रविवार, दिसंबर 18, 2011

विज्ञान और भगवान

दर्शनशास्त्र के एक नास्तिक प्रोफेसर कक्षा में बता रहे थे कि विज्ञान के सामने सबसे बड़ी समस्या अगर कोई रही है तो वो है भगवान, तथाकथित सर्वशक्तिमान ईश्वर। उन्होंने एक नये छात्र से खड़ा होने के लिए कहा और पूछा...

प्रोफेसर: तो तुम भगवान में विश्वास करते हो?

छात्र: जी बिल्कुल।

प्रोफेसर: क्या भगवान अच्छा है?

छात्र: निश्चित रूप से।

प्रोफेसर: क्या भगवान सर्वशक्तिमान है?

छात्र: जी हाँ।

प्रोफेसर: मेरा भाई कैंसर से मर गया, हालाँकि उसने ठीक होने के लिए भगवान से बहुत प्रार्थना की। हममें से अधिकतर लोग बीमार लोगों की मदद करने की कोशिश करते हैं, लेकिन भगवान ने मदद नहीं की। तो फिर भगवान कैसा हुआ?

(छात्र चुप खड़ा रहा)

प्रोफेसर: तुम्हारे पास कोई जवाब नहीं है, क्या कोई जवाब है? चलिये फिर से शुरू करते हैं। क्या भगवान अच्छा है?

छात्र: जी हाँ।

प्रोफेसर: क्या शैतान अच्छा है?

छात्र: जी नहीं।

प्रोफेसर: शैतान किसने बनाया?

छात्र: भगवान ने।

प्रोफेसर: बिल्कुल ठीक! अब मुझे बताओ कि क्या दुनिया में बुराई है?

छात्र: जी बिल्कुल है।

प्रोफेसर: तो बुराई किसने पैदा की?

(छात्र कोई उत्तर नहीं देता)

प्रोफेसर: क्या दुनिया में बीमारी है? अनैतिकता है? बदसूरती है? ये सब भयानक चीजें दुनिया में मौजूद हैं या नहीं हैं?

छात्र: जी मौजूद हैं।

प्रोफेसर: तो ये सब चीजें किसने पैदा कीं?

(छात्र कोई उत्तर नहीं देता)

प्रोफेसर: विज्ञान कहता है कि हमारे पास पाँच इन्दियां हैं, हम इनका इस्तेमाल अपने आसपास की दुनिया को देखने, पहचानने के किए करते हैं। अब मुझे बताओ ...क्या तुमने भगवान को कभी देखा है?

छात्र: जी नहीं।

प्रोफेसर: क्या तुमने कभी अपने भगवान को सुना है?

छात्र: जी नहीं।

प्रोफेसर: क्या तुमने अपने भगवान को महसूस किया है, उसको चखा है, सूँघा है? क्या कभी तुम्हारी संवेदी इन्द्रियों को उसका बोध हुआ है?

छात्र: मुझे अफसोस है सर! कि ऐसा कभी नहीं हुआ।

प्रोफेसर: फिर भी तुम भगवान में विश्वास रखते हो?

छात्र: जी हाँ।

प्रोफेसर: अनुभूति, परीक्षण और प्रदर्शन सिद्ध प्रोटोकॉल के आधार पर विज्ञान कहता है कि तुम्हारे भगवान को कोई अस्तित्व नहीं है। तुम्हारा इस बारे में क्या कहना है?

छात्र: कुछ नहीं। मुझे सिर्फ आस्था है।

प्रोफेसर: आस्था? बस विज्ञान के लिए सबसे बड़ी समस्या यही है। तुम लोगों को जब कोई विज्ञान या तर्क आधारित जवाब नहीं मिलता तो बस इस शब्द ‘आस्था’ की आड़ ले लेते हो।

छात्र: सर क्या उष्मा या गर्मी जैसी कोई चीज है?

प्रोफेसर: हाँ।

छात्र: और क्या ठंड जैसी कोई चीज है?

प्रोफेसर: हाँ।

छात्र: नहीं सर! ऐसा नहीं है।

(स्थिति के बदलने पर कक्षा के सभी छात्र पूरी तरह शांत और उत्सुक हो गये।)

छात्र: सर! आपके पास बहुत उष्मा हो सकती है, उससे भी अधिक उष्मा हो सकती है, सुपर उष्मा हो सकती है, मेगा उष्मा हो सकती है, थोड़ी उष्मा हो सकती है या उष्मा नहीं भी हो सकती है, लेकिन आप इससे और आगे नहीं जा सकते हैं। ठंड जैसी कोई चीज नहीं होती। ठंड केवल एक शब्द है, हम इसका इस्तेमाल उष्मा की अनुपस्थिति बताने के लिए करते हैं। हम ठंड को नाप नहीं सकते हैं। उष्मा ऊर्जा है। ठंड उष्मा का विलोम नहीं है सर! ठंड उष्मा की अनुपस्थिति है।

(कक्षा में सन्नाटा छा जाता है।)

छात्र: अँधेरे के बारे में आपका क्या ख्याल है सर! क्या अँधेरा नाम की कोई चीज है?

प्रोफेसर: हाँ। अगर अँधेरा नहीं होता तो फिर रात क्या होती है?

छात्र: सॉरी सर! आप फिर गलत हैं। अँधेरा किसी चीज की अनुपस्थिति है। आपके पास रोशनी हो सकती है, बहुत अधिक रोशनी हो सकती है, चमकीली या बहुत चमकीली रोशनी हो सकती है, सामान्य रोशनी हो सकती है, कम रोशनी हो सकती है... लेकिन अगर आपके पास लगातार कोई रोशनी नहीं है, तो उसे अँधेरा कहा जाता है। है ना सर? वास्तविकता में अँधेरा कुछ नहीं है। अगर अँधेरा जैसी कोई चीज होती तो आप उसे बढ़ा भी सकते थे। है ना सर! बढ़ा सकते थे न?

