बुधवार, सितंबर 14, 2011

झूठे दायरे

आज का यह लेख मेरी छोटी बहन को समर्पित है बल्कि वही प्रेरणा बनी है इस लेख को लिखने की। सप्ताह में नियमित रूप से चार दिन व्रत रखना और बाकी तीन दिन भी एक समय ही भोजन करना उसका नियम है। वह एक कामकाजी महिला है, बैंक में अधिकारी है, एक समर्थ और प्रतिभाशाली पुत्र की गौरवमयी माता है, हिन्दी साहित्य पढ़ने की शौकीन है, मेरी बेटी समान है, लाड़ली है, सुहृदय और समझदार है, लेकिन मैं आज तक उसे नहीं समझा पाया कि जो वो अपने शरीर के साथ कर रही है, वो हानिकारक है। बड़ों की अपनी हदबन्दी होती है, उनकी मर्यादा उसे लांघने की इज़ाज़त नहीं देती। हालांकि मैं इस बारे में भी आशावान नहीं हूँ कि वह इस लेख को पढ़ कर कुछ सोचेगी और अपनी जीवनशैली बदलने का सजग प्रयास करेगी, लेकिन हो सकता है कि वो नहीं तो शायद किसी अन्य की चेतना पर यह लेख दस्तक दे पाये क्योंकि आज हर घर में कोई न कोई व्यक्ति ऐसा है जो अपनी हठधर्मिता का रवैया छोड़ने को तैयार नहीं होता। यह और बात है कि ऐसे व्यक्ति खुद को हठधर्मी नहीं बल्कि धार्मिक और अनुशासित मानते हैं।

जैसे-जैसे मेरी समझ विकसित हुई, मैं यह समझने लगा कि मैं एक आत्मा हूँ जो कि परमात्मा का अंश है और इस देह में निहित है। यह देह नश्वर है और आत्मा अनश्वर है। जैसे परमात्मा दिखायी नहीं देता लेकिन वो है, उसी तरह आत्मा भी दिखायी नहीं देती लेकिन वो है जब तक कि यह देह जीवित है। उसके बाद आत्मा कोई और देह धारण कर लेगी। आत्मा मूल्यवान है लेकिन वो चूँकि मुझे दिखायी नहीं देती इसलिए मुझे अपनी देह का मूल्य समझ में आ गया क्योंकि वो मुझे दिखती है, मैं उसे छू सकता हूँ, उसमें अनुभूति है, संवेदना है, बोध है। मैं जान चुका हूँ कि आत्मा को स्वस्थ रखने के लिए मुझे अपनी देह को स्वस्थ रखना होगा, आत्मा को शांत रखने के लिए देह को शांत रखना होगा। अशांत बसेरे में कोई शांत कैसे रहेगा? इसी विचार ने मुझे अपने शरीर से प्यार करना सिखाया क्योंकि मेरा मानना है कि प्यार शांति का मार्ग प्रशस्त करता है और द्वन्द्व कैसा भी हो, लड़ाई कैसी भी हो, अशांतिदायक होती है।

लेकिन मुझे यह देख कर आश्चर्य और दुख होता है कि राजनीति की तरह धर्म और समाज भी व्यक्ति में बंटवारे की भावना को पोषित करने में लगा हुआ है। मैं अलग-अलग धर्म, अलग-अलग समाज, अलग-अलग परिवार की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं व्यक्ति की बात कर रहा हूँ – व्यक्ति को भी एक विभाजित इकाई बनाने पर जोर है। उसे विभाजित कर दो, उसे एकीकृत मत रहने दो, वो गुलाम बन कर जियेगा। अपने आप में बंटा हुआ कोई भी घर हो, कमजोर होता है। इसलिए मुझे लगता है कि आदमी को कमजोर करने की साजिश के तहत उसे यह सिखाया गया है - अपने शरीर से लड़ो, यही ईश्वर की प्राप्ति में बाधक है, यही तुमको नरक की तरफ ले जाता है, इसकी मत सुनो, जब तक इस पर जीत हासिल नहीं कर लोगे, ईश्वरीय लोक के दरवाज़े तुम्हारे लिये नहीं खुलेंगे।

