यही ‘संस्कार’ नाम का जो घर है हमारा
मकान की नज़रों से देखो तो मामूली सा, छोटा सा
वक़्त के साथ कहीं कहीं से बदरंग, कहीं से उघड़ा सा
हाँ यही...जिसमें अब मैं और मेरी पत्नी ही रहते हैं
यह और बात है कि इसके कोने कोने में
न जाने कितनी यादों के झरने बहते हैं
अभी तक साँस लेती है इसकी नींव में रखी
वो पहली गीली ईंट जो मेरे पिताजी ने रखी थी
और मंत्रोच्चार के बीच अम्मा की आँखों से
खुशी का टपका वो कीमती आँसू, आँसू कहाँ था
उस नींव की ईंट पर उनके आशीष का अभिषेक था
उस आँसू से ही ‘संस्कार’ नाम उपजा था
यह मेरा मकान कहाँ था...
यह तो उनकी वंश बेल का घर था, प्यार का अतिरेक था
इसमें आज भी ज़िन्दा है उनके बनाये मीठे पुओं की खुश्बू
उनके आँचल की हवा आज भी इसमें सरसराती है
मैं सर्दियों में जब भी ऊनी कुर्ता और जैकेट पहनता हूँ
बड़े अदब से, बड़े सलीके से पहनता हूँ...
उनमें पिताजी के अनुशासन की याद आती है
गर्मियों में आज भी इसकी छत पर
मेरे बहनोई, मेरे भाई की यादें गुनगुनाती हैं
वो अब शायद सितारों को अपने किस्से सुनाती हैं
इसका बांयी ओर वाला बेडरूम आज भी
चाचाजी का कमरा कहलाता है
यादें परलोक नहीं जातीं, आदमी चला जाता है
इसकी बैठक के पर्दे जब पुराने पड़ गये
तो मेरी पत्नी ने उन्हें फेंका नहीं सहेज के रखा है
वो मेरी छोटी बहन ने लगाये थे
उसके प्यार को संदूक में समेट के रखा है
इस घर की छत, इसकी दीवारें, इसका आँगन
अपने आप में एक पूरा वंश सम्भाले हैं
इन्होंने सिर्फ इस घर का बेटा ही नहीं पाला
इस घर का भांजा, भतीजी, भतीजे पाले हैं
वक़्त के साथ आज सब आगे बढ़ गये हैं
आज इसमें बस मैं और मेरी पत्नी ही रह गये हैं
सबके अपने ठिकाने हैं, सबकी अपनी मजबूरियां हैं
न चाह कर भी फासले हैं, न चाह कर भी दूरियां हैं
हम दोनों की उम्र भी पक गयी, हम भी दादा-दादी हो गये
बेटा बम्बई जा बसा, बच्चे बम्बई वाले हो गये
साल में एक आध बार आते हैं, घर चहक उठता है
अम्मा-पिताजी के संस्कार का चमन महक उठता है
हम दोनों भी हर साल दो बार बच्चों के पास जाते हैं
दोनों पोतों के साथ बुढापे में अपना बचपन बिताते हैं
खुदा की मेहर है, सब कुछ है, यूँ तो मलाल कुछ भी नहीं
प्यार है, एका है, इज़्ज़त है, खुशी है, बदहाल कुछ भी नहीं
पर कुछ दिनों से अजीब दुविधा है, जानता हूँ पर कह नहीं पाता
न जाने क्यूं मैं अब कहीं भी कुछ हफ्तों से ज्यादा रुक नहीं पाता
जब घर वापस आता हूँ तो इसकी दीवारें नाराज़ लगती हैं
अम्मा पिताजी की टंग़ी तस्वीरें उदास लगती हैं
धूल बंद दरवाज़े से भी जाने कैसे आकर उनपे जम जाती है
जब भी वापस आता हूँ दीवार पे लगी घड़ी थम जाती है
मैं अम्मा पिताजी की तस्वीरों पे चढ़ी धूल से घबराता हूँ
मैं बंद घड़ी देख कर अन्दर से डर जाता हूँ
मुझे धूल चढ़ी तस्वीरें, अँधे आइने, बंद घड़ी,
कोनों के जाले, सूखे पौधे बहुत ड़राते हैं
मुझसे देखा नहीं जाता घर का लहज़ा उखड़ता हुआ
मेरे ही सामने रिश्तों के ख्वाब बिखरे हैं
मैंने बहुत करीब से देखा है पुश्तैनी घर उजड़ता हुआ
यह घर मुझसे बातें करता है, मेरे साथ मुस्कुराता है
थक जाऊँ तो थपकी देकर सुलाता है, सबेरे फिर उठाता है
इसमें अम्मा पिताजी मुझको देखते से लगते हैं
मानो मैं नहीं होता, तो वो मेरी राह तकते हैं
कहने को तो इसमें...
बस अब मैं और मेरी पत्नी ही रहते हैं
पर हम दोनों ही इस घर के मकान हो जाने से ड़रते हैं
यह जो मेरा, तुम्हारा, सबका घर है हमारा
हाँ यही ‘संस्कार’ नाम का जो घर है हमारा॥
- राजेन्द्र चौधरी

