जब हम पहली बार मिले थे, तुम 18 वर्ष की थीं। मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुम्हारा चेहरा शर्म से लाल हो गया था...तुमने सिर झुका लिया था और तुम मुस्कुरा दीं थीं...
जब हमारी शादी हुई थी, तुम 21 वर्ष की थीं। मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने मेरे कँधे पर अपना सिर रख दिया था और मेरा हाथ थाम लिया था...मानो तुम्हें डर था कि मैं कहीं गायब न हो जाऊँ...
जब तुम 24 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने नाश्ता बनाया और मुझे नाश्ता देते समय मेरा माथा चूमते हुए कहा, “ज़ल्दी नाश्ता करो, तुम्हें देर हो रही है...”
जब तुम 27 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने कहा, “अगर तुम वाकई मुझे प्यार करते हो, तो काम खत्म करके ऑफिस से ज़ल्दी आना...”
जब तुम 30 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने डाइनिंग टेबल साफ करते हुए कहा, “ठीक है, लेकिन इस वक़्त बेटे को मैथ्स का रिविजन कराओ प्लीज...”
जब तुम 33 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुम स्वेटर बुन रही थीं और मेरी तरफ देख कर हँस पड़ी थीं...
जब तुम 36 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुम सुन कर बस धीरे से मुस्कुरा दी थीं...
जब तुम 40 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने कहा, “हमारा बेटा शनिवार को घर आ रहा है; चलो बाज़ार से उसके लिए कुछ खरीद कर लाते हैं...”
जब तुम 46 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने कहा, “हमारे बेटे की अगले महीने शादी है, तुम्हें बहुत तैयारियां करनी हैं...”
जब तुम 50 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने कहा, “एक अच्छी खबर है! ईश्वर ने चाहा तो हम ज़ल्दी ही दादा-दादी बनने वाले हैं...”
जब तुम 55 वर्ष की थीं, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने मुस्कुरा कर कहा, “अब हम दादा-दादी बन चुके हैं और अगले ही महीने घर में एक और पोता या पोती के आने की उम्मीद है...”
आज जब तुम 59 वर्ष की हो, मैंने कहा, “आई लव यू...”
तुमने कहा, “बहुत सर्दी है, जरा मुझे गर्म पानी की बोतल भर कर देना प्लीज...”
मैं अभी भी इंतज़ार में हूँ कि तुम कहो “आई लव यू...”
मुझे यह भी नहीं पता कि उस क्षण मेरी क्या प्रतिक्रिया होगी, हाँ इतना ज़रूर जानता हूँ कि तुम्हारा ऐसा कहना मेरी आँखें नम कर जायेगा...
इससे पहले कि बहुत देर हो जाये, प्लीज कहो न “आई लव यू...”
यह मेरी कहानी थी। मैं नहीं चाहता कि आपमें से कोई भी इसे दोहराये। हम बाहरी दुनिया से कितनी शिष्टता और शालीनता से पेश आते हैं, फिर अपनों के साथ अपनेपन के शब्द क्यों नहीं बोलते। आपसे “आई लव यू” सुनने के वे सच्चे अधिकारी हैं। आपके रहने या न रहने से वे ही सबसे अधिक प्रभावित होंगे। देरी मत कीजिये, हो सकता है कल आप कहें और सुनने वाला न रहे।
- राजेन्द्र चौधरी
शनिवार, जनवरी 21, 2012
शनिवार, जनवरी 14, 2012
यह जो घर है...
यह जो घर है...
हाँ यही ‘संस्कार’ नाम का जो घर है हमारा
मकान की नज़रों से देखो तो मामूली सा, छोटा सा
वक़्त के साथ कहीं कहीं से बदरंग, कहीं से उघड़ा सा
हाँ यही...जिसमें अब मैं और मेरी पत्नी ही रहते हैं
यह और बात है कि इसके कोने कोने में
न जाने कितनी यादों के झरने बहते हैं
अभी तक साँस लेती है इसकी नींव में रखी
वो पहली गीली ईंट जो मेरे पिताजी ने रखी थी
और मंत्रोच्चार के बीच अम्मा की आँखों से
खुशी का टपका वो कीमती आँसू, आँसू कहाँ था
उस नींव की ईंट पर उनके आशीष का अभिषेक था
उस आँसू से ही ‘संस्कार’ नाम उपजा था
यह मेरा मकान कहाँ था...
यह तो उनकी वंश बेल का घर था, प्यार का अतिरेक था
इसमें आज भी ज़िन्दा है उनके बनाये मीठे पुओं की खुश्बू
उनके आँचल की हवा आज भी इसमें सरसराती है
मैं सर्दियों में जब भी ऊनी कुर्ता और जैकेट पहनता हूँ
बड़े अदब से, बड़े सलीके से पहनता हूँ...