सदियों से यही सिखाया जा रहा है। नतीजतन हर व्यक्ति एक विभाजित इकाई बन गया है, वो अपने शरीर के विरुद्ध आचरण करने लगा है। आप अपने शरीर से लड़ेंगे तो आप परेशान होंगे ही क्योंकि आप और आपका शरीर एक ही ऊर्जा हैं। शरीर आत्मा का दिखायी देने वाला रूप है, और आत्मा अदृश्य शरीर है। शरीर और आत्मा विभाजित नहीं हैं, वे एक दूसरे के अंग हैं, वे एक पूर्ण इकाई का हिस्सा हैं। आपको अपने शरीर को स्वीकार करना होगा, उसे प्रेम करना होगा, उसका सम्मान करना होगा, उसके प्रति उत्तरदायी आचरण करना होगा, उसके प्रति कृतज्ञ होना होगा, तभी तो जाकर एकीकृत भाव पैदा होगा देह और आत्मा में।

मेरा कहने का मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि आप शरीर पर काबू नहीं पा सकते, मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि आप उससे लड़ कर, उसकी अनसुनी करके, उसके प्रति लापरवाह होकर, उसे भूखा मार कर उस पर काबू नहीं पा सकते। नियंत्रित करने के लिए देखभाल, प्यार और आदर का मार्ग अपनाना होगा। हमारा मस्तिष्क हमारे शरीर का चालक है। चालक अपने वाहन की देखभाल, उसका रखरखाव और उससे प्यार नहीं करेगा तो वाहन उसके आदेश के अनुरूप कैसे चलेगा? शरीर ईश्वर की अत्यंत जटिल लेकिन अत्यंत मनोहारी रचना है। दुनिया भर के वैज्ञानिक आज तक अकेले मस्तिष्क जैसी कोई मशीन, कोई कम्प्यूटर नहीं बना सके, तो वे मानव शरीर जैसी रचना कहाँ से कर पायेंगे। हमारा शरीर पूरे अस्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है – मिट्टी, पानी, आग, हवा और आकाश। इन पाँच तत्वों के समंवय और एकीकरण से क्या अदभुत रचना की है परमात्मा ने! मिट्टी को देखो और अपने शरीर को देखो, यकीन नहीं होगा कि हम इसी से बने हैं। इसलिए स्वीकार कीजिये कि हमारा शरीर अदभुत है, ईश्वरीय रचना है यह। इसके प्रति निंदात्मक व्यवहार, इसकी अनदेखी, इसकी अवहेलना, इसका अनादर ईश्वर का अनादर है, पाप है।

इसलिए इन झूठे दायरों से निकलो, विभाजित होकर मत जियो, एकाकार होकर जियो। आत्मा और शरीर के दो अलग-अलग मोर्चे मत खोलो, ऐसा करेंगे तो दोनों मोर्चों पर मात ही खायेंगे हम, और दुनिया कुछ भी कहे लेकिन अगला जन्म तो किसी ने देखा नहीं पर ऐसा करने से इस जन्म को ज़रूर नरक बना लेंगे हम। शरीर की न सुनना, उसका अनादर करना आत्महत्या है। आत्महत्या सिर्फ अपराध ही नहीं पाप है। जो पाप है उसमें पुण्य का फल कैसे मिलेगा? यह पाखंड़ है, व्यापारी साजिश है। हम सरलता, सच्चाई, ईमानदारी के साथ जियें, शरीर के प्रति भी सरलता, सच्चाई और ईमानदारी बरतें, जीवन बहुमूल्य है। यह ईश्वरीय देन है, हमारा कर्तव्य है कि हम इसके प्रति निर्मम नहीं कृतज्ञ बनें।
- राजेन्द्र चौधरी

सोमवार, सितंबर 05, 2011

माता-पिता

वैसे तो आज शिक्षक दिवस है, लेकिन मैं अम्मा और पिताजी को ही अपना सबसे बड़ा गुरु मानता आया हूँ। मैं आज जो कुछ भी हूँ, जैसा भी हूँ, अपने स्वर्गीय अम्मा-पिताजी के द्वारा रोपे गये संस्कारों व मूल्यों तथा उनके आशीषों की बदौलत ही हूँ। अच्छा हूँ तो उसका सारा श्रेय उन्हें जाता है, बुरा हूँ तो हो सकता है ठीक से ग्रहण न कर पाया हूँ उनकी शिक्षायें, इसलिए उनके साथ-साथ आपसे भी क्षमा चाहता हूँ। आज अपने अम्मा-पिताजी की स्मृति को प्रणाम करता हुआ अपनी सांसों के यज्ञ के रूप में स्वर्गीय ओम व्यास जी की एक कविता आपके बीच रखता हूँ। अगर आपके माता-पिता जीवित हैं और आपके साथ हैं, तो आप धन्यभागी हैं, अगर वे नहीं हैं तो दिवंगत कवि ओम व्यास को उनकी अत्यंत सरल परंतु प्रभावी अभिव्यक्ति के लिए साधुवाद देते हुए मेरे साथ अपने माता-पिता के इस स्मृति यज्ञ में शामिल हों:

