बुधवार, नवंबर 30, 2011

काँच का जार और दो कप चाय

आज के इस दौर में मैं देखता हूँ कि खास तौर से युवा लोग सब कुछ एक साथ, और जल्दी से पा लेने की इच्छा रखते हैं। उन्हें काम के लिए दिन में चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं। इस प्रक्रिया में न चाहते हुए भी उनका स्वास्थ्य और परिवार उपेक्षित होने लगता है, तो मुझे यह बोध कथा अक्सर याद आती है। इस कथा को मैंने पहली बार अपने पारिवारिक चिकित्सक की क्लिनिक पर लगे अंग्रेज़ी के एक पोस्टर के रूप में पढ़ा था। पढ़ते ही मुझे यह इतनी भायी कि कंठस्थ हो गयी। इसलिए मैंने सोचा कि इसे हिन्दी में आपके साथ बांटना उचित रहेगा। शायद समय रहते यह आपको अपने जीवन की प्राथमिकतायें निर्धारित करना सिखा सके। सम्भव है कि आपने इसे पहले कहीं पढ़ा हो, लेकिन मेरा मानना है कि अच्छी बातें दोहरायी भी जा सकती हैं। इसलिए इसे कृपया दोबारा पढ़ें।

“दर्शनशास्त्र के एक प्रोफेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि आज वे जीवन का एक बहुत महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाने वाले हैं। उन्होंने अपने साथ लाया हुआ काँच का एक जार मेज पर रखा तथा वो उसमें टेबिल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें और एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची।

उन्होंने छात्रों से पूछा, “क्या जार पूरा भर गया?” छात्र एक स्वर में बोले, “जी हाँ”। फिर प्रोफेसर साहब ने छोटे-छोटे कंकर उसमें डालने शुरू किये। उन्होंने जार को धीरे-धीरे हिलाया तो जहाँ जहाँ जगह थी उसमें वे कंकर समा गये।

फिर उन्होंने पूछा, “अब जार भर गया?” छात्रों ने एक बार फिर “हाँ” कहा। उसके बात उन्होंने अपने साथ लायी एक थैली खोली और उसमें से रेत निकाल कर उस जार में डालना शुरू कर दिया। वो रेत भी उस जार में जहाँ सम्भव था, वहाँ बैठ गया। अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे।

प्रोफेसर साहब ने पूछा, “क्यों, अब तो यह जार पूरा भर गया, ना?” सभी छात्र बोले, “हाँ, अब तो पूरा भर गया”। तो उन्होंने मेज के नीचे से चाय भरे हुए दो कप निकाले और उनकी चाय जार में उँडेलना शुरू कर दी। चाय भी जार में पड़ी रेत के द्वारा सोख ली गयी।

प्रोफेसर बोले कि हाँ, अब यह जार पूरा भर गया है। अब इसमें कुछ भी और नहीं आ सकता है। इसके बाद उन्होंने गम्भीर लहज़े में समझाना शुरू किया – “इस काँच के जार को तुम लोग अपना जीवन समझो.... टेबिल टेनिस की गेंदें जीवन की सबसे महत्वपूर्ण चीजें जैसे ईश्वर, परिवार, बच्चे, स्वास्थ्य, व तुम्हारे शौक आदि हैं.... छोटे कंकर तुम्हारा कैरियर, नौकरी, बड़ा मकान, कार आदि तुम्हारी महत्वाकांक्षायें हैं.... रेत का मतलब है छोटी-छोटी बेकार सी बातें, मनमुटाव, स्पर्धा, आपसी झगड़े आदि।

.... अब यदि तुमने जार में सबसे पहले रेत भरा होता, तो टेबिल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिए जगह नहीं बचती, या कंकर भर दिये होते तो गेंदे नहीं भर पाते.... रेत ज़रूर आ सकती थी। ठीक यही बात जीवन पर भी लागू होती है। यदि तुम छोटी-छोटी बातों के पीछे पड़े रहोगे, उसमें अपनी ऊर्जा नष्ट करते रहोगे, तो तुम्हारे पास महत्वपूर्ण चीजों के लिए न तो समय रहेगा और न ऊर्जा बचेगी।