रविवार, दिसंबर 18, 2011

विज्ञान और भगवान

दर्शनशास्त्र के एक नास्तिक प्रोफेसर कक्षा में बता रहे थे कि विज्ञान के सामने सबसे बड़ी समस्या अगर कोई रही है तो वो है भगवान, तथाकथित सर्वशक्तिमान ईश्वर। उन्होंने एक नये छात्र से खड़ा होने के लिए कहा और पूछा...

प्रोफेसर: तो तुम भगवान में विश्वास करते हो?

छात्र: जी बिल्कुल।

प्रोफेसर: क्या भगवान अच्छा है?

छात्र: निश्चित रूप से।

प्रोफेसर: क्या भगवान सर्वशक्तिमान है?

छात्र: जी हाँ।

प्रोफेसर: मेरा भाई कैंसर से मर गया, हालाँकि उसने ठीक होने के लिए भगवान से बहुत प्रार्थना की। हममें से अधिकतर लोग बीमार लोगों की मदद करने की कोशिश करते हैं, लेकिन भगवान ने मदद नहीं की। तो फिर भगवान कैसा हुआ?

(छात्र चुप खड़ा रहा)

प्रोफेसर: तुम्हारे पास कोई जवाब नहीं है, क्या कोई जवाब है? चलिये फिर से शुरू करते हैं। क्या भगवान अच्छा है?

छात्र: जी हाँ।

प्रोफेसर: क्या शैतान अच्छा है?

छात्र: जी नहीं।

प्रोफेसर: शैतान किसने बनाया?

छात्र: भगवान ने।

प्रोफेसर: बिल्कुल ठीक! अब मुझे बताओ कि क्या दुनिया में बुराई है?

छात्र: जी बिल्कुल है।

प्रोफेसर: तो बुराई किसने पैदा की?

(छात्र कोई उत्तर नहीं देता)

प्रोफेसर: क्या दुनिया में बीमारी है? अनैतिकता है? बदसूरती है? ये सब भयानक चीजें दुनिया में मौजूद हैं या नहीं हैं?

छात्र: जी मौजूद हैं।

प्रोफेसर: तो ये सब चीजें किसने पैदा कीं?

(छात्र कोई उत्तर नहीं देता)

प्रोफेसर: विज्ञान कहता है कि हमारे पास पाँच इन्दियां हैं, हम इनका इस्तेमाल अपने आसपास की दुनिया को देखने, पहचानने के किए करते हैं। अब मुझे बताओ ...क्या तुमने भगवान को कभी देखा है?

छात्र: जी नहीं।

प्रोफेसर: क्या तुमने कभी अपने भगवान को सुना है?

छात्र: जी नहीं।

प्रोफेसर: क्या तुमने अपने भगवान को महसूस किया है, उसको चखा है, सूँघा है? क्या कभी तुम्हारी संवेदी इन्द्रियों को उसका बोध हुआ है?

छात्र: मुझे अफसोस है सर! कि ऐसा कभी नहीं हुआ।

प्रोफेसर: फिर भी तुम भगवान में विश्वास रखते हो?

छात्र: जी हाँ।

प्रोफेसर: अनुभूति, परीक्षण और प्रदर्शन सिद्ध प्रोटोकॉल के आधार पर विज्ञान कहता है कि तुम्हारे भगवान को कोई अस्तित्व नहीं है। तुम्हारा इस बारे में क्या कहना है?

छात्र: कुछ नहीं। मुझे सिर्फ आस्था है।

प्रोफेसर: आस्था? बस विज्ञान के लिए सबसे बड़ी समस्या यही है। तुम लोगों को जब कोई विज्ञान या तर्क आधारित जवाब नहीं मिलता तो बस इस शब्द ‘आस्था’ की आड़ ले लेते हो।

छात्र: सर क्या उष्मा या गर्मी जैसी कोई चीज है?