माँ

“माँ संवेदना है, भावना है, अहसास है
माँ जीवन के फूलों में खुश्बू का वास है
माँ रोते हुए बच्चे का खुशनुमा पलना है
माँ मरुथल में नदी या मीठा सा झरना है
माँ लोरी है, गीत है, प्यारी सी थाप है
माँ पूजा की थाली है, मंत्रों का जाप है
माँ आँखों का सिसकता हुआ किनारा है
माँ गालों पर पप्पी है, ममता की धारा है
माँ झुलसते दिनों में कोयल की बोली है
माँ मेंहदी है, कुमकुम है, सिंदूर की रोली है
माँ कलम है, दवात है, स्याही है माँ
माँ परमात्मा की खुद इक गवाही है माँ
माँ त्याग है, तपस्या है, सेवा है माँ
माँ फूँक से ठंडा किया हुआ कलेवा है माँ
माँ अनुष्ठान है, साधना है, जीवन का हवन है
माँ ज़िन्दगी के मुहल्ले में आत्मा का भवन है
माँ चूड़ी वाले हाथों पे मजबूत कंधों का नाम है
माँ काशी है, काबा है, चारों ही धाम है
माँ चिंता है, याद है, हिचकी है
माँ बच्चे की चोट पे सिसकी है
माँ चूल्हा है, धुआँ है, रोटी है, हाथों का छाला है
माँ ज़िन्दगी की कड़वाहट में अमृत का प्याला है
माँ दुनिया है, जगती है, पृथ्वी की धुरी है
माँ बिना इस सृष्टि की कल्पना अधूरी है
माँ की कथा अनादि है, वो अध्याय नहीं है
और माँ का जीवन में कोई भी पर्याय नहीं है
माँ का महत्व दुनिया में कम हो नहीं सकता
और माँ जैसा दुनिया में कोई हो नहीं सकता
मैं अपनी कला की पंक्तियां माँ के नाम करता हूँ
मैं दुनिया की सब माताओं को प्रणाम करता हूँ”।

पिता

“पिता जीवन है, सम्बल है, शक्ति है
पिता सृष्टि के निर्माण की अभिव्यक्ति है
पिता उँगली पकड़े बच्चे का सहारा है
पिता कभी कुछ खट्टा, कभी कुछ खारा है
पिता पालन है, पोषण है, परिवार का अनुशासन है
पिता धौंस से चलने वाला प्रेम का प्रशासन है
पिता रोटी है, कपड़ा है, मकान है
पिता छोटे से परिंदे का बड़ा आसमान है
पिता अप्रदर्शित अनंत प्यार है
पिता है तो बच्चों को इंतजार है
पिता से ही बच्चों के ढ़ेर सारे सपने हैं
पिता है तो बाज़ार के सब खिलौने अपने हैं
पिता से परिवार में प्रतिपल राग है
पिता से ही माँ की बिंदी है, सुहाग है
पिता परमात्मा की जगत के प्रति आसक्ति है
पिता गृहस्थ आश्रम में उच्च स्थिति की भक्ति है
पिता अपनी इच्छाओं का हनन और परिवार की पूर्ति है
पिता रक्त में प्राप्त हुए संस्कारों की मूर्ति है
पिता एक जीवन को जीवन का दान है
पिता दुनिया दिखाने का आजीवन अहसान है
पिता सुरक्षा है, सिर पर हाथ है
पिता नहीं है तो बचपन अनाथ है
तुम पिता से बड़ा अवश्य अपना नाम करो
पर पिता का अपमान नहीं, उन पर अभिमान करो
क्योंकि माँ-बाप की कमी को कोई पाट नहीं सकता
और ईश्वर भी उनके आशीषों को काट नहीं सकता
विश्व में किसी भी देवता का स्थान दूजा है
माँ-बाप की सेवा ही सबसे बड़ी पूजा है
विश्व में किसी भी तीर्थ की यात्राएं व्यर्थ हैं
यदि बेटे के होते हुए माँ-बाप असमर्थ हैं
वो खुशनसीब हैं माँ-बाप जिनके साथ होते हैं
क्योंकि माँ-बाप के आशीषों के हजारों हाथ होते हैं”॥