तुम्हारे जीवन और तुम्हारे आत्म-सुख के लिए क्या ज़रूरी है, यह तुम्हें ही तय करना है। टेबिल टेनिस की गेंदों की फिक्र पहले करो, वे ही महत्वपूर्ण हैं। पहले उस पर ध्यान रखो जो मुख्य है, महत्वपूर्ण है, ज़रूरी है। बाकी सब तो रेत है”।

छात्र बड़े ध्यान से सुन रहे थे.... अचानक एक ने पूछा, “सर! लेकिन आपने यह नहीं बताया कि चाय के दो कप क्या हैं?” प्रोफेसर मुस्कुराये और बोले, “मैं सोच ही रहा था कि अभी तक किसी ने यह सवाल क्यों नहीं किया? इसका जवाब यह है.... जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट क्यों न लगे, लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह उसमें हमेशा होनी चाहिये”।

हमारे जीवन में अच्छा-बुरा जो भी होता है, वो अनापेक्षित दुर्घटनाओं को छोड़ दें, तो अधिकांशतया हमारे द्वारा निर्धारित की गयी प्राथमिकताओं और उपेक्षित दायित्वों का ही परिणाम होता है। अप्रत्याशित घटनाओं के अलावा अपनी शेष नियति हम खुद निर्धारित करते हैं। हमारी साँसें और ऊर्जा निश्चित हैं - उन्हें कैसे खर्च करना है, यह खुद हम पर निर्भर करता है।
- राजेन्द्र चौधरी

मंगलवार, नवंबर 22, 2011

श्रेष्ठता और अपेक्षा

सौभाग्य से छात्र-जीवन में मेरी गिनती सदैव अपने स्कूल या कॉलेज के मेधावी छात्रों में रही। मुझे अपने शिक्षकों से बहुत स्नेह और प्रोत्साहन मिला। तब शिक्षक अपनी भूमिका सिर्फ कक्षा में अध्यापन तक ही तक नहीं मानते थे बल्कि छात्रों के आचरण और उनके व्यक्तित्व निर्माण के प्रति भी वे अपना दायित्व समझते थे। उन दिनों गल्ती पर शिक्षक छात्र की साधिकार पिटाई कर देते थे और माँ-बाप भी शिक्षक की उस दंडात्मक कार्यवाही को उचित मानते थे। यहाँ तक कि पता चलने पर दो-चार थप्पड़ वे भी रसीद कर देते थे। मैं अपने पूरे छात्र-जीवन में सिर्फ एक बार पिटा हूँ और उस पिटाई को मैं न तो कभी भूल पाया और न ही कभी भूलना चाहूँगा क्योंकि उस पिटाई ने जो मुझे सिखाया है वो अन्यथा मैं शायद कभी नहीं सीख पाता।

बात सन 1965 की है जब मैं कक्षा नौ में पढ़ता था। मेरे विषय हिन्दी, अँग्रेज़ी, गणित, विज्ञान और कला थे। एक तीस-पैंतीस वर्ष की आयु के आकर्षक व्यक्तित्व वाले शिक्षक नरेन्द्र कुमार जी, जो वॉलीबॉल के बहुत अच्छे खिलाड़ी और कॉलेज के चीफ प्रोक्टर भी थे, हमें विज्ञान पढ़ाते थे। मुझे उनका व्यक्तित्व अच्छा लगता था और वो भी मुझसे बहुत स्नेह करते थे। कक्षा नौ में विज्ञान विषय की दो शाखायें हो गयीं थीं – भौतिक शास्त्र यानि फ़िजिक्स और रसायन शास्त्र यानि केमिस्ट्री। केमिस्ट्री में नरेन्द्र जी ने हमें पदार्थों के रसायनिक सूत्र पढ़ाये और एक दिन अचानक उन्होंने टेस्ट लेने का निर्णय किया जिसमें उन्होंने बीस पदाथों के नाम ब्लैकबोर्ड पर लिखे और हमसे उनके सूत्र यानि रसायनिक फॉर्मुले लिखने को कहा – जैसेकि ऑक्सीजन का O2, कार्बनडाईऑक्साइड का CO2, पानी का H2O, आदि। मुझे सारे सूत्र मालूम थे, इसलिए मैंने निर्धारित समय से पहले ही सब लिख कर अपना टेस्ट पेपर उन्हें सौंप दिया। उन्होंने पीरियड खत्म होने तक मुझे कक्षा से बाहर जाने का आदेश दिया और मैं बाहर चला गया।