उनमें पिताजी के अनुशासन की याद आती है
गर्मियों में आज भी इसकी छत पर
मेरे बहनोई, मेरे भाई की यादें गुनगुनाती हैं
वो अब शायद सितारों को अपने किस्से सुनाती हैं
इसका बांयी ओर वाला बेडरूम आज भी
चाचाजी का कमरा कहलाता है
यादें परलोक नहीं जातीं, आदमी चला जाता है
इसकी बैठक के पर्दे जब पुराने पड़ गये
तो मेरी पत्नी ने उन्हें फेंका नहीं सहेज के रखा है
वो मेरी छोटी बहन ने लगाये थे
उसके प्यार को संदूक में समेट के रखा है
इस घर की छत, इसकी दीवारें, इसका आँगन
अपने आप में एक पूरा वंश सम्भाले हैं
इन्होंने सिर्फ इस घर का बेटा ही नहीं पाला
इस घर का भांजा, भतीजी, भतीजे पाले हैं
वक़्त के साथ आज सब आगे बढ़ गये हैं
आज इसमें बस मैं और मेरी पत्नी ही रह गये हैं
सबके अपने ठिकाने हैं, सबकी अपनी मजबूरियां हैं
न चाह कर भी फासले हैं, न चाह कर भी दूरियां हैं
हम दोनों की उम्र भी पक गयी, हम भी दादा-दादी हो गये
बेटा बम्बई जा बसा, बच्चे बम्बई वाले हो गये
साल में एक आध बार आते हैं, घर चहक उठता है
अम्मा-पिताजी के संस्कार का चमन महक उठता है
हम दोनों भी हर साल दो बार बच्चों के पास जाते हैं
दोनों पोतों के साथ बुढापे में अपना बचपन बिताते हैं
खुदा की मेहर है, सब कुछ है, यूँ तो मलाल कुछ भी नहीं
प्यार है, एका है, इज़्ज़त है, खुशी है, बदहाल कुछ भी नहीं
पर कुछ दिनों से अजीब दुविधा है, जानता हूँ पर कह नहीं पाता
न जाने क्यूं मैं अब कहीं भी कुछ हफ्तों से ज्यादा रुक नहीं पाता
जब घर वापस आता हूँ तो इसकी दीवारें नाराज़ लगती हैं
अम्मा पिताजी की टंग़ी तस्वीरें उदास लगती हैं
धूल बंद दरवाज़े से भी जाने कैसे आकर उनपे जम जाती है
जब भी वापस आता हूँ दीवार पे लगी घड़ी थम जाती है
मैं अम्मा पिताजी की तस्वीरों पे चढ़ी धूल से घबराता हूँ
मैं बंद घड़ी देख कर अन्दर से डर जाता हूँ
मुझे धूल चढ़ी तस्वीरें, अँधे आइने, बंद घड़ी,
कोनों के जाले, सूखे पौधे बहुत ड़राते हैं
मुझसे देखा नहीं जाता घर का लहज़ा उखड़ता हुआ
मेरे ही सामने रिश्तों के ख्वाब बिखरे हैं
मैंने बहुत करीब से देखा है पुश्तैनी घर उजड़ता हुआ
यह घर मुझसे बातें करता है, मेरे साथ मुस्कुराता है
थक जाऊँ तो थपकी देकर सुलाता है, सबेरे फिर उठाता है
इसमें अम्मा पिताजी मुझको देखते से लगते हैं
मानो मैं नहीं होता, तो वो मेरी राह तकते हैं
कहने को तो इसमें...
बस अब मैं और मेरी पत्नी ही रहते हैं
पर हम दोनों ही इस घर के मकान हो जाने से ड़रते हैं
यह जो मेरा, तुम्हारा, सबका घर है हमारा
हाँ यही ‘संस्कार’ नाम का जो घर है हमारा॥
- राजेन्द्र चौधरी
हाँ यही ‘संस्कार’ नाम का जो घर है हमारा
मकान की नज़रों से देखो तो मामूली सा, छोटा सा
वक़्त के साथ कहीं कहीं से बदरंग, कहीं से उघड़ा सा
हाँ यही...जिसमें अब मैं और मेरी पत्नी ही रहते हैं
यह और बात है कि इसके कोने कोने में
न जाने कितनी यादों के झरने बहते हैं
अभी तक साँस लेती है इसकी नींव में रखी
वो पहली गीली ईंट जो मेरे पिताजी ने रखी थी
और मंत्रोच्चार के बीच अम्मा की आँखों से
खुशी का टपका वो कीमती आँसू, आँसू कहाँ था
उस नींव की ईंट पर उनके आशीष का अभिषेक था
उस आँसू से ही ‘संस्कार’ नाम उपजा था
यह मेरा मकान कहाँ था...