हम सब को अपने माता-पिता के सदैव अनंत आशीष प्राप्त हों!
- राजेन्द्र चौधरी

रविवार, सितंबर 04, 2011

शुभचिंतक

जैसा कि मैं पहले बता चुका हूँ कि मेरे छोटे भाई की पत्नी को आठ माह पहले बाथरूम में नहाते समय ब्रेन हैमरेज हो गया था। अपने पारिवारिक चिकित्सक के सहयोग से समय रहते, कुशल न्यूरोलोजिस्ट को दिखाने और उनके द्वारा इलाज के लिए गुडगाँव के मेदांता मेडिसिटी अस्पताल में सम्बन्धित न्यूरोलोजी सर्जन से बात करके हमें वहाँ पर भेजने के उनके सुविचारित लाभकारी प्रयास की बदौलत मौत के मुहाने पर पहुँच चुकी मेरे भाई की अचेत पत्नी की जान बच गयी। हम लोग तब पन्द्रह दिन अस्पताल में रहे थे और वो बिना किसी शारीरिक या मानसिक क्षति के सकुशल घर लौट आयी। स्थानीय न्यूरोलोजिस्ट की देखरेख में वो अब बिल्कुल स्वस्थ थी और घर के काम भी सामान्य रूप से करने लगी थी।

अस्पताल के डॉक्टरों के कहे अनुसार पिछले महीने की सोलह तारीख को मेरा छोटा भाई अपनी पत्नी को लेकर गुडगाँव अस्पताल में इसलिए गया ताकि इस बात की पुष्टि हो सके कि आठ माह पूर्व की गयी सर्जरी पूरी तरह से ठीक हो गयी है और उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार की आशंका से मुक्त हुआ जा सके। डॉक्टरों ने एंजियोग्राम किया जो पूरी तरह से ठीक आया और जब डॉक्टर भाई को वो एंजियोग्राम दिखा रहे थे तथा अब भविष्य में चलने वाली दवाओं के बारे में बता रहे थे, तभी मरीज के शरीर के पूरे दांयें हिस्से ने काम करना बंद कर दिया। स्वाभाविक है कि डॉक्टरों के और मेरे भाई के पैरों तले की ज़मीन खिसक गयी। डॉक्टरों ने जो भी वे कर सकते थे किया लेकिन कोई सफलता नहीं मिली। फिर और जटिलतायें पैदा हो गयीं। खैर, अब स्थिति यह है कि उसकी जान तो बच गयी, उसे आईसीयू से रूम में शिफ्ट कर दिया गया है और दवाओं के साथ-साथ फ़िजियोथेरैपी वगैरा चल रही है। शायद दो-तीन दिन बाद उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी जायेगी और फिर स्थानीय डॉक्टर की देखरेख में इलाज की शायद हमारे धैर्य की परीक्षा लेने वाली एक लम्बी कष्टदायी यात्रा शुरू होगी। इसमें कितनी सफलता मिल पायेगी इस बारे में मेडिकल साइंस खामोश है।

भाई और उसका बेटा गुडगाँव अस्पताल में ही हैं और हम बाकी परिजन आवश्यक व्यवस्थायें करने के साथ-साथ हर दो-तीन दिन में अस्पताल जाते रहते हैं। फोन से तो दिन में पाँच-सात बार रोज बात होती ही है। इस कठिन वक्त में हमारे जो भी परिचित या रिश्तेदार हैं, वे लोग भी हमारे दुख में साझीदार हैं। लेकिन इस दौरान मैंने महसूस किया कि हर कोई मिल जाने पर मुझसे छोटे भाई की पत्नी की हालत के बारे में पूछ कर मानो अपना फर्ज़ अदा कर रहा है। मानो मरीज के बारे में पूछना एक यज्ञ है और वे उसमें अपनी आहुति डालने को आतुर हैं। इस बीच कुछ ऐसे भी लोग घर पर आये जो न सिर्फ पूछने आये बल्कि अपने साथ अवांछित सुझावों और परामर्श का पिटारा भी साथ लाये। कुछ की जिज्ञासा इस बारे में अधिक लगी कि अब तक कितना खर्च हो चुका है और कैसे व्यवस्था की हमने पैसों की। उनका प्रयास हमें हौसला देने का कम, हमारे परिवार की बैलैंसशीट ऑडिट करने का अधिक था। कुछ ने मेरे सब्र और शालीनता का पूरा इम्तिहान ही ले डाला। मैं मन ही मन झुंझलाता, खीजता, पर व्यवहार में शालीनता बनाये रखनी पड़ती। एक साहब बोले – “क्या ज़रूरत थी अस्पताल जाने की, जब वो ठीक हो गयी थी? लुटेरे बैठे हैं अस्पतालों में सब, पर आपको तो अक्ल से काम लेना चाहिये था”। एक ने कहा – “यह तो सब उन डॉक्टरों का करा धरा है, मुकदमा करना उन पर, छोड़ना नहीं उन्हें”। एक ने खुद को परम हितैषी दर्शाते हुए कहा – “आप वहाँ पर गये ही गलत, शुरू में ही एम्स (ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस) लेकर जाना था”। जब मैंने कहा कि उसी अस्पताल से वो मरी हुई अवस्था से एकदम ठीक होकर आयी थी, अब इस बात से क्या लेना-देना कि एम्स में क्यों नहीं ले गये, वैसे भी एम्स में मरीज को कहाँ दाखिला मिल पाता है आसानी से, तो भी वो साहब चुप नहीं हुए और बोले – “आप लोगों के साथ यही परेशानी है, एक पैसे की जगह दस रुपये खर्च करेंगे। कोशिश करते तो कोई न कोई पोलिटिकल लिंक निकल ही आता। भगवान ने पैसे दिये हैं तो क्या बरबाद करने को दिये हैं”? मन मार कर चुप होना पड़ा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह साहब यहाँ पर क्या करने आये हैं।