प्रोफेसर: हाँ।

छात्र: और क्या ठंड जैसी कोई चीज है?

प्रोफेसर: हाँ।

छात्र: नहीं सर! ऐसा नहीं है।

(स्थिति के बदलने पर कक्षा के सभी छात्र पूरी तरह शांत और उत्सुक हो गये।)

छात्र: सर! आपके पास बहुत उष्मा हो सकती है, उससे भी अधिक उष्मा हो सकती है, सुपर उष्मा हो सकती है, मेगा उष्मा हो सकती है, थोड़ी उष्मा हो सकती है या उष्मा नहीं भी हो सकती है, लेकिन आप इससे और आगे नहीं जा सकते हैं। ठंड जैसी कोई चीज नहीं होती। ठंड केवल एक शब्द है, हम इसका इस्तेमाल उष्मा की अनुपस्थिति बताने के लिए करते हैं। हम ठंड को नाप नहीं सकते हैं। उष्मा ऊर्जा है। ठंड उष्मा का विलोम नहीं है सर! ठंड उष्मा की अनुपस्थिति है।

(कक्षा में सन्नाटा छा जाता है।)

छात्र: अँधेरे के बारे में आपका क्या ख्याल है सर! क्या अँधेरा नाम की कोई चीज है?

प्रोफेसर: हाँ। अगर अँधेरा नहीं होता तो फिर रात क्या होती है?

छात्र: सॉरी सर! आप फिर गलत हैं। अँधेरा किसी चीज की अनुपस्थिति है। आपके पास रोशनी हो सकती है, बहुत अधिक रोशनी हो सकती है, चमकीली या बहुत चमकीली रोशनी हो सकती है, सामान्य रोशनी हो सकती है, कम रोशनी हो सकती है... लेकिन अगर आपके पास लगातार कोई रोशनी नहीं है, तो उसे अँधेरा कहा जाता है। है ना सर? वास्तविकता में अँधेरा कुछ नहीं है। अगर अँधेरा जैसी कोई चीज होती तो आप उसे बढ़ा भी सकते थे। है ना सर! बढ़ा सकते थे न?

प्रोफेसर: ठीक है, लेकिन तुम कहना क्या चाह रहे हो?

छात्र: सर! मेरा कहना यह है कि आपका यह दार्शनिक आधार दोषपूर्ण है।

प्रोफेसर: दोषपूर्ण? क्या तुम मुझे समझा सकते हो कि यह किस तरह दोषपूर्ण है?

छात्र: सर! आप दोहरेपन के आधार पर काम कर रहे हैं। आप तर्क देते हैं कि जीवन है, और फिर कहते हैं कि मृत्यु भी है, अच्छा भगवान है और बुरा भगवान है। आप भगवान को एक परिमित यानि सीमाबद्ध धारणा के रूप में देख रहे हैं, ऐसी चीज जिसे हम माप सकते हैं। सर! विज्ञान विचार की व्याख्या नहीं कर सकता है। विचार वस्तुत: क्या होता है, यह विज्ञान नहीं समझा सकता है। विज्ञान विद्युत और चुम्बकत्व का प्रयोग करता है लेकिन इसने कभी भी उन्हें देखा नहीं है, उन्हें पूरी तरह से अभी तक समझा भी नहीं है।

मृत्यु को जीवन के विलोम या उसके विपरीत के रूप मॆं देखना इस बात से अनजान होना है कि मृत्यु का अपना कोई स्वाधीन अस्तित्व नहीं होता। मृत्यु जीवन का विलोम नहीं, जीवन की अनुपस्थिति है। सर! अब मुझे बतायें कि क्या आप अपने छात्रों को बताते हैं कि मनुष्य की उत्पत्ति और उसका विकास बन्दर से हुआ है?

प्रोफेसर: अगर तुम्हारा मतलब मनुष्य के सम्बन्ध में प्राकृतिक विकासमूलक प्रक्रिया से है, तो हाँ मैं ऐसा बताता हूँ।

छात्र: क्या कभी आपने इस प्रक्रिया को अपनी आँखों से देखा है?

(प्रोफेसर मुस्कुरा कर अपना सिर हिलाते हैं और समझ जाते हैं कि यह बहस किस दिशा में जा रही है।)

छात्र: चूँकि हममें से किसी ने भी इस प्रक्रिया को होते नहीं देखा है और हम यह भी सिद्ध नहीं कर सकते हैं कि यह प्रक्रिया निरंतर चल रही है, इसलिए सर! क्या आप प्रोफेसर होने के नाते अपनी निजी राय नहीं थोप रहे हैं?