अगले दिन वो सारे टेस्ट पेपर जाँच कर अपने साथ में लाये और उनके हाथ में एक छड़ी भी थी। एक-एक करके वो छात्र का नाम पुकारते, उसके नम्बर बताते और जितनी गल्तियां होतीं उससे हाथ आगे कराकर उतनी ही छड़ियां उसे रसीद कर देते। सभी छात्र पिटे लेकिन मैं निश्चिंत था क्योंकि मैंने तो सारे सूत्र ठीक लिखे थे। सबसे अंत में मेरा नाम पुकारा गया और बिना मेरे नम्बर बताये मुझसे अपना हाथ आगे करने के लिए कहा गया। मैं अवाक देखता रहा और अपना हाथ आगे कर दिया। मेरे हाथ पर बिना गिने उन्होंने ताबड़तोड़ छडियां बरसानी शुरू कर दीं। मेरी आँखों में आँसू आ गये। उन्होंने पिटाई बंद करके चुपचाप मेरा टेस्ट पेपर मुझे दे दिया और वापस सीट पर बैठने के लिए कहा। मैंने पेपर देखा, मुझे दस में से साढ़े नौ नम्बर मिले थे। मेरा हाइड्रॉक्साइड का फॉर्मुला गलत था। मैंने OH की जगह गल्ती से Oh लिख दिया था। मुझे बहुत गुस्सा आया क्योंकि मैंने कम से कम सात-आठ छड़ियां खाईं थीं। मैंने सोचा कि मेरे साथी सोच रहे होंगे कि मैंने इतनी गल्तियां की होंगी क्योंकि उन्होंने मेरे नम्बर नहीं बताये थे। उन दिनों प्रतिवाद की गुंजाइश नहीं होती थी, इसलिए किसी तरह मन मार कर कक्षा में बैठा रहा। किसी से कोई बात नहीं की मैंने। मुझे टीचर पर बेहद गुस्सा था।

घर पर अम्मा से तो नहीं छुपा पाया पर पिताजी से हाथ छुपा कर रहना ही बेहतर समझा। अगले दिन मैंने नरेन्द्र जी का पीरियड छोड़ दिया और बाहर फील्ड में एक पेड़ के नीचे बैठ गया। उन्होंने मेरे बारे में कक्षा में बस पूछा भर, लेकिन पीरियड के बाद उनकी नज़र मुझ पर पड़ गयी। अगले दिन मैं फिर उनका पीरियड छोड़ कर बाहर निकल गया। वो क्लास से बाहर निकले, सीधे फील्ड पर मेरे पास आये और लगभग डाँटते हुए मुझे क्लास में चलने के लिए कहा। मैं चुपचाप क्लास में आकर बैठ गया। पीरियड खत्म होने पर उन्होंने मुझसे लैब में आकर उनसे मिलने के लिए कहा।

मैं लैब में पहुँचा तो उन्होंने मुझे साथ वाली कुर्सी पर बैठने के लिए कहा और बोले, “मैं जानता हूँ तुम मुझसे नाराज़ हो क्योंकि मैंने तुम्हारी सिर्फ एक, वह भी छोटी सी गल्ती होने के बावजूद इतनी पिटाई की लेकिन मुझे कोई अफसोस नहीं है क्योंकि मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ। दूसरों के लिए निर्धारित पैमाने तुम्हारे लिए नहीं है, मैं तुम्हें उस पैमाने से नहीं नाप सकता क्योंकि मैं तुम्हें अँधों में काना होने के आत्म-सुख की अनुभूति नहीं होने देना चाहता। यह बात शायद तुम आज नहीं समझ पाओगे”।