प्रोफेसर: ठीक है, लेकिन तुम कहना क्या चाह रहे हो?

छात्र: सर! मेरा कहना यह है कि आपका यह दार्शनिक आधार दोषपूर्ण है।

प्रोफेसर: दोषपूर्ण? क्या तुम मुझे समझा सकते हो कि यह किस तरह दोषपूर्ण है?

छात्र: सर! आप दोहरेपन के आधार पर काम कर रहे हैं। आप तर्क देते हैं कि जीवन है, और फिर कहते हैं कि मृत्यु भी है, अच्छा भगवान है और बुरा भगवान है। आप भगवान को एक परिमित यानि सीमाबद्ध धारणा के रूप में देख रहे हैं, ऐसी चीज जिसे हम माप सकते हैं। सर! विज्ञान विचार की व्याख्या नहीं कर सकता है। विचार वस्तुत: क्या होता है, यह विज्ञान नहीं समझा सकता है। विज्ञान विद्युत और चुम्बकत्व का प्रयोग करता है लेकिन इसने कभी भी उन्हें देखा नहीं है, उन्हें पूरी तरह से अभी तक समझा भी नहीं है।

मृत्यु को जीवन के विलोम या उसके विपरीत के रूप मॆं देखना इस बात से अनजान होना है कि मृत्यु का अपना कोई स्वाधीन अस्तित्व नहीं होता। मृत्यु जीवन का विलोम नहीं, जीवन की अनुपस्थिति है। सर! अब मुझे बतायें कि क्या आप अपने छात्रों को बताते हैं कि मनुष्य की उत्पत्ति और उसका विकास बन्दर से हुआ है?

प्रोफेसर: अगर तुम्हारा मतलब मनुष्य के सम्बन्ध में प्राकृतिक विकासमूलक प्रक्रिया से है, तो हाँ मैं ऐसा बताता हूँ।

छात्र: क्या कभी आपने इस प्रक्रिया को अपनी आँखों से देखा है?

(प्रोफेसर मुस्कुरा कर अपना सिर हिलाते हैं और समझ जाते हैं कि यह बहस किस दिशा में जा रही है।)

छात्र: चूँकि हममें से किसी ने भी इस प्रक्रिया को होते नहीं देखा है और हम यह भी सिद्ध नहीं कर सकते हैं कि यह प्रक्रिया निरंतर चल रही है, इसलिए सर! क्या आप प्रोफेसर होने के नाते अपनी निजी राय नहीं थोप रहे हैं?

(कक्षा में सारे छात्र हँसने लगते हैं।)

क्या कक्षा में कोई ऐसा छात्र है जिसने प्रोफेसर सर का मस्तिष्क देखा हो?

(छात्र ठहाका लगाने लगते हैं।)

छात्र: क्या कक्षा में कोई ऐसा छात्र है जिसने प्रोफेसर सर के मस्तिष्क को सुना हो, छुआ हो, महसूस किया हो या सूँघा हो? चूँकि निश्चित रूप से किसी ने भी ऐसा नहीं किया है, इसलिए अनुभूति, परीक्षण और प्रदर्शन सिद्ध स्थापित प्रोटोकॉल के आधार पर विज्ञान कहता है कि आपके पास कोई मस्तिष्क नहीं है सर! मुझे यह कहने के लिए क्षमा करें सर! लेकिन ऐसा है तो हम आपकी बात ध्यान से क्यों सुनें? आपकी शिक्षा ग्रहण क्यों करें?

(कक्षा में खामोशी पसर जाती है। प्रोफेसर एक टक छात्र को देखते रहते हैं, उनके चेहरे से सारे भाव गायब हो जाते हैं।)

प्रोफेसर: मेरे विचार से आप लोगों को मुझ पर विश्वास करना चाहिये। मुझ पर विश्वास के कारण मेरी शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये।

छात्र: आपने बिल्कुल सही कहा सर! बस, यह विश्वास, यह आस्था ही आदमी और भगवान के बीच की कड़ी है। बस आस्था ही है जिससे दुनिया चल रही है, जीवित है। विज्ञान भगवान का विरोधी नहीं है क्योंकि विज्ञान इंसान विरोधी नहीं है। अन-आस्था इंसानियत विरोधी है। अन-आस्था भगवान विरोधी है।

आस्था और विश्वास महत्वपूर्ण हैं। और ध्यान रखें आस्था अलग है, धर्म अलग है। धर्म समाज और स्थितियों को ध्यान में रख कर व्यवस्था के लिए स्थापित की गयीं कुछ विशेष प्रथाओं व मान्यताओं का समुच्चय मात्र है। धर्म मानव-निर्मित है। आस्था प्रकृति प्रदत्त मनोभाव है, उसमें कोई शर्त नहीं होती, कोई स्वार्थ नहीं होता, कोई सीमा या पाबन्दी नहीं होती। हाँ अन्धी आस्था से बचिये। विवेकशील बनिये! ईश्वर मेरे, आपके, हम सबके अन्दर है, उसे कहीं अन्यत्र खोजने की आवश्यकता नहीं है। स्वयं को पहचानिये! आप ईश्वर का अंश हैं। इस बोध के प्रति उत्तरदायी आचरण हम सबसे अपेक्षित है। दुनिया के धर्मों, जातियों के भुलावे में मत बंटिये।

“न तेरा खुदा कोई और है,
न मेरा खुदा कोई और है,
ये जो रास्ते हैं जुदा-जुदा,
यह मुआमला कोई और है।”

- राजेन्द्र चौधरी