(कक्षा में सारे छात्र हँसने लगते हैं।)

क्या कक्षा में कोई ऐसा छात्र है जिसने प्रोफेसर सर का मस्तिष्क देखा हो?

(छात्र ठहाका लगाने लगते हैं।)

छात्र: क्या कक्षा में कोई ऐसा छात्र है जिसने प्रोफेसर सर के मस्तिष्क को सुना हो, छुआ हो, महसूस किया हो या सूँघा हो? चूँकि निश्चित रूप से किसी ने भी ऐसा नहीं किया है, इसलिए अनुभूति, परीक्षण और प्रदर्शन सिद्ध स्थापित प्रोटोकॉल के आधार पर विज्ञान कहता है कि आपके पास कोई मस्तिष्क नहीं है सर! मुझे यह कहने के लिए क्षमा करें सर! लेकिन ऐसा है तो हम आपकी बात ध्यान से क्यों सुनें? आपकी शिक्षा ग्रहण क्यों करें?

(कक्षा में खामोशी पसर जाती है। प्रोफेसर एक टक छात्र को देखते रहते हैं, उनके चेहरे से सारे भाव गायब हो जाते हैं।)

प्रोफेसर: मेरे विचार से आप लोगों को मुझ पर विश्वास करना चाहिये। मुझ पर विश्वास के कारण मेरी शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये।

छात्र: आपने बिल्कुल सही कहा सर! बस, यह विश्वास, यह आस्था ही आदमी और भगवान के बीच की कड़ी है। बस आस्था ही है जिससे दुनिया चल रही है, जीवित है। विज्ञान भगवान का विरोधी नहीं है क्योंकि विज्ञान इंसान विरोधी नहीं है। अन-आस्था इंसानियत विरोधी है। अन-आस्था भगवान विरोधी है।

आस्था और विश्वास महत्वपूर्ण हैं। और ध्यान रखें आस्था अलग है, धर्म अलग है। धर्म समाज और स्थितियों को ध्यान में रख कर व्यवस्था के लिए स्थापित की गयीं कुछ विशेष प्रथाओं व मान्यताओं का समुच्चय मात्र है। धर्म मानव-निर्मित है। आस्था प्रकृति प्रदत्त मनोभाव है, उसमें कोई शर्त नहीं होती, कोई स्वार्थ नहीं होता, कोई सीमा या पाबन्दी नहीं होती। हाँ अन्धी आस्था से बचिये। विवेकशील बनिये! ईश्वर मेरे, आपके, हम सबके अन्दर है, उसे कहीं अन्यत्र खोजने की आवश्यकता नहीं है। स्वयं को पहचानिये! आप ईश्वर का अंश हैं। इस बोध के प्रति उत्तरदायी आचरण हम सबसे अपेक्षित है। दुनिया के धर्मों, जातियों के भुलावे में मत बंटिये।

“न तेरा खुदा कोई और है,
न मेरा खुदा कोई और है,
ये जो रास्ते हैं जुदा-जुदा,
यह मुआमला कोई और है।”

- राजेन्द्र चौधरी

बुधवार, नवंबर 30, 2011

काँच का जार और दो कप चाय

आज के इस दौर में मैं देखता हूँ कि खास तौर से युवा लोग सब कुछ एक साथ, और जल्दी से पा लेने की इच्छा रखते हैं। उन्हें काम के लिए दिन में चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं। इस प्रक्रिया में न चाहते हुए भी उनका स्वास्थ्य और परिवार उपेक्षित होने लगता है, तो मुझे यह बोध कथा अक्सर याद आती है। इस कथा को मैंने पहली बार अपने पारिवारिक चिकित्सक की क्लिनिक पर लगे अंग्रेज़ी के एक पोस्टर के रूप में पढ़ा था। पढ़ते ही मुझे यह इतनी भायी कि कंठस्थ हो गयी। इसलिए मैंने सोचा कि इसे हिन्दी में आपके साथ बांटना उचित रहेगा। शायद समय रहते यह आपको अपने जीवन की प्राथमिकतायें निर्धारित करना सिखा सके। सम्भव है कि आपने इसे पहले कहीं पढ़ा हो, लेकिन मेरा मानना है कि अच्छी बातें दोहरायी भी जा सकती हैं। इसलिए इसे कृपया दोबारा पढ़ें।

“दर्शनशास्त्र के एक प्रोफेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि आज वे जीवन का एक बहुत महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाने वाले हैं। उन्होंने अपने साथ लाया हुआ काँच का एक जार मेज पर रखा तथा वो उसमें टेबिल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें और एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची।