मैं एकदम खामोश बैठा था। वो थोड़ा रुके और फिर बोले, “एक शहर में एक दिन एक जनरल स्टोर का मालिक शाम को अपनी दुकान बंद करने जा रहा था कि उसने देखा एक कुत्ता दुकान के अन्दर घुस आया। उसने नौकर से कुत्ते को बाहर निकालने के लिए कहा। नौकर कुत्ते को बाहर निकाल कर जैसे ही लौटा, वो कुत्ता फिर से दुकान के अन्दर आ गया। मालिक को देखकर हैरानी हुई, उसने देखा कि कुत्ते के गले में एक छोटा थैला लटका हुआ है। वो खुद काउंटर से बाहर निकल कर कुत्ते के पास आया। उसने देखा कुत्ते के मुँह में एक पर्ची दबी थी जिस पर लिखा था “क्या आप कृपया मुझे दो लक्स बाथिंग सोप और एक शैम्पू की बोतल दे सकते हैं? पैसे कुत्ते के मुँह के अन्दर हैं”। दुकानदार ने कुत्ते की ओर देखा तो कुत्ते ने अपना मुँह खोल दिया। दुकानदार ने उसमें से सौ रुपये का नोट निकाला। उसने दो सोप और एक शैम्पू बाकी बचे पैसों के साथ कुत्ते के गले में लटके हुए छोटे थेले के अन्दर रख दिये।

दुकानदार कुत्ते से बहुत प्रभावित हुआ और उसके मन में उसके बारे में और अधिक जानने की जिज्ञासा हुई। वह क्योंकि दुकान बंद करने ही जा रहा था, इसलिए उसने नौकर से दुकान बंद करके चाबी घर पर देने के लिए कहा औए वो खुद उस कुत्ते के पीछे चल पड़ा। कुत्ता दुकान से वापस सड़क पर आया और चौराहे तक चलता रहा। चौराहे पर ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर खड़ा होकर सिग्नल के ग्रीन होने का इंतज़ार करने लगा। हरी बत्ती होने पर वो सड़क पार करके बस स्टॉप पर पहुँचा और उसने बस के टाइमटेबिल पर नज़र ड़ाली। दुकानदार को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ जब उसने देखा कि कुत्ता एक बस में चढ़ा और और एक खाली सीट पर जाकर बैठ गया। दुकानदार कुत्ते के पीछे पीछे चलता रहा। उसने देखा कि कुत्ते ने अपनी सीट पर बैठ कर कंडक्टर के वहाँ पहुँचने का इंतज़ार किया। जव कंडक्टर उसके पास आया तो कुत्ते ने अपनी गर्दन का पट्टा उसके सामने कर दिया। कंडक्टर ने पट्टे में रखे पैसे निकाले और टिकट पट्टे के अन्दर रख दिया।

फिर कुछ देर बाद कुत्ते ने बाहर की ओर देखा और अपनी सीट से उतर कर वो बस के अगले दरवाज़े के पास पहँच गया। उसने ड्राइवर की तरफ अपनी पूँछ हिलायी, ड्राइवर ने बस रोकने के लिए धीमी की और कुत्ता फौरन दरवाज़े से कूद कर पास में ही एक मकान की ओर चल दिया। दुकानदार भी उतर गया और कुत्ते के पीछे चलता रहा। कुत्ते ने एक मकान का लोहे का गेट खोला और वो अन्दर दरवाज़े की तरफ दौड़ पड़ा। जैसे ही वो दरवाज़े पर पहुँचा उसने अपना विचार बदला और घर के गार्डन की ओर चल दिया। वहाँ उसने एक खिड़की पर अपने एक पंजे से खटखटाया और वापस दरवाज़े पर आकर इंतज़ार करने लगा। दुकानदार अपने होश संभाल कर दरवाज़े तक पहुँचा तो उसने देखा कि एक काफी मोटे आदमी ने दरवाज़ा खोला और जैसे ही कुत्ता अन्दर जाने लगा, उस आदमी ने कुत्ते की पिटाई करनी शुरू कर दी। यह देख कर दुकानदार को बहुत आश्चर्य हुआ और वो लपक कर उस आदमी के पास पहुँचा और बोला, “यह आप क्या कर रहे हैं? मैंने इतना चतुर और समझदार कुत्ता आज तक नहीं देखा और आप इसकी पीठ थपथपाने के बजाय उल्टे इसकी पिटाई कर रहे हैं!” वो आदमी बोला, “आप इसे चतुर कह रहे हैं? यह एक हफ्ते में तीसरी बार है जब यह दरवाज़े की चाबी लेकर जाना भूला है”... ”।