मुझे एक किस्सा याद आ गया जो आप लोगों ने भी शायद सुना होगा ऐसे हठी अवांछित शुभचिंतकों के बारे में:
एक साहब ने मिठाई की एक दुकान खोली। एक शुभचिंतक दुकान पर आये और उन साहब को दुकान खोलने पर बधाई देने के साथ-साथ सुझाव भी दे दिया कि दुकान पर बोर्ड तो लगाओ कि यहाँ पर ताज़ा मिठाई मिलती है। दुकानदार ने उनके सुझाव के अनुसार बोर्ड लगवा दिया। कुछ दिन बाद एक और शुभचिंतक आये और बोले – “यहाँ पर ताज़ा मिठाई मिलती है” लिखने की क्या ज़रूरत थी? जब दुकान यहाँ है तो यहीं पर तो मिठाई मिलेगी, बोर्ड से “यहाँ पर” शब्द हटवाओ। दुकानदार ने ऐसा ही किया अब बोर्ड पर लिखा था – “ताज़ा मिठाई मिलती है”। कुछ दिन बाद एक और शुभचिंतक पधारे और बोर्ड की ओर देख कर बोले- “ताज़ा” शब्द सन्देह पैदा करता है कि कुछ दाल में काला है, इस शब्द को हटवाओ। दुकानदार ने उनकी सलाह मान कर “ताज़ा” शब्द बोर्ड से हटवा दिया, अब बोर्ड पर लिखा था – “मिठाई मिलती है”। अगले दिन एक और साहब आये और बोले – यार मिठाई की दुकान पर मिठाई नहीं मिलेगी तो क्या व्हिस्की मिलेगी? “मिठाई” शब्द अनावश्यक है, इसे हटवाओ। दुकानदार ने “मिठाई” शब्द भी हटवा दिया। अब बोर्ड पर लिखा रह गया – “मिलती है”। कुछ दिन बाद एक अन्य शुभचिंतक पधारे और बोले – शोकेस में दिख रही है कि मिठाई है, मिठाई है तो मिलेगी भी, बोर्ड पर लिखने की क्या ज़रूरत है कि मिलती है, इसे मिटवाओ। शुभचिंतकों की बदौलत दुकान पर खाली बोर्ड टंगा रह गया। इतने पर ही बीत जाती तो खैर थी, अगले दिन एक और शुभचिंतक पधारे और बोले – लाला अच्छी खासी दुकान चल रही है और बोर्ड खाली टंगा हुआ है। इस पर लिखवाओ कि यहाँ पर ताज़ा मिठाई मिलती है।

हम क्यों आतुर रहते हैं, बिना मांगे अपनी सलाह देने के लिए? दूसरा किस परिस्थिति से गुजर रहा है, इससे हमें कोई लेना-देना नहीं है, बस बहाना चाहिये अपना ज्ञान झाड़ने के लिये और दूसरे को अज्ञानी बताने के लिए हमें। ऐसी ही शुभचिंतकों के आचरण की बदौलत लोग एकाकी होने लगे हैं। बचने लगे हैं अपना दर्द बांटने से, क्योंकि दर्द तो नहीं बंटेगा, उल्टे अनचाहे टीस और मिल जायेगी। सुहृदयता सदगुण है, लेकिन ऐसी सुहृदयता किस काम की जो दूसरे की पीड़ा बढ़ा दे। अगर आपका रुमाल साफ नहीं है तो उससे किसी के आँसू पोंछने के बजाय बेहतर है कि आप उसे अपनी जेब में ही रखे रहें।
- राजेन्द्र चौधरी