उन्होंने छात्रों से पूछा, “क्या जार पूरा भर गया?” छात्र एक स्वर में बोले, “जी हाँ”। फिर प्रोफेसर साहब ने छोटे-छोटे कंकर उसमें डालने शुरू किये। उन्होंने जार को धीरे-धीरे हिलाया तो जहाँ जहाँ जगह थी उसमें वे कंकर समा गये।

फिर उन्होंने पूछा, “अब जार भर गया?” छात्रों ने एक बार फिर “हाँ” कहा। उसके बात उन्होंने अपने साथ लायी एक थैली खोली और उसमें से रेत निकाल कर उस जार में डालना शुरू कर दिया। वो रेत भी उस जार में जहाँ सम्भव था, वहाँ बैठ गया। अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे।

प्रोफेसर साहब ने पूछा, “क्यों, अब तो यह जार पूरा भर गया, ना?” सभी छात्र बोले, “हाँ, अब तो पूरा भर गया”। तो उन्होंने मेज के नीचे से चाय भरे हुए दो कप निकाले और उनकी चाय जार में उँडेलना शुरू कर दी। चाय भी जार में पड़ी रेत के द्वारा सोख ली गयी।

प्रोफेसर बोले कि हाँ, अब यह जार पूरा भर गया है। अब इसमें कुछ भी और नहीं आ सकता है। इसके बाद उन्होंने गम्भीर लहज़े में समझाना शुरू किया – “इस काँच के जार को तुम लोग अपना जीवन समझो.... टेबिल टेनिस की गेंदें जीवन की सबसे महत्वपूर्ण चीजें जैसे ईश्वर, परिवार, बच्चे, स्वास्थ्य, व तुम्हारे शौक आदि हैं.... छोटे कंकर तुम्हारा कैरियर, नौकरी, बड़ा मकान, कार आदि तुम्हारी महत्वाकांक्षायें हैं.... रेत का मतलब है छोटी-छोटी बेकार सी बातें, मनमुटाव, स्पर्धा, आपसी झगड़े आदि।

.... अब यदि तुमने जार में सबसे पहले रेत भरा होता, तो टेबिल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिए जगह नहीं बचती, या कंकर भर दिये होते तो गेंदे नहीं भर पाते.... रेत ज़रूर आ सकती थी। ठीक यही बात जीवन पर भी लागू होती है। यदि तुम छोटी-छोटी बातों के पीछे पड़े रहोगे, उसमें अपनी ऊर्जा नष्ट करते रहोगे, तो तुम्हारे पास महत्वपूर्ण चीजों के लिए न तो समय रहेगा और न ऊर्जा बचेगी।

तुम्हारे जीवन और तुम्हारे आत्म-सुख के लिए क्या ज़रूरी है, यह तुम्हें ही तय करना है। टेबिल टेनिस की गेंदों की फिक्र पहले करो, वे ही महत्वपूर्ण हैं। पहले उस पर ध्यान रखो जो मुख्य है, महत्वपूर्ण है, ज़रूरी है। बाकी सब तो रेत है”।

छात्र बड़े ध्यान से सुन रहे थे.... अचानक एक ने पूछा, “सर! लेकिन आपने यह नहीं बताया कि चाय के दो कप क्या हैं?” प्रोफेसर मुस्कुराये और बोले, “मैं सोच ही रहा था कि अभी तक किसी ने यह सवाल क्यों नहीं किया? इसका जवाब यह है.... जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट क्यों न लगे, लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह उसमें हमेशा होनी चाहिये”।

हमारे जीवन में अच्छा-बुरा जो भी होता है, वो अनापेक्षित दुर्घटनाओं को छोड़ दें, तो अधिकांशतया हमारे द्वारा निर्धारित की गयी प्राथमिकताओं और उपेक्षित दायित्वों का ही परिणाम होता है। अप्रत्याशित घटनाओं के अलावा अपनी शेष नियति हम खुद निर्धारित करते हैं। हमारी साँसें और ऊर्जा निश्चित हैं - उन्हें कैसे खर्च करना है, यह खुद हम पर निर्भर करता है।
- राजेन्द्र चौधरी