यह तो उनकी वंश बेल का घर था, प्यार का अतिरेक था
इसमें आज भी ज़िन्दा है उनके बनाये मीठे पुओं की खुश्बू
उनके आँचल की हवा आज भी इसमें सरसराती है
मैं सर्दियों में जब भी ऊनी कुर्ता और जैकेट पहनता हूँ
बड़े अदब से, बड़े सलीके से पहनता हूँ...
उनमें पिताजी के अनुशासन की याद आती है
गर्मियों में आज भी इसकी छत पर
मेरे बहनोई, मेरे भाई की यादें गुनगुनाती हैं
वो अब शायद सितारों को अपने किस्से सुनाती हैं
इसका बांयी ओर वाला बेडरूम आज भी
चाचाजी का कमरा कहलाता है
यादें परलोक नहीं जातीं, आदमी चला जाता है
इसकी बैठक के पर्दे जब पुराने पड़ गये
तो मेरी पत्नी ने उन्हें फेंका नहीं सहेज के रखा है
वो मेरी छोटी बहन ने लगाये थे
उसके प्यार को संदूक में समेट के रखा है
इस घर की छत, इसकी दीवारें, इसका आँगन
अपने आप में एक पूरा वंश सम्भाले हैं
इन्होंने सिर्फ इस घर का बेटा ही नहीं पाला
इस घर का भांजा, भतीजी, भतीजे पाले हैं
वक़्त के साथ आज सब आगे बढ़ गये हैं
आज इसमें बस मैं और मेरी पत्नी ही रह गये हैं
सबके अपने ठिकाने हैं, सबकी अपनी मजबूरियां हैं
न चाह कर भी फासले हैं, न चाह कर भी दूरियां हैं
हम दोनों की उम्र भी पक गयी, हम भी दादा-दादी हो गये
बेटा बम्बई जा बसा, बच्चे बम्बई वाले हो गये
साल में एक आध बार आते हैं, घर चहक उठता है
अम्मा-पिताजी के संस्कार का चमन महक उठता है
हम दोनों भी हर साल दो बार बच्चों के पास जाते हैं
दोनों पोतों के साथ बुढापे में अपना बचपन बिताते हैं
खुदा की मेहर है, सब कुछ है, यूँ तो मलाल कुछ भी नहीं
प्यार है, एका है, इज़्ज़त है, खुशी है, बदहाल कुछ भी नहीं
पर कुछ दिनों से अजीब दुविधा है, जानता हूँ पर कह नहीं पाता
न जाने क्यूं मैं अब कहीं भी कुछ हफ्तों से ज्यादा रुक नहीं पाता
जब घर वापस आता हूँ तो इसकी दीवारें नाराज़ लगती हैं
अम्मा पिताजी की टंग़ी तस्वीरें उदास लगती हैं
धूल बंद दरवाज़े से भी जाने कैसे आकर उनपे जम जाती है
जब भी वापस आता हूँ दीवार पे लगी घड़ी थम जाती है
मैं अम्मा पिताजी की तस्वीरों पे चढ़ी धूल से घबराता हूँ
मैं बंद घड़ी देख कर अन्दर से डर जाता हूँ
मुझे धूल चढ़ी तस्वीरें, अँधे आइने, बंद घड़ी,
कोनों के जाले, सूखे पौधे बहुत ड़राते हैं
मुझसे देखा नहीं जाता घर का लहज़ा उखड़ता हुआ
मेरे ही सामने रिश्तों के ख्वाब बिखरे हैं
मैंने बहुत करीब से देखा है पुश्तैनी घर उजड़ता हुआ
यह घर मुझसे बातें करता है, मेरे साथ मुस्कुराता है
थक जाऊँ तो थपकी देकर सुलाता है, सबेरे फिर उठाता है
इसमें अम्मा पिताजी मुझको देखते से लगते हैं
मानो मैं नहीं होता, तो वो मेरी राह तकते हैं
कहने को तो इसमें...
बस अब मैं और मेरी पत्नी ही रहते हैं
पर हम दोनों ही इस घर के मकान हो जाने से ड़रते हैं
यह जो मेरा, तुम्हारा, सबका घर है हमारा
हाँ यही ‘संस्कार’ नाम का जो घर है हमारा॥
- राजेन्द्र चौधरी
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