सौभाग्य से छात्र-जीवन में मेरी गिनती सदैव अपने स्कूल या कॉलेज के मेधावी छात्रों में रही। मुझे अपने शिक्षकों से बहुत स्नेह और प्रोत्साहन मिला। तब शिक्षक अपनी भूमिका सिर्फ कक्षा में अध्यापन तक ही तक नहीं मानते थे बल्कि छात्रों के आचरण और उनके व्यक्तित्व निर्माण के प्रति भी वे अपना दायित्व समझते थे। उन दिनों गल्ती पर शिक्षक छात्र की साधिकार पिटाई कर देते थे और माँ-बाप भी शिक्षक की उस दंडात्मक कार्यवाही को उचित मानते थे। यहाँ तक कि पता चलने पर दो-चार थप्पड़ वे भी रसीद कर देते थे। मैं अपने पूरे छात्र-जीवन में सिर्फ एक बार पिटा हूँ और उस पिटाई को मैं न तो कभी भूल पाया और न ही कभी भूलना चाहूँगा क्योंकि उस पिटाई ने जो मुझे सिखाया है वो अन्यथा मैं शायद कभी नहीं सीख पाता।
बात सन 1965 की है जब मैं कक्षा नौ में पढ़ता था। मेरे विषय हिन्दी, अँग्रेज़ी, गणित, विज्ञान और कला थे। एक तीस-पैंतीस वर्ष की आयु के आकर्षक व्यक्तित्व वाले शिक्षक नरेन्द्र कुमार जी, जो वॉलीबॉल के बहुत अच्छे खिलाड़ी और कॉलेज के चीफ प्रोक्टर भी थे, हमें विज्ञान पढ़ाते थे। मुझे उनका व्यक्तित्व अच्छा लगता था और वो भी मुझसे बहुत स्नेह करते थे। कक्षा नौ में विज्ञान विषय की दो शाखायें हो गयीं थीं – भौतिक शास्त्र यानि फ़िजिक्स और रसायन शास्त्र यानि केमिस्ट्री। केमिस्ट्री में नरेन्द्र जी ने हमें पदार्थों के रसायनिक सूत्र पढ़ाये और एक दिन अचानक उन्होंने टेस्ट लेने का निर्णय किया जिसमें उन्होंने बीस पदाथों के नाम ब्लैकबोर्ड पर लिखे और हमसे उनके सूत्र यानि रसायनिक फॉर्मुले लिखने को कहा – जैसेकि ऑक्सीजन का O2, कार्बनडाईऑक्साइड का CO2, पानी का H2O, आदि। मुझे सारे सूत्र मालूम थे, इसलिए मैंने निर्धारित समय से पहले ही सब लिख कर अपना टेस्ट पेपर उन्हें सौंप दिया। उन्होंने पीरियड खत्म होने तक मुझे कक्षा से बाहर जाने का आदेश दिया और मैं बाहर चला गया।
अगले दिन वो सारे टेस्ट पेपर जाँच कर अपने साथ में लाये और उनके हाथ में एक छड़ी भी थी। एक-एक करके वो छात्र का नाम पुकारते, उसके नम्बर बताते और जितनी गल्तियां होतीं उससे हाथ आगे कराकर उतनी ही छड़ियां उसे रसीद कर देते। सभी छात्र पिटे लेकिन मैं निश्चिंत था क्योंकि मैंने तो सारे सूत्र ठीक लिखे थे। सबसे अंत में मेरा नाम पुकारा गया और बिना मेरे नम्बर बताये मुझसे अपना हाथ आगे करने के लिए कहा गया। मैं अवाक देखता रहा और अपना हाथ आगे कर दिया। मेरे हाथ पर बिना गिने उन्होंने ताबड़तोड़ छडियां बरसानी शुरू कर दीं। मेरी आँखों में आँसू आ गये। उन्होंने पिटाई बंद करके चुपचाप मेरा टेस्ट पेपर मुझे दे दिया और वापस सीट पर बैठने के लिए कहा। मैंने पेपर देखा, मुझे दस में से साढ़े नौ नम्बर मिले थे। मेरा हाइड्रॉक्साइड का फॉर्मुला गलत था। मैंने OH की जगह गल्ती से Oh लिख दिया था। मुझे बहुत गुस्सा आया क्योंकि मैंने कम से कम सात-आठ छड़ियां खाईं थीं। मैंने सोचा कि मेरे साथी सोच रहे होंगे कि मैंने इतनी गल्तियां की होंगी क्योंकि उन्होंने मेरे नम्बर नहीं बताये थे। उन दिनों प्रतिवाद की गुंजाइश नहीं होती थी, इसलिए किसी तरह मन मार कर कक्षा में बैठा रहा। किसी से कोई बात नहीं की मैंने। मुझे टीचर पर बेहद गुस्सा था।