मंगलवार, नवंबर 22, 2011

श्रेष्ठता और अपेक्षा

सौभाग्य से छात्र-जीवन में मेरी गिनती सदैव अपने स्कूल या कॉलेज के मेधावी छात्रों में रही। मुझे अपने शिक्षकों से बहुत स्नेह और प्रोत्साहन मिला। तब शिक्षक अपनी भूमिका सिर्फ कक्षा में अध्यापन तक ही तक नहीं मानते थे बल्कि छात्रों के आचरण और उनके व्यक्तित्व निर्माण के प्रति भी वे अपना दायित्व समझते थे। उन दिनों गल्ती पर शिक्षक छात्र की साधिकार पिटाई कर देते थे और माँ-बाप भी शिक्षक की उस दंडात्मक कार्यवाही को उचित मानते थे। यहाँ तक कि पता चलने पर दो-चार थप्पड़ वे भी रसीद कर देते थे। मैं अपने पूरे छात्र-जीवन में सिर्फ एक बार पिटा हूँ और उस पिटाई को मैं न तो कभी भूल पाया और न ही कभी भूलना चाहूँगा क्योंकि उस पिटाई ने जो मुझे सिखाया है वो अन्यथा मैं शायद कभी नहीं सीख पाता।

बात सन 1965 की है जब मैं कक्षा नौ में पढ़ता था। मेरे विषय हिन्दी, अँग्रेज़ी, गणित, विज्ञान और कला थे। एक तीस-पैंतीस वर्ष की आयु के आकर्षक व्यक्तित्व वाले शिक्षक नरेन्द्र कुमार जी, जो वॉलीबॉल के बहुत अच्छे खिलाड़ी और कॉलेज के चीफ प्रोक्टर भी थे, हमें विज्ञान पढ़ाते थे। मुझे उनका व्यक्तित्व अच्छा लगता था और वो भी मुझसे बहुत स्नेह करते थे। कक्षा नौ में विज्ञान विषय की दो शाखायें हो गयीं थीं – भौतिक शास्त्र यानि फ़िजिक्स और रसायन शास्त्र यानि केमिस्ट्री। केमिस्ट्री में नरेन्द्र जी ने हमें पदार्थों के रसायनिक सूत्र पढ़ाये और एक दिन अचानक उन्होंने टेस्ट लेने का निर्णय किया जिसमें उन्होंने बीस पदाथों के नाम ब्लैकबोर्ड पर लिखे और हमसे उनके सूत्र यानि रसायनिक फॉर्मुले लिखने को कहा – जैसेकि ऑक्सीजन का O2, कार्बनडाईऑक्साइड का CO2, पानी का H2O, आदि। मुझे सारे सूत्र मालूम थे, इसलिए मैंने निर्धारित समय से पहले ही सब लिख कर अपना टेस्ट पेपर उन्हें सौंप दिया। उन्होंने पीरियड खत्म होने तक मुझे कक्षा से बाहर जाने का आदेश दिया और मैं बाहर चला गया।

अगले दिन वो सारे टेस्ट पेपर जाँच कर अपने साथ में लाये और उनके हाथ में एक छड़ी भी थी। एक-एक करके वो छात्र का नाम पुकारते, उसके नम्बर बताते और जितनी गल्तियां होतीं उससे हाथ आगे कराकर उतनी ही छड़ियां उसे रसीद कर देते। सभी छात्र पिटे लेकिन मैं निश्चिंत था क्योंकि मैंने तो सारे सूत्र ठीक लिखे थे। सबसे अंत में मेरा नाम पुकारा गया और बिना मेरे नम्बर बताये मुझसे अपना हाथ आगे करने के लिए कहा गया। मैं अवाक देखता रहा और अपना हाथ आगे कर दिया। मेरे हाथ पर बिना गिने उन्होंने ताबड़तोड़ छडियां बरसानी शुरू कर दीं। मेरी आँखों में आँसू आ गये। उन्होंने पिटाई बंद करके चुपचाप मेरा टेस्ट पेपर मुझे दे दिया और वापस सीट पर बैठने के लिए कहा। मैंने पेपर देखा, मुझे दस में से साढ़े नौ नम्बर मिले थे। मेरा हाइड्रॉक्साइड का फॉर्मुला गलत था। मैंने OH की जगह गल्ती से Oh लिख दिया था। मुझे बहुत गुस्सा आया क्योंकि मैंने कम से कम सात-आठ छड़ियां खाईं थीं। मैंने सोचा कि मेरे साथी सोच रहे होंगे कि मैंने इतनी गल्तियां की होंगी क्योंकि उन्होंने मेरे नम्बर नहीं बताये थे। उन दिनों प्रतिवाद की गुंजाइश नहीं होती थी, इसलिए किसी तरह मन मार कर कक्षा में बैठा रहा। किसी से कोई बात नहीं की मैंने। मुझे टीचर पर बेहद गुस्सा था।