नरेन्द्र जी थोड़ा रुके और फिर बोले, “दूसरे छात्र या अन्य लोग जो तुम्हें और तुम्हारी कुशाग्रता व सामर्थ्य को नहीं जानते, उनकी नज़र में तुम्हारी एक मामूली गल्ती नगण्य हो सकती है। उनकी नज़र में तुम्हारा प्रदर्शन असाधारण रूप से श्रेष्ठ हो सकता है, लेकिन मैं जानता हूँ कि तुम क्या हो और तुम्हें कितना आगे जाना है, मैं तुम्हारी मामूली सी गल्ती को भी नज़र-अन्दाज़ नहीं कर सकता। मेरे लिये वो मेरी असफलता है। मैं असफल नहीं होना चाहता। तुम्हें उस कुत्ते के मालिक की तरह मेरी अपेक्षाओं पर खरा उतरना ही होगा”।

तरुण आयु थी तब मेरी, बात जितनी अच्छी थी मैं उतनी अच्छी तरह तो उस समय नहीं समझ पाया, लेकिन जब मैंने देखा कि नरेन्द्र जी की आँखें यह कहते हुए गीली हो गयीं थीं और जब उन्होंने मुझे अपने गले लगा लिया बल्कि चिपटा लिया, तो मेरे भी आँसू बह निकले। उन्होंने मेरे बालों में अपनी उँगलियाँ घुमायीं, मेरे गालों को हल्के से थपथपाया और मुझे वापस क्लास में जाने के लिये कहा।

मैं घर आने पर रात भर उस घटना के बारे में सोचता रहा और परमात्मा से कहा कि मुझे उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने की हिम्मत दे!

बारहवीं पास करने के बाद जब मैंने वो इंटर कॉलेज छोड़ा तो मैं लैब में नरेन्द्र जी को अपनी मार्कशीट दिखाने गया तो उन्होंने बिना कुछ बोले मुझे अपनी बाँहों में भर लिया।

कहा जाता है कि अपेक्षाएं दुखदायी होती हैं, लेकिन मेरे जीवन में मेरी अम्मा, मेरे मामाजी, और नरेन्द्र जी जैसे कुछ पुण्य-आत्मा लोगों की अपेक्षायें हीं थीं जिन्होंने मुझे सिखाया कि अगर श्रेष्ठ होने की सामर्थ्य है तो अच्छा होना पर्याप्त नहीं होता। उनकी अपेक्षाओं ने ही मुझे हमेशा हर काम में अपना सर्वश्रेष्ठ देने का दायित्वबोध दिया।
मैं अपनी भरी आँखों से उनकी स्मृति को प्रणाम करता हूँ।
- राजेन्द्र चौधरी

शुक्रवार, नवंबर 18, 2011

एक अनूठा चुनाव

बहुत पहले की बात है, एक राजा था। राजा जब बूढ़ा होने लगा तो उसने सोचा कि अब अपना उत्तराधिकारी चुनने का समय आ गया है। लेकिन उसने अपने बच्चों, मंत्रियों या सहायकों में से अपना उत्तराधिकारी चुनने के बजाय कुछ अलग सोचा। उसने एक दिन अपनी राजधानी के सभी युवकों को एक नियत स्थान पर बुलाया। उसने कहा, “अब समय आ गया है कि मैं राजगद्दी छोड़ दूँ और अगला राजा चुनूँ। मैंने आप लोगों में से किसी एक को चुनने का निर्णय लिया है”।

