रविवार, नवंबर 25, 2012

 पिताजी की स्मृति को समर्पित 


राहुल एक जवान लड़का था जो अपने पिता के साथ रहता था। उसके पिता चाहते थे कि वो पियानो बजाना सीखे क्योंकि उनकी तीव्र लालसा थी कि वह अपने बेटे को पियानो बजाता हुआ सुनें। पिता ने अपने बेटे को पियानो बजाना सीखने के लिए एक म्यूजिक टीचर के यहाँ भेजा। लेकिन राहुल की संगीत के प्रति रुचि नहीं थी, इसलिए उसकी सीखने की गति धीमी थी। टीचर राहुल की इस अरुचि को जान गयी थी, इसलिए उसे राहुल से कोई खास उम्मीद नहीं थी। लेकिन उसके पिता इस बारे में बहुत उत्साही थे और वो उसे हर रविवार टीचर के यहाँ पर पियानो सीखने भेजते थे।

एक दिन राहुल ने पियानो सीखने के लिए जाना बंद कर दिया। टीचर ने सोचा कि उसने पियानो सीखना छोड़ दिया और इस बात को लेकर उसे खुशी भी हुई क्योंकि उसे उम्मीद नहीं थी कि राहुल कभी अच्छा पियानो बजाना सीख सकेगा।

कुछ दिनों बाद पियानो टीचर को शहर में एक पियानो कंसर्ट आयोजित करने का प्रस्ताव मिला। उसने अपने छात्रों और उनके अभिभावकों को तथा पियानो सुनने में रुचि रखने वाले संगीत-प्रेमियों  को उस कंसर्ट में आमंत्रित करने के लिए पत्र और सर्कुलर जारी किये। अचानक उसे एक दिन राहुल का फोन आया और उसने टीचर से उस कंसर्ट में भाग लेने की अनुमति मांगी। टीचर ने राहुल से कहा, “तुम्हें ठीक से पियानो बजाना नहीं आता था और अब तो तुम मेरे छात्र भी नहीं रहे क्योंकि तुमने पियानो की कक्षा में आना बंद कर दिया है”। राहुल ने बहुत अनुनय-विनय की – “मैडम, मुझे बस एक मौका दें और मेरा विश्वास करें कि मेरी वजह से आपको शर्मिन्दा नहीं होना पड़ेगा”। आखिरकार, टीचर मान गयीं और उन्होंने उसका नाम कार्यक्रम की सूची में सबसे अंत में रखा कि शायद आखिरी क्षणों में वह अपना विचार बदल ले।

जब कंसर्ट का दिन आया तो टीचर यह देख कर बेहद खुश हुई कि हॉल श्रोताओं से खचाखच भरा हुआ था। हर बच्चे ने अपनी ओर से अपनी श्रेष्ठ प्रस्तुति दी और हॉल में बराबर तालियों की आवाज़ गूँजती रही। अंत में, राहुल का नम्बर आया और उसका नाम पुकारा गया। वह स्टेज पर आया, तो टीचर उसे देखकर बहुत चिंतित और आशंकित हुई क्योंकि वह उदास दिख रहा था,  उसने ढंग के कपड़े भी नहीं पहने हुए थे, यहाँ तक कि अपने बाल तक ठीक से नहीं संवारे हुए थे। टीचर वास्तव में बेहद चिंतित हो उठी क्योंकि राहुल का प्रदर्शन अब तक के इस अत्यंत शानदार कार्यक्रम को मटियामेट कर सकता था।