घर पर अम्मा से तो नहीं छुपा पाया पर पिताजी से हाथ छुपा कर रहना ही बेहतर समझा। अगले दिन मैंने नरेन्द्र जी का पीरियड छोड़ दिया और बाहर फील्ड में एक पेड़ के नीचे बैठ गया। उन्होंने मेरे बारे में कक्षा में बस पूछा भर, लेकिन पीरियड के बाद उनकी नज़र मुझ पर पड़ गयी। अगले दिन मैं फिर उनका पीरियड छोड़ कर बाहर निकल गया। वो क्लास से बाहर निकले, सीधे फील्ड पर मेरे पास आये और लगभग डाँटते हुए मुझे क्लास में चलने के लिए कहा। मैं चुपचाप क्लास में आकर बैठ गया। पीरियड खत्म होने पर उन्होंने मुझसे लैब में आकर उनसे मिलने के लिए कहा।

मैं लैब में पहुँचा तो उन्होंने मुझे साथ वाली कुर्सी पर बैठने के लिए कहा और बोले, “मैं जानता हूँ तुम मुझसे नाराज़ हो क्योंकि मैंने तुम्हारी सिर्फ एक, वह भी छोटी सी गल्ती होने के बावजूद इतनी पिटाई की लेकिन मुझे कोई अफसोस नहीं है क्योंकि मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ। दूसरों के लिए निर्धारित पैमाने तुम्हारे लिए नहीं है, मैं तुम्हें उस पैमाने से नहीं नाप सकता क्योंकि मैं तुम्हें अँधों में काना होने के आत्म-सुख की अनुभूति नहीं होने देना चाहता। यह बात शायद तुम आज नहीं समझ पाओगे”।

मैं एकदम खामोश बैठा था। वो थोड़ा रुके और फिर बोले, “एक शहर में एक दिन एक जनरल स्टोर का मालिक शाम को अपनी दुकान बंद करने जा रहा था कि उसने देखा एक कुत्ता दुकान के अन्दर घुस आया। उसने नौकर से कुत्ते को बाहर निकालने के लिए कहा। नौकर कुत्ते को बाहर निकाल कर जैसे ही लौटा, वो कुत्ता फिर से दुकान के अन्दर आ गया। मालिक को देखकर हैरानी हुई, उसने देखा कि कुत्ते के गले में एक छोटा थैला लटका हुआ है। वो खुद काउंटर से बाहर निकल कर कुत्ते के पास आया। उसने देखा कुत्ते के मुँह में एक पर्ची दबी थी जिस पर लिखा था “क्या आप कृपया मुझे दो लक्स बाथिंग सोप और एक शैम्पू की बोतल दे सकते हैं? पैसे कुत्ते के मुँह के अन्दर हैं”। दुकानदार ने कुत्ते की ओर देखा तो कुत्ते ने अपना मुँह खोल दिया। दुकानदार ने उसमें से सौ रुपये का नोट निकाला। उसने दो सोप और एक शैम्पू बाकी बचे पैसों के साथ कुत्ते के गले में लटके हुए छोटे थेले के अन्दर रख दिये।

दुकानदार कुत्ते से बहुत प्रभावित हुआ और उसके मन में उसके बारे में और अधिक जानने की जिज्ञासा हुई। वह क्योंकि दुकान बंद करने ही जा रहा था, इसलिए उसने नौकर से दुकान बंद करके चाबी घर पर देने के लिए कहा औए वो खुद उस कुत्ते के पीछे चल पड़ा। कुत्ता दुकान से वापस सड़क पर आया और चौराहे तक चलता रहा। चौराहे पर ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर खड़ा होकर सिग्नल के ग्रीन होने का इंतज़ार करने लगा। हरी बत्ती होने पर वो सड़क पार करके बस स्टॉप पर पहुँचा और उसने बस के टाइमटेबिल पर नज़र ड़ाली। दुकानदार को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ जब उसने देखा कि कुत्ता एक बस में चढ़ा और और एक खाली सीट पर जाकर बैठ गया। दुकानदार कुत्ते के पीछे पीछे चलता रहा। उसने देखा कि कुत्ते ने अपनी सीट पर बैठ कर कंडक्टर के वहाँ पहुँचने का इंतज़ार किया। जव कंडक्टर उसके पास आया तो कुत्ते ने अपनी गर्दन का पट्टा उसके सामने कर दिया। कंडक्टर ने पट्टे में रखे पैसे निकाले और टिकट पट्टे के अन्दर रख दिया।