शनिवार, सितंबर 03, 2011

धार्मिक-अधार्मिकता

मेरे मन में कई बार यह विचार आता है कि मैं आखिर क्या हूँ। मैं जानता हूँ कि मैं एक मनुष्य हूँ, लेकिन प्रश्न यह नहीं है – प्रश्न है कि मैं अच्छा-बुरा, सच्चा-झूठा, समझदार-मूर्ख, गलत-सही, ईमानदार-बेइमान जो भी हूँ, ऐसा क्यों हूँ? मैं भी अपने जन्म के समय कोरे कागज़ जैसा मन लेकर पैदा हुआ होउँगा। फिर ये गुण-अवगुण मैंने कहाँ से और कैसे सीखे? स्वाभाविक है कि ये सब मैंने यहीं से, इस दुनिया से ही सीखे। अपने माँ-बाप से, अपने गुरुओं से, अपने स्कूल-कॉलेज से, अपने साथियों से, पुस्तकों से, अपने समाज से, परिवेश से सीखे। आप लोगों ने भी ऐसे ही सीखे होंगे। सभी लोग कोरे कागज़ जैसा मन लेकर पैदा होते हैं और सीखने-सिखाने की एक ही प्रक्रिया है, तो फिर हम सब लोगों के विचार अलग-अलग क्यों हैं? सभी माँ-बाप, सभी गुरुजन, सारे समाज और देश बताते हैं कि क्या अच्छा है और क्या बुरा, फिर भी हम लोग अलग-अलग गुणधर्म अपना लेते हैं। क्या हम लोगों की ग्राह्यता या हम लोगों के अन्दर लगे फिल्टर अलग-अलग होते हैं? सच्चाई यह है कि हम लोग सिर्फ वो ही नहीं सीखते जो बताया जाता है, बल्कि वो कहीं अधिक सीख लेते हैं जो हमें दिखता है। हमें बताया कुछ और जाता है, दिखता कुछ और है। हमें सिखायी जाती है धार्मिकता, दिखती चारों ओर अधार्मिकता है, तो हम धार्मिक-अधार्मिकता सीख लेते हैं। पाखंड सीख जाते हैं और फिर आजीवन पाखंड ही अपनाये रहते हैं, मुक्ति सम्भव नहीं हो पाती इससे।

इस पाखंड से मुक्ति होगी भी कैसे? हम सब जानते हैं कि ईर्ष्या व अभिमान अवगुण हैं, पतन के कारण हैं ये। सभी हमें बताते हैं कि इन अवगुणों से दूर रहना चाहिये, पर दूर कहाँ कर पाते हैं इन्हें हम जीवन भर। जन्म से हमें प्रतिस्पर्धा सिखायी जाती है। प्रतिस्पर्धा क्या है – किसी से आगे निकलने की होड़ ही तो है। कक्षा में दूसरों से अधिक अंक आने चाहियें, दूसरों से ऊँचे पद पर होना चाहिये, दूसरों से अधिक धन होना चाहिये, दूसरों से अधिक सुन्दर पत्नी होनी चाहिये, दूसरों से अधिक गुणवान बच्चे होने चाहियें – यही सब तो सिखाया जाता है हमें। आपके पास दूसरे से कम होगा तो आपको ईर्ष्या होगी, दूसरे से अधिक होगा तो अभिमान होगा – यह स्वाभाविक है। फिर ईर्ष्या या अभिमान से दूर रहना सिखाना पाखंड नहीं तो और क्या है?