जैसे ही राहुल ने पियानो बजाना शुरू किया तो हॉल में सन्नाटा छा गया और सारे उपस्थित श्रोता उस युवा पियानो कलाकार का कौशल देख कर मंत्रमुग्ध हो गये। वास्तव में, राहुल ने उस दिन सर्वश्रेष्ठ पियानो बजाया। दर्शक झूम उठे और पूरा हॉल तालियों की करतल-ध्वनि से काफी देर तक गूँजता रहा। अंत में टीचर ने और समस्त दर्शकों ने खड़े होकर तालियां  बजा कर राहुल को उसके इस प्रदर्शन के लिए शाबाशी दी और उसका अभिवादन किया। दर्शकों की उपस्थित भीड़ ने राहुल से पूछा कि अनुभवी न होने के बावजूद वह इतना शानदार पियानो कैसे बजा पाया। राहुल ने माइक हाथ में लिया और कहा, “मैं पियानो की कक्षाओं में नहीं जा पाता था क्योंकि मेरे पिता को कैंसर था और वो बहुत बीमार थे। आज सुबह ही उनका देहांत हुआ है और मैं चाहता था कि वो मुझे पियानो बजाता हुआ सुनें। आपको मालूम है, आज ही पहली बार वो मुझे पियानो बजाता हुआ सुन पाये हैं क्योंकि जब वो जीवित थे तो बहरे थे, वो सुन नहीं पाते थे। मैं जानता हूँ, अब वो मुझे सुन रहे हैं। इसलिए उनके लिए मुझे अपना सर्वोत्तम प्रदर्शन तो करना ही था!”

जब आपमें किसी काम को करने का ज़ुनून हो, और आपके पास उसे करने का प्रबल कारण भी हो, तो विश्वास कीजिये, दुनिया की कोई भी ताकत आपको अपना सर्वश्रेष्ठ देने से नहीं रोक पायेगी। भले ही आपके पास प्रतिभा न हो, लेकिन अगर आपके पास किसी काम को करने का पर्याप्त कारण है तो ईश्वर आपको उस काम को करने की क्षमता प्रदान कर देता है।

यह कहानी मैंने वर्षों पहले किसी अंग्रेज़ी पुस्तक में पढ़ी थी और तब से मेरे अवचेतन मन में यह कहीं जीवित थी। इस कहानी के पात्र भले ही काल्पनिक हों लेकिन यह कहानी जीवंत है, तभी तो मुझे आज तक विस्मृत नहीं हुई। आप यकीन करें या न करें, मेरे अन्दर भी एक राहुल ज़िन्दा है जो पिताजी का हाथ सर पर न रहने के बाद अब उनकी स्मृति और उनके विश्वास के प्रति स्वयं को कहीं अधिक उत्तरदायी महसूस करता है। वो जीवित होते तो मैं अपनी किसी गल्ती के लिए उनसे माफ़ी भी मांग सकता था, अब तो माफ़ी की गुंजाइश भी नहीं रही, उनकी स्मृतियों और विश्वास को मैं शर्मसार कैसे कर सकता हूँ?

राहुल की तरह मैं भी जानता हूँ कि भौतिक रूप से विदा हो जाने के बाद भी पिताजी मुझे देख रहे हैं, सुन रहे हैं। इसलिए एक बात जो मैं उनके जीते जी तो उनसे कभी नहीं कह पाया, आज इस लेख के माध्यम से जी भर कर उनसे कहना चाहता हूँ कि मैं उन्हें बहुत प्यार करता था, करता हूँ और आजीवन करता रहूँगा और वो मेरी ऊर्जा के केन्द्र के रूप में हमेशा मुझमें जीवित रहेंगे।

- राजेन्द्र चौधरी

शुक्रवार, अप्रैल 13, 2012

कभी-कभी

एक अंतराल के बाद आज फिर आप लोगों से मुखातिब हूँ। कभी-कभी व्यस्ताओं में हम स्वयं की ही सबसे ज्यादा अनदेखी करते हैं। ज़िन्दगी भी अजीब है:

कभी-कभी हमें यह सोचने के लिए मजबूर कर देती है कि ऐसा क्यूँ हुआ, कैसे हुआ, और कभी-कभी क्या हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ, अब क्या होगा, कैसे होगा, न सोच कर यह सोचने के लिए मजबूर कर देती है कि जो हुआ...हुआ...जो होना है...होगा।