फिर कुछ देर बाद कुत्ते ने बाहर की ओर देखा और अपनी सीट से उतर कर वो बस के अगले दरवाज़े के पास पहँच गया। उसने ड्राइवर की तरफ अपनी पूँछ हिलायी, ड्राइवर ने बस रोकने के लिए धीमी की और कुत्ता फौरन दरवाज़े से कूद कर पास में ही एक मकान की ओर चल दिया। दुकानदार भी उतर गया और कुत्ते के पीछे चलता रहा। कुत्ते ने एक मकान का लोहे का गेट खोला और वो अन्दर दरवाज़े की तरफ दौड़ पड़ा। जैसे ही वो दरवाज़े पर पहुँचा उसने अपना विचार बदला और घर के गार्डन की ओर चल दिया। वहाँ उसने एक खिड़की पर अपने एक पंजे से खटखटाया और वापस दरवाज़े पर आकर इंतज़ार करने लगा। दुकानदार अपने होश संभाल कर दरवाज़े तक पहुँचा तो उसने देखा कि एक काफी मोटे आदमी ने दरवाज़ा खोला और जैसे ही कुत्ता अन्दर जाने लगा, उस आदमी ने कुत्ते की पिटाई करनी शुरू कर दी। यह देख कर दुकानदार को बहुत आश्चर्य हुआ और वो लपक कर उस आदमी के पास पहुँचा और बोला, “यह आप क्या कर रहे हैं? मैंने इतना चतुर और समझदार कुत्ता आज तक नहीं देखा और आप इसकी पीठ थपथपाने के बजाय उल्टे इसकी पिटाई कर रहे हैं!” वो आदमी बोला, “आप इसे चतुर कह रहे हैं? यह एक हफ्ते में तीसरी बार है जब यह दरवाज़े की चाबी लेकर जाना भूला है”... ”।

नरेन्द्र जी थोड़ा रुके और फिर बोले, “दूसरे छात्र या अन्य लोग जो तुम्हें और तुम्हारी कुशाग्रता व सामर्थ्य को नहीं जानते, उनकी नज़र में तुम्हारी एक मामूली गल्ती नगण्य हो सकती है। उनकी नज़र में तुम्हारा प्रदर्शन असाधारण रूप से श्रेष्ठ हो सकता है, लेकिन मैं जानता हूँ कि तुम क्या हो और तुम्हें कितना आगे जाना है, मैं तुम्हारी मामूली सी गल्ती को भी नज़र-अन्दाज़ नहीं कर सकता। मेरे लिये वो मेरी असफलता है। मैं असफल नहीं होना चाहता। तुम्हें उस कुत्ते के मालिक की तरह मेरी अपेक्षाओं पर खरा उतरना ही होगा”।

तरुण आयु थी तब मेरी, बात जितनी अच्छी थी मैं उतनी अच्छी तरह तो उस समय नहीं समझ पाया, लेकिन जब मैंने देखा कि नरेन्द्र जी की आँखें यह कहते हुए गीली हो गयीं थीं और जब उन्होंने मुझे अपने गले लगा लिया बल्कि चिपटा लिया, तो मेरे भी आँसू बह निकले। उन्होंने मेरे बालों में अपनी उँगलियाँ घुमायीं, मेरे गालों को हल्के से थपथपाया और मुझे वापस क्लास में जाने के लिये कहा।

मैं घर आने पर रात भर उस घटना के बारे में सोचता रहा और परमात्मा से कहा कि मुझे उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने की हिम्मत दे!

बारहवीं पास करने के बाद जब मैंने वो इंटर कॉलेज छोड़ा तो मैं लैब में नरेन्द्र जी को अपनी मार्कशीट दिखाने गया तो उन्होंने बिना कुछ बोले मुझे अपनी बाँहों में भर लिया।

कहा जाता है कि अपेक्षाएं दुखदायी होती हैं, लेकिन मेरे जीवन में मेरी अम्मा, मेरे मामाजी, और नरेन्द्र जी जैसे कुछ पुण्य-आत्मा लोगों की अपेक्षायें हीं थीं जिन्होंने मुझे सिखाया कि अगर श्रेष्ठ होने की सामर्थ्य है तो अच्छा होना पर्याप्त नहीं होता। उनकी अपेक्षाओं ने ही मुझे हमेशा हर काम में अपना सर्वश्रेष्ठ देने का दायित्वबोध दिया।
मैं अपनी भरी आँखों से उनकी स्मृति को प्रणाम करता हूँ।
- राजेन्द्र चौधरी