सभी युवक आश्चर्यचकित थे, लेकिन राजा ने बोलना जारी रखा। “मैं आज आप लोगों को एक बीज देने जा रहा हूँ। यह बीज एक विशेष प्रकार का बीज है। मैं चाहता हूँ कि आप इस बीज को बोयें, इसे खाद, पानी दें, इसकी देखभाल करें, और आज से ठीक एक वर्ष बाद, आज ही के समय, इसी जगह पर एकत्रित हों और इस एक बीज से आपने जो उगाया हो उसे अपने साथ लेकर आयें। तब आप जो पौधे लेकर आयेंगे, उन्हें देखकर मैं अगले राजा के बारे में निर्णय करूँगा”।

उस दिन उन युवकों में हेनरी नाम का एक युवक भी था और उसने भी दूसरों की तरह एक बीज प्राप्त किया। जब वह घर वापस आया तो बहुत रोमांचित था और उसने अपनी माँ को पूरी घटना सुनायी। अपनी माँ की सहायता से उसने एक उपयुक्त गमला, मिट्टी और खाद खरीदी, फिर उस गमले में वो बीज बोया और उसके लिये नियमित रूप से पानी व धूप का ध्यान रखा। रोजाना वह जब पानी देता तो गौर से देखता कि पौधा उगा या नहीं। लगभग तीन हफ्ते बाद दूसरे युवकों ने अपने बीजों और उनसे उगना शुरू कर चुके पौधों के बारे में बातें करनी शुरू कर दीं।

हेनरी रोज गौर से देखता लेकिन उसके गमले में अभी तक कुछ नहीं उगा था। 3 हफ्ते, 4 हफ्ते, 5 हफ्ते बीत गये लेकिन कुछ नहीं उगा। अब तक दूसरे युवक अपने पौधों के बारे में बातें भी करने लगे थे, लेकिन हेनरी के पास कोई पौधा नहीं था। वह खुद को असफल महसूस करने लगा था। छह महीने बीत गये, अभी भी हेनरी के गमले में कुछ नहीं उगा था। वह जान चुका था कि उसने अपने बीज को नष्ट कर दिया है।

हर किसी के पास बड़े बड़े पौधे थे, लेकिन हेनरी के पास कुछ नहीं था। उसने अपने दोस्तों से कुछ नहीं कहा। वह बस अपने बीज के उगने का इंतज़ार करता रहा।

अंतत: एक वर्ष बीत गया और राजधानी के सभी युवक राजा के निरीक्षण के लिए अपने पौधे लेकर उपस्थित हुए। हेनरी ने अपनी माँ से कहा कि वह अपना खाली गमला लेकर नहीं जायेगा। माँ ने कहा, “जो हुआ उसके प्रति ईमानदार रहो”। हेनरी बहुत दुखी था, हालाँकि वह जानता था कि उसकी माँ सही कह रही है।

वह अपना खाली गमला लेकर उस स्थान पर पहुँचा और दूसरे युवकों के पौधे देखकर हैरान रह गया। सभी के पौधे रंग-रूप और आकार में बहुत सुन्दर थे। उसने अपना खाली गमला फर्श पर रखा तो युवकों ने उसकी हँसी उडायी। कुछ ने तो व्यंग्य भी कसा कि “वाह! क्या खूब कोशिश है तुम्हारी?”

जब राजा वहाँ पहुँचा तो उसने सभी युवकों का स्वागत किया और कहा, “वाह क्या सुन्दर पौधे और फूल आप लोगों ने उगाये हैं! आज आप लोगों में से किसी एक को अगला राजा नियुक्त किया जायेगा”। अचानक राजा की नज़र खाली गमले के साथ पीछे खड़े हेनरी पर पड़ी। राजा ने अपने अंगरक्षक को उसे आगे लेकर आने का आदेश दिया। हेनरी भयभीत हो उठा। “राजा को मालूम है मैं असफल रहा हूँ, वह मुझे सज़ा भी दे सकता है कि मैंने उसके दिये हुए बीज को नष्ट कर दिया”।