कभी-कभी लोग महसूस कुछ करते हैं, कहते कुछ और हैं, और उनका मतलब कुछ और होता है; और कभी-कभी लोग बिना कहे ही सब कुछ कह देते हैं।

कभी-कभी एक तस्वीर हज़ारों शब्द बोल जाती है; और कभी-कभी एक शब्द दिमाग में हज़ारों तस्वीरें उभार देता है।

कभी-कभी हम उन्हीं लोगों से दूर होना चाहते हैं जिन्हें हम प्यार करते हैं, इसलिए नहीं कि वे हमारी अहमियत जान सकें बल्कि इसलिए कि हम अपनी अहमियत जान सकें।

कभी-कभी हम औरों को प्राथमिकतायें निर्धारित करना सिखाते हैं; और कभी-कभी अपनी प्राथमिकतायें सीधी रखने के लिए हमें अपने ही बनाये हुए नियमों को झुकाना पड़ता है।

कभी-कभी उन चीजों को भूल जाना आसान होता है जिन्हें हम याद रखना चाहते हैं, और जिन चीजों को हम भूलना नहीं चाहते उन्हें कभी-कभी याद रख पाना मुश्किल हो जाता है।

कभी-कभी हँसी दिल का दर्द भुला देती है; और कभी-कभी किसी की हँसी ही दिल तोड़ देती है।

कभी-कभी दुनिया की रफ्तार अपनी रफ्तार के मुकाबले बहुत तेज़ लगती है; और कभी-कभी तेज़ चल रही दुनिया भी धीमी महसूस होती है।

कभी-कभी ज़िन्दगी एक सपना लगती है; और कभी-कभी सपने भी सपने जैसे नहीं लगते।

कभी-कभी दिमाग़ में सिर्फ घर जाने की सूझती है; और कभी-कभी ज़िन्दगी में घर ही हाथ नहीं आता।

कभी-कभी मन करता है कि कुछ देर के लिए अकेले हो जायें; और कभी-कभी कुछ देर का अकेलापन ही झेलना मुश्किल हो जाता है।

कभी-कभी मुस्कान के मुकाबले आँसू खास हो जाते हैं क्योंकि मुस्कान किसी को भी दी जा सकती है, आँसू उन लोगों के लिए होते हैं जिन्हें हम खोना नहीं चाहते; और कभी-कभी ज़िन्दगी एक मुस्कान को तरस जाती है।

कभी-कभी लगता है बरसों बरस से सब कुछ वैसा ही है, कुछ नहीं बदला; और कभी-कभी पीछे मुड़ कर देखने पर लगता है सब कुछ बदल गया, कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा।

कभी-कभी किसी से बहुत कुछ कहने को मन करता है; और कभी-कभी वह व्यक्ति जब मिलता है तो शब्द खो जाते हैं, कुछ कहने को नहीं रहता।

ज़िन्दगी वैसे तो “हेलो” और “गुडवाई” के बीच का ही अंतराल है, लेकिन कभी-कभी “गुडबाई” कह कर जाने वाला वापस “हेलो” कहने के लिए नहीं आ पाता। इसलिए बेहतर यही है कि हम “हेलो” और “गुडवाई” के बीच के क्षणों को जी भर कर जी लें।
- राजेन्द्र चौधरी

शनिवार, जनवरी 21, 2012

प्लीज कहो न!

जब हम पहली बार मिले थे, तुम 18 वर्ष की थीं। मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुम्हारा चेहरा शर्म से लाल हो गया था...तुमने सिर झुका लिया था और तुम मुस्कुरा दीं थीं...

जब हमारी शादी हुई थी, तुम 21 वर्ष की थीं। मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने मेरे कँधे पर अपना सिर रख दिया था और मेरा हाथ थाम लिया था...मानो तुम्हें डर था कि मैं कहीं गायब न हो जाऊँ...

जब तुम 24 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने नाश्ता बनाया और मुझे नाश्ता देते समय मेरा माथा चूमते हुए कहा, “ज़ल्दी नाश्ता करो, तुम्हें देर हो रही है...”