घर पर अम्मा से तो नहीं छुपा पाया पर पिताजी से हाथ छुपा कर रहना ही बेहतर समझा। अगले दिन मैंने नरेन्द्र जी का पीरियड छोड़ दिया और बाहर फील्ड में एक पेड़ के नीचे बैठ गया। उन्होंने मेरे बारे में कक्षा में बस पूछा भर, लेकिन पीरियड के बाद उनकी नज़र मुझ पर पड़ गयी। अगले दिन मैं फिर उनका पीरियड छोड़ कर बाहर निकल गया। वो क्लास से बाहर निकले, सीधे फील्ड पर मेरे पास आये और लगभग डाँटते हुए मुझे क्लास में चलने के लिए कहा। मैं चुपचाप क्लास में आकर बैठ गया। पीरियड खत्म होने पर उन्होंने मुझसे लैब में आकर उनसे मिलने के लिए कहा।
मैं लैब में पहुँचा तो उन्होंने मुझे साथ वाली कुर्सी पर बैठने के लिए कहा और बोले, “मैं जानता हूँ तुम मुझसे नाराज़ हो क्योंकि मैंने तुम्हारी सिर्फ एक, वह भी छोटी सी गल्ती होने के बावजूद इतनी पिटाई की लेकिन मुझे कोई अफसोस नहीं है क्योंकि मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ। दूसरों के लिए निर्धारित पैमाने तुम्हारे लिए नहीं है, मैं तुम्हें उस पैमाने से नहीं नाप सकता क्योंकि मैं तुम्हें अँधों में काना होने के आत्म-सुख की अनुभूति नहीं होने देना चाहता। यह बात शायद तुम आज नहीं समझ पाओगे”।
मैं एकदम खामोश बैठा था। वो थोड़ा रुके और फिर बोले, “एक शहर में एक दिन एक जनरल स्टोर का मालिक शाम को अपनी दुकान बंद करने जा रहा था कि उसने देखा एक कुत्ता दुकान के अन्दर घुस आया। उसने नौकर से कुत्ते को बाहर निकालने के लिए कहा। नौकर कुत्ते को बाहर निकाल कर जैसे ही लौटा, वो कुत्ता फिर से दुकान के अन्दर आ गया। मालिक को देखकर हैरानी हुई, उसने देखा कि कुत्ते के गले में एक छोटा थैला लटका हुआ है। वो खुद काउंटर से बाहर निकल कर कुत्ते के पास आया। उसने देखा कुत्ते के मुँह में एक पर्ची दबी थी जिस पर लिखा था “क्या आप कृपया मुझे दो लक्स बाथिंग सोप और एक शैम्पू की बोतल दे सकते हैं? पैसे कुत्ते के मुँह के अन्दर हैं”। दुकानदार ने कुत्ते की ओर देखा तो कुत्ते ने अपना मुँह खोल दिया। दुकानदार ने उसमें से सौ रुपये का नोट निकाला। उसने दो सोप और एक शैम्पू बाकी बचे पैसों के साथ कुत्ते के गले में लटके हुए छोटे थेले के अन्दर रख दिये।
दुकानदार कुत्ते से बहुत प्रभावित हुआ और उसके मन में उसके बारे में और अधिक जानने की जिज्ञासा हुई। वह क्योंकि दुकान बंद करने ही जा रहा था, इसलिए उसने नौकर से दुकान बंद करके चाबी घर पर देने के लिए कहा औए वो खुद उस कुत्ते के पीछे चल पड़ा। कुत्ता दुकान से वापस सड़क पर आया और चौराहे तक चलता रहा। चौराहे पर ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर खड़ा होकर सिग्नल के ग्रीन होने का इंतज़ार करने लगा। हरी बत्ती होने पर वो सड़क पार करके बस स्टॉप पर पहुँचा और उसने बस के टाइमटेबिल पर नज़र ड़ाली। दुकानदार को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ जब उसने देखा कि कुत्ता एक बस में चढ़ा और और एक खाली सीट पर जाकर बैठ गया। दुकानदार कुत्ते के पीछे पीछे चलता रहा। उसने देखा कि कुत्ते ने अपनी सीट पर बैठ कर कंडक्टर के वहाँ पहुँचने का इंतज़ार किया। जव कंडक्टर उसके पास आया तो कुत्ते ने अपनी गर्दन का पट्टा उसके सामने कर दिया। कंडक्टर ने पट्टे में रखे पैसे निकाले और टिकट पट्टे के अन्दर रख दिया।