जीवन कोई सरल रेखा नहीं है, जीवन एक वृत्त है। इसीलिए जीवनवृत्त (Life-cycle) शब्द का प्रयोग किया जाता है। एक वृत्त की परिधि पर घूम रहे हैं हम सब। कोई हम से आगे है, तो कोई हमसे पीछे, लेकिन सब चल रहे होते हैं वृत्त की परिधि पर ही। पहुँचते कहीं नहीं, सिर्फ परिधि पर ही घूमते रहते हैं। जो हमसे आगे है, हम उससे आगे निकलना चाहते हैं क्योंकि जलन होती है उसे अपने से आगे देख कर। जो हमसे पीछे है उसे देख कर अभिमान का भाव पैदा होता है। लेकिन कभी सोचा है कि इस वृत्त की परिधि पर चलने की बाध्यता क्यों है आखिर, हम कूद कर अलग क्यों नहीं हो जाते इस वृत्त की परिधि से? नहीं, चाह कर भी नहीं कूदने देता है हमें यह समाज, यह दुनिया जीवन वृत्त की इस परिधि से। हमारा छिटक कर अलग हो जाना इसे बर्दाश्त नहीं है, यह इसके स्थापित मूल्यों के विपरीत है। इसकी नज़र में यह अधर्म है। आँखें मूँद कर चक्कर लगाते रहना धार्मिकता है, जाग कर इस लीक से अलग हट जाना अधार्मिकता है! जो जाग गया है, जो चेतन अवस्था को प्राप्त हो गया, वो इसके लिए खतरा है। फिर कोशिश की जाती है उसकी आवाज़ बंद कर देने की। आवाज़ बंद हो गयी तो ठीक, वर्ना फिर उसे पत्थर बना कर पूजा जाने लगता है – देवता बना दिया जाता है उसे। किसी भी सूरत में जागृत मनुष्य को मनुष्य रहने देना बर्दाश्त नहीं होता दुनिया को।

मेरी एक कविता की कुछ पंक्तियां हैं:

“कितना सुगम, कितना सरल है आज के परिवेश में,
खुद को पत्थर का बना लेना और पुजते रहना।
बजाय इसके....
कि ज़िन्दगी के थपेड़ों से तार-तार होती चादर को,
संस्कारों का पैबन्द लगाकर,
अपने पैरों के बराबर करने के लिए जूझते रहना।
और इस जूझने और इस खींचातानी के बावज़ूद,
तुम्हें लगातार नंगे होने का अहसास सालता रहे।
और तुम्हारा ही रक्त पीकर जीने वाला कोई क्षणभंगुर परजीवी,
तुम्हारी इस शिकस्त, इस हार पर, व्यंग्यात्मक दृष्टि ड़ालता रहे।
सिर्फ जबड़े कस कर, मुट्ठियां भींच कर,
कोई अपने अन्दर उफनते आक्रोश को भला कब तक पी सकता है?
और इन दोमुँही मान्यताओं, चिंघाड़ती विवशताओं,
दम तोड़ती नैतिकताओं और इंसानियत की जलती चिताओं के बीच,
इंसान बन कर कोई कब तक जी सकता है”?

जो अचेतन है, मूर्छित है, वो जीवित होने पर भी जीवित कहाँ है? उसे लाख दुनिया धार्मिक कहे, मेरी नज़र में वह मरा हुआ है। मरे हुए का कोई धर्म नहीं होता। जीवित वो है जिसकी देह में आत्मा जीवित है। जो अपनी आत्मा की सुनता है, वो ज़िन्दा है। मैं सिर्फ देह नहीं, एक आत्मा हूँ। मैं जीवित आत्मा का वाहक बन कर जीना चाहता हूँ – दुनिया के पैमाने पर मैं धार्मिक हूँ या अधार्मिक, मुझे उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं अपनी देह और आत्मा में सामंजस्य रखना चाहता हूँ। आपकी नज़र में अगर यह ज़िद है, तो ज़िद ही सही। मुझे कृपया अपनी ज़िद के साथ रहने दें। आप अपनी मान्यताओं के साथ जियें, मुझे कोई आपत्ति नहीं है।
- राजेन्द्र चौधरी

गुरुवार, सितंबर 01, 2011

पेड़ और ज़मीन

यह बात आज से करीब पचास साल पहले की है। उस समय हम लोग उत्तर प्रदेश के हापुड शहर से कोई दस किलोमीटर दूर एक गाँव में रहते थे। पिताजी जब तक नौकरी में रहे, उन्होंने अपना निवास शहर के बाहरी इलाके में या शहर के पास स्थित किसी गाँव में रखा ताकि उनकी सीमित आय के बावजूद हम भाई-बहनों की पढ़ाई ठीक से हो सके। मैं छठी क्लास में आया था। गाँव में पाँचवीं कक्षा तक का प्राइमरी स्कूल था, तो छठी कक्षा में मेरा दाखिला हापुड शहर के तत्कालीन कॉमर्शियल इंटर कॉलेज में कराया गया। उस गाँव से हापुड तक यूँ तो बसें भी जाती थीं, लेकिन सभी लड़के अक्सर ट्रेन से कॉलेज आते-जाते थे। ट्रेन से आना-जाना सस्ता पड़ता था क्योंकि मासिक पास बन जाता था। खैर, नौ-दस साल की उम्र में जिस दिन मैं पहली बार अन्य लड़कों के साथ ट्रेन से अपने स्कूल गया, वो मेरे जीवन की पहली रेल यात्रा थी। मैं बड़ा खुश था ट्रेन में बैठ कर और खिड़की से बाहर का नज़ारा देख रहा था। ट्रेन से सफर करते हुए मुझे बाहर के पेड़ पीछे की ओर भागते हुए दिखायी दिये। मैंने जिज्ञासावश आनन्द नाम के दसवीं कक्षा में पढ़ रहे एक छात्र से इसका कारण जानना चाहा। उसने जवाब दिया कि पेड़ पीछे कि तरफ इसलिए भागते नज़र आ रहे हैं क्योंकि हमारी ट्रेन आगे की ओर जा रही है। बालमन की जिज्ञासा शांत तो नहीं हुई लेकिन उस लड़के से और आगे प्रश्न करने की उस समय हिम्मत नहीं जुटा पाया मैं।