जब तुम 27 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने कहा, “अगर तुम वाकई मुझे प्यार करते हो, तो काम खत्म करके ऑफिस से ज़ल्दी आना...”

जब तुम 30 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने डाइनिंग टेबल साफ करते हुए कहा, “ठीक है, लेकिन इस वक़्त बेटे को मैथ्स का रिविजन कराओ प्लीज...”

जब तुम 33 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुम स्वेटर बुन रही थीं और मेरी तरफ देख कर हँस पड़ी थीं...

जब तुम 36 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुम सुन कर बस धीरे से मुस्कुरा दी थीं...

जब तुम 40 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने कहा, “हमारा बेटा शनिवार को घर आ रहा है; चलो बाज़ार से उसके लिए कुछ खरीद कर लाते हैं...”

जब तुम 46 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने कहा, “हमारे बेटे की अगले महीने शादी है, तुम्हें बहुत तैयारियां करनी हैं...”

जब तुम 50 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने कहा, “एक अच्छी खबर है! ईश्वर ने चाहा तो हम ज़ल्दी ही दादा-दादी बनने वाले हैं...”

जब तुम 55 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने मुस्कुरा कर कहा, “अब हम दादा-दादी बन चुके हैं और अगले ही महीने घर में एक और पोता या पोती के आने की उम्मीद है...”

आज जब तुम 59 वर्ष की हो, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने कहा, “बहुत सर्दी है, जरा मुझे गर्म पानी की बोतल भर कर देना प्लीज...”

मैं अभी भी इंतज़ार में हूँ कि तुम कहो “आई लव यू...”
मुझे यह भी नहीं पता कि उस क्षण मेरी क्या प्रतिक्रिया होगी, हाँ इतना ज़रूर जानता हूँ कि तुम्हारा ऐसा कहना मेरी आँखें नम कर जायेगा...

इससे पहले कि बहुत देर हो जाये, प्लीज कहो न “आई लव यू...”

यह मेरी कहानी थी। मैं नहीं चाहता कि आपमें से कोई भी इसे दोहराये। हम बाहरी दुनिया से कितनी शिष्टता और शालीनता से पेश आते हैं, फिर अपनों के साथ अपनेपन के शब्द क्यों नहीं बोलते। आपसे “आई लव यू” सुनने के वे सच्चे अधिकारी हैं। आपके रहने या न रहने से वे ही सबसे अधिक प्रभावित होंगे। देरी मत कीजिये, हो सकता है कल आप कहें और सुनने वाला न रहे।
- राजेन्द्र चौधरी

शनिवार, जनवरी 14, 2012

यह जो घर है...