फिर कुछ देर बाद कुत्ते ने बाहर की ओर देखा और अपनी सीट से उतर कर वो बस के अगले दरवाज़े के पास पहँच गया। उसने ड्राइवर की तरफ अपनी पूँछ हिलायी, ड्राइवर ने बस रोकने के लिए धीमी की और कुत्ता फौरन दरवाज़े से कूद कर पास में ही एक मकान की ओर चल दिया। दुकानदार भी उतर गया और कुत्ते के पीछे चलता रहा। कुत्ते ने एक मकान का लोहे का गेट खोला और वो अन्दर दरवाज़े की तरफ दौड़ पड़ा। जैसे ही वो दरवाज़े पर पहुँचा उसने अपना विचार बदला और घर के गार्डन की ओर चल दिया। वहाँ उसने एक खिड़की पर अपने एक पंजे से खटखटाया और वापस दरवाज़े पर आकर इंतज़ार करने लगा। दुकानदार अपने होश संभाल कर दरवाज़े तक पहुँचा तो उसने देखा कि एक काफी मोटे आदमी ने दरवाज़ा खोला और जैसे ही कुत्ता अन्दर जाने लगा, उस आदमी ने कुत्ते की पिटाई करनी शुरू कर दी। यह देख कर दुकानदार को बहुत आश्चर्य हुआ और वो लपक कर उस आदमी के पास पहुँचा और बोला, “यह आप क्या कर रहे हैं? मैंने इतना चतुर और समझदार कुत्ता आज तक नहीं देखा और आप इसकी पीठ थपथपाने के बजाय उल्टे इसकी पिटाई कर रहे हैं!” वो आदमी बोला, “आप इसे चतुर कह रहे हैं? यह एक हफ्ते में तीसरी बार है जब यह दरवाज़े की चाबी लेकर जाना भूला है”... ”।
नरेन्द्र जी थोड़ा रुके और फिर बोले, “दूसरे छात्र या अन्य लोग जो तुम्हें और तुम्हारी कुशाग्रता व सामर्थ्य को नहीं जानते, उनकी नज़र में तुम्हारी एक मामूली गल्ती नगण्य हो सकती है। उनकी नज़र में तुम्हारा प्रदर्शन असाधारण रूप से श्रेष्ठ हो सकता है, लेकिन मैं जानता हूँ कि तुम क्या हो और तुम्हें कितना आगे जाना है, मैं तुम्हारी मामूली सी गल्ती को भी नज़र-अन्दाज़ नहीं कर सकता। मेरे लिये वो मेरी असफलता है। मैं असफल नहीं होना चाहता। तुम्हें उस कुत्ते के मालिक की तरह मेरी अपेक्षाओं पर खरा उतरना ही होगा”।
तरुण आयु थी तब मेरी, बात जितनी अच्छी थी मैं उतनी अच्छी तरह तो उस समय नहीं समझ पाया, लेकिन जब मैंने देखा कि नरेन्द्र जी की आँखें यह कहते हुए गीली हो गयीं थीं और जब उन्होंने मुझे अपने गले लगा लिया बल्कि चिपटा लिया, तो मेरे भी आँसू बह निकले। उन्होंने मेरे बालों में अपनी उँगलियाँ घुमायीं, मेरे गालों को हल्के से थपथपाया और मुझे वापस क्लास में जाने के लिये कहा।
मैं घर आने पर रात भर उस घटना के बारे में सोचता रहा और परमात्मा से कहा कि मुझे उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने की हिम्मत दे!
बारहवीं पास करने के बाद जब मैंने वो इंटर कॉलेज छोड़ा तो मैं लैब में नरेन्द्र जी को अपनी मार्कशीट दिखाने गया तो उन्होंने बिना कुछ बोले मुझे अपनी बाँहों में भर लिया।
कहा जाता है कि अपेक्षाएं दुखदायी होती हैं, लेकिन मेरे जीवन में मेरी अम्मा, मेरे मामाजी, और नरेन्द्र जी जैसे कुछ पुण्य-आत्मा लोगों की अपेक्षायें हीं थीं जिन्होंने मुझे सिखाया कि अगर श्रेष्ठ होने की सामर्थ्य है तो अच्छा होना पर्याप्त नहीं होता। उनकी अपेक्षाओं ने ही मुझे हमेशा हर काम में अपना सर्वश्रेष्ठ देने का दायित्वबोध दिया।
मैं अपनी भरी आँखों से उनकी स्मृति को प्रणाम करता हूँ।
- राजेन्द्र चौधरी
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