यह जो घर है...
हाँ यही ‘संस्कार’ नाम का जो घर है हमारा
मकान की नज़रों से देखो तो मामूली सा, छोटा सा
वक़्त के साथ कहीं कहीं से बदरंग, कहीं से उघड़ा सा
हाँ यही...जिसमें अब मैं और मेरी पत्नी ही रहते हैं
यह और बात है कि इसके कोने कोने में
न जाने कितनी यादों के झरने बहते हैं
अभी तक साँस लेती है इसकी नींव में रखी
वो पहली गीली ईंट जो मेरे पिताजी ने रखी थी
और मंत्रोच्चार के बीच अम्मा की आँखों से
खुशी का टपका वो कीमती आँसू, आँसू कहाँ था
उस नींव की ईंट पर उनके आशीष का अभिषेक था
उस आँसू से ही ‘संस्कार’ नाम उपजा था
यह मेरा मकान कहाँ था...
यह तो उनकी वंश बेल का घर था, प्यार का अतिरेक था
इसमें आज भी ज़िन्दा है उनके बनाये मीठे पुओं की खुश्बू
उनके आँचल की हवा आज भी इसमें सरसराती है
मैं सर्दियों में जब भी ऊनी कुर्ता और जैकेट पहनता हूँ
बड़े अदब से, बड़े सलीके से पहनता हूँ...
उनमें पिताजी के अनुशासन की याद आती है
गर्मियों में आज भी इसकी छत पर
मेरे बहनोई, मेरे भाई की यादें गुनगुनाती हैं
वो अब शायद सितारों को अपने किस्से सुनाती हैं
इसका बांयी ओर वाला बेडरूम आज भी
चाचाजी का कमरा कहलाता है
यादें परलोक नहीं जातीं, आदमी चला जाता है
इसकी बैठक के पर्दे जब पुराने पड़ गये
तो मेरी पत्नी ने उन्हें फेंका नहीं सहेज के रखा है
वो मेरी छोटी बहन ने लगाये थे
उसके प्यार को संदूक में समेट के रखा है
इस घर की छत, इसकी दीवारें, इसका आँगन
अपने आप में एक पूरा वंश सम्भाले हैं
इन्होंने सिर्फ इस घर का बेटा ही नहीं पाला
इस घर का भांजा, भतीजी, भतीजे पाले हैं
वक़्त के साथ आज सब आगे बढ़ गये हैं
आज इसमें बस मैं और मेरी पत्नी ही रह गये हैं
सबके अपने ठिकाने हैं, सबकी अपनी मजबूरियां हैं
न चाह कर भी फासले हैं, न चाह कर भी दूरियां हैं
हम दोनों की उम्र भी पक गयी, हम भी दादा-दादी हो गये
बेटा बम्बई जा बसा, बच्चे बम्बई वाले हो गये
साल में एक आध बार आते हैं, घर चहक उठता है
अम्मा-पिताजी के संस्कार का चमन महक उठता है
हम दोनों भी हर साल दो बार बच्चों के पास जाते हैं
दोनों पोतों के साथ बुढापे में अपना बचपन बिताते हैं
खुदा की मेहर है, सब कुछ है, यूँ तो मलाल कुछ भी नहीं
प्यार है, एका है, इज़्ज़त है, खुशी है, बदहाल कुछ भी नहीं
पर कुछ दिनों से अजीब दुविधा है, जानता हूँ पर कह नहीं पाता
न जाने क्यूं मैं अब कहीं भी कुछ हफ्तों से ज्यादा रुक नहीं पाता
जब घर वापस आता हूँ तो इसकी दीवारें नाराज़ लगती हैं
अम्मा पिताजी की टंग़ी तस्वीरें उदास लगती हैं
धूल बंद दरवाज़े से भी जाने कैसे आकर उनपे जम जाती है
जब भी वापस आता हूँ दीवार पे लगी घड़ी थम जाती है
मैं अम्मा पिताजी की तस्वीरों पे चढ़ी धूल से घबराता हूँ
मैं बंद घड़ी देख कर अन्दर से डर जाता हूँ
मुझे धूल चढ़ी तस्वीरें, अँधे आइने, बंद घड़ी,
कोनों के जाले, सूखे पौधे बहुत ड़राते हैं
मुझसे देखा नहीं जाता घर का लहज़ा उखड़ता हुआ
मेरे ही सामने रिश्तों के ख्वाब बिखरे हैं
मैंने बहुत करीब से देखा है पुश्तैनी घर उजड़ता हुआ
यह घर मुझसे बातें करता है, मेरे साथ मुस्कुराता है
थक जाऊँ तो थपकी देकर सुलाता है, सबेरे फिर उठाता है
इसमें अम्मा पिताजी मुझको देखते से लगते हैं
मानो मैं नहीं होता, तो वो मेरी राह तकते हैं
कहने को तो इसमें...
बस अब मैं और मेरी पत्नी ही रहते हैं
पर हम दोनों ही इस घर के मकान हो जाने से ड़रते हैं
यह जो मेरा, तुम्हारा, सबका घर है हमारा
हाँ यही ‘संस्कार’ नाम का जो घर है हमारा॥
- राजेन्द्र चौधरी
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