दोपहर बाद जब मैं स्कूल से वापस घर लौटा तो देखा कि मेरे मामाजी घर पर आये हुए थे। मेरे मामाजी मुझे बहुत प्यार करते थे और मैं उनसे काफी खुला हुआ भी था। खाना खाकर मामाजी से बातचीत करते हुए मैंने अपना वही प्रश्न मामाजी के सामने रखा कि पेड़ पीछे की ओर क्यों भागते दिखायी दिये थे। मामाजी ने मुझसे कहा – “पेड़ अपनी जगह खड़े थे, तुम चल रहे थे। पेड़ अपनी ज़मीन नहीं छोड़ते, तुम अपनी ज़मीन छोड़ कर ट्रेन के साथ आगे जा रहे थे। पेड़ स्थिर थे, तुम आगे की दिशा में गतिवान थे। इसलिए तुम्हें ऐसा लगा कि पेड़ पीछे की ओर जा रहे हैं”। बात फिर भी पूरी तरह से समझ में नहीं आयी। बाद में, नौवीं या दसवीं कक्षा में जब भौतिक विज्ञान में सापेक्षता का नियम पढ़ा तो अपने प्रश्न का उत्तर समझ आ गया, लेकिन मामाजी के वे शब्द कि पेड़ अपनी ज़मीन नहीं छोड़ते, पता नहीं क्यों मेरे मन में गहरे उतर गये। मामाजी कब के दुनिया से रुखसत हो गये लेकिन आज पचास साल बाद भी उनके वे शब्द मुझे हूबहू याद हैं और इतनी ज़िन्दगी जी लेने पर अब मैं सोचता हूँ कि पेड़ अपनी ज़मीन नहीं छोड़ते या ज़मीन पेड़ों को नहीं छोड़ती?

दुनिया आज सिमट गयी है। यात्राएं और सिर्फ यात्राएं नियति हो गयी हैं हर किसी के जीवन की। नौकरी या कारोबार के लिए देश में, विदेश में हर कोई जीवन की ट्रेन में सवार है। दूरियां नापने में ज़िन्दगी बीत जाती है लेकिन फासले हैं कि खत्म ही नहीं होते। उम्र बढ़ने के साथ हम सब पेड़ की तरह ही तो हो जाते हैं। ज़िन्दगी की ट्रेन आगे की ओर दौड़ी चली जाती है, पेड़ पीछे की ओर दौड लगा रहे प्रतीत होते हैं। पैरों तले से ज़मीन खिसकती दिखायी देती है। ज़मीन भी अब टिकाऊ कहाँ रही, बिकाऊ हो गयी है। टिकाऊ रह गयी है तो बस ज़मीन से जुड़े रहने की टीस।

यात्रा जीवन की शाश्वत प्रक्रिया है। हम आगे जायेंगे तो कुछ पीछे छूटेगा भी। जो छूटेगा वो अपना ही अंश होगा। अपना अंश छूटेगा तो पीड़ा भी होगी लेकिन चलना तो आगे ही है। विगत एक टीस बन कर रह जाता है, ज़िन्दगी वर्तमान से भविष्य के स्टेशनों के बीच दौड़ी चली जाती है। नज़रें भविष्य पर टिकी रहती हैं, दिमाग सापेक्षता का नियम पढ़ रहा होता है, दिल पीछे छूटते पेड़ों में अटका होता है; एक ही शरीर के अंग भिन्न-भिन्न गतिविधियों में लगे रहते हैं, निर्मोही ज़िन्दगी मुट्ठी से रेत की तरह निकल जाती है।
- राजेन्द्र चौधरी