यह जो घर है...
हाँ यही ‘संस्कार’ नाम का जो घर है हमारा
मकान की नज़रों से देखो तो मामूली सा, छोटा सा
वक़्त के साथ कहीं कहीं से बदरंग, कहीं से उघड़ा सा
हाँ यही...जिसमें अब मैं और मेरी पत्नी ही रहते हैं
यह और बात है कि इसके कोने कोने में
न जाने कितनी यादों के झरने बहते हैं
अभी तक साँस लेती है इसकी नींव में रखी
वो पहली गीली ईंट जो मेरे पिताजी ने रखी थी
और मंत्रोच्चार के बीच अम्मा की आँखों से
खुशी का टपका वो कीमती आँसू, आँसू कहाँ था
उस नींव की ईंट पर उनके आशीष का अभिषेक था
उस आँसू से ही ‘संस्कार’ नाम उपजा था
यह मेरा मकान कहाँ था...
यह तो उनकी वंश बेल का घर था, प्यार का अतिरेक था
इसमें आज भी ज़िन्दा है उनके बनाये मीठे पुओं की खुश्बू
उनके आँचल की हवा आज भी इसमें सरसराती है
मैं सर्दियों में जब भी ऊनी कुर्ता और जैकेट पहनता हूँ
बड़े अदब से, बड़े सलीके से पहनता हूँ...
उनमें पिताजी के अनुशासन की याद आती है
गर्मियों में आज भी इसकी छत पर
मेरे बहनोई, मेरे भाई की यादें गुनगुनाती हैं
वो अब शायद सितारों को अपने किस्से सुनाती हैं
इसका बांयी ओर वाला बेडरूम आज भी
चाचाजी का कमरा कहलाता है
यादें परलोक नहीं जातीं, आदमी चला जाता है
इसकी बैठक के पर्दे जब पुराने पड़ गये
तो मेरी पत्नी ने उन्हें फेंका नहीं सहेज के रखा है
वो मेरी छोटी बहन ने लगाये थे
उसके प्यार को संदूक में समेट के रखा है
इस घर की छत, इसकी दीवारें, इसका आँगन
अपने आप में एक पूरा वंश सम्भाले हैं
इन्होंने सिर्फ इस घर का बेटा ही नहीं पाला
इस घर का भांजा, भतीजी, भतीजे पाले हैं
वक़्त के साथ आज सब आगे बढ़ गये हैं
आज इसमें बस मैं और मेरी पत्नी ही रह गये हैं
सबके अपने ठिकाने हैं, सबकी अपनी मजबूरियां हैं
न चाह कर भी फासले हैं, न चाह कर भी दूरियां हैं
हम दोनों की उम्र भी पक गयी, हम भी दादा-दादी हो गये
बेटा बम्बई जा बसा, बच्चे बम्बई वाले हो गये
साल में एक आध बार आते हैं, घर चहक उठता है
अम्मा-पिताजी के संस्कार का चमन महक उठता है
हम दोनों भी हर साल दो बार बच्चों के पास जाते हैं
दोनों पोतों के साथ बुढापे में अपना बचपन बिताते हैं
खुदा की मेहर है, सब कुछ है, यूँ तो मलाल कुछ भी नहीं
प्यार है, एका है, इज़्ज़त है, खुशी है, बदहाल कुछ भी नहीं
पर कुछ दिनों से अजीब दुविधा है, जानता हूँ पर कह नहीं पाता
न जाने क्यूं मैं अब कहीं भी कुछ हफ्तों से ज्यादा रुक नहीं पाता
जब घर वापस आता हूँ तो इसकी दीवारें नाराज़ लगती हैं
अम्मा पिताजी की टंग़ी तस्वीरें उदास लगती हैं
धूल बंद दरवाज़े से भी जाने कैसे आकर उनपे जम जाती है
जब भी वापस आता हूँ दीवार पे लगी घड़ी थम जाती है
मैं अम्मा पिताजी की तस्वीरों पे चढ़ी धूल से घबराता हूँ
मैं बंद घड़ी देख कर अन्दर से डर जाता हूँ
मुझे धूल चढ़ी तस्वीरें, अँधे आइने, बंद घड़ी,
कोनों के जाले, सूखे पौधे बहुत ड़राते हैं
मुझसे देखा नहीं जाता घर का लहज़ा उखड़ता हुआ
मेरे ही सामने रिश्तों के ख्वाब बिखरे हैं
मैंने बहुत करीब से देखा है पुश्तैनी घर उजड़ता हुआ
यह घर मुझसे बातें करता है, मेरे साथ मुस्कुराता है
थक जाऊँ तो थपकी देकर सुलाता है, सबेरे फिर उठाता है
इसमें अम्मा पिताजी मुझको देखते से लगते हैं
मानो मैं नहीं होता, तो वो मेरी राह तकते हैं
कहने को तो इसमें...
बस अब मैं और मेरी पत्नी ही रहते हैं
पर हम दोनों ही इस घर के मकान हो जाने से ड़रते हैं
यह जो मेरा, तुम्हारा, सबका घर है हमारा
हाँ यही ‘संस्कार’ नाम का जो घर है हमारा॥
- राजेन्द्र चौधरी