जब हेनरी राजा के सामने पहुँचा तो राजा ने उसका नाम पूछा। “मेरा नाम हेनरी है”, उसने उत्तर दिया। दूसरे युवकों ने उसकी हँसी उड़ायी। उसने सबको शांत रहने का आदेश दिया, फिर हेनरी की तरफ देखा और घोषणा की, “अपने नये राजा को ध्यान से देखिये! उसका नाम हेनरी है!” हेनरी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। बाकी युवक भी हैरान थे, “हेनरी तो अपने बीज को उगा तक नहीं पाया, फिर वह राजा कैसे चुना जा सकता है?”

तब राजा ने कहा, “एक वर्ष पहले मैंने आज ही के दिन आप सब लोगों को एक-एक बीज दिया था और कहा था कि आप इस बीज को बोयें, इसे खाद, पानी दें, इसकी देखभाल करें, और ठीक एक वर्ष बाद जो कुछ उगा हो उसे साथ लेकर एकत्रित हों। लेकिन मैंने आप सब लोगों को उबले हुए बीज दिये थे जो उग नहीं सकते थे। हेनरी के अलावा आप सभी लोग मेरे पास फूलों से लदे हुए बड़े बड़े पौधे लेकर उपस्थित हुए हैं। जब आपने देखा कि जो बीज मैंने दिया था वो नहीं उगा तो आपने बीज बदल दिया। हेनरी अकेला ऐसा युवक है जो ईमानदारी के साथ अपना खाली गमला लेकर आने का साहस दिखा पाया। इसलिए, यही वह उपयुक्त व्यक्ति है जो अगला राजा होगा”।

याद रखें:
अगर आप ईमानदारी रोपेंगे, तो विश्वास पायेंगे। अगर आप भलाई रोपेंगे, तो दोस्त पायेंगे।
अगर आप विनम्रता रोपेंगे, तो महानता पायेंगे।
अगर आप अध्यवसाय (अथक प्रयास करते रहना) रोपेंगे, तो विजय पायेंगे। अगर आप सोच-विचार रोपेंगे, तो तालमेल पायेंगे।
अगर आप परिश्रम रोपेंगे, तो सफलता पायेंगे।
अगर आप क्षमा रोपेंगे, तो मेल-मिलाप पायेंगे।
अगर आप खुलापन रोपेंगे, तो घनिष्ठता पायेंगे।
अगर आप धैर्य रोपेंगे, तो सुधार पायेंगे।
अगर आप आस्था रोपेंगे, तो चमत्कार पायेंगे।
लेकिन...
अगर आप बेईमानी रोपेंगे, तो अविश्वास पायेंगे।
अगर आप स्वार्थपरता रोपेंगे, तो अकेलापन पायेंगे।
अगर आप अभिमान रोपेंगे, तो विनाश पायेंगे।
अगर आप ईर्ष्या रोपेंगे, तो मुसीबत पायेंगे।
अगर आप आलस्य रोपेंगे, तो गतिहीनता पायेंगे।
अगर आप कड़वाहट रोपेंगे, तो अलगाव पायेंगे।
अगर आप असंयम रोपेंगे, तो अस्वस्थता पायेंगे।
अगर आप लालच रोपेंगे, तो नुकसान पायेंगे।
अगर आप चुगली रोपेंगे, तो दुश्मन पायेंगे।
अगर आप चिंतायें रोपेंगे, तो झुर्रियां पायेंगे।
अगर आप पाप रोपेंगे, तो अपराध-भाव पायेंगे।

इसलिए आप जो आज बो या रोप रहे हैं, उसके प्रति सावधानी बरतें क्योंकि वही निर्धारित करेगा कि आपको कल क्या मिलने वाला है। जो बीज आप आज बिखेरेंगे वो ही आपकी या आपके बाद आने वालों की ज़िन्दगी को बेहतर या बदतर बनायेंगे। निश्चित जानिये, किसी दिन आप या तो अपने द्वारा चुने गये विकल्पों का सुफल पायेंगे या उनकी कीमत चुकायेंगे।
- राजेन्द्र चौधरी